Last Updated on August 23, 2019 by admin
महाभिक्षु महेन्द्र की शिक्षाप्रद कहानी :
साम्राज्य विस्तार के लिए किए गये कलिंग आक्रमण में सम्राट अशोक की सेनाओं ने एक लाख लोगों का वध कर दिया । रणक्षेत्र लाशों से पट गया । घायलों का करुण चीत्कार सुनकर अशोक बाहर आया और देखी अपनी एक छोटी-सी इच्छा पूर्ति के लिए यह विनाश लीला ।
हृदय द्रवीभूत हो उठा । वह पश्चाताप की अग्नि में झुलसने लगा । उसका हृदय करुणा से द्रवीभूत हो उठा और वह विचार करने लगा कि मनुष्यों को मारकर अधिकार और राज्य लिप्सा के लिए किसी जाति या भू-भाग को जीतना सच्ची विजय नहीं है । विजय तो आत्मा की वस्तु है और वह आत्मा के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है ।
अशोक ने तत्क्षण राज्य की सीमाएँ बढ़ाने के लिए शस्त्रों का प्रयोग न करने का निश्चय कर लिया। उन्हें लोक सेवा और भूतदया के सिद्धान्तों पर आधारित क्रियाकलाप ही विजय का वास्तविक मार्ग दिखाई पड़ा । अशोक ने संकल्प लिया कि इन्हीं साधनों को अपनाकर वह अपना प्राप्तव्य पायेंगे ।
दिग्विजय धर्म विजय में परिणत हो गई । भेरी-घोष धर्म-घोष में बदल गया । सम्राट अशोक ने राज-भवन की समग्र सम्पदा लोक कल्याण में लगा दी और शक्ति को नियोजित कर दिया धर्म प्रचार में, विद्वानों तथा सन्त-महापुरुषों ने भी अशोक को देवताओं का प्रिय और प्रियदर्शी कहकर सम्बोधित किया ।
आत्मिक विभूतियों से सम्पन्न सम्राट अशोक के सात्विक जीवन का प्रभाव उनके पुत्र महेन्द्र पर भी पड़ा । राज-दरबार में भिक्षुओं का आगमन, उनकी निस्पृह दृष्टि और गहन गम्भीर वाणी ने राजपुत्र महेन्द्र को अत्यधिक प्रभावित किया । आखिर एक दिन पूछ ही बैठा पीत वस्त्र धारण किए एक भिक्षु के सम्बन्ध में जो राजा से मन्त्रणा कर रहा था ।
‘पिताजी ! आपका परिचय ? ‘
‘बेटा ! ये हैं पूज्य महास्थविर मोग्गालि पुत्र पुत्तत्तिस । अपने राज्य की प्रजा को आत्म-कल्याण के मार्ग में प्रवृत्त करने के लिए इन्होंने समूचा जीवन संघ को समर्पित कर दिया है।’
‘संघ क्या होता है देव !’- महेन्द्र ने फिर प्रश्न किया ।
‘तात् ! धर्म प्रचारक बनने के लिये सभा । जो लोग निस्सार लौकिक आकर्षण और ऐषणाओं का त्याग कर प्रव्रज्या लेते हैं, उनके समूह का नाम संघ है।’
इस बात का उत्तर दिया महास्थविर ने ।
मैं भी धर्म का सगा बनना चाहता हूँ । देव ! क्या मुझे भी प्रव्रज्या मिलेगी ?
महेन्द्र ने बड़े उत्साह के साथ कहा।
नहीं बेटा ! अभी लोकोपभोग के योग्य हो तुम । खूब खाओ, पीओ और मौज करो ।’
महात्यागी अशोक को भी पुत्र मोह तो था ही । उसने मना किया । परन्तु पुत्र ने अपने पिता से भी एक कदम आगे बढ़कर यह मोह तोड़ दिया ।
राजपुत्र बोले- ‘सांसारिक सुख की निस्सारिता को समझकर कौन बुद्धिमान उन्हें भोग कर अपना समय नष्ट करना चाहेगा ?’.
