Pushkarmul ke Fayde | पुष्करमूल के फायदे ,गुण ,उपयोग और नुकसान

Last Updated on June 10, 2020 by admin

पुष्करमूल क्या है ? : What is Pushkarmul in Hindi

आर्तजनता के त्राण हेतु महर्षि आत्रेय पुनर्वसु ने बहुत से सबक सिखाये जिनको महामति अग्निवेश ने लिपिबद्ध किया। चरक संहिता के सूत्रस्थान अध्याय 25 में महर्षि ने अपने अनुभव को जो अभिव्यक्ति दी है। वह हमारे लिए एक विशेष धरोहर है। वहां व्यक्त किया गया है कि-‘ पुष्करमूल हिक्का श्वासकास पार्श्व शूलहराणाम्” हिक्का, श्वास कास, पावशूल आदि रोगों को दूर करने वाले इस पुष्करमूल का विशद वर्णन करने का मुझमें सामर्थ्य कहां है? परन्तु उन विराट पुरुषों से कुछ पाकर मैंने पाई है कुछ लिखने की उम्र और इन लेखों से कुछ जानकारी मिल सकती है –
सफर तेरा हम सफर साधना मेरी डगर है ।
जो तुझे कुछ सीख दे दे डालनी उन पर नजर है।।

तो, यह पुष्करमूल भृंगराज कुल (कम्पोजिटी) की वनौषधि है। महर्षि चरक ने श्वासहर एवं हिक्का निग्रहण गणों में इसकी गणना की है। इन महाकषायों की औषधियों की उपादेयता का उल्लेख आचार्य सुश्रुत एवं वाग्भट ने भी अपने ग्रन्थों में किया है। भावप्रकाश ने अपने निघण्टु ग्रन्थ के हरीतक्यादि वर्ग में इसका वर्णन किया है। आचार्य श्री प्रियव्रत शर्मा ने इसे श्वासहर, द्रव्यों में उपयोगी मानकर इसका वर्णन किया है।

कुछ कफघ्न द्रव्य ऐसे होते हैं जो आक्षेप को दूर कर श्वास प्रणाली का विस्फार कर कफ निष्कासन एवं शूल का शमन करते हैं, ऐसे द्रव्य “आक्षेप शूलहर कफनि:सारक” कहलाते हैं पुष्करमूल एक ऐसा ही द्रव्य है।

पुष्करमूल का विभिन्न भाषाओं में नाम : Name of Pushkarmul in Different Languages

Pushkarmul in –

  • संस्कृत – पुष्करमूल (तालाबों या जलीय प्रदेशों में उत्पन्न होने वाला मूल प्रधान द्रव्य) , मूलम (जिसका मूल ही उपयोग में आता है अथवा जिसके क्षुप शीतकाल में समाप्त हो जाने पर भी मूल जीवित रहता है) सुगन्धितकम् (जिसका मूल सुगन्धित होता है) काश्मीरम् (कश्मीर में उत्पन्न होने वाला द्रव्य), पद्मम् पत्रकम् (पद्मवत् पत्रों वाला) कुष्ठभेदम् (इसका मूल कुष्ठ के समान होता है तथा उत्पत्ति स्थान भी दोनों का एक है तथा गुणों में भी प्राय: समानता है सुतरां भावमिश्र ने इसे कुष्ठभेदम् कहा है), पौषकरम्, पुष्करम्, पुष्करजम्।
  • हिन्दी – पोखरमूल, पोहकरमूल।
  • गुजराती – पुष्करमूल
  • बंगला – पुष्करमूल
  • मराठी – पुष्करमूल
  • लैटिन – इन्युला रेसिमोसा (InulaRacemosa)

पुष्करमूल का पौधा कहां पाया या उगाया जाता है ? : Where is Pushkarmul Plant Found or Grown?

पुष्करमूल प्रधानतया कश्मीर में सात से नो हजार फीट की ऊंचाई पर उत्पन्न होता है। सावन भाद्रपद माह में जब हिमालय की ऊंची चोटियों से बर्फ गलने लगता है तब वहां इसका क्षुप उगता है। यह भारत के उत्तर पश्चिमी सीमान्तों में उन बर्फीले स्थानों पर पाया जाता है जहां प्रायः कुष्ठ (कूठ) उत्पन्न होता है। कश्मीर के अतिरिक्त ईरान, काबुल आदि स्थानों में भी यह उत्पन्न होता है।

पुष्करमूल का पौधा कैसा होता है ? :

