Last Updated on July 22, 2019 by admin
जन्मान्तरीय पापों से रोगों की उत्पत्ति और उनके उपाय :
समस्त प्राणियों में मानव श्रेष्ठ है, क्योंकि इसने शारीरिक उन्नतिके साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नतिके शास्त्र रचे तथा ईश्वरीय प्रेरणा एवं साधना से गहन अध्ययन किया और शास्त्रों के सार को ग्रहण कर सुखी रहने के उपाय ढूँढे, आरोग्य की महत्ता समझी और जहाँ ये उपाय रुक गये तथा रोग-मुक्ति के उपाय न दीखे तो रोग क्यों होता है, इसकी खोज की और जितना हो सका आयुर्वेदसे लाभ लिया, शेष धर्मशास्त्रों से भी लाभ लिया है।
यहाँ आयुर्वेदकी अपेक्षा विभिन्न धर्मशास्त्रों (स्मृतियों)-में रोग उत्पन्न होने के जो लक्षण दिये गये हैं और जन्मान्तरीय किस निन्दित कर्मसे वर्तमानमें कौन-सा रोग हुआ है, इसका संक्षेपमें विचार किया गया है।
पूर्वजन्ममें किये पापों से रोग होते हैं और फिर रोग जनित चिह्न भी प्रकट होते हैं, पर जप आदि दैवव्यपाश्रय से उनकी शान्ति भी हो जाती है अर्थात् रोग ठीक हो जाते हैं
पूर्वजन्मकृतं पापं नरकस्य परिक्षये।
बाधते व्याधिरूपेण तस्य जप्यादिभिः शमः॥
(शाता० स्मृति १।५)
धर्मशास्त्रों में निर्दिष्ट कर्मविपाकका संक्षेपमें यहाँ वर्णन किया जा रहा है
(१) क्षयरोग- इसके सम्बन्ध में कहा गया है कि यह रोग तेल, घी तथा चिकनी वस्तु चुराने के कारण होता है। त्वचा में पड़ने वाले चकत्ते भी इसी दुष्कर्म से होते हैं। इतना ही नहीं, इस निन्दित कर्मसे कर्ता को पतित योनियों का भोग भी भोगना पड़ता है। (गौतमस्मृति २०।१)
(२) मृगी-‘प्रतिहन्ता गुरोरपस्मारी’ (गौतमस्मृति २०। १) गुरुकी ताड़ना करने पर उसे मारने वाला शिष्य दूसरे जन्ममें मृगी का रोगी होता है तथा गोदान से उसकी शान्ति होती है।
(३) जन्मान्ध-‘गोन्घो जात्यन्धः’ (गौतमस्मृति २०।१)। गोवध करनेवाला जन्मसे अन्धा होता है।
(४) मांसका गोला-नक्षत्रसे जीविका चलानेवाला मांसपिण्डका रोगी होता है। यह पिण्ड उदरमें हो या कन्धेपर।
(५) गण्डरोगी-निन्दित मार्गमें चलनेवाला गण्ड रोगसे ग्रस्त होता है।
(६) खल्वाट- सिरपर बाल न होवे, उसे खल्वाट कहते हैं। दुराचार करनेवालेको यह रोग होता है।
(७) मधुमेह-अंग्रेजीमें इसे ‘डायबिटीज’ कहते हैं। धर्मशास्त्रकी दृष्टिसे अनियमित और स्वच्छन्द यौनाचारसे यह रोग होता है। इसका प्रायश्चित्त करने से शान्ति मिलती है। ( और पढ़े – मधुमेह के 25 रामबाण घरेलु उपचार)
(८) हाथीपाँव-रोग-यह रोग अपने गोत्रकी स्त्री से गमन करनेपर होता है।
‘सगोत्रसमयस्त्र्यभिगामी श्लीपदी।’
(९) अजीर्ण रोग-भोजन में विघ्न करनेवाले को अजीर्ण हो जाता है। इसकी शान्ति गायत्री मन्त्र द्वारा एक लाख आहुति देने से हो जाती है।( और पढ़े –अजीर्ण(अपच) के 21 चमत्कारी घरेलु इलाज )
(१०) कृमिलोदर रोग-रजस्वला या अन्त्यजदृष्टि-दोषसे दूषित अन्नके भक्षणसे पेटमें कीड़े होते हैं। इसकी शुद्धि गोमूत्रपानसे होती है।
(११) श्वास-कास- पीठ पीछे निन्दा करनेवाले को नरक भोगने के बाद श्वासरोग होता है।
(१२) शूलरोग-दूसरों को दुःख देने वाला शूल रोगी होता है। उसे अन्नदान और रुद्रजप करना चाहिये
शूली परोपतापेन जायते तत्प्रमोचने।
सोऽन्नदानं प्रकुर्वीत तथा रुद्रं जपेन्नरः॥
(शाता० स्मृति ३ )
(१३) रक्तातिसार रोग-यह रोग वनमें आग लगानेवालेको होता है। उसे चाहिये कि वह पानी का प्याऊ लगाये।
