Last Updated on August 22, 2019 by admin
घर में किसी अतिथि का आगमन हुआ । १५ वर्षीय किशोर ने स्वागतार्थ उनसे पूछा “आप कहाँ से आ रहे हैं ?’ अतिथि ने उत्तर दिया ‘अरुणाचल से ।’ ‘अरुणाचल’ शब्द का सुनना था कि किशोर का रोम-रोम एक अपूर्व आनन्द से भर उठा । जाने कौन-सी तरंगें इस शब्द के साथ जुड़ी हुई थीं कि उसकी विलक्षण प्रतिक्रिया इस किशोर पर हुई।
बालक का जन्म :
माँ अवगम्माल और पिता सुन्दर अय्यर वेंकटरमण के घर इस बालक का जन्म सन् १८७९ में हुआ था । सुन्दर अय्यर वेंकटरमण मदुरा में वकालत करते थे । ये एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे, वैसी ही उनकी पत्नी साध्वी एवं धर्मनिष्ठ थी। इनके संस्कारों का बालक के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा । माता-पिता बालक के प्रथम गुरु होते हैं । स्वाभाविक है सुसंस्कृत परिवार का बालक सुसंस्कृत होगा ही।
शिक्षा :
पढ़ने के लिए इसे कई पाठशालाओं में भेजा गया पर यह जिस प्रकार की शिक्षा चाहता था, उसे वहाँ नहीं मिलती थी, इस कारण प्राय: शिक्षा के प्रति उदासीन ही रहा करता था। इसे सन्तों की जीवनियाँ बड़ी अच्छी लगती थीं । उसने तमिल सन्तों का जीवन चरित्र पढ़ा । उसके मन में वैसा ही बनने की अकांक्षा उत्पन्न हुई । यही बालक आगे चलकर महर्षि रमण के नाम से प्रसिद्ध हुआ । उपनिषद् काल के आत्मान्वेषी ऋषियों की परम्परा को पुनर्जीवित करने का श्रेय महर्षि रमण को ही दिया जा सकता है ।
मृत्यु पर चिन्तन और वैराग्य :
ज्यों-ज्यों ये बड़े होते गए इनका चिंतन बढ़ता गया । सत्रह वर्ष की आयु में इन्होंने मृत्यु पर चिन्तन किया । मृत्यु के बाद इस शरीर के नष्ट हो जाने पर क्या चेतना समाप्त हो जाती है ? या कहीं अन्यत्र चली जाती है ? इसका उत्तर पाने के लिये वे चिंतन करते-करते थक गए । पर कोई निष्कर्ष नहीं निकल सका । मैं मर जाऊँगा । क्या यह शरीर ही ‘मैं’ हूँ, शरीर हूँ तो मरता क्यों हूँ ? आदि प्रश्नों के उत्तर वे नहीं पाते थे।
ज्यों-ज्यों इनकी आयु बढ़ी त्यों-त्यों इनका चिन्तन और भी गहन होता गया । इसका परिणाम यह हुआ कि ये पढ़ाई में पिछड़ गये। उन्हें प्राय: गृह कार्य पूरा करके न लाने के कारण अध्यापक की डॉट सहनी पड़ती थी । इनके बड़े भाई नाग स्वामी इनकी इस दशा को देखकर इन पर कुपित हो जाते थे । इस बालक को इस विद्या से तृप्ति नहीं हो पाती थी । वह तो शाश्वत सत्य को जानने के लिये भटक रहा था । उसे इस प्रकार की विद्या से विराग हो गया । उनका मन्दिरों में आना-जाना बढ़ गया । वे घण्टों देव प्रतिमा के सम्मुख बैठकर उनसे अपने वास्तविक स्वरूप का दिग्दर्शन कराने की प्रार्थना करते रहते।
घर का त्याग :
उन्हें लगा कि उन्हें ‘अरुणाचल’ बुला रहा है । वहीं उनकी सारी जिज्ञासा शान्त हो सकती है । इस खोज के लिये प्रयोगशाला वहीं बनाई जा सकती है । सत्रह वर्ष की आयु में वे घर छोड़कर इन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिये अरुणाचल के लिये चल पड़े।
