Last Updated on October 19, 2020 by admin
त्रिदोषों-वात, पित्त, और कफ में वात प्रधान है। इस तथ्य से हम सभी भलीभांति अवगत हैं कि बिना वायु के कोई भी जीवधारी एक मिनट भी जीवित नहीं रह सकता। शरीर धारण करने वालों के लिए बाहरी और भीतरी दोनों ही प्रकार की वायु की आवश्यकता होती है। बाहर की वायु प्राणियों को जीवित व चैतन्य रखती है, जबकि भीतरी वायु शरीर के भीतर कार्य करती है। भीतरी वायु कहीं रस को कहीं रक्त को, कहीं वीर्य को और कहीं भोजन को पहुंचाती है, साथ ही यह शरीर की शुद्धि भी करती है, मल-मूत्र को शरीर से बाहर निष्कासित करती है। इसके अतिरिक्त भी भीतरी वायु के कई महत्वपूर्ण काम हैं।
आयुर्वेद के अनुसार जितने दोष और धातुएं हैं सब पंगु हैं। वात उन्हें जहां ले जाता है वहीं वे चले जाते हैं। वात शरीर के अंदर दोषों और धातुओं को इधर-उधर लाने-ले जाने का काम करता है।
शरीर में वायु के प्रकार, रहने के स्थान और कार्य :
शरीर में स्थित वायु के प्रकार –
वायु 5 प्रकार की होती है, उदान प्राण, समान, अपान और व्यान वायु । इनके स्थान इस प्रकार हैं –
- उदान वायु – कंठ में।
- प्राण वायु – हृदय में।
- समान वायु – कोथे (पेट) की अग्नि के नीचे नाभि में।
- अपान वायु – मलाशय में।
- व्यान वायु – समस्त शरीर में।
शरीर में स्थित वायु के कार्य –
- उदानवायु :- उदान वायु गले में घुमती है। इसी की शक्ति से प्राणी बोलता है, गीत आदि गाता है। इसके कुपित होने से कंठ या गले से संबंधित रोग उत्पन्न हो हैं।
- प्राणवायु :- प्राण वायु प्राणों को धारण करती है। यह सदैव मुह में चलती है। यही खाद्य पदार्थों को भीतर प्रवेश कराती है और प्राणों की रक्षा करती है। इसके कुपित होने से हिचकी, श्वास आदि रोग-विकार उत्पन्न होते हैं।
- समानवायु :- समान वायु पक्वाशय एवं आमाशय में घूमती है और जठराग्नि से मिलकर अन्न को पचाती है। यह अन्न से उत्पन्न हुए मल और मूत्र को अलग करती है। इसके कुपित होने से मदाग्नि, अतिसार, वायुगोला आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
- अपानवायु :- अपान वायु पक्वाशय में रहती है। यह मल, मूत्र, वीर्य, गर्भ, आर्तव आदि को निकालकर बाहर फेंकती है। यह कुपित होकर मूत्राशय संबंधी रोग, गुदा रोग, शुक्र दोष, प्रमेह रोग आदि की उत्पत्ति करती है।
- व्यान वायु :- व्यान वायु समस्त शरीर में विचरण करती है। यह रस, पसीना और रक्त को प्रवाहित करती है। ऊपर जाना, नीचे को आना, ऊपर को फेंकना, आंखें मींचना आदि क्रियाएं इसी के अधीन हैं। जब यह कुपित हो जाती है, तब समस्त शरीर में रोगों को प्रकट करती है।
शरीर में वायु का प्रकोप क्यों होता है ? :
आचार्य चरक के अनुसार वायु प्रकोप के निम्नलिखित कारण होते है –
- रुखे, हल्के व शीतल पदार्थोंका सेवन,
- अधिक परिश्रम,
- अधिक वमन,
- बार-बार दस्त आना,
- छींक, जंभाई, मल-मूत्र आदि वेगों को रोकना,
- उपवास,
- चोट लगना,
- घबराहट,
- अधिक चिंता,
- अधिक रक्त निकलना
- अधिक संभोग आदी वायु के कुपित होने के लिए प्रमुख उत्तरदायी कारण हैं।
