Last Updated on July 22, 2019 by admin
कुण्डलिनी के षटचक्र और उनका वेधन : Kundalini Shatchakra Bhedan
★ कुण्डलिनी साधना को अनेक स्थानों पर षट्चक्र वेघने की साधना भी कहते हैं | एम. ए एक डिग्री है । इसे हिन्दी, अंग्रजी, सिविक्स, इकानामिक्स किसी भी विषय से प्राप्त किया जा सकता है | उसी प्रकार आत्म-तत्व, आत्म-शक्ति एक है उसे प्राप्त करने के लिए विवेचन, विश्लेषण और साधना विधान भिन्न हो सकते हैं । इसमें किसी तरह का विरोधाभाष नहीं है ।
★ तैत्तरीय आरण्यक में चक्रों को देवलोक एवं देव संस्थान कहा गया है । शंकराचार्य कृत आनन्द लहरी के १७ वें श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है ।योग दर्शन समाधिपाद का ३६ वां सूत्र है –
विशोकाया ज्योतिष्मती ।।
इसमें शोक सन्तापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुण्डलिनी शक्ति की ओर संकेत है ।
★ इस समस्त शरीर को, सम्पूर्ण जीव कोशों को, महाशक्ति की प्राण प्रक्रिया सम्भाले हुए है | उस प्रक्रिया के दो ध्रुव, दो खण्ड हैं | एक को चय प्रक्रिया एनाबॉलिक एक्शन तथा दूसरे को अपचय प्रक्रिया ( केटाबॉलिक एक्शन ) कहते हैं । इसी को दार्शनिक भाषा में शिव एवं शक्ति भी कहा जाता है । शिव क्षेत्र सहस्रार तथा शक्ति क्षेत्र मूलाधार कहा गया है। इन्हें परस्पर जोड़ने वाली, परिभ्रमण शील शक्ति का नाम कुण्डलिनी है ।
सहस्रार और मूलाधार का क्षेत्र विभाजन करते हुए मनीषियों ने मूलाधार से लेकर कण्ठ पर्यन्त का क्षेत्र एंव चक्र संस्थान ‘शक्ति भोग बताया है और कण्ठ से ऊपर का स्थान ‘शिव देश कहा है ।
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★ मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है । कण्ठ के ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है। यह बात पहले कही जा चुकी है ।
मूलाधार से सहस्रार तक की, काम बीज से ब्रह्म बीज तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं। योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए | परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं । जीव सत्ता-प्राण शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है । प्राण उसी भूमि में रहने वाले रजवीर्य से उत्पन्न होते हैं । ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलोक में ब्रह्मरन्ध्र में माना गया है । यह घुलोक, देवलोक, स्वर्ग लोक है । आत्मज्ञान का, ब्रह्मा ज्ञान का सूर्य इसी लोक में निवास करता है | कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्माजी, कैलाशवासी शिव और शेषशायी विष्णु का निवास जिस मस्तिष्क मध्य केन्द्र में है उसी नाभिक ( न्यूकलियस ) को सहस्रार कहते हैं | आत्म साक्षात्कार की प्रक्रिया यहीं सम्पन्न होती है |
★ पतन के स्खलन के गर्त में पड़ी क्षत-विक्षत आत्म सत्ता जब ऊर्ध्वगामी होती है तो उसका लक्ष्य इसी ब्रह्मलोक तक सूर्यलोक तक पहुँचना होता है | योगाभ्यास का परम् पुरुषार्थ इसी निमित्त किया जाता है | कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य यही है |
★ आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस राजमार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं । उसका एक सिरा मस्तिष्क का, दूसरा काम केन्द्र का स्पर्श करता है । कुण्डलिनी साधना की समस्त गतिविधियाँ प्रायः इसी क्षेत्र को परिष्कृत एवं सरल बनाने के लिए हैं । इड़ा पिंगला के प्राण प्रवाह इसी क्षेत्र को दुहराने के लिए नियोजित किये जाते हैं । साबुन, पानी से कपड़े धोये जाते हैं । झाडू-झाड़न से कमरे की सफाई होती है | इड़ा-पिंगला के माध्यम से किये जाने वाले नाड़ी शोधने प्राणायाम मेरुदण्ड का संशोधन करने के लिए हैं ।