जितना बड़ा उद्देश्य होता है उतना ही साहस और श्रम भी आवश्यक होता है । जिन रहस्यों को वे खोजना चाहते थे वे इतने गूढ़ थे कि उसके लिए सारा जीवन समर्पित करना पड़ता है । इस प्रकार का साहस बिरले ही कर पाते हैं।
गहन साधना :
अरुणाचल पहुँच कर वे अपनी गहन साधना में लीन हो गए। इन्होंने अपनी समस्त चित्तवृत्तियाँ समेट कर एकाग्र करली अपने ध्येय में सफल होने के लिये उन्होने मन्दिर के गर्भ-गृह में प्रवेश किया जहाँ वर्षों से जहरीले कीड़े-मकोड़ों का साम्राज्य तो था ही साथ ही घुप्प अंधेरा भी था । यह विचलित न हुए । इनका एक ही लक्ष्य था कि अपने विषय में चरम सत्य की खोज करनी है । इसके लिये उन्होंने अन्य सब कामनाएँ त्याग दी ।
इनका सारा शरीर काला पड़ गया, केश बढ़कर जटा का रूप धारण कर गए, नाखून बड़े-बड़े हो गये पर इनका चिन्तन क्रम बन्द नहीं हुआ ।
माता अवगम्माल अपने पुत्र को देखने के लिये आई। उस समय ये मौन धारण किए हुए थे । इनकी यह दशा देख माँ का हृदय रुक न सका वे रो पड़ी तथा इन्हें घर चलने का आग्रह करने लगीं । इन्होंने माता को लिखकर बताया कि जो हो रहा है ठीक है आप चिन्ता न करें।
अरुणाचल आने पर महर्षि कहीं नहीं गए समस्त प्राणियों में एक ही दिव्य चेतना का अनुभव इन्होंने यहाँ किया । उसी आत्म-तत्त्व को सब में देखकर उसकी सत्यता को अपने जीवन-क्रम के द्वारा सिद्ध किया ।
मौन भी वाणी से अधिक मुखर हो सकता है आँखों की भाषा में भी कहा सुना जा सकता है । महर्षि स्वयं इसके अनुपम उदाहरण थे । कई शंकाएँ लेकर लोग्रे इनके पास आते थे ये इन्हीं भाषाओं में आत्मा की स्फुरणा के द्वारा उनका समाधान कर देते थे । इनसे लाभ उठाने वालों में गणपति शास्त्री, कापालि शास्त्री, शुद्धानन्द भारती, शेषाद्रि स्वामी, योगी रंगनाथ, हम्फ्रीस, पाल ब्रटन आदि व्यक्ति भी थे।
शरीर भाव से महर्षि बिल्कुल शून्य थे वे चिदानन्द आत्मा के जीवित जाग्रत स्वरूप थे । स्कन्दाश्रम में एक बार योगी रंगनाथ ने देखा महर्षि के पावों में अगणित काटे चुभे हुए थे । वे निकालने का आग्रह करने लगे । महर्षि ने कहा “काटे तो चुभेगे ही तुम कब तक निकालते रहोगे।”
सभी प्राणियों को आत्म रूप समझने वाले महर्षि रमण का आत्म तत्व ऊपर से ओढ़ा हुआ नहीं था । उन्होंने अपने इस सत्य स्वरूप को केवल देखा ही नहीं उसे पा भी लिया था । सभी प्राणियों में एक ही चेतन तत्त्व है इसका उदाहरण रमणाश्रम में उन्होंने प्रस्तुत किया था । आश्रम के बन्दर, गिलहरी, मोर, साँप, गाय और कुत्ते महर्षि रमण की तरह ही महत्त्वपूर्ण अंग थे ।
‘महर्षि रमण तपस्या करने के लिये पर्वत की एक कन्दरा में गये थे । उस कन्दरा पर कितने ही समय से जीव-जन्तुओं का साम्राज्य था । उन्हें इस नवागन्तुक पर बड़ा क्रोध आया । वर्षों से जो मकान केवल उनकी ही बापौती था अब उसका दूसरा अधिकारी आ पहुंचा, यह जानकर उनके एकाधिकार में विघ्न आ उपस्थित हुआ । यह प्राणी शरीर में उन्हें बड़ा लम्बा-चौड़ा और भयानक लगा।