हारीत संहिता में उल्लेख है – कसैले व शीतल पदार्थों का सेवन, अधिक चलना, अधिक भोजन, अधिक बोलना, मसूर, मटर, मोठ, ज्वार, जौ, मोटे चावल, बथुआ और प्याज का अति सेवन आदि कारणों से, सर्दी के दिनों में घिरे हुए बादलों में तथा गुड़ एवं चावल का सेवन करने से वायु कुपित हो जाती है।
वायु प्रकोप के क्या लक्षण होते हैं ? :
आचार्य चरक के अनुसार वायु प्रकोप के निम्नलिखित लक्षण हो सकते है –
- वायु कुपित होने पर मूत्र कम होना,
- स्वाद कसैला हो जाना,
- नेत्रों में नशा-सा छा जाना,
- नींद न आना,
- पेट फूल जाना,
- जोड़ों में पीडा,
- सिर में पीडा,
- कमर, पीठ व रीढ़ की हड्डी में पीड़ा,
- कनपटी में वेदना,
- लाल रंग हो जाना,
- शरीर सिकुड़ जाना,
- शारीरिक शूल,
- सुई चुभने जैसी पीड़ा,
- कंपन,
- मर्दन जैसी पीड़ा,
- शरीर में सूजन आदि लक्षण प्रकट होते हैं।
वायु-क्षय के लक्षण –
आचार्य चरक के अनुसार भारीपन, प्रलाप, तंद्रा, निद्रा, थूक में कफ और पित्त आना, नाखून गिरना आदि वायु के क्षय के प्रमुख लक्षण हैं।
वायु-वृद्धि के लक्षण –
वायु की कठोरता, दुबलापन, शरीर का जकड़ना, अनिद्रा, कमजोरी, मल का सूख जाना, मल का कम होना आदि वायु की वृद्धि के लक्षण हैं।
वायु प्रकोप का समय :
- वृद्धावस्था में वायु का प्रभाव जोर अधिक होता है। लेकिन जो व्यक्ति सतर्क रहते हैं, वायु प्रकोपक आहार से बचते हैं तथा वायु शमनकारी आहार-विहार को अपनाते हैं वे सुखी रहते हैं।
- दिन के 2 बजे के बाद, रात्रि के 2 बजे के बाद और भोजन पच जाने के बाद का समय वायु के प्रकोप का समय है।
- वर्षा ऋतु वायु के प्रकोप का प्रमुख समय है।
- इसके अतिरिक्त हेमंत ऋतु और शिशिर ऋतु में भी वायु का कोप रहता है।
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वात रोग का आयुर्वेदिक उपचार (Vaat Rog Ayurvedic Treatment in Hindi)
वातज विकारों का वनौषधियों द्वारा प्रभावी उपचार इस प्रकार है –
1). मेथी (Fenugreek Seeds Benefits for Vata Rog in Hindi) :- मेथी का प्रयोग वातज रोगों में विशेष रुप से लाभप्रद है। 100 ग्राम मेथीदाना लेकर तवे पर सेंककर दरदरा कूटकर चौथाई भाग काला नमक मिलाकर रख लें। सुबह-शाम 2-2 चम्मच की मात्रा में गरम पानी के साथ इस योग का सेवन करें।
मेथीदाना को बारीक पीसकर सेंधानमक और कालीमिर्च का चूर्ण मिलाकर सेवन करने से भी जोड़ों के दर्द में लाभ मिलता है।
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2). सर्पगंधा (Sarpagandha Uses to Cure Vata Rog in Hindi) :- 2-3 ग्राम सर्पगंधा का चूर्ण लेकर घी में मिलाकर चाटने से अनिद्रा की शिकायत दूर होकर प्रगाढ़ नींद आती है। यहां उल्लेखनीय है कि अनिद्रा की गणना वातज रोग के अंतर्गत भी की जाती है।
3). एरंड (Arandi Benefits in Vata Rog Treatment in Hindi) :- 50 ग्राम एरंड के बीज लेकर रेत (बालू) में भुनकर चबाएं और ऊपर से आधा लीटर गाय का गरम दूध पिएं। इस प्रयोग से दस्त आएंगे। 7 दिनों तक इस प्रयोग को प्रतिदिन एक बार करें और मूंग व चावल की पतली खिचड़ी खाएं। हवा से अपना बचाय करें इस उपचार से गठिया और अन्य वात विकारों में पूरा लाभ मिलता है।