दावाग्निदायकश्चैव रक्तातिसारवान् भवेत्।।
(शाता० स्मृति ३। १३)
(१४) भगन्दर, बवासीर-ये दारुण रोग देवमन्दिर में या पुण्य-जल में एक बार भी मूत्र-विष्ठा त्यागनेसे होते हैं ( और पढ़े –बवासीर के 52 सबसे असरकारक घरेलु उपचार )
गुदरोगो भवेत् तस्य पापरूपः सुदारुणः॥
(शाता० स्मृति ३ । १४)
(१५) जलोदर-प्लीहा-स्त्री के गर्भ गिराने वाले को ‘यकृत् प्लीहा’ से सम्बद्ध और जल रोग होते हैं।
(१६) लकवा-सभा में पक्षपात करने वाले को पक्षाघात होता है। उसे चाहिये कि वह सात्त्विक ब्राह्मण को बारह भर (तोला) स्वर्णदान देकर प्रायश्चित्त करे
सभायां पक्षपाती च जायते पक्षघातवान्।
निष्कत्रयमितं हेम स दद्यात् सत्यवर्तिनाम्॥
(शाता० स्मृति ३ । २२)
(१७) नेत्ररोग-यह रोग राँगा चुरानेवालेको होता है। वह एक दिन उपवास करके चार सौ भर राँगा दान करे। मधु चुराने वाले को भी नेत्ररोग होता है, वह मधु धेनु का दान करे।
(१८) खुजली-यह रोग तेल चुरानेसे होता है
तैलचौरस्तु पुरुषो भवेत् कण्ड्वादिपीडितः।
(शाता० स्मृति ४।१३)
इसकी शान्ति एक दिन उपवास करने तथा दो घड़े तेल दान करने से बतायी गयी है। ( और पढ़े – दाद खाज खुजली के रामबाण घरेलु उपचार )
(१९) संग्रहणी-यह रोग नाना प्रकार के द्रव्य चुराने से होता है। प्रायः अन्न, जल, वस्त्र, सोना दान करने से लाभ होता है।
नानाविधद्रव्यचौरो जायते ग्रहिणीयुतः।
(शाता० स्मृति ४।३२)
(२०) पथरी-यह रोग सौतेली माता से गमन करने से होता है।
मातुः सपत्लिगमने जायते चाश्मरीगदः।।
(शाता० स्मृति ५। २६)
इसकी शान्ति के लिये मधु धेनु और सौ द्रोण तिल दान करे।
(२१) कुबड़ा-पापी व्यक्ति अगम्यागमन से दूसरे जन्म में कुबड़ा होता है। वह काले मृगचर्म का दान करे।
(२२) प्रमेहरोग-यह रोग तपस्वि नी के साथ गमन करने से होता है। इसकी शान्ति एक मास तक ‘रुद्राष्टाध्यायी-पाठ’ तथा सुवर्ण-दानसे होती है।
(२३) हृदयव्रण-यह रोग अपनी गोत्र-जाति की स्त्री से गमन करने से उत्पन्न होता है।
स्वजातिजायागमने जायते हृदयव्रणी।
प्रायः दो प्राजापत्यव्रत करने से हृदय रोग में लाभ होता है।
(२४) मूत्राघात–यह रोग पशु-सम्भोग से होता है। इसकी शान्ति के लिये तिल से भरे दो पात्रोंका दान करे।
(२५) जिह्वा रोग-यह रोग पका हुआ अन्न चुरानेवालेको होता है। इसकी शान्ति के लिये एक लाख गायत्री-जप और दशांश हवन करे।
(२६) गूंगा–विद्या की पुस्तक चुराने वाला गूंगा होता है। न्याय और इतिहास की पुस्तक दान करे।
(२७) आधासीसी-यह रोग औषध चुराने से होता है। इसकी शान्तिका उपाय-सूर्यको अर्घ्य दे और एक माशा सोना दान करे।
औषधस्यापहरणे सूर्यावर्तः प्रजायते।
सूर्यायार्घः प्रदातव्यो मासं देयं च काञ्चनम्॥
(शाता० स्मृति ४॥ २६)
(२८) अंगुलिमें घाव-यह रोग फल चुराने से होता है। इसकी शान्तिके लिये दस हजार फल दान करे।
(२९) ज्वर-देव-द्रव्य चुराने वाले को चार प्रकारके ज्वर होते हैं-ज्वर, महाज्वर, रौद्रज्वर और वैष्णवज्वर। इसकी शान्ति यथासंख्यक रुद्री का पाठ कराने से होती है।
धर्मशास्त्रों में जन्मान्तरीय रोगों की शान्ति के उपाय भी बतलाये गये हैं और पूर्वजन्म कृत पापों के चिह्न इस जन्म में रोगरूप में प्रकट होते हैं, जिन्हें स्मृतिग्रन्थों तथा कर्म-विपाकमें देखा जा सकता है। यहाँ दिग्दर्शनमात्र है, श्रद्धा-विश्वास रखनेसे इन उपायों से लाभ अवश्य होगा।