  • पुष्करमूल का पौधा – इसका क्षुप 4 से 5 फीट तक ऊंचा होता है। मूल पहले पतला होता है जो धीरे-धीरे मोटा जाता जाता है कभी प्रधानमूल से 2 से 3 शाखायें निकलती हैं । यह सुगन्धयुक्त होता है। मूल की मोटाई सामान्यत: 3 अंगुल होती है। जो ऊपर मोटा तथा नीचे पतला होता है। इसकी ऊपर की त्वचा हटाने पर नीच जालीदार त्वचा मिलती है।
  • पुष्करमूल का तना – काण्ड दो अंगुल मोटा तथा जैसे-जैसे ऊपर जाता है पतला होता है ऊपर
    से यह धारीदार होता है। यह प्रारम्भ में हरित वर्ण और अन्त में रक्तश्याम वर्ण होता है। काण्ड के पत्र अनीदार तीक्ष्ण और छोटे होते हैं।
  • पुष्करमूल का फूल – पुष्प श्रावण भाद्रपद के बाद लगते हैं। इसके पुष्प नीचे हरित वर्ण चौडे व कई पुष्प पत्रकों से निर्मित होते हैं और उनके बीच कई पुष्प मिलकर गुच्छ बनाते हैं। वर्ण नील, बैंगनी वर्ण का होता है। जो आगे शिरीष पुष्प की तरह लोमदार होता है। सूखने पर ये लोम ही रह जाते हैं। नीचे का भाग बीज बन जाता है। एक पुष्प गुच्छ में 50 से 60 पुष्प होते हैं। वहीं उतने बीज बनते हैं।
  • ऐतिहासिक विवरण – यह भारत का एक अति प्राचीन सुगन्धित द्रव्य है। वैदिक काल से ही यह ज्ञात था ऋग्वेद के 6-16-13 पर और अथर्ववेद के 11-3-8 में इसके नाम एवं प्रयोग का उल्लेख मिलता है। अन्न ब्रह्म के उत्तम गन्ध को पुष्करमूल के गंध की तरह बतलाया है। “पुष्करमस्य गन्धः (अथर्व. 11-3-8)”

डायस कोराइडिस ने इसे भारत से आने वाला श्रेष्ठ उपहार कहा है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रथम शताब्दी में भी पुष्करमूल का व्यापार होता था और यहां से यह बाहर जाता था। संहिता काल में तो इसका अत्यधिक प्रयोग होने लगा था। आयुर्वेद की बहृतत्रयी नामक संहिताओं में तथा अन्य ग्रन्थों में इसके प्रयोग का वर्णन मिलता है।

इनमें चौदह प्रकार की कल्पनाओं में इसके 126 प्रयोग मिलते हैं। यथा चूर्ण कल्पना -42, घृत कल्प 22, क्वाथ 21, लेह 13, तैल 8, मोदक 5, कल्क 3, आसव-2, अनुपासन बस्ति – एक, धूपन एक इस प्रकार इसके 126 प्रयोग मिलते हैं। जिनमें से चरक संहिता में 30, सुश्रुत संहिता में 13, अष्टांग हृदय में 29 तथा शेष अन्य ग्रन्थों में मिलते हैं। आधुनिक काल में इसका प्रयोग सुगंधीकरण के लिए होता है और परफ्यूमरी के कार्य में ही सर्वाधिक भाग खर्च होता है।

पुष्करमूल का रासायनिक विश्लेषण : Pushkarmul Chemical Constituents

पुष्करमूल में इन्युलिन नामक पदार्थ दस प्रतिशत तथा एक सुगन्धित तैल 1.3 प्रतिशत होता है। तैल का प्रमुख घटक एलेण्टोलैस्टोन है जो तीव्र कृमिघ्न है।

पुष्करमूल के औषधीय गुण : Pushkarmul ke Gun in Hindi

  • रस – तिक्त, कटु
  • गुण – लघु तीक्ष्ण
  • वीर्य – उष्ण
  • विपाक– कटु
  • दोषकर्म – कफवातशामक
  • गुण प्रकाशक संज्ञा – शूलनाशनम {मूलं तु पौष्करं शूलनाशन पुष्कराव्हयमृ।। – अभि रत्नमाला}
  • गण विनिश्चय – तिक्तकटु, तीक्ष्ण, उष्ण होने से यह आग्नेय द्रव्य है।
  • वीर्यकालावधि – कई वर्षों तक।
  • संग्रहण एवं सरंक्षण – इसका संग्रह बीज पक जाने के बाद ग्रीष्म ऋतु के अन्त में या शरदऋतु के प्रारम्भ के दिनों में किया जाता है। पुष्करमूल को मुखबन्द पात्रों में अनार्द्र शीतल स्थान में सुरक्षित करना चाहिये।

