प्रेरक हिंदी कहानी : Hindi Storie with Moral
★ ययाति राजा( king Yayati) ने इतने पुण्य किये, इतना तप किया कि वे स्वर्गलोक गये । राजा इन्द्र के साथ एक आसन पर बैठने की उनकी योग्यता था । वे ब्रह्मलोक भी जा सकते थे ।
★ किंतु राजा इन्द्र नहीं चाहते थे कि ययाति उनकी बराबरी से बैठें । ययाति कभी ब्रह्मलोक में चले जाते, तो कभी स्वर्ग में आ जाते और इन्द्र के साथ एक ही आसन पर बैठते थे । दूसरे देवताओं से जब वे ऊँचाई पर बैठते थे तो अन्य देवताओं को भी थोडा-बहुत क्षोभ होता ही था ।
★ स्वर्गलोक में भी क्षोभ तो होता ही है क्योंकि स्वर्गलोक के वासी सूक्ष्म ‘मैं” में रहते हैं । हम लोग स्थूल ‘मैं” में जीते हैं, राजस, तामस ‘मैं” में जीते हैं, कभी-कभी सात्त्विक ‘मैं” में आते हैं । वे लोग ज्यादा समय सात्त्विक ‘मैं” में, सूक्ष्म ‘मैं” में रहते हैं । जब तक सूक्ष्म ‘मैं” रहता है तब तक तो क्षोभ होता ही है । वास्तविक ‘मैं” में जब आ जाये तब ऐसा क्षोभ नहीं होता । वास्तविक ‘मैं” से मन की सारी कामनाएँ चली जाती हैं । सूक्ष्म ‘मैं” भी निकल जाती है ।
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ।।
‘हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।
(भगवद्गीता : २.५५)
★ ययाति की प्रशंसा करते, उनको फुलाते हुये इन्द्र ने पूछा : ‘‘तुमने ऐसा कौन-सा पुण्य और तप किया कि तुम्हें मेरे आसन पर बैठने का अधिकार है और बह्मलोक में भी स्वेच्छानुसार जाने का अधिकार प्राप्त है ।
★ तब ययाति ने कहा : ‘‘मैंने इतना तप किया, इतना तप किया, इतने चान्द्रायण व्रत किये और कई वर्षों तक तो मैं पवनाहारी रहा था । तीस वर्ष तक तो मैंने निराहारी रहकर तपस्या की थी । मेरे तप की बराबरी कोई देव, गंधर्व, यक्ष, किन्नर भी नहीं कर सकता, यहाँ तक कि कोई ऋषि, मुनि भी नहीं कर सकते ।
★ अब इन्द्र रुष्ट होकर बोले : ‘‘ययाति ! तुमने अनजाने में अपने अहं को पोसा है और ऋषि-मुनियों का अपमान किया है । तुम्हारे पुण्य क्षीण हो गये हैं । तुमने अपने पुण्यों का बयान अपने ही मुख से किया है अतः तुम्हारा पुण्य-प्रभाव क्षीण हो गया है, तुम्हें यहाँ से गिराया जाता है ।
★ तब ययाति ने कहा : ‘‘मुझे स्वर्ग से भले गिरा दो, कोई हर्ज नहीं qकतु ऐसी जगह पर गिराना जहाँ मुझे कोई श्रेष्ठ महापुरुषों की मुलाकात हो । संतपुरुषों की छाया में मुझे गिराना ।
इन्द्र ने ‘तथास्तु” कह कर ययाति को वहीं गिराया जहाँ प्रतर्दन, वसुमान, शिबि और अष्टक, ये चार ऋषि आत्मानंद में मस्त रहते थे । अपने असली ‘मैं” को पहचान कर जीवन्मुक्त होकर रहते थे ।
★ ययाति राजा जब गिर रहे थे तो प्रतर्दन ऋषि ने देखा और तीन अन्य ऋषियों ने भी देखा कि ययाति गिर रहे हैं । उन्होंने ययाति से कहा :
‘‘ययाति ! जैसे विश्वामित्र ने त्रिशंकु को थाम लिया था, ऐसे ही तुम चाहो तो हम तुम्हें भी थाम सकते हैं, अपने संकल्पबल से पुनः तुम्हें स्वर्ग में भेज सकते हैं ।
तब ययाति ने कहा : ‘‘नहीं प्रभु ! मुझे आपके चरणों में गिरने दीजिए ।
जब ययाति नीचे पहुँचे तब ऋषियों ने पूछा : ‘‘तुम्हें क्या चाहिए ?
