वमन कर्म के स्वास्थ्य लाभ और फायदे – Benefits of Vaman Karma in Hindi

Last Updated on October 13, 2020 by admin

आयुर्वेद सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ एवं स्वदेशी चिकित्सा पद्धति है, जिसका मुख्य उद्देश्य स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना एवं रोगी के रोग का नाश करना है। इन्हीं उद्देश्यों को ध्यान में रखकर पंचकर्म चिकित्सा का निदान है। आयुर्वेद में 2 प्रकार से चिकित्सा की जाती है। 1) संशमन, 2) संशोधन चिकित्सा।

संशमन चिकित्सा में औषधियों का प्रयोग करके रोग उत्पन्न करने वाले कारणों का शमन किया जाता है तथा संशोधन चिकित्सा के अंतर्गत शरीर में रोग उत्पन्न करने वाले दोषों को शरीर से बाहर निकालकर शोधन किया जाता है।

आयुर्वेद के मूल सिद्धांतों के अनुसार रोग दोष (वात-पित्त-कफ) की वृद्धि से होते हैं। ये दोष वृद्धिगत होकर किसी भी स्रोत में स्थान संश्रय करके रोग उत्पन्न करते हैं। इन्हें वहां से कोष्ठ (पेट) में लाकर पंचकर्म द्वारा बाहर निकाला जाता है। संशमन चिकित्सा द्वारा शमन किए गए दोष पुनः रोग उत्पन्न नहीं करते हैं। पंचकर्म चिकित्सा को संशोधन चिकित्सा के अंतर्गत रखा गया है।

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क्या है वमन कर्म ? (What is Vamana Karma in Hindi)

वमन कर्म आयुर्वेदीय पंचकर्म चिकित्सा का महत्वपूर्ण कर्म है। यह उर्ध्वभागहर संशोधन चिकित्सा एवं पंचकर्म के 5 प्रधान कर्मों में प्रथम कर्म है। वमन प्रधानतया कफदोष की चिकित्सा है।
‘तंत्र दोष हरणमूर्ध्वभाग वमन संज्ञाकम्’ अर्थात् कुपित दोषों को उर्ध्वमार्ग या मुख से विधिपूर्वक निकालने की क्रिया को वमन कहते हैं।

वमन का सामान्य अर्थ है- उलटी। विशिष्ट प्रक्रिया से उलटी करवाने को वमन कहते हैं। आयुर्वेद में वमन एवं छर्दि दो शब्द प्रयुक्त होते हैं, जिनका सामान्य अर्थ ‘उलटी होता है, लेकिन छर्दि आहार-विहार की गड़बड़ी एवं अन्य कारणों द्वारा स्वतः उत्पन्न होती है। इसलिए छर्दि एक स्वतंत्र रोग एवं किसी रोग का लक्षण है, जबकि ‘वमन’ चिकित्सा का एक कर्म अर्थात चिकित्सा है, जिसमें पूर्वकर्मों के कराने के पश्चात सभी नियमों को ध्यान में रखते हुए वामक औषधि का सेवन कराकर उलटी करायी जाती है। इस प्रकार जब दोष स्वयं उत्क्लिष्ट होकर बाहर निकलें, तो छर्दि रोग होता है। परंतु जब उन्हें औषधि से बाहर निकालते हैं, तब उसे वमन कहते हैं।

वमन कर्म के फायदे (Advantages of Vamana Karma in Hindi)

आयुर्वेद में शरीरगत दोषों को बाहर निकालने के लिए वात के लिए बस्ति, पित्त के लिए विरेचन और कफ के लिए वमन सर्वश्रेष्ठ उपाय बताए गये हैं। इस तरह वमन कर्म ‘कफ दोष’ के निवारण के लिए किया जाता है। कफ का स्थान उर्ध्व भाग में है और आमाशय इसका प्रमुख स्थान बताया गया है और सन्निकट मार्ग से दोषों को निकालना यह स्वीकृत सिद्धांत है। इसलिए वमन कर्म में दोष को उर्ध्व मार्ग अर्थात् मुख से बाहर निकाला जाता है।

केवल कफ या श्लेष्मा को बाहर निकालने या उसका शमन करने के लिए वमन कर्म का प्रयोग नहीं कराया जाता है, बल्कि कफ से उभंग में दूषित मल, दोष, शरीर के स्रोतों में चिपकने वाले अलग से उत्पन्न तथा बाहर की ओर जाने परिपक्व धातु, वात, पित्त, कफ एवं अन्य भाग, जो शरीर में रहकर शरीर के लिए हानिकारक होते हैं, उनको भी मल कहते हैं, इनका निर्हरण वमन कर्म के द्वारा किया जाता है।

