Last Updated on July 14, 2019 by admin
पुनर्नवादि मंडूर : Punarnavadi Mandoor in Hindi
पुनर्नवादि मंडूर एक आयुर्वेदिक दवा है । इस औषधि का उपयोग एनीमिया, फ़ेथिसिस, हेपेटाइटिस, पीलिया, पेट में गड़बड़ी, बवासीर, क्रोनिक कोलाइटिस, गाउट, हाइपरिकेसिमिया, त्वचा रोगों और कृमि संक्रमण जैसे रोगों के उपचार मे किया जाता है ।
पुनर्नवादि मंडूर में मौजूद प्राकृतिक जड़ी बूटियों को विशेष रूप से गुर्दे की बीमारी के लिए उत्कृष्ट परिणाम देने के लिए जाना जाता है। यह गुर्दे की समस्याओं के लिए सबसे अच्छा प्राकृतिक उपचार में से एक है।
पुनर्नवादि मंडूर के घटक द्रव्य व निर्माण विधि :
पुनर्नवा (साँठी की जड़), निसोत, सौंठ, कालीमिर्च, पीपल, बायविडंग, देवदारू, कूठ, हल्दी, चित्रकमूल, हरड़, बहेड़ा, आंवला, दंतीमूल, चव्य, इन्द्रजव, कुटकी, पीपलामूल, मोथा, काकड़ासींगी, कालाजीरा, अजवायन और कायफल ये सब औषधियां समभाग लेकर चूर्ण करें। फिर चूर्ण से दूनी मण्डूर भस्म को अठगुने गोमूत्र में पकावें । गोमूत्र चतुर्थांश शेष रहने पर औषधियों का चूर्ण मिलाकर पकावें। जब गोली बांधने लायक हो जाय, तब उतार घोटकर मटर के समान गोलियां बना लें। मूलग्रन्थ में गुड़ मिलाने को लिखा है; हमने सुविधा के लिये अनुपान रूप में मिला लिया है।(भा.प्र.)
उपलब्धता:
यह योग प्रसिद्ध आयुर्वेदिक औषधि निर्माताओं द्वारा बनाया हुआ आयुर्वेदिक दवा की दुकान पर मिलता है। आवश्यकता पड़ने पर इसे बाजार से खरीद कर सेवन करना चाहिए।
मात्रा और सेवन विधि :
२ से ४ गोली, दिन में २ बार थोड़े गुड़ के साथ दें। ऊपर मट्ठा अथवा जल पिलावें। आमप्रधान कब्जवाले रोगी को हरड़ का चूर्ण मिलाकर देना चाहिये। यदि उसमें योगराज गूगल मिला दें तो सत्वर लाभ पहुँचता है।
पुनर्नवादि मंडूर के उपयोग व फायदे : Benefits of Punarnavadi Mandoor in Hindi
1-यह औषधि शोथ, पाण्डु, कामला, उदररोग, अफारा, शूल, श्वास, खांसी, क्षय, ज्वर, प्लीहा, बवासीर, संग्रहणी, कृमि, वातरक्त और कुष्ठ का नाश करती है।
2-यह मण्डूर पाण्डु रोग पर अति हितकारक है। पाण्डु अथवा कुम्भकामलारोग अधिक दिन रहने से सर्वांग शोथ आया हो; शोथ पर दबाने से खड्डा हो जाता हो; और जल्दी न भरता हो; तो पुनर्नवा मण्डूर के सेवन से सत्वर लाभ पहुँचता है।
शोथ के साथ अफारा, मन्द-मन्द ज्वर, अरुचि, रक्त में रक्ताणुओं की कमी, निर्बलता के हेतु से श्वास भर जाना, प्लीहावृद्धि आदि विकार हों, वे भी दूर हो जाते हैं।
3- अन्त्र की निर्बलता, अन्त्र में मल शुष्क हो जाने के पश्चात् वातप्रकोप होकर निकलने वाला शूल और सूक्ष्म कृमि ये सब नष्ट होते हैं।