★ ययाति कहते हैं : ‘‘अब मुझे स्वर्ग भी नहीं चाहिए, ब्रह्मलोक भी नहीं चाहिए । अब तो मुझे ऐसी चीज चाहिए कि जिसे पाने के बाद पुनः पतन न हो , पुनः गिरना न पडे । ऐसा चाहिए कि जिसे भोगने के बाद नाश न हो ।
तब ऋषिगण कहते हैं :
‘‘भोगने के बाद नाश न हो, ऐसा चाहिए तो भोक्ता के अहंकार का ही नाश कर दो तो बाकी तुम्हारा असली ‘मैं” प्रगट हो जायेगा ।
इस प्रकार आत्मज्ञान का उपदेश पाकर ययाति परमपद को प्राप्त हुये ।
★ जगत का चिन्तन जितना करोगे, जितनी बातचीत करोगे उतनी या तो राग बढेगा या द्वेष बढेगा । अज्ञानी के साथ यदि आप व्यवहार करोगे तो आपको जगत की सत्यता की दृढता हो जायेगी । यह संसार मिथ्या है, स्वप्नवत् है । इसको सच्चा समझकर आप चाहे कुछ भी कर लो, चाहे कुछ भी पा लो । फिर भी जब ययाति जैसों का पतन हो जाता है तो अपनी क्या बात है ?
★ इस जगत की सत्यता दृढ मत करो, यह मिथ्या है, सपना है । बचपन बीत गया, सपना हो गया, कल सपना हो गया, आज सपना हो रहा है । यह दुनिया हर क्षण सपने में सरकती जाती है । रामायण में भगवान शिवजी ने कहा है :
उमा कहऊं मैं अनुभव अपना ।
सत्य हरि भजन जगत सब सपना ।।
★ अतः अपने वास्तविक ‘मैं” को पहचानना चाहिए । तीन प्रकार की ‘मैं” होती है – एक स्थूल ‘मैं”, दूसरी सूक्ष्म ‘मैं” एवं तीसरी वास्तविक ‘मैं” । वास्तविक ‘मैं” का जब तक साक्षात्कार नहीं होता, तब तक ईश्वर के वास्तविक स्वरूप का भी साक्षात्कार नहीं हो सकता, मुक्ति भी नहीं हो सकती ।
★ मायाविशिष्ट चैतन्य श्रीकृष्ण का दर्शन तो शकुनि जैसों को भी हुआ था । मंथरा, शूर्पणख और धोबी को भी रामजी का दर्शन हुआ था । वास्तविक ‘मैं” का साक्षात्कार करना ही पडेगा । चाहे आज करो या एक साल के बाद करो या एक जन्म के बाद करो या एक हजार जन्म के बाद… किंतु साक्षात्कार करना ही पडेगा । दूसरा कोई उपाय नहीं है । चाहे पूरे विश्व में अपने नाम का डंका बजाओ, अपने नाम का नहीं, शरीर के नाम का डंका । शरीर को ‘मैं” या ‘मेरा” मानना यह बेवकूफी है । ‘मैं” मानने से अहंता होती है, ‘मेरा मानने से ममता होती है । न तुम शरीर हो, न शरीर तुम्हारा है । वह तो पाँच भूतों का पुतला है । वह प्रकृति के तीन गुणों से संचालित होता है और उसमें सत्तामात्र तुम हो । प्रकृति को सत्ता देनेवाले तुम चैतन्य हो, अपने शुद्ध-बुद्ध वास्तविक ‘मैं” को पहचानो ।
श्रोत – ऋषि प्रसाद मासिक पत्रिका (Sant Shri Asaram Bapu ji Ashram)
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