पुष्करमूल पौधे का उपयोगी भाग : Beneficial Part of Pushkarmul Plant in Hindi

मूल।

सेवन की मात्रा :

एक से तीन ग्राम तक।

अपमिश्रण एवं परीक्षा :

पुष्करमूल के साथ कूठ के टुकड़े मिले हुए होते हैं। पुष्करमूल के स्थान पर मांजार पोष भी बेचा जाता है। इसका मूल 2 से 6 इंच तक लम्बा तथा 1 इंच मोटा गोल बादामी रंग का होता है। पुष्करमूल की जड़ आकृति में कुष्ठ (कूठ) से मिलती है। तोड़ने पर यह कठिन एवं चटकदार टूटती है ताजी अवस्था में टूटा हुआ तल सफेदी लिये मटमैला सा होता है। इसके अतिरिक्त यह सुषिर भी मालूम होती है कुष्ठ का तोड़ नरम एवं भरभुरा होता है। पुष्करमूल में कपूर की सी एवं मीठी-मीठी गन्ध आती है। जो कई वर्षों तक बनी रहती है।

पुष्करमूल का उपयोग : Uses of Pushkarmul in Hindi

  • सुश्रुतसंहिता के उत्तरतंत्र अध्याय 42 में विविध शूलों का जो निरुपण किया है उनमें एक पार्श्वशूल भी है। नव्यमतानुसा पार्श्वशूल से डाईन्यूरिसा का ग्रहण होता है। प्लूरिसी पार्श्व धराकला का रोग है। इसके ड्राई (शुष्क) एवं वेट (आर्द्र) ये दो भेद है। आर्द्र में शूल नहीं होता है जबकि शुष्क में शूल होता है। पुष्करमूल इस पार्श्वशूल की प्रशस्ततम औषधि है। पार्श्वशूल कफवातजन्य (पार्श्वशूलः स विक्षेयः कफानिलासमुद्भवः) कहा गया है। पुष्करमूल कफवात शामक है अतः आचार्य सुश्रुत ने ओषधिगण में इसे प्राथमिकता दी है ।
  • चरकोक्त कासचिकित्सा में वर्णित चित्रकादिलेह ,अगस्त्यहरीतकीलेह, दशमूलादिघृत, राजयक्ष्माचिकित्सा में वर्णित दुरालभादिघृत, जीवन्त्यादिघृत, वीराद्यलेह आदि योगों में भी पुष्करमूल की योजना की गई है।
  • इसी प्रकार सुश्रुत संहिता के कास चिकित्सा (सु. उ. 52-42) में वर्णित “अगस्थ्यावलहे” श्वास चिकित्सा (सु.उ. 51-28) में वर्णित “तालीसादि घृत” में भी पुष्करमूल की संयोजना की गई है।
  • अष्टांगहृदय के कास चिकित्सा में वर्णित “यवान्यादिपेया” “त्वगेलादिलेह” “दीप्यकादि क्वाथ” “कण्टकारीघृत” “चविकादि घृत’ आदि वर्णित योगों में पुष्करमूल को ग्रहण किया है ओर कहा है कि ‘पौष्कारादिभिर्निशासंस्थितं वारि क्षौद्रेण सह प्रातः पिवेत्” ।
  • पुष्करमूल हृदय के लिए बल्य है। हृदयशूल में इसे उपयोग में लाया जाता है। यह कफवात, शामवातक, दीपन पाचन होने के साथ-साथ हृदय के लिए बल्य यह वदेनास्थापन होने के कारण हृदयशूल में परम उपयोगी है। मूत्रजनन होने के कारण भी यह हृदय रोग में हितकारी हैं यह मेदोहर होने से भी हृदयरोगों में लाभदायी है। प्राचीन आचार्यों ने इस द्रव्य का हृदय रोगों में अनेक प्रकार से उल्लेख किया है। हृदय रोगियो के लिये ‘पुष्कर गुग्गुल योग” उत्तम योग है ।
  • हृदद्रोगोपयोगी ‘”कृष्णादि चूर्ण” (चरक चि. 26) “पंचकोलादिकल्क” (अ. हि. चि.6-34), “हिंग्वादि चूर्ण” (भै.र.), “पाठादि चूर्ण”(भै.र.) , “कुकुभादि चूर्ण” (भै.र.) आदि कल्पों में पुष्करमूल को ग्रहण करना इसकी उपादेयता को प्रदर्शित करता है।