वे सब अपनी सामर्थ्य के अनुसार इनको कष्ट देने लगे। महर्षि को कोई दुःख नहीं हुआ । वे जानते थे कि यह स्थान तो उन्हीं का है । मैंने तो यहाँ आने की अनधिकार चेष्टा की है । इनके एकान्त में विघ्न उपस्थित किया है । वे नहीं चाहते थे कि अपने एकान्त के लिये इन प्राणियों के अधिकारों का हनन करें, पर विवश थे । अपने को उनका अतिथि मानकर रहने लगे । अतिथि अपनी सब कामनाओं का त्याग कर देता है । उसे कोई दाल-सब्जी या रोटी जैसी कि गृह स्वामी खिलाता है, अस्वीकार ही नहीं करता वरन् प्रशंसा भी करता है । जहाँ वह सुलाता है वहीं सोता है जैसा कुछ व्यवहार करता है स्वीकार करता है। यही नीति महर्षि ने अपनाई।
इनका स्वागत सत्कार गृहस्वामी करने लगे । जब ये साधना करने बैठते तो कोई छिपकली ऊपर आ कूदती और भाग जाती । मच्छर अपना राग अलापने लगते, यही नहीं तीन बार तो बिच्छुओं ने डंक मारा । इस स्वागत को वे निर्विकार भाव से ग्रहण करने लगे। वे ध्यानस्थ हो जाते उनके क्रिया-कलाप चलते रहते उन्होंने अपने शरीर में पत्थर की-सी दृढ़ता उत्पन्न कर ली । उन्हें न विष व्याप्त हुआ न इन प्राणियों की इन हरकतों का कुछ प्रभाव ही हुआ ।
कुछ दिन बाद स्वामी जी को इन लोगों ने अपने परिवार का ही मान लिया । मनुष्य के प्रति जो इन प्राणियों में धारणा थी वह इनके व्यवहार को देखकर समाप्त हो गई । वे मनुष्य को प्रेम हीन प्राणी मानते थे । जो सदा इनकी अकारण हत्या करता था । लेकिन स्वामी जी में उन्होंने ऐसा कुछ भी न पाया, तो परायेपन की दीवार टूट गई।
आश्रम जीवों में आपसी प्रेम :
एक विषधर सर्प उनके स्कन्दाश्रम में आया । उन दिनों महर्षि की माता जी भी वहाँ थीं । वे उसे देखकर डर गईं पर महर्षि ने उसे बड़े स्नेह से देखा। उसे विश्वास हो गया । वह महर्षि के चरणों पर लेट गया । इसके बाद वह प्रायः आया करता व उनके चरण स्पर्श करता ।
एक मादा कौआ तो अपने बच्चों का भार ही महर्षि पर छोड़ देती थी । वह दिन को भोजन की तलाश में जाती तो बच्चे उनके पास छोड़ जाती । वे उनकी देख-भाल करते और जब उन्हें भूख लगती वे चिचियाते तब उन्हें भोजन देते और पानी पिलाते ।
महर्षि के वहाँ निवास से कई प्राणी अपने परम्परागत वैमनस्य को भुलाकर मित्र बन गए । यह साँप आश्रम के एक मोर का मित्र बन गया और जब मोर पंख फैलाकर नाचता तो साप भी अपना फन फैलाकर लहराने लगता ।
आश्रम के पशु-पक्षी उनके बन्धु-बांधव बन चुके थे वे प्रायः उन्हें प्रेम से सहलाते उनसे बात करते और प्रतिदान में उनसे भी स्नेह पाते थे । प्राणी मात्र में एकात्मता की यह अनुभूति ही उन्हें साधना पथ पर शीघ्रता से आगे बढ़ाने में सहायक हुई थी।
महर्षि रमण एक बार शिलाखण्ड पर बैठे थे । एक सर्प रेंगता हुआ आया और उनके पैर पर चढ़कर चला गया । शिष्यों ने पूछा, “सर्प ने काटा क्यों नहीं ?” महर्षि ने उत्तर दिया, “क्या सर्प भूमि पर फन से प्रहार करता है ?” सर्प के लिए भूमि कोई अवरोध, वैषम्य या अहंकार पैदा नहीं करती । सर्प के काटने का कारण जीव का अहंकार, उससे उत्पन्न विषमता, भेद और उससे उत्पन्न अवरोध है । जहाँ अहंकार नहीं वहाँ शत्रुता नहीं है ।’