★ इन दोनों ऋणात्मक और घनात्मक शक्तियों का उपयोग सृजनात्मक उद्देश्य से भी होता है । इमारतें बनाने वाले कारीगर कुछ समय नींव खोदकर गड्ढा करते हैं इसके बाद वे ही दीवार चुनने के काम में लग जाते हैं । इसी प्रकार इड़ा पिंगला संशोधन और सृजन का दुहरा काम करते हैं । जो आवश्यक है उसे विकसित करने में वे कुशल माली की भूमिका निभाते हैं । यों आरम्भ में जमीन जोतने जैसा ध्वंसात्मक कार्य भी उन्हीं को करना पड़ता है, पर यह उत्खनन निश्चित रूप से उन्नयन के लिए होता है | माली भूमि खोदने, खर-पतवार उखाड़ने, पौधे की काट-छाँट करने का काम करते समय ध्वंस में संलग्न प्रतीत होता है, पर खाद पानी देने रखवाली करने में उसकी उदार सृजनशीलता का भी उपयोग होता है । इट्टा पिंगला के माध्यम से सुषुम्ना क्षेत्र में काम करने वाली प्राण विद्युत का विशिष्ट संचार क्रम प्रस्तुत करके कुण्डलिनी जागरण की साधना सम्पन्न की जाती है ।
★ मेरुदण्ड को राजमार्ग-महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग में पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है | इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । इस्लाम धर्म के सातवें आसमान पर खुदा का निवास माना गया है । ईसाई धर्म में भी इससे मिलती-जुलती मान्यता है । हिन्दू धर्म के भूः ,भुवः, स्वः ,जनः ,तपः महः ,सत्यम् यह सात लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है । लम्बी मंजिलें पूरा करने के लिए लगातार ही नहीं चला जाता । बीच-बीच में विराम भी लेने होते हैं । रेलगाड़ी गन्तव्य स्थान तक बीच के स्टेशन पर रुकती, कोयला, पानी लेती चलती है । इन विराम स्थलों को ‘चक्र’ कहा गया है |
★ चक्रों की व्याख्या दो रूपों में होती है, एक अवरोघ के रूप में दूसरे अनुदान के रूप में । महाभारत में चक्रव्यूह की कथा है । अभिमन्यु उसमें फँस गया था । वेघन कला की समुचित जानकारी न होने से वह मारा गया था । चक्रव्यूह में सात परकोटे होते हैं । इस अलंकारिक प्रसंग को आत्मा का सात चक्रों में फँसा होना कह सकते हैं । भौतिक आकर्षणों की, भ्रांतियों की, विकृतियों की चहार दीवारी के रूप में भी चक्रों की गणना होती है । इसलिए उसके वेधन का विधान बताया गया है । रामचन्द्रजी ने बाली को मार सकने की अपनी क्षमता का प्रमाण सुग्रीव को दिया था । उनने सात ताड़ वृर्षों को एक वाण से बेधकर दिखाया था । इसे चक्रवेघन की उपमा दी जा सकती है । भागवत माहात्म्य में धुंधकारी प्रेत का बांस की सात गाँठे फोड़ते हुए सातवें दिन कथा प्रभाव से देव देहधारी होने की कथा है । इसे चक्रवेधन का संकेत समझा जा सकता है ।
★ चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिए कहा जाता है कि उनके अन्तराल में दिव्य सम्पदायें भरी पड़ी हैं। उन्हें ईश्वर ने चक्रों की तिजोरियों में इसलिए बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता, पात्रता की स्थिति आने पर ही उन्हें खोलने उपयोग करने का अवसर मिले | कुपात्रता, अयोग्यता की स्थिति में बहुमुल्य साधन मिलने पर तो अनर्थ ही होता है । कुसंस्कारी सन्ताने उत्तराधिकार में मिली बहुमूल्य सम्पदा से दुर्व्यसन अपनाती और विनाश पथ पर तेजी से बढ़ती हैं। छोटे बच्चों को बहुमूल्य जेवर पहना देने से उनकी जान जोखिम का खतरा उत्पन्न हो जाता है । धातुओं की खदानें जमीन की ऊपरी परत पर बिखरी नहीं होती उन्हें प्राप्त करने के लिए खुदाई करनी पड़ती है | मोती प्राप्त करने के लिए समुद्र मैं गहरे गोते लगाने पड़ते हैं | यह अवरोध इसलिए है कि साहसी एवं सुयोग्य सत्पात्रों को ही विभूतियों का वैभव मिल सके | मेरुदण्ड में अवस्थित चक्रों को ऐसी सिद्धियों का केन्द्र माना गया है, जिनकी भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिए नितान्त आवश्यकता रहती है ।