4-इस मण्डूर से मल, मूत्र की शुद्धि होती है। और रक्ताभिसरण क्रिया नियमित बनती है। पक्वाशय, रक्त और रसधातु की शुद्धि होने से रक्ताभिसरण क्रिया बलवान बनती है एवं वातदुष्टि नष्ट होने से दोष प्रकोपजन्य-नूतन कुष्ठ और वातरक्त का भी शमन होता है।
5-यह मण्डूर ग्रहणी और अन्त्र को बलवान बनाता है। इस हेतु से नये संग्रहणी रोग और अर्श रोग पर भी हितावह है।
6-शोथ आने के मुख्य ३ कारण हैं। हृदय, वृक्क और यकृत् की विकृति इन तीनों प्रकोपों पर कार्य हो सकें, उस तरह इस रस की रचना की है।
मण्डूर से हृदय और रक्त पर विशेष लाभ पहुँचता है और यकृत-प्लीहा पर इससे कम। गोमूत्र, यकृत, वृक्क और अन्त्रादि पचन अवयवों को बल प्रदान करता है; रक्त का प्रसादन करता है; सूक्ष्म कृमि, कीटाणु और विष का नाश करता है; तथा आमपचन में सहायता पहुँचाता है। निसोत, दन्तीमूल, और कुटकी अन्त्र में चिपके हुए पुराने मल को निकालकर अन्त्र को शुद्ध बनाते हैं। सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, चित्रकमूल, पीपलामूल, कालाजीरा, और अजवायन, ये सब दीपन, पाचन है, आमाशय और यकृत, दोनों स्थानों को उत्तेजना देते हैं। देवदारु, कूठ, कायफल
और अजवायनादि तैलीय द्रव्य वातनाड़ियों को पुष्ट बनाते हैं। हल्दी आम-पाचन और रक्तप्रसादन कार्य में सहायता पहुँचाती है। इन्द्रजौ और नागरमोथा दीपन पाचन और ग्राही गुण दर्शाते हैं। बायविडंग यकृबल्य और कृमिघ्न है। बायविडंग से कृमि की उत्पत्ति में प्रतिबन्ध होता है। पुनर्नवा मूत्रल और श्रेष्ठ शोथहर, औषधि है। इस तरह इस प्रयोग में पुनर्नवादि वृक्क, हृदय, यकृत्, रक्त, आमाशय और अन्त्र पर कार्यकर औषधि का संमिश्रण होने से शोथ की अति बढ़ी हुई अवस्था में यह अपना प्रभाव दर्शाता है।
7-यदि शोथ के साथ ज्वर भी रहता हो और अन्त्र में मल संगृहीत हो, तो इस रसायन का सेवन पुनर्नवाष्टक कषाय (आरोग्यवर्धिनी के उपयोग में लिखे हुए) के साथ कराया जाता है अथवा आरोग्यवर्द्धिनी दी जाती है। रोग जितना पुराना हो और अधिक बढ़ा हो, उतनी ही मात्रा कम करनी चाहिये। रोगी को नमक बिल्कुल नहीं देना चाहिये।
8-वक्तव्य-रोगी को ज्वर न हो, वृक्क विकार न हो, हृदय विकृति से शोथ हुआ या पचन-क्रिया मन्द हो, अन्त्र में मलसंग्रह और कीटाणुओं की वृद्धि हो गई हो, मुखपाक न हो, रात्रि को बार-बार लघुशंका न होती हो, और तक्र अनुकूल रहती हो, तो रोगी को तक्रकल्प कराना चाहिये।
9-तक्रमण्डूर भी शोथसह पाण्डुपर व्यवहत होता है, उसमें आमाशय पौष्टिक, पित्तस्रावी, और अन्त्र की शोधन करने वाली औषधियां गोमूत्र के अतिरिक्त नहीं मिलायी। अत: जिन रोगियों की पचन-क्रिया अधिक दूषित हो तथा अन्त्र में आम, मल और विष का संचय हुआ हो या उदर कृमि हो गये हों, उनके पुनर्नवामण्डूर विशेष अनुकूल रहता है।
