Last Updated on September 6, 2022 by admin
आरोग्यवर्धिनी वटी क्या है ? arogyavardhini vati in hindi
आरोग्यवर्धिनी वटी एक आयुर्वेदिक दवा है। इसका उपयोग सूजन, हृदय रोग, पाण्डु रोग, जलोदर, पाचन शक्ति बढाने, कुष्ठ रोग आदि के आयुर्वेदिक उपचार में प्रयोग किया जाता है।
आरोग्यवर्धिनी वटी के घटक : arogyavardhini vati ingredients
- शुद्ध पारा
- शुद्ध गन्धक
- लौह भस्म
- अभ्रक भस्म
- ताम्र भस्म
- हर्रे
- बहेड़ा
- आँवला
- शुद्ध शिलाजीत
- शुद्ध गुग्गुलु
- चित्रकमूल छाल
- कुटकी
आरोग्यवर्धिनी वटी बनाने की विधि : arogyavardhini vati bnane ki vidhi
माप : 1 तोला = 12 ग्राम , 1 रत्ती = 0.1215 ग्राम
शुद्ध पारा 1 तोला, शुद्ध गन्धक 1 तोला, लौह भस्म 1 तोला, अभ्रक भस्म 1 तोला, ताम्र भस्म 1 तोला, हर्रे, बहेड़ा, आँवला प्रत्येक 2-2 तोला, शुद्ध शिलाजीत 3 तोला, शुद्ध गुग्गुलु 4 तोला, चित्रकमूल छाल 4 तोला और कुटकी 22 तोला लें। प्रथम पारद गन्धक की कजली बना उसमें अन्य भस्मों तथा शुद्ध शिलाजीत और शेष द्रव्यों का कपड़छन चूर्ण मिलावें। पीछे गुग्गुलु को नीम की ताजी पत्ती के रस में दो दिन तक भिगों, हाथ से मसल, कपड़े से छान, उसमें अन्य दवा मिलाकर मर्दन करें। नीम की ताजी पत्ती के रस में मर्दन कर 2-2 रत्ती की गोलियाँ बना सुखा लें – र. र. स.
सेवन की मात्रा और अनुपान : arogyavardhini vati dosage
2 से 4 गोली रोगानुसार जल, दूध, पुनर्नवादि क्वाथ या केवल पुनर्नवा का क्वाथ, दशमूल-क्वाथ के साथ दें।
आरोग्यवर्धिनी वटी के फायदे और उपयोग : arogyavardhini vati uses and benefits
1. यह रसायन उत्तम पाचन, दीपन, शरीर के स्त्रोतों का शोधन करनेवाला, हृदय को बल देनेवाला, मेद को कम करनेवाला और मलों की शुद्धि करने वाला है।
2. यकृत्-प्लीहा, बस्ति, वृक्क, गर्भाशय, आन्त, हृदय आदि शरीर के किसी भी अन्तरावयव के शोथ में, जीर्णज्वर, जलोदर और पाण्डु रोग में इस औषध से अधिक लाभ होता है।
पाण्डूरोग में यदि दस्त पतले और अधिक होते हों, तो इसका प्रयोग न कर पर्पटी के योगों का प्रयोग करना चाहिए।
3. सर्वांग शोथ और जलोदर में रोगी को केवल गाय के दूध के पथ्य पर रखकर इसका प्रयोग करना चाहिए। -यकृत् की वृद्धि के कारण शोथ हो, तो पुनर्नवाष्टक क्वाथ में रोहेड़ा की छाल और शरपुंखामूल १-१ भाग अधिक मिलाकर उसके अनुपान से इसका प्रयोग करें। ( और पढ़े – सूजन में तुरंत राहत देते है यह 28 घरेलु उपाय)
4. यदि हृद्रोगजन्य शोथ हो तो आरोग्यवद्धिनी बटी के साथ ‘डिजिटेलिस पत्र” चूर्ण आधी से १ रत्ती और जंगली प्याज (बन पलाण्डू) का चूर्ण १-२ रत्ती मिलाकर पुनर्नवादि या दशमूल-क्वाथ के साथ इसका प्रयोग करें।
5. जीर्णफुफ्फुसधरा कला शोथ में इसके साथ श्रृंग भस्म ४-८ रत्ती मिलाकर भारंगी-मूल, पुनर्नवा, देवदारु और अडूसा के क्वाथ के साथ इसका प्रयोग करें।
6. मेद (चर्बी) कम करने के लिये रोगी को केवल गाय के दूध पर रख कर महामंजिष्ठादि क्वाथ के अनुपान से इसका सेवन करावें।- सि. यो. सं.
