प्रणव (ओम्) की महिमा और रहस्य : समस्त सिद्धियों का मूल ओम्

Last Updated on June 21, 2020 by admin

ब्रह्मांड का सतत गुंजायमान नाद ‘ओम्’ :

समस्त ब्रह्मांड एक अव्यक्त-अलक्षित ध्वनि से सतत गुंजायमान है। भारतीय ऋषियों ने इस दिव्य नाद को प्रणव’ अथवा ‘ओम्’ के रूप में निरूपित किया है। यह आदि शब्द, जो नाद एवं ध्यान में निहित है। यह नवजात शिशु का प्रथम उच्चारण है और इसी का वाच्यार्थ ब्रह्म है, प्रणव सभी वेदों का सार है। यह सृष्टि के विकास का सूत्र है। यह भारतीय धर्म, दर्शन, अध्यात्म, तंत्र और ज्ञान का मूल एवं बीजमंत्र है। यह प्राचीनतम वैदिक वाङ्मय से लेकर अद्यतन वाङ्मय तक सर्वोपरि महिमा और भास्वरता के साथ देदीप्यमान है। भारतीय वाङ्मय का कोई भी अंग इसकी महिमा एवं गरिमा से अछूता नहीं है। सिद्ध, साधक, संत और योगी सभी इसका बखान करते थकते नहीं हैं।

वेद शास्त्रों मे ओम् का अर्थ निरूपण :ओ३म् का अर्थ

  • प्रणव शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख माध्यांदिन संहिता, काव्य संहिता तथा ऋग्वेद के खिल सूक्त में मिलता है। प्रणव शब्द प्र+णु-स्तुतौ+अप उपसर्ग के योग से निष्पन्न होता है। प्र-उपसर्ग पूर्वक-णु धातु का प्रयोग ऋग्वेद के कई स्थानों पर मिलता है। ऋग्वेद में इसका अर्थ शब्द-गतिस्तुतिपरक माना गया है। ऋग्वेद के खिल सूक्त में ओंकार रूप प्रणव को ही पुरुषोत्तम तथा परमात्मा कहा गया है। प्रणव ही एकाक्षर ब्रह्म है।
  • योग सूत्रकार पतंजलि ने तस्य वाचकः प्रणवः (१/२७) सूत्र में प्रणव को ईश्वर का वाचक माना है। ऋग्वेद का प्रथम मंत्र ॐ अग्रिमीळे और इसके आरण्यक् का अंत इत्योम् से होता है। इसी प्रकार
  • यजुर्वेद में “ॐ इथे त्वोजें त्वा” और “ॐ खं ब्रह्म” है।
  • अथर्ववेद में इसे सेतु कहा गया है, क्योंकि यह मंत्रों के लिए सेतुरूप है।

ब्राह्मण ग्रंथों में प्रणव (ओम्) की महिमा :

ब्राह्मण ग्रंथों में प्रणव की महत्ता एवं महिमा के अनेक संदर्भ मिलते हैं-

  • शतपथ ब्राह्मण के अनुसार “ओम् का ध्यान करना चाहिए। यही सत्य एवं यथार्थ है। इसे सभी देवता जानते हैं।”
  • ऐतरेय की मान्यता है- “ब्रह्म के सृष्टिसृजन में तीनों व्याहृतियों के तप से ओम् की सृष्टि हुई। उसी का विस्तार समस्त ब्रह्मांड में है। वही स्वर्ग है। सूर्यरूप में जो तप रहा है, वही ओम् है।”
  • गोपथ ब्राह्मण में स्पष्ट किया गया है कि ब्रह्मा ने सृष्टि-रचना के प्रारंभ में ओम् का ही सर्वप्रथम साक्षात्कार किया। गोपथ ब्राह्मण ओंकार में आध्यात्मिक उपासना का भी उल्लेख मिलता है।
    अध्यात्ममात्म भैषज्यमात्म कैवल्यमोंकारः।
    अर्थात-ओंकार अध्यात्म, आत्मभैषज्य तथा आत्मकैवल्य रूप है। ओम् की उपासना से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है, इस नश्वर संसार के गतिचक्र से मुक्त हुआ जा सकता है।