  • पुष्करमूल दीपन-पाचन एवं अनुलोमन होने से अग्निमांद्य, अजीर्ण, गुल्म, आध्मान आदि उदर विकारों में लाभप्रद कहा गया है।
  • इसके अतिरिक्त गुल्म चिकित्सा में “हिंगुसौवर्चलाद्य घृत” , “हिंग्वादि चूर्ण” , “शस्यादि गुटिका” (चरक चि. 5) । अर्श चिकित्सा में “पिप्पल्यादि तैल” (चरक चि.14) । गुल्म चिकित्सा में “हिंग्वादिघृत”, “पथ्यादि चूर्ण” (सुश्रुत उ.42), “हिंग्वादि चूर्ण” (अ.ह.चि. 14), “हिंग्वादिघृत” (अ.ह. चि. 18) आदि जो योग कहे गये हैं पुष्करमूल की उपादेयता प्रकटित होती है।
  • पुष्करमूल मस्तिष्कशामक होने से मस्तिष्क दौर्बल्य तथा वातविकारों में लाभप्रद है।
  • पुष्करमूल चूर्ण दशमूल क्वाथ किंवा शेफाली क्वाथ के साथ गृध्रसी (सायटिका) हर कहा गया है।
  • अपतन्त्रापतानक के लिए “तुम्बुर्यादि चूर्ण” (च.सि. 9-18) वात व्याधियों के लिए “मूलकाद्य तैल” (च. चि. 28 169, अपस्मार के लिए “पंचगव्यघृत” (सुश्रुत उ.61) तथा वातरोगों के लिए “मूलकाद्यतेल” (च.द.) आदि जो शास्त्रीय योग निर्दिष्ट है उनमें पुष्करमूल की संयोजना की गई है।
  • आमवात में भी पुष्करमूल हितकर है।
  • ज्वरघ्न होने से पुष्करमूल ज्वरहर योगों में भी प्रयुक्त होता है। वातकफ शामक होने से यह विशेषतः वात श्लैष्मिक ज्वर में अधिक उपयोगी है।
  • ज्वराधिकार में वर्णित वलादि घत अगुर्वाद्य तैल आदि योगों में ज्वरघ्न पुष्करमूल की योजना की गइ है।
  • पुष्करमूल कटु पौष्टिक होने से सामान्य दोर्बल्य को मिटाने में श्रेष्ठ है। सुतरां च्यवनप्राश (चरक चि. 1-1) पुष्करमूल के उपयोग से रक्ताल्पता दूर होती है। पाण्डु मिटता है, पाचन ठीक होता है, मेदो धातु का आवरण हर कर हृदय एवं रक्तवह स्रोतों का कार्य ठीक होता है। धात्वाग्नियो के उत्तेजित होने से धातुपाक क्रिया ठीक होती है। जिससे दौर्बल्य दूर होता है।
  • पुष्करमूल तीक्ष्ण उष्ण होने से वृक्कों (किडनी) को उत्तेजित करता है जिससे मूत्रकृच्छ में भी उपयोगी है। यह गर्भाशय को भी उत्तेजित करता है। रजोरोध एवं कष्टार्तव (मासिक धर्म के दौरान असहनीय दर्द ) में यह उपयोगी है। इससे आर्तवकाल की पीड़ा मिटती है और आर्तव (मासिक धर्म) ठीक आने लगता है। बाजीकरण के लिए भी यह प्रयुक्त होता है।
  • पुष्करमूल तिक्त तथा स्वेदजनन होने से त्वग्दोषहर (त्वचा रोग हरनेवाला) है। तब ही तो चर्मरोगों में इसे उपयोग में लाया जाता है।
  • पुष्करमूल जन्तुघ्न, पूतिहर, शोथहर तथा वेदनास्थापन होने से व्रणों में बाह्य प्रयोगार्थ प्रयुक्त किया जाता है।
  • यूनानी मत से यह दूसरे दरजे में गरम और खुष्क है।
  • यह कफ के बुखार और कफ की सूजन मिटाता है।
  • यह भूख बढ़ाता है, सूजन को बिखेरता है, सांस की तंगी और सीने के दर्द में यह मुफीद (लाभकारी) है।

पुष्करमूल के फायदे : Benefits of Pushkarmul in Hindi

बाह्य प्रयोग –

(1). पामा (एक्जीमा)
गोमूत्र में पुष्करमूल को पीसकर लेप करना चाहिय। इससे दद्रु (दाद), कण्डू (खुजली) आदि सभी चर्मरोगों में लाभ होता है।