‘महर्षि मौन रहते थे पर उनके समीप आने वालों और प्रश्न पूछने वालों को मौन भाषा में ही उत्तर मिल जाते थे । उनकी दृष्टि नीची रहती थी । पर कभी किसी को आँख से आँख मिलाकर देखा तो इसका अर्थ होता था, उसकी दीक्षा हो गई । उन्हें ब्रह्मज्ञान का लाभ मिल गया । ऐसे ब्रह्मज्ञानी बढ़भागी थोड़े से ही थे।
आरम्भिक दिनों में वे अरुणाचल के कतिपय अनुकूल स्थानों में निवास करते रहे । पीछे उन्होंने एक स्थान स्थायी रूप से चुन लिया। आरम्भ में उनकी साधना का कोई नियत स्थान और समय नहीं था । पीछे वे नियम-बद्ध हो गये, ताकि दर्शनार्थी आगन्तुकों को यहाँ-वहाँ तलाश में न भटकना पड़े।
महर्षि रमण सिद्ध पुरुष थे । मौन ही उनकी भाषा थी । उनके सत्संग में सब को एक जैसे ही सन्देश मिलते थे मानो वे वाणी से दिया हुआ प्रवचन सुन कर उठे थे । सत्संग के स्थान में उस प्रदेश के निवासी कितने ही प्राणी नियत स्थान और नियत समय पर उनका सन्देश सुनने आया करते थे । बन्दर, तोते, साँप, कौए सभी को ऐसा अभ्यास हो गया कि आगन्तुकों की भीड़ से बिना डरे झिझके अपने नियत स्थान पर आ बैठते थे और मौन सत्संग समाप्त होते ही उड़कर अपने-अपने घोंसलों को चले जाया करते थे ।
संस्कृत के कितने ही विद्वान् उनकी सेवा में आये तथा अपनेअपने समाधान लेकर वापस गये । उन्हीं लोगों ने रमण गीता आदि कतिपय संस्कृत पुस्तकें लिखीं जिनमें महर्षि की अनुभूतियों तथा शिक्षाओं का उल्लेख मिलता है।
वे सिद्ध पुरुष थे पर उन्होंने जान-बूझकर कभी सिद्धियों का प्रदर्शन नहीं किया । भारत में योगियों की खोज करने वाले पाल ब्रटन ने बड़े सम्मानपूर्वक उनकी कितनी ही अलौकिकताओं का उल्लेख किया है।
भारत को स्वतन्त्रता दिलाने में जिन तपस्वियों का उल्लेख किया जाता है उनमें योगीराज अरविन्द, रामकृष्ण परमहंस और महर्षि रमण के नाम प्रमुख हैं।
रमण महर्षि की समदृष्टि :
भारतवर्ष के मद्रास प्रांत में उत्तरी भारत की अपेक्षा एक भिन्न प्रकार की सभ्यता तथा संस्कृति के दर्शन होते हैं, जिसे विद्वान् लोग ‘द्रविड़’ के नाम से पुकारते हैं । यद्यपि वहाँ के निवासी भी हिन्दू हैं और वेदों का वहाँ उत्तर भारत की अपेक्षा बहुत अधिक प्रचार है, तो भी उनके रीति-रिवाज, रहन-सहन, पूजा-पाठ, भजन-ध्यान आदि सभी बातों में उत्तरी प्रान्तों की अपेक्षा बहुत विलक्षणता पाई जाती है । यद्यपि उत्तर भारत में प्रचलित वैष्णव सम्प्रदायों के सभी आचार्य दक्षिण भारत में ही उत्पन्न हुये थे पर वहाँ के निवासी प्रायः शैव हैं और शिव की पूजा का जितना प्रचार वहाँ है, उतना अन्य प्रांतों में देखने में नहीं आता।