वमन कर्म से केवल आमाशय का ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण शरीर का शोधन होता है क्योंकि वमन कराने के पूर्व स्नेहन, स्वेदन करके शरीर में क्लेद या गीलापन उत्पन्न किया जाता है। इस क्लेद में दोष घुलकर आमाशय में आ जाते हैं, तत्पश्चात् वामक द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है, जो अपने गुणों के प्रभाव से आमाशय में उपस्थित दोषों को बाहर निकाल देते हैं।

पित्तान्त वमन श्रेष्ठ वमन है अर्थात् जब कफ तो पूर्ण निकल जाए और पित्त निकलने लगे तब पूर्ण वमन हो गया है, ऐसा समझना चाहिए। वमन केवल रोगों में दोषों को बाहर निकालने के लिए प्रयुक्त नहीं होता, बल्कि स्वस्थ व्यक्तियों में भी वसंत ऋतु में रक्षण के लिए किया जाता है।

( और पढ़े – वात पित्त कफ दोष के कारण लक्षण और इलाज )

वमन कर्म के योग्य व्यक्ति (Persons suitable for Vamana Karma in Hindi)

वमन कर्म सामान्यतः पीनस (जीर्ण प्रतिश्याय), नवज्वर, कुष्ठ (त्वचा के रोग), राजयक्ष्मा (टी.बी.), श्वास, कास, गलगंड, श्लीपद, गलग्रह, प्रमेह, मंदाग्नि, विरुद्ध भोजन करने वाले का अजीर्ण, अलसक, जिसने विष पिया हो, विसूचिका, विषदग्ध या विषदष्ट में करते हैं।
इसके अलावा पांडुरोग (एनिमिया), शोथ (सूजन), उन्माद, अपस्मार, विद्रधि, विसर्प तथा कफ-प्रधान व्याधियों में वमन कराना चाहिए।

वमन कर्म के अयोग्य व्यक्ति (Persons Unsuitable for Vamana Karma in Hindi)

वमन कर्म अतिस्थूल, अतिकृश, बालक, वृद्ध, दुर्बल, क्षतक्षीण, प्यासा, भूखा, निरंतर कार्य करने से थका हुआ, बोझ उठाने से थका, उपवास, मैथुन, अध्ययन से दुर्बल व्यक्तियों में नहीं कराना चाहिए।
इसके अलावा चिंताग्रस्त, कृमि, उर्ध्वगरक्तपित्त, प्लीहा दोष, उदर, अर्श एवं वात रोगी व्यक्तियों में वमन नहीं कराना चाहिए। वमन कर्म में साधारणतया निम्न बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए –

  • ऐसी व्याधि जिसमें आशुकरिता हो जैसे- हृदयरोग,उदावर्त आदि।
  • वे व्याधियां, जो बहुत कर्षण कराती है- क्षतक्षीणादि।
  • वमन में दोषों की गति उर्ध्वभाग में होती है, ऐसे रोग जो इसी प्रकार के गति करते हैं जैसे- उर्ध्ववात, उर्ध्वागत रक्तपित्त, छर्दि आदि।
  • अत्यंत दुर्बलावस्था, बाल, वृद्ध आदि।
  • मर्म स्थान के रोग जैसे – हृदय, शिरा, वस्ति के रोग।
  • नाजुक अवस्था जैसे – गर्भिणी, सुकुमार आदि में वमन कर्म नहीं करना चाहिए।

वामक औषधि (Vamana Medicines)

वमन कर्म में प्रयोग आने वाली औषधियां वामक द्रव्य कहलाती हैं। वामक द्रव्य अग्नि और वायु महाभूत प्रधान होता है, जिससे वह उर्ध्वगति करके वमन कराता है। वामक द्रव्यों के अलग कण्ठ में जिह्वामूल को उपजिविल्का और अन्न नलिका के प्रारंभिक भाग को अंगुली, कमलनाथ, रबर आदि किसी मृदु वस्तु से स्पर्श कर यांत्रिक उत्तेजना से भी वमन किया जाता है। यह विधि भी आयुर्वेद सम्मत है।

