Last Updated on June 20, 2020 by admin
आयुर्वेद-शास्त्र जितना हमारे जीवन से जुड़ा हुआ है और जीवन के अनेक आयामों के विषय मे उचित और हितकारी उपदेश देता है उतनी क्षमता अन्य किसी भी चिकित्सा-विज्ञान में नहीं है। आयुर्वेद शब्द का मतलब ही आयु का वेद (Science of life) याने जीवन का ज्ञान-विज्ञान है।
चरक संहिता में कहा है –
हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्।
मानं च तच्च यत्रोक्तमायुवेदः स उच्यते।।
जिस ग्रन्थ में हित-आयु, अहित-आयु, सुख-आयु और दुख-आयु इन चार प्रकार की आयु के लिए हित (पथ्य) अहित (अपथ्य), इस आयु का मान (प्रमाण और अप्रमाण ) और आयु का स्वरूप बताया गया हो उसे आयुर्वेद-शास्त्र कहा जाता है।
आयु क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर भी अगले ही श्लोक में दे दिया गया है-
शरीरेन्द्रियसत्वात्मसंयोगो धारि जीवितम्।
नित्यगश्चानुबन्धश्च पर्यायैरायुच्यते ।।
अर्थात शरीर, इन्द्रिय, मन और आत्मा के संयोग को आयु कहते हैं (इन चारों के संयुक्त हुए बिना जीवन नहीं हो सकता) । धारि, जीवित, नित्यग, अनुबन्ध ये आयु के ही पर्याय हैं।
जन्म से लेकर मृत्यु तक की अवधि को जीवन कहा गया है और जीवनकाल की अवधि को ही आयु कहते हैं। यह आयु हित आयु हो सके, अहित आयु नहीं, सुख आयु हो सके, दुख आयु नहीं, इसके लिए क्या-क्या प्रयत्न किये जा सकते हैं यही मार्गदर्शन आयुर्वेद में दिया गया है।
हम यहां सरल शैली में कुछ ऐसे नियम प्रस्तुत कर रहे हैं जो आयुर्वेद की शिक्षाओं पर आधारित हैं और हमें मानसिक और शारीरिक रूप से ही नहीं बल्कि आत्मिक रूप से भी स्वस्थ रखने वाले सिद्ध होंगे बशर्ते हम इन नियमों का पालन करते रहें –
स्वास्थ्य रक्षा के सूत्र (नियम) : Health Care Tips
(१) सदा प्रसन्न चित्त रहना चाहिए क्योंकि प्रसन्नता मन और शरीर को स्व
स्थ और बलवान रखती है। प्रसन्नता बाहर से नहीं आती अन्दर से आती है। जब मन में प्रसन्नता नहीं होती तब बाहर की प्रसन्नता भी हमें प्रसन्न नहीं कर पाती।
(२) सुगन्ध, धुले हुए वस्त्र, स्वच्छता और निश्चिन्तता-इनसे मन प्रसन्न रहता है। दुर्गन्ध, गन्दे वस्त्र, गन्दगी और चिन्ता से प्रसन्नता नष्ट होती है। प्रसन्नता नष्ट होने से स्वास्थ्य नष्ट होने लगता है।
(३) काम करते-करते थकावट का अनुभव होने लगे तब काम को तुरन्त छोड़ कर थोड़ी देर विश्राम कर लेना चाहिए। थकावट इस बात की सूचक होती है कि शरीर की शक्ति क्षीण हो गई है। शक्ति-संचय के लिए विश्राम करना ज़रूरी है।
(४) चिन्ता करना अच्छी बात नहीं । चिता तो मरे हुए शरीर को जलाती है पर चिन्ता जीते जिन्दा को जलाती रहती है। चिन्ता करना छोड़ा जा सकता है बशर्ते हम इसके लिए तैयार हों और ऐसी कोशिश करें मगर होता यह है कि एक तो हम चिन्ता करना अपनी आदत बना लेते हैं और दूसरे इस आदत को बदलने की कोशिश भी नहीं करते। चिन्ता से बल, वीर्य, रूप, उत्साह, सुख, पाचन-शक्ति और निद्रा का नाश होता है।
(५) हर काम का आगा-पीछा पहले सोच लें फिर काम हाथ में लें ताकि बाद में पछताना और दुखित न होना पड़े। बुद्धिमान और मूर्ख में इतना फ़र्क है कि बुद्धिमान पहले सोच-विचार कर लेता है फिर काम हाथ में लेता है और मूर्ख बिना सोच-विचार किये ही काम शुरू कर देता है।