यही बटी बृहदन्त्र तथा लघु अन्त्र की विकृति को नष्ट करती है ( और पढ़े – तेजी से वजन कम करने के 15 उपाय )
7. इससे पाचक रस की उत्पत्ति होती है और यकृत् बलवान होता है। अतः यह पुराने अजीर्ण, अग्निमांद्य और यकृत् दौर्बल्य में लाभ करती है।
8. सर्वांग शोथ में होने वाले हृदय-दौर्बल्य को यह मिटाती है और मूत्रमार्ग से जलांश को बाहर निकाल शोथ को कम करती है।
9. पाचन शक्ति को तीव्र करके धातुओं का समीकरण करने के कारण यह मेदोदोष में लाभदायक है। ( और पढ़े – पाचनतंत्र मजबूत करने के 24 रामबाण घरेलु नुस्खे)
10. मलावरोध नष्ट करने के लिये यह उत्तम औषध है।
11. दुष्ट व्रण में वात-पित्त की अधिकता होने पर इसके सेवन से लाभ होता है।
12. शरीर-पोषक ग्रन्थियों की कमजोरी या विकृति से शरीर की वृद्धि रूक जाती है और शरीर निर्जीव सा हो जाता है। इस तरह जवानी आने पर भी स्त्री और पुरुष में स्वाभाविक चिन्हों का उदय नहीं होना ऐसी अवस्था में इस बटी के निरन्तर प्रयोग से लाभ होते देखा गया है।
13. यह पुराने वृक्क-विकार में भी लाभ करती है।
14. प्रमेह और कब्ज में अपचन होने पर भी यह लाभ करती है।
15. हिक्का रोग में भी इसके प्रयोग से हिक्का नष्ट हो जाती है।
16. कुष्ठ रोग की प्रारम्भिक अवस्था में- इसका उपयोग करने से शीघ्र लाभ होता है। पुराने कुष्ठ रोगों में अर्थात जब रक्त और मांस दूषित हो, मवाद-रूप में परिणत होकर बहने लगे जैसा गलित कुष्ठ; तो इसमें यह लाभ नहीं करती है। विशेषतया वात और कफ-प्रधान या वात-कफ प्रधान कुष्ठ- जैसे कपाल, मण्डल, विपादिका, चर्मदलादि और अलसक पर इसका प्रयोग करने से शीघ्र लाभ होता है। इस दवा के सेवन-काल में पथ्य में बराबर दूध का ही सेवन करना चाहिए। ( और पढ़े – कुष्ठ(कोढ)रोग मिटाने के कामयाब 84 घरेलु उपाय )
17. औदुम्बर कुष्ठ में शरीर की त्वचा विकृत और रूक्ष हो जाती है तथा स्पर्श-ज्ञान का लोप हो जाता है। अर्थात् जहाँ धब्बे पड़ जाते है उसे स्पर्श करने से उसको छूने तक का ज्ञान नहीं होता है। ये धब्बे लाल और ऊपर उठे पके हुए गूलर-फल के समान होते है। उसमें से पसीना अधिक निकलता रहता है। ऐसी अवस्था में केवल आरोग्यवर्धिनी न देकर गन्धक रसायन के साथ इसे देना अच्छा है और भोजनोपरान्त खदिरारिष्ट २ तोला बराबर जल मिश्रित कर के दोनों समय देना चाहिए। इससे बहुत शीघ्र लाभ होता है।
18. कभी-कभी रक्त विकृति के कारण शरीर में लाल चट्टे पड़ जाते है, उनसे खुजली होती है। तथा बाद में पूय पड़ जाता है। कभी-कभी खुजलाने पर लाल चट्टे होकर मवाद भर जाता है। ऐसी अवस्था में आरोग्यवर्धिनी बटी महामंजिष्ठादि अर्क के साथ या नीम की छाल के क्वाथ के साथ देने से विशेष लाभ होता है।
19. रक्त और मांस की विकृति के कारण त्वचा विकृत हो जाती है। इसमें कफ और वायु की प्रधानता रहती है। अतः जहाँ की त्वचा विकृत हो जाती है, वहाँ की त्वचा रूक्ष होकर फट जाती है और उसमें से थोड़ा-थोड़ा मवाद भी निकलने लगता है। खुजलाने पर छोटी-छोटी फुन्सियाँ होकर पक जाती हैं, इसमें सुई कोंचने जैसी पीड़ा होती है। यह स्थान कठोर बन जाता है। ऐसी अवस्था में आरोग्यवर्धिनी बटी का उपयोग दूध के साथ करावे तथा ऊपर से सारिवाद्यासव २ तोला बराबर जल मिलाकर पिलावें। गन्धक रसायन से भी अच्छा लाभ होता है।
20. वात-पित्त-कफ दोषों से उत्पन्न ज्वरों में इसके प्रयोग से लाभ होता है। इसी तरह बद्धकोष्ठ जनित ज्वर, आमाशय की विकृती से अपचन जनित ज्वर, बहुत दिनों तक बराबर आनेवाला ज्वर और पित्त की विकृति से उत्पन्न होने वाले ज्वरों में भी इसका प्रयोग किया जाता है।