सोलह वर्ष के किशोर ने इस उत्तर से महास्थविर सहित अशोक और माता देवी को हतप्रभ कर दिया । महास्थविर बोले- ‘राजन ! लगता है महेन्द्र के रूप में तथागत का ही अवतरण हुआ है । शायद यही आगे चलकर लुप्त हो रही बुद्ध वाणी का जयघोष करेगा ।
अपने विचार का समर्थन पाकर महेन्द्र ने एक बार पुन: उत्साह के साथ कहा-
‘देव ! यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं आज ही प्रव्रज्या ग्रहण कर लूँ । प्रव्रजित होने से मेरा और आपका दोनों का ही कल्याण है ।
‘ठीक है बेटा ! महाभिक्षु जैसा परामर्श दें ।’ और महाभिक्षु ने निर्णय दिया- “प्रव्रजित होने के लिए किसी भी व्यक्ति को बीस वर्ष से कम का नहीं होना चाहिए।” तब तक घर में ही माता-पिता के सान्निध्य में रहकर आत्म साधना का निर्देश हुआ ।
चार वर्ष तक राजपुत्र महेन्द्र ने माता-पिता के साथ रहकर जीवन को प्रव्रज्या के अनुरूप बनाया । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य की नियमपूर्वक साधना, साथ-साथ मद्य, माँस, कोमल शैया, नृत्य-गायन, सुगन्धित द्रव्य, कामिनी-काञ्चन और असमय भोजन के त्याग की प्रव्रज्योचित साधना का अनुष्ठान भी निष्ठापूर्वक किया ।
वय की बीसवीं-इक्कीसवीं सन्धि वेला में महास्थविर ने राजपुत्र महेन्द्र को प्रव्रज्या दी । साथ में महेन्द्र की कनिष्ठ भगिनी भी तथागत की अनुचरी बन गई और दोनों भाई-बहिन भारत भर का भ्रमण करते रहे । जब उन्होंने तैतीस वर्ष की जीवन वेला पा कर ली तो एक दिन महास्थविर ने दोनों भाई-बहिनों को आमन्त्रित कर कहा- ‘इस समय सिंहल (अब लंका ) वासियों को भगवान बुद्ध की वाणी विस्मृत होती जा रही है, उन्हें अनुस्मरण कराने के लिए तुम दोनों को ही जाना होगा।’
सद्ज्ञान के प्रचार-प्रसार की जहाँ भी आवश्यकता हो लोक सेवा के लिए व्रतनिष्ठ जन सदैव तैयार रहते हैं । महेन्द्र और संघमित्रा ने तुरन्त सहमति दे दी । जल मार्ग की बाधाओं तथा सिंहल नरेश की नीतियों से उन्हें अवगत करा दिया गया ।
महाभिक्षु की तथा उपस्थित स्थविरों की वन्दना कर महेन्द्र और संघमित्रा सिंहल अभियान पर चल दिये । उनके पिता ने सांस्कृतिक दिग्विजय का जो स्वप्न देखा था उसी दिशा में महेन्द्र के चरण बढ़े थे । धर्म विजय के लिए तत्पर अशोक को इस अवसर पर आमन्त्रित किया गया । अपने पुत्र को देखे गये स्वप्न साकार करने के लिए उत्साहपूर्वक जाता देख अशोक के नेत्र सजल हो उठे । पिता के चरणों में प्रणाम कर महेन्द्र और संघमित्रा नौका में जा बैठे । अशोक के साथ राजमाता देवी भी आयी थीं।
कुछ लोगों का उनकी समुद्र यात्रा के सम्बन्ध में मत-भेद अवश्य है, परन्तु अधिकांश विद्वानों ने इसी यात्रा को प्रामाणिक माना है । बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार महेन्द्र और संघमित्रा की यह यात्रा निरापद नहीं रही । मार्ग में तूफान आया । नाविक ने लौट चलने के लिए कहा परन्तु महेन्द्र को बीच मार्ग से ही वापस आ जाना न तो उचित लगा और न ही स्वीकार्य हुआ ।