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4). भांगरा (घमीरा) :- 5 ग्राम भांगरे (घमीरा) के बीज का चूर्ण लेकर घी के साथ सेवन करके ऊपर से गरम मीठा दूध पीए. कंपवात में आशातीत लाभ मिलेगा।
5). ज्योतिष्मती :- मालकांगनी (ज्योतिष्मती) के बीजों से निकाले हुए तेल की मालिश से संधियों की वेदना शांत हो जाती है।
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6). सोठ :- सोठ का दरदरा चूर्ण (बहुत बारीक नहीं ) आधा चम्मच की मात्रा में लेकर 2 कप पानी में उबाले और जब आधा कप शेष रह जाए तब छानकर ठंडा करके इसमें 2 चम्मच एरंड का तेल मिलाकर प्रतिदिन रात में पिएं, साथ ही तारपीन के तेल से मालिश करें। इस उपचार से कमर दर्द में आशातीत लाभ मिलता है।
सोठ की एक गांठ के साथ लहसुन की एक गांठ लेकर पीसकर लेप बनाकर उस अंग पर लगाएं जो सुन्न हो रहा है, पूरा लाभ मिलेगा।
7). सरसों :- शरीर के किसी भी भाग में पीड़ा होने पर सरसों के तेल में लहसुन या अजवाइन अथवा दोनों को पकाकर इस तेल से मालिश करना लाभप्रद है।
8). सौंफ :- वायु कुपित होने से वर्षा ऋतु में कई प्रकार के उदर संबंधी रोगों की उत्पत्ति की आशंका बनी रहती है, विशेषकर आव व पेचिश की शिकायत होती है। ऐसी दशा में दिन में कई बार सौंफ का सेवन करना चाहिए। रात में भोजन के बाद गरम पानी के साथ एक छोटा चम्मच अजवाइन का सेवन भी लाभप्रद होगा।
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9). टमाटर :- टमाटर उत्तम वायुनाशक है। टमाटर के रस में पुदीना व अदरक का रस मिलाकर और सेंधानमक डालकर पीने से रुके हुए वायु का अनुलोमन होता है।
10). खिरैटी :- सुबह-शाम चला (खिरैटी) मूल (जड़) का काढ़ा पिए, साथ ही तुम्बे के बीज लेकर पानी में पीसकर लकवाग्रस्त अंग पर लेप करें, पूरा लाभ मिलेगा।
11). गिलोय :- गिलोय अर्थात् गुडूची वातरक्त की सर्वश्रेष्ठ औषधि है। यह एक लता है, जिसके पत्ते पान के पत्तों के समान होते हैं। गिलोय के तने का क्वाथ या गिलोय सत्व का सेवन इस रोग में अतीव हितकारी है।
12). लहसुन :- लहसुन का वातनाड़ियों पर बहुत ही लाभकारी प्रभाव होता है। पैर की पीड़ा, पीठ की जकड़न, अर्दित वायु (मुख का टेढ़ा हो जाना), हिस्टीरिया, पक्षाघात आदि व्याधियों में लहसुन और वायविडंग को 16 गुना दूध व पानी में मिलाकर पकाकर पानी जल जाने पर दूध को उतार कर छानकर ठंडा होने पर पिए लाभ मिलेगा। इस योग का सेवन करने से वातनाड़ियों की शक्ति कायम रहती है तथा मांसपेशियां सुदृढ़ होती हैं।
13). खजूर :- 10 ग्राम चावल के मांड के साथ एक खजूर मिलाकर भलीभांति पीसने के बाद थोड़ा पानी मिलाकर प्रवाही बना लें। छोटे बच्चों को दो-तीन बार इसका सेवन कराने से दुर्बल, सूखे शरीर वाले बच्चे हृष्ट-पुष्ट हो जाते हैं। यह बच्चों के लिए उत्तम टॉनिक है।
