Last Updated on July 26, 2019 by admin
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।
ʹअच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।ʹ (गीताः 3.35)
तेरह वर्षीय हकीकत राय सियालकोट (वर्तमान पाकिस्तान में) के एक छोटे से मदरसे में पढ़ता था। एक दिन कुछ उदंड बच्चों ने हिन्दुओं के देवी-देवताओं के नाम की गालियाँ देनी शुरु कीं, तब उस वीर बालक से अपने धर्म का अपमान सहा नहीं गया।
हकीकत राय ने कहाः “मेरे धर्म, गुरु और भगवान के लिए एक भी शब्द बोलोगे तो यह मेरी सहनशक्ति से बाहर की बात है। मेरे पास भी जुबान है। मैं भी तुम्हें बोल सकता हूँ।”
आपके हृदय में धर्म के प्रति जितनी सच्चाई है, ईश्वर के प्रति जितनी वफादारी है, उतनी ही आपकी उन्नति होती है। – पूज्य बापू जी।
उद्दण्ड बच्चों ने कहाः “बोलकर तो दिखा ! हम तेरी खबर ले लेंगे।”
हकीकत राय ने भी उनको दो चार कटु शब्द सुना दिये। उस समय मुगलों का ही शासन था। इसलिए हकीकत राय को यह फरमान भेजा गयाः “अगर तुम हमारे धर्म में आ जाओ तो तुम्हें अभी माफ कर दिया जायेगा और यदि नहीं तो तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया जायेगा।”
“मैं अपने धर्म में ही मरना पसंद करूँगा। मैं जीते जी दूसरों के धर्म में नहीं जाऊँगा।” आखिर क्रूर शासकों ने आदेश दियाः “हकीकत राय का शिरोच्छेद कर दिया जाये।”
वह तेरह वर्षीय किशोर जल्लाद के हाथ में चमचमाती हुई तलवार देखकर जरा भी भयभीत न हुआ वरन् वह अपने गुरु के दिए हुए ज्ञान को याद करने लगाः ʹयह तलवार किसको मारेगी ? मार-मारकर पंचभौतिक शरीर को ही तो मारेगी ! और ऐसे पंचभौतिक शरीर तो की बार मिले और कई बार मर गये। …..तो क्या यह तलवार मुझे मारेगी ? नहीं। मैं तो अमर आत्मा हूँ… परमात्मा का सनातन अंश हूँ। मुझे यह कैसे मार सकती है ? ૐ….ૐ…..ૐ…..
जल्लाद ने तलवार उठायी लेकिन उस निर्दोष बालक को देखकर उसकी अंतरात्मा थर्रा उठी। उसके हाथ काँपने लगे और तलवार गिर पड़ी।
तब हकीकत राय ने अपने हाथों से तलवार उठायी और जल्लाद के हाथ में थमा दी। फिर किशोर आँखें बंद करके परमात्मा का चिंतन करने लगाः ʹहे अकाल पुरुष ! जैसे साँप केंचुली का त्याग करता है, वैसे ही मैं यह नश्वर देह छोड़ रहा हूँ। मुझे तेरे चरणों की प्रीति देना ताकि मैं तेरे चरणों में पहुँच जाऊँ….. फिर से मुझे वासना का पुतला बनकर इधर-उधर न भटकना पड़े। अब तू मुझे अपनी ही शरण में रखना… मैं तेरा हूँ, तू मेरा है…. ૐ….ૐ….ૐ….
इतने में जल्लाद ने तलवार चलायी और हकीकत राय का सिर धड़ से अलग हो गया। हकीकत राय ने 13 वर्ष की नन्हीं सी उम्र में धर्म के लिए अपनी कुर्बानी दे दी। उसने शरीर छोड़ दिया लेकिन धर्म न छोड़ा।
गुरुतेगबहादुर बोलिया, सुनो सिखो ! बड़भागिया,
धड़ दीजे धरम न छोड़िये…
हकीकत राय ने अपने जीवन में यह चरितार्थ करके दिखा दिया। ऐसे वीरों के बलिदान के फलस्वरूप ही हमें आजादी प्राप्त हुई है।
ऐसे लाखों-लाखों प्राणों की आहुति द्वारा प्राप्त की गयी इस आजादी को हम कहीं व्यसन, फैशन और चलचित्रों से प्रभावित होकर गँवा न दें ! अतः देशवासियों को सावधान रहना होगा।
जवाब दें और जीवन में लायें।
हकीकत राय का चरित्र आपको कैसा लगा ? इससे आपको क्या प्रेरणा मिली ?
ʹपाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण में युवा कहीं अपने धर्म व संस्कृति को तो नहीं खो रहे हैं ?ʹ इस पर टिप्पणी लिखें।
–Tejasvi Bano Book