इसी मद्रास या तमिल प्रांत में हाल ही में एक ऐसे महापुरुष का आविर्भाव हुआ था जो आध्यात्मिक दृष्टि से एक दैवी पुरुष थे और जिनके आकर्षण से भारतवर्ष ही नहीं विदेशों के भी अध्यात्म प्रेमी व्यक्ति खिंचकर चले आते थे । इस भौतिकवाद के युग में भी अच्छे-अच्छे आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति इस जंगल में रहने वाले, अल्पशिक्षित और नंगे व्यक्ति के दर्शन करने और उपदेशों को सुनने के लिये पहुँच जाते थे । वहाँ के धार्मिक व्यक्ति तो उनको शिवजी के पुत्र स्कन्द जी का अवतार मानने लगे थे और अरुणाचल महादेव के साथ उनकी भी पूजा करते । इनका नाम था महर्षि रमण ।
पूर्व संन्यासी का वह श्राप :
कहते हैं कि महर्षि रमण के पूर्वजों के वहाँ किसी समय एक संन्यासी भिक्षा माँगने आया । उसे वहाँ एक दाना भी नहीं दिया गया, उलटे दो-चार खरी-खोटी बातें सुनाई गईं । इस पर संन्यासी को भी गुस्सा आ गया और उसने श्राप दिया कि तुम्हारे वंश में भी कोई न कोई मेरे समान भीख माँगने वाला पैदा होता रहेगा । तब से वास्तव में इनके वंश में ऐसी घटना स्पष्ट दिखलाई पड़ रही थी । रमण के एक बाबा संन्यासी थे । उनके एक चाचा ‘वेंकटेशय्यर’ भी योगी बन गये थे । महर्षि रमण के पिता एक अच्छी स्थिति के वकील थे और इनकी शिक्षा की व्यवस्था भी उत्तम थी पर ये घर के सब बन्धनों को तोड़ कर और घर वालों के, विशेषतया माता के, आग्रह की भी उपेक्षा करके संन्यासी बन गये ।
संत की करुणा :
घर से निकलने पर साधन करते हुये, रमण को बहुत विघ्नों का सामना करना पड़ा था । वे न तो अधिक बोलते थे और न किसी से कुछ माँगते थे, अधिकांश समय ध्यान में आँखें बन्द किये बैठे ही रहते थे, इसलिये लोगों ने उनको एक पागल समझ लिया था। आस-पास के आवारा लड़के उन पर धूल, मिट्टी, कंकड़, पत्थर फेंकते रहते थे । इससे उनको बड़ा कष्ट होता, तपस्या में बाधा पड़ती और चोट भी लग जाती । इनसे बचने के लिये वे मंदिर के नीचे की अंधेरी कोठरी में जा बैठते तो वहाँ तरह-तरह के कीड़े-मकोड़े काटते जिससे बदन में घाव हो जाते । अन्त में कुछ लोगों ने उनकी तपस्या के महत्त्व को समझा और वे उपद्रवकारियों से उनकी रक्षा करने लगे। फिर भीस्वामी जी कभी जीव को हानि नहीं पहुँचाते थे और सबको आत्मवत् समझते थे ।
अरुणाचल पहाड़ की गुफा में रहते समय तीन बार बिच्छुओं ने उनको डंक मारा, पर उन्होंने बिच्छुओं को मारने के बजाय जीवित ही छोड़ दिया । एक बड़ा काला नाग भी प्रायः इनके पास होकर निकल जाता था और कभी-कभी तो इनके ऊपर चढ़ने लगता था. पर उससे भी इन्होंने कभी कछ नहीं कहा । आस-पास में रहने वाले गिलहरी, कौए, चिड़िया तो उनसे ऐसे निर्भय हो गये थे कि पास में आकर हाथ से दाना, फल आदि खाते रहते थे । एक बन्दर का बच्चा भी दूसरे बड़े बन्दरों के भय से इनकी शरण में चला आया और इनके पास ही रहने लगा । एकाध बार उसने इनको भ्रमवश मार भी दिया, पर इन्होंने उसे क्षमा प्रदान कर दी ।
इस प्रकार अज्ञान पशु-पक्षी तो स्वामी जी के शुद्ध और अहिंसात्मक मनोभाव को देख कर उनके मित्र बन जाते थे, पर मनुष्य तो इस दृष्टि से पशुओं से भी नीचे गिरा हुआ है ।
आश्रम मे चोर :