सभी आचार्यों ने वामक द्रव्यों में श्रेष्ठ मदनफल को माना है। इसके अलावा हेमवती वचा, शुणपुष्पी, बिम्बी, यष्टिमधु, निम्ब, जीमूत, पिप्पली, कुटज, धामागर्व, लवण, जी भूतक, कृतवेधन, सदापुष्पी (अक), इंद्रवरुणी, कोबिदार, विदुल, प्रत्यकपुष्पी (अपामार्ग), एला (इलायची), विडंग, सर्वस (सरसों), करंज, मूर्वा (मरोडफली) चक्रमर्द, मधुक (महुवा), ऋष (खीरा), आदि द्रव्यों का रोगानुसार वमनकर्म में प्रयोग किया जाता है। प्रयोग भेद से उपरांत द्रव्यों का कषाय, चूर्ण, कर्ति, लेह स्नेह, यवामु, क्षीर, दधि, घृत, यूष इन रूपों में वामक द्रव्यों का प्रयोग करते हैं। रोग, देश, वयःकाल, कोष्ठ तथा व्याधि बल को देखकर वामक द्रव्यों की मात्रा निश्चित करनी चाहिए।

वमन कर्म की विधि (Vamana Therapy Method in Hindi)

रोगी को यथोचित पूर्वकर्म-स्नेहन, स्वेदन कराए जाने के उपरांत वमन कराने के पूर्व संध्या में कफ का उत्क्लेशन करने वाले आहार दें जैसे- दूध, दही, उड़द, तिल, भिंडी, अरबी की सब्जी आदि। सबसे अच्छा तरीका दही-बड़े का प्रयोग करा देना चाहिए।

सुबह वमन कराने के लिए वामक औषधि सेवन करने के पूर्व रोगी को दुध, गन्ने का रस, दही, मट्ठा में कोई वस्तु भरपेट पिलानी चाहिए। इसके उपरांत मंत्र का उच्चारण करते हुए वामक औषधि देनी चाहिए।

वामक औषधि पिलाने के बाद 40 मिनट तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि इतने समय में वमन न हो, तो मात्रा की कमी समझनी चाहिए।

उचित वमन के लक्षण (Signs of proper Vamana)

वस्तुतः जब जब वमन शुरू होता है, तो एक ही वेग में समाप्त नहीं होता। यदि आठ वेग आएं तो माना जाता है कि प्रवर (श्रेष्ठ) शोधन हुआ, यदि छह वेग आएं तो मध्यम और चार ही वेग आने पर हीन शुद्धि मानी जाती है। वमन में पहले वेग की गणना नहीं की जाती क्योंकि इसमें दोष अल्प मात्रा में वमनौषधि से पहले गया द्रव्य साथ में निकलता है।

वमन के प्रारंभ में कफ और अंत में जब पित्त निकलता दिखायी दे, तो मानना चाहिए कि रोगी को सम्यक वमन हो गया है। इस प्रकार सम्यक वमन में क्रमशः कफ-पित्त-वायु निकलती है। दोषहरण, हृदय पार्श्व एवं स्रोतस शुद्धि, शरीर में हलकापन, दुर्बलता, कंठशुद्धि, इन्द्रिय शुद्धि आदि सम्यक वमन होने के लक्षण हैं।

ऐसे होती है प्रक्रिया –

आयुर्वेदानुसार वामक औषधियां अपने गुणों और वीर्य से हृदय को उत्तेजित करती हैं और उर्ध्वगति करती हैं। धमनियों में रसरक्तवाहिनियां तथा वातवाहिनियां सूक्ष्म तथा स्थूल स्रोतों (Cappillaries & Cells) में पहुंचकर कार्य करती हैं।

उष्ण तीक्ष्ण गुण से कफ दोष विलयन का कार्य, सूक्ष्म गुण से तथा अणुप्रणव भाव से स्रोतमुखों द्वारा स्रावित होकर आमाशय की ओर दोषों का लाना, अग्निवायु प्रधानता से ऊपर की और जाना एवं उर्ध्वभाव प्रभाव से तथा प्राणवायु व उदानवायु से प्रेरित होकर आमाशय से ऊपर की ओर दोषों को फेंकती हैं। उपयुक्त अवस्था में एक के बाद एक क्रम से होकर वमन होता है।

आधुनिक मतानुसार वामक द्रव्यों को एमेटिक (Emetic) कहा जाता है और वमन की प्रक्रिया को एमेसिस (Emesis) कहते हैं। वामक द्रव्य प्रायः उत्क्लेश, लालस्राव में स्वेद प्रवृत्ति, वायुवह स्रोतों तथा अन्ननलिका में कफस्राव के साथ होता है। वमन प्रकृति में नाड़ी की गति बढ़ी हुई होती है और श्वास अनियमित होती है। वमन के समय आमाशय का उर्ध्वद्वार (Cardiac End) खुल जाता है और अधोद्वार (Pylonic End) बंद रहकर जोरदार संकोच विकास की गति करता है। इसी समय उदर की पेशियों और डायफ्रम की संकोचन गति से आमाशय के द्रव्यों का ऊपर फेंका जाता है। इन सब गतियों का नियमन वमन नियंत्रण केन्द्र, जो मेड्यूल ओबलोगेटा के नीचे भाग में स्थित होता है, उससे किया जाता है।