14). संतरा :- सुबह-शाम भोजन के बाद 1-1 संतरे का सेवन करने से वात नाड़ियों को बल मिलता है , सूखी-खुरदरी व काली पड़ी हुई त्वचा में चेतना आ जाती है और त्वचा की कोमलता बढ़ती है।
15). भृंगराज :- एक माह तक प्रतिदिन सुबह में खाली पेट 5 से 10 ग्राम की मात्रा में शृंगराज (घमीरा) का ताजा स्वरस सेवन करने से शारीरिक बल बढ़ता है तथा वात रोग में लाभ मिलता है ।
16). केला :- केले की जड़ का रस नाक में डालने से हिचकी बंद हो जाती है।
17). घी :- घी में थोड़ा-सा नमक मिलाकर नाभि और होंठों पर लगाने से होंठ फटने की दशा में पूरा लाभ मिलता है और होंठ मुलायम बने रहते हैं।
18). अश्वगंधा (Vaat Rog ki Ayurvedic Dawa in Hindi) :- अश्वगंधा और विधारा के बीज बराबर मात्रा में लेकर खरल में कूट-पीसकर कपड़छन चूर्ण तैयार करके किसी साफ बोतल में भरकर रख लें। यह 2 5 ग्राम चूर्ण इतना ही चीनी मिलाकर प्रतिदिन दूध के साथ सेवन करने से वातनाड़ियों की शक्ति कायम रहती है, शरीर में बल की वृद्धि होती है, रक्त और मांस बढ़ता है, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सेवन करने से सिर के गिरते हुए बाल रुक जाते हैं, वीर्य पुष्ट होता है और रात में गहरी नींद आती है। शीतऋतु में इस योग का सेवन करना चाहिए।
19). शतावरी (Vaat Rog Ayurvedic Medicine in Hindi) :- 5 लीटर भैंस का दूध धीमी आंच पर गरम करें जब गरम होकर पकते-पकते दूध गाढ़ा होने लगे। इसमें 500 ग्राम शतावरी का बारीक चूर्ण डाल दें और करछी से चलाते रहे। जब मावा (खोआ) बन जाए, तब इसे उतारकर पिसी हुई मिश्री मिलाकर 20-20 ग्राम के पेड़े बना लें। प्रतिदिन सुबह खाली पेट दूध के साथ यह 1-1 पेड़ा सेवन करें। इस योग का सेवन करने से स्मरण शक्ति बढ़ती है,शरीर पुष्ट होता है, वृद्धावस्था सुखदायी होती हैं तथा वातरोग, धातुक्षीणता, अनिद्रा, अम्लपित्त आदि विकारों में भी पूरा लाभ मिलता है।
20). अजवाइन :- अजवाइन के बीज मूत्रवर्धक और पाचन क्रिया को दुरुस्त रखने में कारगर प्रभाव वाले माने जाते हैं, साथ ही शरीर से विजातीय द्रव्य को निष्कासित करने में भी सहायक होते हैं। गठिया और आर्थराइटिस जैसे रोगों में घुटनों की हड्डियों में अम्ल की आवश्यकता होती है, जिसे अजवाइन बखूबी पूरी करती है। अजवाइन का उपयोग गरम पानी में मिलाकर करना चाहिए। आधा चम्मच अजवाइन गरम पानी में डालकर 10 मिनट तक उबालकर रख लें। दिन में तीन बार इस पानी का सेवन करें, लाभ मिलेगा।
वात रोग में सावधानी :
वातज रोगों से पीड़ित व्यक्तियों को नमक का सेवन कम मात्रा में करना चाहिए साथ ही हमेशा गरम पानी से ही स्नान करना चाहिए।
इस प्रकार आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित वनौषधियों का सेवन करें व वात रोगों से छुटकारा पाए। वात रोग से बचाव के लिए भी इन जड़ी-बूटियों की अहम भूमिका है। दैनिक जीवन में भी आप इनका प्रयोग कर स्वस्थ जीवन यापन कर सकते है।
(अस्वीकरण : दवा ,उपाय व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार उपयोग करें)
Atyant sundar jankari