तूफान में उनकी नाव उलट गई । भारत के तट से अभी दूर नहीं पहँचे थे फिर भी महेन्द्र ने लौट जाना अनुचित ही समझा । जिस अभियान के लिए वे आगे बढ़े हैं, उसे पूरा किए बिना ही वापस चले आना तो मानवोचित नहीं है । लाख बाधाएँ क्यों न हों शूरवीर ‘कार्य साधयेत् वा पातयेत देह’ के सिद्धान्त का ही अनुसरण करते हैं । नाविक तो तैर कर वापस आ गया किन्तु संघमित्रा और महेन्द्र सिंहल की दिशा में ही बढ़ने लगे।
सौभाग्य से कुछ दूरी पर ही उन्हें उलटी हुई नाव भी मिल गई जिसमें बैठकर उन्होंने अपनी यात्रा पूरी कर ली ।
लंका की भूमि पर चरण रखते ही दोनों भाई-बहिन ने भगवान् बुद्ध की आरती-वन्दना की और आगे बढ़े । नगर तक पहुँचने के लिए समुद्र तट से वहाँ तक वनों में होकर गुजरना पड़ता था ।
रास्ते में उन्हें किसी वन्य पशु के रक्त की ताजी बूदें दिखाई दी । महेन्द्र का हृदय पशु की पीड़ा का अनुमान लगाकर ही कातर हो उठा और वे अपनी बहिन के साथ उसी दिशा में चल दिए । कुछ दूर तक चलने के बाद उन्होंने देखा एक हिरण किसी शिकारी द्वारा छोड़े गये बाण से घायल हुआ तड़प रहा है । महेन्द्र ने आसपास से वनौषधियाँ ढूँढ़ कर उसकी चिकित्सा की ।
तभी वह शिकारी पुरुष भी आ पहुँचा जिसके बाण का निशाना वह मृग बना था । महेन्द्र ने देखते ही कहा— ‘धर्मराज सम्राट तिष्य के शासन में भी आप लोग इतनी निर्दयतापूर्वक इन निरपराध प्राणियों का वध करते हैं ।’
शिकारी जो राजोचित वेशभूषा में था, महाभिक्षु महेन्द्र के चरणों में गिर पड़ा । अपना परिचय देते हुए उसने कहा ‘भन्ते ! मुझसे भूल हो गई । मैं ही समाट तिष्य हूँ जो मात्र विनोद के लिए इन निरपराध पशुओं का वध करता हूँ।’
तिष्य उस समय लंका का राजा था । भिक्षु महेन्द्र बुदबुदाये- ‘ठीक ही कहा था महास्थविर ने । लंकावासी भगवान् बुद्ध की वाणी को भूलते जा रहे हैं।’
सम्राट तिष्य ने महेन्द्र और संघमित्रा का यथेष्ट सत्कार किया और अपने राज-दरबार में ले आये । प्रथम दिन के विश्राम ने समुद्री यात्रा की थकान उतार दी । दूसरे दिन भिक्षु महेन्द्र ने तिष्य को धर्म मार्ग की समुचित शिक्षा दी और चलने के लिए उद्यत हुए । सम्राट ने कहा- ‘आप यहीं निवास कीजिए । राज्य के नागरिकों तक आपका सन्देश यहीं से पहुंचा दिया जायेगा ।’
जनमानस के सफल अध्येता महाभिक्षु महेन्द्र को सम्राट तिष्य के इस कथन को वहाँ के विहार और धर्म-प्रचारकों की रीति-नीति का संकेत दिया । उन्होंने बौद्ध विहारों को देखने की इच्छा व्यक्त की। आशंका सच निकली। सांसारिक मनुष्यों से भी अधिक विषय-वासना और भोगों में लिप्त धर्म का नेतृत्व उस तंत्र के मूल प्रयोजन को कहाँ से पूरा कर सकेगा ? संघ गठन तो इस उद्देश्य से हुआ था कि व्यवस्थित
रूप से लोगों को सन्मार्ग की ओर सुख-शान्ति के पथ पर प्रेरित किया जा सके । परन्तु लोक श्रद्धा का अनुचित लाभ उठाकर भिक्षु और धर्मसेवी जन-भोगी तथा धर्मजीवी बन गये । सेवा का मार्ग जब उपभोग का माध्यम बन जाता है तभी तो गड़बड़ी पैदा होती है।