वमन कर्म के जोखिम और उपचार (Vamana Therapy Risks & Treatment in Hindi)

वमन के अतियोग या वमन अधिक हो जाने पर प्यास की अधिकता, मोह, मूर्छा, वमन में झाग का आना या अन्त में रक्तयुक्त होना या रक्त का कुछ मात्रा में आना, हृदय में पीड़ा, कण्ठपीड़ा, भ्रम, दाह, जलन आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं।

वमन के हीनयोग में वमन खुलकर न आना, केवल औषधि का ही बाहर निकलना, हृदय एवं शरीर में भारीपन, खुजली, बुखार भी हो सकता है। वमन का हीनयोग तथा अतियोग दोनों अवस्थाएं हानिप्रद हैं। इसमें चिकित्सक को बड़ी सावधानी बरतनी चाहिए कि सम्यक वमन हो। यदि उपरोक्त लक्षण उत्पन्न हों, तो तुरंत आशुकारी चिकित्सा करनी चाहिए।

वमन के हीनयोग या उपयोग में लवणजल पिलाना चाहिए एवं मुख में अंगुली डालकर वमन कराना चाहिए। वमन के अतियोग में सूतशेखर रस, शंखभस्म, मयूरपिच्छ भस्म का प्रयोग एवं शीतोपचार करना चाहिए। वमन वेगों से निवृत्त होने के उपरांत रोगी को प्राकृत भोजन तक लाने की कालावधि में कुछ उपक्रम किए जाते हैं, जिन्हें पश्चात् कर्म कहते हैं।
सम्पूर्ण वमन कर्म प्रशिक्षित पंचकर्म विशेषज्ञ की देखरेख में ही कराना चाहिए।

वमन कर्म की उपयोगिता :

वसंत ऋतु में सूरज की किरणें पूरे भारत वर्ष में अधिक तीव्रता से पहुंचती है और वातावरण में ऊष्मा बढ़ने लगती है। जिस प्रकार इस काल में हिमालय में जमी बर्फ पिघलने से नदियों में जल बढ़ जाता है, उसी प्रकार शरीर में शीतकाल में जमा हुआ कफ पिघलने लगता है और उसके प्रमाण में बढ़ोतरी होती है। वसंत ऋतु में दोषानुसार कफ का प्रकोप होता है एवं पित्त व वात साम्यावस्था में रहते हैं।

इस ऋतु में कफ पिघलने से पहले, जो कफ प्राणवह स्रोतस की भीतरी भित्तियों पर चिपका था, वह पिघलने के बाद स्रोतस के बीच आकर प्राणवह स्रोतस में अवरोध की स्थिति उत्पन्न करता है। पिघले हुए कफ या कफ के प्रकोप के कारण वसंत ऋतु में ज्वर (बुखार), श्वास (अस्थमा), कास (खांसी), प्रतिश्याय (जुकाम), अग्निमांद्य (भोजन का ठीक से न पचना), अरोचक (भोजन में अरुचि) आदि बीमारियां अधिक उत्पन्न होती हैं।

चूंकि वसंत ऋतु में कफ का प्रकोप होता है और वमन कर्म प्रकुपित कफ को निकालने की श्रेष्ठ चिकित्सा है, अत: इस ऋतु में वमन कराना श्रेष्ठ माना गया है। वमन क्रिया का सम्यक योग हो जाने पर जठराग्नि की वृद्धि हो जाती है क्योंकि अभी तक जो जठराग्नि कफ दोष से ढंकी थी, वह कफ दोष के दूर होते ही समर्थ हो जाती है। आयुर्वेद में माना गया है कि सभी रोगों की उत्पत्ति का मूल कारण अग्निमांद्य है। वमन कर्म से जठराग्नि की वृद्धि होती है एवं कफदोष का निवारण होता है। इसके बाद कफ दोष शामक औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।

वमन कर्म के उपरांत कफज विकारों में शोधन के उपरांत औषधियां अधिक फायदा करती हैं। स्वास्थ्य संरक्षण हेतु शरीर शोधन के लिए वमन कर्म भी वसंत ऋतु में ही कराना उपयोगी है।

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