(६) हंसते समय, जम्भाई लेते समय, छींकते समय और जब धूल उड़ रही हो तब मुंह के आगे रूमाल लगा लेना चाहिए। अंगुली से नाक कुरेदना, होंठ और नाखून चबाना तथा पैर के नाखून से ज़मीन कुरेदना अच्छी आदत नहीं।
(७) सूर्य, तेज़ रोशनी, वेल्डिंग राड की रोशनी और अग्नि की तरफ़ देखना ठीक नहीं। गहन अन्धेरे कमरे से एक दम तेज़ रोशनी में आना और बहुत शीतल वातावरण जैसे एयर कूल्ड या एयरकण्डीशण्ड कमरे या कार से एकदम धूप और गर्म वातावरण में आना हानिकारक होता है। तेज़ धूप और गर्मी में एक दम से ठण्डा पानी पीना हानिकारक होता है।
(८) साहस, जागरण, निद्रा, परिश्रम, स्नान, भोजन, चलना, व्यायाम, बोलना और मैथुन- इन कार्यों मे अति नहीं करना चाहिए। इनका अभ्यास हो जाए तो भी इन कार्यों में अति करना उचित नहीं।
(९) रात के समय दही न खाएं। जहां भीड़-भाड़ हो और लोग आते-जाते हों उस जगह भोजन न करें। अजनबी और शत्रुता रखने वाले द्वारा दी गई कोई चीज़ न खाएं । रात में सत्तू न खाएं, दिन में सिर्फ सत्तू खाकर न रहें, भोजन के पीछे भी सत्तू न खाएं। दांतों से खूब चबाए बिना कोई पदार्थ न निगलें। शरीर को टेढ़ा करके छींकना, सोना और भोजन करना उचित नहीं।
(१०) काम करते हुए यदि मल या मूत्र के विसर्जन की हाजत हो तो इसे रोकें नहीं। काम छोड़कर पहले इनसे फारिग हो लें फिर काम से लग जाएं। मल-मूत्र का वेग रोकना रोगकारक होता है।
(११) भयभीत न रहें, धीरज न छोड़ें, कोई काम अधूरा न छोड़ें, निराश न हों, आवेश में न आएं और शान्ति धारण किये रहें। इन गुणों से मनोबल बढ़ता है और हीन भावना पैदा नहीं होती।
(१२) अनजाने जलाशय में प्रवेश न करें, नदी में बाढ़ हो तब उसमें न उतरें, न तैरने की कोशिश करें। अनुमति लिये बिना किसी मकान में प्रवेश न करें भले ही वह मकान परिचित का ही क्यों न हो।
(१३) अतिशीत से बचें क्योंकि अति शीत के प्रकोप से फेफड़े पर सूजन आ सकती है या न्यूमोनिया हो सकता है। अति गर्मी से भी बचें क्योंकि अति गर्मी और धूप से लू लग सकती है, पेशाब में दाह और रुकावट हो सकती है।
(१४) वर्षा ऋतु में जहां तक हो सके, पानी कम पीना चाहिए। शरद ऋतु में ज़रूरत के अनुसार जल पिएं। जाड़े में निवाया जल पिएं। वसन्त ऋतु में जैसा चाहें वैसा जल पिएं। ग्रीष्म ऋतु में उबाल कर ठण्डा किया हुआ पानी पिएं और बार-बार थोड़ी-थोड़ी मात्रा में पीते रहें।
(१५) सफर में यात्रियों से परिचय होता है और दोस्ती भी हो जाती है पर यह मरघटिया वैराग्य की तरह अस्थायी होती है। यात्रा में किसी भी सहयात्री का विश्वास न करें और किसी की दी हुई कोई भी चीज़ न खाएं। देख-भाल कर क़दम बढ़ाएं, देख भाल कर पानी पिएं, सोच समझ कर बोलें और सोच समझ कर काम करें।
(१६) पहली बार का किया हुआ भोजन पच जाने पर भोजन करना, मल, मूत्र, निद्रा और प्यास के वेग को न रोकना, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपनी पत्नी के सिवा किसी परस्त्री से सहवास न करना, हिंसा न करना, क्रोध और चिन्ता न करना- ये सब स्वास्थ्य की रक्षा करने वाले नियम हैं।