राजभवन में निवास के आमन्त्रण को नम्रतापूर्वक अस्वीकार करते हुए स्थविर महेन्द्र ने लोकोचित और तप साधना का निर्धारित मध्यम मार्ग ही अपनाया । काषाय वस्त्रों से देदीप्यमान तथा भारत भूमि के सन्देशवाहक होने के नाते लंका में उनकी खूब प्रतिष्ठा हुई।
उन्होंने पहला काम यह किया कि विहारों और मठों के निवासी बौद्ध भिक्षुओं को दिशा प्रदान की । श्रद्धास्पद होकर भी श्रद्धा तत्त्व के मूल कारणों की उपेक्षा भर्त्सना करने योग्य है- यह कहकर उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं को समाज के प्रति उनका उत्तरदायित्व समझाया ।
जैसा कि सभी सुधारकों के साथ होता आया है उनके साथ भी हुआ । कुछ लोगों ने उनका विरोध किया परन्तु उन्हें इस बात की बिल्कुल चिन्ता नहीं हुई । प्रकृति को, अगाध जलराशि को भी अपने
विरोध में खड़ा पाकर जो नहीं घबड़ाया वह निर्बल और दुष्ट मनुष्यों से क्या घबरायेगा ? पूर्वकृत साहसपूर्ण कार्य मनुष्य को आजीवन प्रेरणा देते रहते हैं । एक बार जब कोई प्रयास करने पर सफलता मिल जाती है तो व्यक्ति अपार और अटूट आत्मविश्वासी बन जाता हैं।
बौद्ध मठों और विहारों में आवश्यक सुधार कर महेन्द्र तथा संघमित्रा धर्म प्रचार के कार्य में जुटे । धर्म तन्त्र का परिष्कार धार्मिक समाज की पहली आवश्यकता है । जब तक यह क्षेत्र विकृत ही पड़ा रहेगा लोगों की श्रद्धा स्थिर नहीं हो सकती ।
अपनी सम्पूर्ण आयु का आधा भाग लंकावासियों की सेवा में बिताकर महाभिक्षु महेन्द्र ने चैत्य पर्वत पर अन्तिम वर्षा वास किया। उस समय उनकी आयु साठ वर्ष की हो गई थी। इस वर्षा वास में उनका देहान्त हो गया । बौद्ध धर्म का एक प्रधान स्तम्भ उठ गया, मरते समय उन्होंने शोकविह्वल बहिन को आश्वस्त किया कि धर्म ही तुम्हारा भाई है । वह कभी समाप्त नहीं होता क्योंकि संसार की स्थिति का कारण पृथ्वी पर कहीं न कहीं चलती रहने वाली धार्मिक गतिविधियाँ ही हैं।
अनुराधापुर में उनकी मृत देह का अन्तिम संस्कार सम्पन्न करवाया गया । ऋषि महेन्द्र के प्रयत्न और पुरुषार्थ का ही परिणाम है कि बौद्ध धर्म आज भी लंका का राजधर्म बना हुआ है । अनुराधापुर की इन्च-इन्च भूमि सिंहल जाति की श्रद्धा भूमि है । प्रति वर्ष लाखों लोग ऋषि महेन्द्र को उस भूमि पर श्रद्धा के फूल चढ़ाने देश-विदेश से आते हैं।
सम्राट अशोक के पाँचों पुत्रों का कोई नाम भी नहीं जानता । यद्यपि वे सब क्रमशः राज्य सिंहासन के उत्तराधिकारी बने थे। इतिहास में उनके लिए चार-चार, पाँच-पाँच पंक्तियाँ ही लिखी गई हैं जबकि राज्य पद का अधिकारी होते हुए भी उसे छोड़ देने वाले राजपुत्र महेन्द्र इतिहास में अमर हो गये हैं । वस्तुत: अधिकार या पद नहीं, मनुष्य को महान् बनाता है उसका त्यागमय जीवन और उज्ज्वल चरित्र ।
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