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★ चक्रवेघन, चक्रशोधन, चक्र परिष्कार, चक्र जागरण आदि नामों से बताये गये विवेचनों एवं विधान में कहा गया है कि इस प्रयास से अदक्षताओं एवं विकृतियों का निराकरण होता है । जो उपयुक्त है उसकी अभिवृद्धि का पथ प्रशस्त होता है | सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन दुष्प्रवृत्तियों के दमन में यह चक्रवेघन विघान कितना उपयोगी एवं सहायक है, इसकी चर्चा करते हुए शारदा तिलक ग्रन्थ के टीकाकार ने ‘आत्म विवेक नामक किसी साधना ग्रन्थ का उद्धरण प्रस्तुत किया गया है कि
गुदलिङान्तरे चक्रमाधारं तु चतुर्दलम् ।
परमः सहजस्तद्वदानन्दो वीरपूर्वकः॥
योगानन्दश्च तस्य स्यादीशानादिदले फलम् ।
स्वाधिष्ठानं लिंगमूले षट्पत्रञ्त्र् क्रमस्य तु॥
पूर्वादिषु दलेष्वाहुः फलान्येतान्यनुक्रमात् ।
प्रश्रयः क्रूरता गर्वों नाशो मूच्छर् ततः परम्॥
अवज्ञा स्यादविश्वासो जीवस्य चरतो धु्रवम् ।
नाभौ दशदलं चक्रं मणिपूरकसंज्ञकम् ।
सुषुप्तिरत्र तृष्णा स्यादीष्र्या पिशुनता तथा॥
लज्ज् भयं घृणा मोहः कषायोऽथ विषादिता ।
लौन्यं प्रनाशः कपटं वितर्कोऽप्यनुपिता॥
आश्शा प्रकाशश्चिन्ता च समीहा ममता ततः ।
क्रमेण दम्भोवैकल्यं विवकोऽहंक्वतिस्तथा॥
फलान्येतानि पूर्वादिदस्थस्यात्मनों जगुः ।
कण्ठेऽस्ति भारतीस्थानं विशुद्धिः षोडशच्छदम्॥
तत्र प्रणव उद्गीथो हुँ फट् वषट् स्वधा तथा ।
स्वाहा नमोऽमृतं सप्त स्वराः षड्जादयो विष॥
इति पूर्वादिपत्रस्थे फलान्यात्मनि षोडश॥
(१) गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला ‘आधार चक्र’ है । वहाँ वीरता और आनन्द भाव का निवास है ।
(२) इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है । उसकी छः पंखुरियाँ हैं । इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है ।
(३) नाभि में दस दल वाला मणिचूर चक्र है । यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में लड़ जमाये पड़े रहते हैं
(४) हृदय स्थान में अनाहत चक्र है । यह बारह पंखरियों वाला है । यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक अहंकार से भरा रहेगा । जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे ।
(५) कण्ठ में विशुद्धख्य चक्र यह सरस्वती का स्थान है । यह सोलह पंखुरियों वाला है । यहाँ सोलह कलाएँ सोलह विभतियाँ विद्यमान है
(६) भू्रमध्य में आज्ञा चक्र है, यहाँ ‘ॐ’ उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा स्वहा, सप्त स्वर आदि का निवास है । इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग पड़ती हैं ।
★ श्री हडसन ने अपनी पुस्तक ‘साइन्स आव सीयर-शिप’ में अपना मत व्यक्त किया है । प्रत्यक्ष शरीर में चक्रों की उपस्थिति का परिचय तंतु गुच्छकों के रूप में देखा जा सकता है । अन्तः दर्शियों का अनुभव इन्हें सूक्ष्म शरीर में उपस्थिति दिव्य शक्तियों का केन्द्र संस्थान बताया है ।
★ कुण्डलिनी के बारे में उनके पर्यवेक्षण का निष्कर्ष है कि वह एक व्यापक चेतना शक्ति है । मनुष्य के मूलाधार चक्र में उसका सम्पर्क तंतु है जो व्यक्ति सत्ता को विश्व सत्ता के साथ जोड़ता है । कुण्डलिनी जागरण से चक्र संस्थानों में जागृति उत्पन्न होती है । उसके फलस्वरूप पारभौतिक (सुपर फिजीकल) और भौतिक (फिजीकल) के बीच आदान-प्रदान का द्वार खुलता है । यही है वह स्थिति जिसके सहारे मानवी सत्ता में अन्तर्हित दिव्य शक्तियों का जागरण सम्भव हो सकता है ।