10-पित्ताशयनलिका और यकृत से निकलने वाली साधारण पित्तनलिका में प्रदाह होने या पित्तस्राव कम होने पर मल सफेद रंग का और दुर्गन्धयुक्त हो गया हो, तो यह रस १-२ माशे सज्जीखार (सोडाबाई-कार्ब) मिलाकर ५-५ तोले मूली के रस या तक्र के साथ दिया जाता है। रोगी को भोजन में मात्र तक्र और चावल देना चाहिये।
11-जलोदर और शोथ, दोनों में जल या रस संग्रह होता है। अतः दोनों की चिकित्सा में साम्य है। जलसदृश पतला विरेचन मूत्रविरेचन और स्वेदद्वारा रक्त में से जल बाहर निकाल देने पर उदर्या कला या त्वचा के नीचे संगृहीत जल का रक्त में शोषण हो जाता है। इस हेतु से पुनर्नवामण्डूर गोमूत्र या सनाय के क्वाथ के साथ रोज सुबह देते रहने पर नया जलोदर रोग शमन हो जाता है। भोजन में दूध और भात दें। नमक नहीं देना चाहिये।
12-आमाशय की पचनक्रिया दूषित होने पर अन्त्र में आम संगृहीत होते हैं। फिर अन्त्र में कृमि उत्पन्न होते हैं। पाण्डुता, उदरशूल, अरुचि, उबाक, अफारा, श्वास, कफवृद्धि, मलावरोध और निस्तेजतादि लक्षण प्रकाशित होते हैं। सूक्ष्म कृमि होने पर नाक ओर गुदा में कण्डू चलती है। कभी-कभी त्वचा शुष्क हो जाती है। किसी को श्वेत कुष्ठ या अन्य उपकुष्ठ हो जाते हैं। इस रोग पर पुनर्नवामण्डूर हरड़ के क्वाथ के साथ दिया जाता है। यदि वातवाहिनियों की विकृति हो तो पुनर्नवामण्डूर के साथ योगराज गुग्गुलु या चन्द्रप्रभावटी मिला दी जाती है।
13-हृदय और रक्त की निर्बलता होने पर प्रायः पचनक्रिया निर्बल हो जाती है। ऐसी स्थिति में मिर्चादि तेज मसाला और द्विदल धान्यादि वातप्रकोपक आहार का अधिक सेवन होता रहे, तो उदर में गुड़गुड़ाहट होती है, अफारा आ जाता है तथा मलावरोध, मल में दुर्गन्ध और किसी को मूत्रावरोध भी होता है। फिर अर्थोत्पत्ति हो जाती है। इसी तरह अपचन और अग्नि मन्द होने पर भी बारंबार आहार का सेवन अधिक मात्रा में होता रहे; तो अन्त्र शिथिल बनकर संग्रहणी रोग की सम्प्राप्ति हो जाती है। फिर कुछ दिन मलावरोध और कुछ दिन अतिसार ऐसा चक्र चलता रहता है। इन विकारों का मूल हृदय की शिथिलता और पचन-विकृति होने से इन रोगों पर भी पुनर्नवामण्डूर लाभ पहुँचाता है। मात्रा थोड़ी-थोड़ी दिन में ३-४ समय देनी चाहिये एवं पथ्य पालनसह औषधि दीर्घकाल पर्यन्त लेनी चाहिये।
पुनर्नवादि मंडूर के नुकसान :
1- पुनर्नवादि मंडूर को डॉक्टर की सलाह अनुसार ,सटीक खुराक के रूप में समय की सीमित अवधि के लिए लें।
2- पुनर्नवादि मंडूर लेने से पहले अपने चिकित्सक से परामर्श करें ।