Last Updated on July 22, 2019 by admin
आध्यात्मिक चिकित्सा का प्रचलन प्राचीन काल में बहुत ज़्यादाजा था। सभी शिक्षा केंद्रों, ख़ासकर गुरुकुलों में अध्ययन के साथ आध्यात्मिक चिकित्सा का तरीक़ा सिखाया जाता था। बच्चों को खान-पान और रहन-सहन के साथ शरीर को निरोग रखने की शिक्षा दी जाती थी। इन केंद्रों पर रोगों का सफल उपचार भी किया जाता था। अथर्ववेद में आध्यात्मिक चिकित्सा के नियमों के बारे में विस्तार से बताया गया है। दरअसल, अथर्ववेद को आध्यात्मिक चिकित्सा का आधार माना जाता है, आध्यात्मिक चिकित्सा की तमाम जानकारी और उपचार इसमें समाहित है, इसमें जीवन की दृश्य और अदृश्य दोनों पहलुओं की जानकारी मिलती है। अथर्ववेद में जीवन के दैहिक, दैविक एवं आध्यात्मिक बीमारियों को ठीक करने की छोटी से छोटी तकनीक की पूरी जानकारी है। आध्यात्मिक चिकित्सा से असंभव एवं असाध्य रोगों की न केवल पहचान की जाती है, बल्कि उनके सही उपचार के लिए ज़रूरी चिकित्सा विधि अपनाई जाती है ।
आध्यात्मिक चिकित्सा विधि :
आध्यात्मिक चिकित्सा विधि है बहुत अच्छी, मगर यह बहुत दुर्लभ है। वस्तुतः यह एक तरह से क़ायदा है। इसकी शुरूआत ऋग्वेद से होती है। यजुर्वेद एवं सामवेद में भी इसके प्रयोग देखने को मिलते हैं, परंतु इसकी शोधपूर्ण और सही जानकारी अथर्ववेद में ही मिलती है। दरअसल, इस अथर्वण विद्या का गहन अध्ययन करने के बाद ही आध्यात्मिक चिकित्सा को सही तरीके से जाना जा सकता है। इसके बाद इस विधा के रहस्य को भी जाना जा सकता है। अथर्ववेद में चार प्रकार की चिकित्सा विधियों का वर्णन है-
अथर्वणी, अंगिरसी, दैवीय और मनुष्यज।
अथर्वणी चिकित्सा को मानस चिकित्सा भी कहते हैं। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि अथर्ववेद एक क़िताब नहीं बल्कि मानस चिकित्सा सानी साइकोथेरेपी (Psychotherapy) का सबसे पहला ग्रंथ है। अंगिरसी चिकित्सा में अंतःस्रावी ग्रंथियों के बारे में लिखा गया है। इसमें इससे संबंधित जटिलता एवं उसकी चिकित्सा विधि का उल्लेख भी मिलता है। दैवीय चिकित्सा का संबंध प्राकृतिक चिकित्सा से है। आमतौर पर मनुष्य की बनाई दवाओं को बताने वाली विधि को मनुष्यज चिकित्सा कहते हैं, उधर वेगल तंत्र के अनुसार यह भेद दो प्रकार का होता है- आथर्वणिक मानस चिकित्सा एवं कौशिकी भौतिक चिकित्सा। कौशिकी के अंतर्गत आंगिरसी, दैवीय एवं मनुष्यज चिकित्सा क्रम आते हैं।
आथर्वणिक मनोचिकित्सा विधि :
आथर्वणिक मानस चिकित्सा विधि पांच खंड है। मंत्रविद्या, उतर्ण, आश्वासन और उपचार, दैवीय हवन और प्रायश्चित।
मंत्र विद्या का संबंध पांच प्रकार के उपचारों से जोड़कर देखा जाता है- संकल्प, सादेश, संवशीकरण, उपचार एवं ब्रह्मकवच। संकल्प के माध्यम से व्यक्ति स्वयं ही अपने को ठीक करने का प्रयत्न करता है। यह स्वसंकेत (autosuggestion) केस मान है। इससे भय, भ्रांति एवं अपराधबोध (guilt) का सहज ही उपचार हो जाता है। सादेश में चिकित्सक रोगी को सुझाव देता है। इस पद्धति से भय, क्रोध, इर्षा , अपस्मार, मोह एवं व्यक्तित्व संबंधी विकृतियों को ख़त्म किया जाता है। अत्यधिक प्रभावी रूप से सुझाव देना संवशीकरण है। हिस्टीरिया में इसका प्रयोग किया जाता है। आत्मबल एवं साहस में वृद्धि हेतु भी इसका प्रयोग होता है। आध्यात्मिक उपचार एक विशिष्ट उपचार पद्धति है, जिनमें पापभावना एवं मानसिक समस्याओं का निदान किया जाता है। ब्रह्मकवच एक रक्षात्मक तकनीक है, इसका प्रयोग किसी भी ख़तरे का सामना करने में किया जाता है। यह व्यक्तित्व के विकास की विशिष्ट तकनीक भी है।
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यज्ञ चिकित्सा विधि :
अथर्व एवं अंगिरस ऋषियों ने ही सर्वप्रथम अग्नि को प्रकट करके यज्ञ चिकित्सा का विज्ञान-विधान खोजा था। अथर्ववेद में अथर्व ऋषि की दृष्ट ऋचाएं अध्यात्मपरक, सुखकारक, अभ्युदय प्रदान करनेवाली एवं श्रेय देनेवाली हैं। इससे जीवन में सुख, शांति एवं विकास के अनगिनत आयाम खुलते हैं। अंगिरस ऋषि की दृष्ट ऋचाएं अभिचारपरक, शत्रुसंहारिणी, कृत्यादूषण, शापनिवारिणी, मारण, मोहन, वशीकरण प्रधान हैं। कह सकते है कि जहां अथर्वण विद्या सृजनात्मक एवं कल्याणकारी है, वहीं आंगिरस मंत्र संहारात्मक एवं विनाशक। हालांकि दोनों की अपनी-अपनी अहमियत और ज़रूरत है।
अथर्ववेद में अथर्वण एवं आंगिरस, दोनों प्रकार की चिकित्सा-विधियां होने के कारण इसे अथर्वाङ्गिस भी कहा जाता है। यानी इसमें दो राय नहीं कि आध्यात्मिक चिकित्सा से भी बीमारियों का इलाज, ख़ासकर मानसिक बीमारियों का उपचार संभव है।
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