ईश्वर प्राप्ति के लिए उपनिषद् की प्रखर साधना : ओंकार साधना

उपनिषद् की प्रखर साधना-भूमि में ओंकार को साधना का बीजमंत्र माना गया है। इसकी मान्यता है कि यह विश्वात्मक एवं विश्वातीत दोनों है।

  1. अथर्वशिर उपनिषद् के अनुसार जो हृदयघट में नित्य रहता है, उसी को ‘अ उ म्’ तीन मात्रा कहा जाता है। इसी घट में स्थित पुरुष का उत्तर भाग ओंकार है और वही सर्वव्यापी, अनादि, अनंत, सूक्ष्मातिसूक्ष्म और ब्रह्म है। वही सद् और महेश्वर है। इसको एक बार उच्चरित करने पर मन के साथ सकल प्राणवायु षट्चक्र भेदकर सुषुम्ना से शिरोदेश में पहुंचकर
    गुंजायमान होता है। इसी कारण इसे ओंकार कहा गया है।
    इसी उपनिषद् के अनुसार –
    प्राणान् सर्वान् प्रलीयत इति प्रलयः। (प्रणवः)
    प्राणान्सर्वान् परमात्मनि प्रणाययतीत्येतस्मात्प्रणवः॥
    यह समस्त प्राणिमात्र का विनाश करता है अथवा सभी प्राणियों को परमात्मा के प्रति प्रणाम कराता है इसलिए इसे प्रणव कहा गया है।
  2. ध्यानबिंदूपनिषद् में प्राणों के द्वारा उच्चरित बिंदुपर्यंत प्रणव के पश्चात नाद को जो जानता है, वही वेदों का ज्ञाता है। प्रणव धनुष है, आत्मा बाण है और परब्रह्म ही एकमात्र लक्ष्य है।
  3. तेजोबिंदूपनिषद् के अनुसार ओंकार मायिक जगत के परे हृदय में अवस्थित प्रणव के तेजोमय बिंदु का ध्यान ही परम है।
  4. ऋग्वेदीय नादबिंदूपनिषद् में ओंकार की हंस के रूप में उपासना का उल्लेख है।
  5. अमृतनादोपनिषद् में प्रणवोपासना का मर्म बताते हुए स्पष्ट किया गया है कि ओंकार के रथ में बैठकर, भगवान विष्णु को सारथी बनाकर ब्रह्मलोक का अन्वेषण करते हुए सद् की आराधना में तल्लीन होना चाहिए।
  6. नारद परिव्राजकोपनिषद् में ब्रह्मा द्वारा नारद से ओंकार को ही तारक मंत्र कहा गया है।
  7. नारायणोपनिषद् में प्रणव की मात्राओं के विवेचन के साथ ही उसके अनेक मंत्रों का भी निरूपण किया गया है। विष्णुपद व ब्रह्मलोक की प्राप्ति ही प्रणवोपासना का लक्ष्य है।
  8. प्रणवोपनिषद् में प्रणव का दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विवेचन है।
  9. छांदोग्य उपनिषद् में ओम् रूप प्रणव का तादात्म्य उद्गीय से किया गया है।
  10. मांडूक्य प्रणव को उपनिषदों का महास्त्र बताता है।
  11. तैत्तिरीय का एक पूरा अनुवाक (१/८) ही उसे समर्पित-अर्पित है।
  12. प्रश्नोपनिषद् इस पर अपार भक्ति प्रदान करता है। अत: ओंकार एक ऐसी आधारशिला है, जिस पर उपनिषदों का दिव्य व भव्य प्रासाद खड़ा है।

ब्रह्मस्वरूप प्रणव (ओंकार) :