एक दिन रात के समय कुछ चोर स्वामी जी के आश्रम में उनको लूटने के लिये आ पहुंचे उस समय स्वामी जी के साथ अन्य पाँच-सात साधू भी आकर रहने लगे थे और उन सबके खाने-पीने के लिये थोड़ा-सा सामान वहाँ एकत्रित हो गया था । चोरों ने समझा था कि अन्य मंदिर-मठों की तरह यहां भी गहरी रकम जमा होगी, पर जब सब जगह दूढ़ने पर भी उनको छः रुपया से अधिक नहीं मिला तो वे बड़े गुस्से में आये और उन्होंने स्वामी जी तथा अन्य साधुओं को डण्डों से मारा । चोरों ने कई बार स्वामी जी पर लाठी तानकर पूछा “बताओ, तुमने अपना धन कहाँ छपाया है ?” पर स्वामी जी के पास धन होता तब तो वे बतलाते । अन्त में चोर लौट गये ।
थोड़ी देर बाद आश्रम का एक साधू, जो चोरों के आते ही दौड़ गया था, पुलिस वालों को लेकर वहाँ आया । पुलिस ने कहा कि “आप चोरी की रिपोर्ट लिखाइये।” पर महर्षि ने इस बात पर ध्यान न दिया और केवल यही कहा कि “कुछ अज्ञानीजन आश्रम में चोरी करने चले आये थे, पर जब उनको यहाँ बहुत कम सामान मिला तो निराशा के साथ लौट गये ।’ बाद में पुलिस के बड़े अफसर स्वयं इस घटना की तहकीकात करने को आये, पर स्वामी जी ने उनसे भी अपने पीटे जाने या चोरों की दुष्टता की कोई बात नहीं कही ।
अंतर्यामी संत की अनोखी शिक्षा :
महर्षि के आश्रम से थोड़ी ही दूर एक गाँव में कोई अध्यापक रहता था । महर्षि की कीर्ति सुनकर उसने इरादा किया कि वह भी उनके समान ही त्यागी और तपस्वी बन जायेगा और तभी उनके पास जायेगा । पर संसार त्याग का सच्चा भाव हँसी-खेल तो है नहीं । फलत: वैराग्य तो दूर रहा उसके चित्त में बुरी-बुरी भावनाओं का उदय होने लगा । झक मार कर वह महर्षि की शरण में गया । महर्षि में अन्य लोगों के मन की बात जानने की स्वाभाविक शक्ति थी । इस अध्यापक को देखकर वे मुस्कराने लगे और यह भाव प्रकट किया कि “पंख आने के पहले ही उड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिये, अन्यथा नीचे गिरना पड़ेगा । सभी साधक एक ही मार्ग पर नहीं चल सकते । पहले तो साधक को उचित है कि परहित को ही स्वार्थ समझ कर समाज सेवा की शक्ति प्राप्त करे । जब इसमें कृत कार्य हो जाय तब एकान्त में रहकर साधना की अभिलाषा करे ।’
कछ समय बाद इसी अध्यापक ने अपने कौटम्बिक जीवन से ऊब कर आत्महत्या का विचार किया । यदि यह न हो सके तो संन्यासी होकर वन में निकल जाने का निश्चय था । वह इस सम्बन्ध में महर्षि की सम्मति जानने के लिये इनके पास आया । उस समय ये आश्रम वासियों के भोजन के लिये पत्तलें बना रहे थे । अध्यापक के कुछ कहने से पूर्व ही स्वामीजी कहने लगे— “देखो, पत्तल बनाना आसान नहीं है । पत्ते बीनने पड़ेंगे, सीके लानी होंगी और बड़ी सावधानी से पत्तों को एक-दूसरे से जोड़ना होगा । तब कहीं जाकर भोजन करने के लिये पत्तल तैयार मिलेगी । उसका पूरा उपयोग करने के बाद ही उसको फेंक देना चाहिए । अध्यापक ने स्वामी जी का आशय समझ लिया कि मनुष्य शरीर बड़ी कोशिश से मिलता है, उससे आत्मोन्नति का पूरा-पूरा लाभ उठाने के पहले उसको छोड़ना नहीं चाहिये ।”
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