21. मल-संचय हो जाने के कारण कफ की वृद्धि हो मन्दाग्नि हो जाने पर जी मिचलाना, वमन होना तथा उसमें कफ की झाग (फेन) निकलना, भूख न लगना, पेट भारी हो जाना, भोजन करने के बाद ही जी मिचलाना तथा वमन होने की इच्छा होना, कभी-कभी वमन भी हो जाना, खाँसी, कफ सफेद तथा लेसदार गिरना, ऐसी अवस्था में आरोग्यवर्धिनी दें। इससे मल-संचय दूर हो कफ के विकार दूर हो जाते हैं और यह पित्त को बलवान बनाकर मन्दाग्नि को दूर करती है, जिससे अन्नादि का भी पाचन ठीक से होने लगता तथा कफ नष्ट हो जाने से वमनादि उपद्रव भी दूर हो जाते हैं।
22. यह गुटिका दीपन-पाचन भी है। अर्थात् पाचक पित्त की कमजोरी से अन्नादि की पाचनक्रिया में गड़बड़ी होने लगती है, जिससे अपचन बराबर बना रहता है। आजकल ऐसे रोगों की कमी नहीं है और इस रोग से छुटकारा पाने के लिये लोग अनेक प्रकार के खट्टे -मीठे तथा चरपरे-जायकेदार चूर्ण का भी सेवन करते हैं। ऐसे चूर्ण के सेवन से तात्कालिक लाभ तो होता हैं. परन्तु बाद में रोग फिर जैसा का तैसा ही हो जाता है।
23. इसके लिये आरोग्यवर्धिनी बटी का उपयोग करना बहुत श्रेष्ठ है, क्योंकि यह पाचक पित्त को सबल बना, पाचन-शक्ति प्रदान करती है, जिससे मन्दाग्नि दूर हो, अन्नादि की पाचन-क्रिया ठीक होने लगती तथा भूख भी खुल कर लगने लगती है।
24. हृदय की निर्बलता में – मल-संचय अधिक होने के कारण बद्धकोष्ठ हो जाता है। जिससे कफादि की वृद्धि हो जाती और मन्दाग्नि भी हो जाती है। फिर अन्नादिक का पाचन ठीक से न होने के कारण रस-रक्तादि भी उचित परिमाण में नहीं बन पाते। अत: रक्तकणों की वृद्धि न होकर शरीर में जल भाग की ही वृद्धि होती रहती है। ऐसी अवस्था में सर्वांग में सूजन होकर हृदय कमजोर हो जाता है, जिससे हृदय अपना कार्य करने में असमर्थ हो जाता है। ऐसे समय में आरोग्य वर्धिनी बटी पुनर्नवादि क्वाथ के साथ देने से बहुत लाभ करती है।
25. प्राचीन मलावरोध होने से आँत में मल चिपक जाता है, जिससे आँत में सेन्द्रिय विष की उत्पत्ति हो मल शुष्क हो जाता है। मल शुष्क हो जाने से आँत की दीवारें सख्त (कठोर) हो जाती है। फिर आँतों की क्रिया में अन्तर पड़ जाता है और उसमें दर्द भी होने लगता है। यह दर्द साधारण चूरण-चटनी आदि से नहीं दबता, जब तक कि मल की शुद्धि न की जाय। यह कार्य आरोग्यवर्धिनी बटी त्रिफला क्वाथ के साथ अच्छी तरह कर देती है। इससे मल पिघल कर बाहर निकल आता है तथा आँतों में कोमलता आ जाती है और वह अपना कार्य भी अच्छी तरह से करने लग जाती है।
– औ. गु. ध. शा.
आरोग्यवर्धिनी वटी के नुकसान : arogyavardhini vati side effects in hindi
- आरोग्यवर्धिनी वटी केवल चिकित्सक की देखरेख में लिया जाना चाहिए।
- आरोग्यवर्धिनी वटी गर्भिणी स्त्री. दाह, मोह, तृष्णा, भ्रम और पित्त प्रकोपयुक्त रोगी को नहीं देना चाहिए।
- डॉक्टर की सलाह के अनुसार आरोग्यवर्धिनी वटी की सटीक खुराक समय की सीमित अवधि के लिए लें।
(अस्वीकरण : दवा, उपाय व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार उपयोग करें)
for the healthy generation ayurved is the proper remeidy , the knowledge shared at this juncture will certainly be fruitful to the huminity.
with regards
very nice knoladge
bhut achhi jankari…..dhanywad