वेद एवं उपनिषद् का मूल प्रणव एवं ओंकार पुराणों में प्राचुर्य के साथ प्रयुक्त एवं प्रयोग हुआ है। पुराण भूमि में प्रणव का संबंध विभिन्न अवतरणों एवं देवी-देवताओं के रूप में दरसाया गया है, जबकि वैदिक प्रणव का सूत्र ब्रह्मविद्या से जुड़ता है।

  • भागवत पुराण में प्रणव को श्रीकृष्ण स्वरूप व शिवपुराण में शिवस्वरूप कहा गया है। इससे तत्त्वमीमांसा में कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता है, क्योंकि समस्त स्थानों में गुण, शक्ति और दिव्यता को ब्रह्मस्वरूप ही माना गया है।
  • शिवपुराण में प्रणव को वेद का सारतत्त्व माना गया है।
  • विष्णु पुराण (३/३/२७-३०) के अनुसार ओंकार ही एकाक्षर, वृहद् एवं व्यापक ब्रह्म है। इस प्रणव रूप में भूः भुवः व स्वः लोक स्थित हैं। यही वेदों का स्वरूप है।
  • हरिवंश पुराण में पूर्णावतार भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘अहमेवाक्षरो मंत्रस्यक्षरश्चैव सर्वशः’ (११/६६) अर्थात मैं ही एकाक्षर मंत्र आकार, त्रयक्षर मंत्र प्रणव तथा त्रिपद मंत्र गायत्री हूँ।
  • भागवतपुराण की प्रणवविषयक दृष्टि उपनिषदों के समान प्रतीत होती है। इसके अनुसार शरीर रथ, इंद्रियाँ हय, मन लगाम, इंद्रियों का विषय मार्ग, बुद्धि सारथी, चित्त सूत, दश प्राण अक्ष, धर्म व अधर्म चक्र, जीव रथी, ओंकार धनुष, जीवात्मा प्राण एवं ब्रह्म लक्ष्य है।
  • मार्कण्डेय पुराण के अनुसार परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करने के निमित्त ओंकार मंत्र का जप करना चाहिए।
  • देवी भागवत् में ओंकारोपासना का विशिष्ट महत्त्व बताया गया है।
  • श्रीमद्भागवत् महापुराण में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है कि ओंकार की शक्ति से ही प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त रूप में प्रकट होती है। जिस परम वस्तु को भगवान, ब्रह्म या परमात्मा के रूप में जाना जाता है, उसके स्वरूप का बोध भी ओंकार के द्वारा ही होता है।

तंत्र शास्त्रों मे प्रणव (ओम्) की महिमा :

तांत्रिक वाड़मय में भी प्रणव का विवरण मिलता है।

■ शक्ति संगम तंत्र के अनुसार प्रणव निर्गुण, वेदगोचर और वेदमाता गायत्री का आद्य है तथा इसकी उपासना निर्गुणोपासना बताई गई है।

■ स्वच्छंद तंत्र के चतुर्थ पटल में एकादशपदिका प्रकरण में प्रणव की बारह कलाओं का प्रतिपादन चार मात्रा वाला बताया गया है।

■ प्रपंचसारतंत्र में प्रणव को पचास कलाओं से युक्त माना गया है। अवधूत मत में प्रणव पुरुष के चार पादों की संज्ञा क्रमश: अकार, उकार, मकार और अर्यमात्रा है। इन्हें रजोगुण, सतोगुण, तमोगुण एवं विशुद्ध सत्त्वमय माना जाता है।

भक्ति संप्रदाय में प्रणव (ओम्) की महिमा :

भक्ति संप्रदाय में प्रणव तत्त्व की सुंदर एवं दिव्य विवेचना मिलती है।
यशोवंत दास ने प्रेमभक्ति की आलोचना के प्रसंग में स्पष्ट किया है कि निर्गुण ब्रह्मसत्ता में प्रकृति का आविर्भाव होता है। यह प्रकृति पंचकला यक्त है। इनके नाम हैं-अमि, धूर्णि, ज्योतिः, ज्वाला और बिंदु। इन पाँच कलाओं के कारण सलिल में विलीन होने पर योगमाया का जन्म होता है, जिनका आदिशक्ति अर्द्धमात्रा के नाम से वर्णन किया जाता है। इसके पश्चात कमलरूपी कालपरुष की
उत्पत्ति होती है। यह कालरूप कमल कारण समुद्र में स्थिर नहीं रह सकता, तब योगमाया अथवा अर्द्धमात्रा अपने अंग से ओंकार की सृष्टि करती है। वेद और उपनिषद् में ही नहीं, बल्कि शैव-शाक्त-वैष्णव आदि मतों में भी प्रणव का आख्यान मिलता है।

अन्य धर्मों में प्रणव (ओम्) की महिमा :

बौद्ध, जैन, सिख आदि धर्मों में भी ओंकार को स्वीकार किया गया है-

  • बौद्ध ओम मणिपोहुम का पवित्र उच्चारण करते हैं।
  • जैन धर्म में ओम् पंचपरमेष्ठि का वाचक है और सिद्धचक्र यंत्र का बीजमंत्र है। सप्ताक्षरी मंत्र ओं, ह्रीं, श्रीं अर्ह नमः में ओंकार विद्यमान है।
  • सिख धर्म में ‘एक ओंकार सद्गुरु प्रसाद’ कहकर माथा झुकाया जाता है।
  • लैटिन भाषा में ओमनिस’ का अर्थ परमसत्ता से लिया जाता है। मान्यता है कि अंगरेजी का ‘ऐम’ भी इसी का रूपांतरण है। ईसाई धर्म के ‘आमीन’ और इस्लाम के ‘अर्द्धचंद्र’ की भी ओम् से व्युत्पत्ति हुई मानी जाती है।
  • मिस्र देश के आइसिस देवता के विकास का कारण भी ई के आधार पर ‘ओम्’ माना जाता है। यहाँ ई से तात्पर्य मातृ देवी से है।

भौतिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने के लिये ओमकार साधना :

ओंकार का सूक्ष्म संबंध प्राणदात्री गायत्री से भी है। जिस प्रकार ओंकार का संबंध वेदों से है, उसी तरह गायत्री को वेदों की जननी कहा गया है। गायत्री भौतिक और आत्मिक उपलब्धि प्रदान करती है। ओंकार की विशिष्ट साधनाओं से भी ये दोनों प्रकार के लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं। महामनीषी, तंत्र, योग एवं साधना के शिखरपुरुष पं० गोपीनाथ कविराज ने स्पष्ट किया है कि गायत्री के साथ ओंकार परब्रह्म का वाचक है। उनके अनुसार ॐ भू: ॐ भुवः ॐ स्वः के जप करने से भगवद् आनंद का आस्वादन किया जा सकता है। इससे चित्त निर्मल हो जाता है और शरीर में अमृत झरने लगता है। इस प्रकार ओंकार से गायत्री जप के हजारों विधान हैं। विशिष्ट उपलब्धि प्राप्त करने के लिए विशेष विधान का अवलंबन लिया जाता है, जो योग्य मार्गदर्शक एवं गुरु के द्वारा ही प्राप्त होता हैं।

ओंकार ध्यान-बीज है। इसके तीन हजार जप करने पर ध्यान के गुह्य आयाम खुलते हैं और ओंकार के जप में किसी प्रयत्न या आयाम की आवश्यकता नहीं है। कोई भी, किसी समय और किसी परिस्थिति में इसका जप कर सकता है; क्योंकि यह स्वेच्छा से निस्सृत हो जाता है। अत: वेद, उपनिषद् और सभी धर्मग्रंथों का सार इस मंत्र का जप कर भौतिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करना चाहिए।

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