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(2). व्रण (घाव)
पुष्करमूल का अवचूर्णन या लेप करते हैं । इससे व्रण का रोपण (जख्म का भराव) होता है तथा इसके क्वाथ से धोने से शोधन होता है। व्रणरोपणार्थ इससे सिद्ध तेल का भी उपयोग किया जाता है। इससे प्रदाह भी समाप्त हो जाता है।

(3). शोथ (सूजन)
(क) पुष्करमूल को पानी में पीसकर गरम कर बांधने से शोथ का शमन होता है।
(ख) पुष्करमूल, बहेड़ा चूर्ण को घी में मिला गरम कर लेप करें।

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(4). पार्श्वशूल (पसलियों का दर्द)
पुष्करमूल को घिसकर लेप करते हैं। अथवा इससे सिद्ध तेल की मालिश कर स्वेदन करने से पार्श्वशूल मिटता है।

(5). आघात
पुष्करमूल, हल्दी, लोध्र और तज के कपड़छन चूर्ण में गुड़ और मीठा तैल मिलाकर गर्म कर लेप करने से चोट लगी स्थान की सूजन और दर्द मिटता है।

(6). दन्तरोग
पुष्करमूल के चूर्ण का मंजन करने तथा इसके टुकड़े को मुख में रखकर चूसने से दांत का दर्द मिटता है।

(7). अतिस्वेद (अधिक पसीना)
अधिक स्वेद को रोकने के लिये इसके चूर्ण की मालिश की जाती है।

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आभ्यन्तरीय प्रयोग –

(1). कास (खाँसी)
(क) पुष्करमूल चूर्ण को अदरख के रस से या शहद से चाटने से कफ की खांसी मिटती है।
(ख) पुष्करमूल, कचूर, आंवला चूर्ण शहद से चाटें।
(ग) पुष्करमूल चूर्ण, पिप्पल चूर्ण शहद से चाटने से कफ निकल जाता है और कास रोगी को आराम मिल जाता है। (घ) पुष्करमूल के समभाग त्रिकटु, काकड़ासिंगी, कायफल, धमासा, कलौंजी का चूर्ण शहद से चाटें।

(2). श्वास रोग (दमा)
(क) पुष्करमूल, यवक्षार चूर्ण को मधु के साथ मिलाकर चाटने से कफ बाहर निकल जाने से श्वास में लाभ होता है।
(ख) पुष्करमूल और पिप्पली का चूर्ण शहद से चाटने से भी लाभ होता है।
(ग) पुष्करमूल, विभीतक और हरिद्रा चूर्ण भी मधु के साथ सेवन करना श्वासहर है।
(घ) पुष्करमूल, भारंगी, अडूसा और मुलहठी का क्वाथ कास श्वास हर है। इसका चूर्ण बकरी के दूध से क्षयज कास को मिटाता है।

(3). हिक्का (हिचकी)
(क) पुष्करमूल, यवक्षार, कालीमिर्च का चूर्ण 5 ग्राम सेवन कर गरम जल पीने से हिक्का मिटती है।
(ख) पुष्करमूल चूर्ण में चौथाई भाग कपूर मिलाकर दो ग्राम चूर्ण शहद के साथ लें।
(ग) पुष्करमूल, पिप्पली और सोंठ चूर्ण भी हिक्का को मिटाता है।

(4). पार्श्वशूल (पसलियों का दर्द)
(क) पुष्करमूल के चूर्ण को पान के स्वरस से दें ।
(ख) पुष्करमूल और लघु पंचमूल का बनाया क्षीरपाक इस की अव्यर्थ औषधि है।
(ग) पुष्करमूल, मुलहठी, अडूसा व अजवायन क्वाथ भी हितकारी है।

(5). अरुचि (भोजन की इच्छा न होना)
पुष्करमूल का मुरब्बा अरुचि और मन्दाग्नि को हरता है।

(6). उदरशूल (पेट दर्द)
पुष्करमूल, वच, सोंठ, कचूर के क्वाथ में यवक्षार मिलाकर सेवन करने से उदरशूल मिटता है।

(7). हृदयरोग
(क) पुष्करमूल, बिजौरा नींबू का मूल, सोंठ, कचूर और हरड़ इनका कल्क पानी में बनाकर उसमें यवक्षार और घृत मिलाकर सेवन करना हृदय रोगी में हितकारी है। यह विशेषतः वातज हृदयरोग को दूर करता है।
(ख) पुष्करमूल, पंचकोल (पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चित्रक, सोंठ) हरड़, कचूर, बिजौरा मलू की जड़ इन का भी कल्क बनाकर घी और तैल में भूनकर गुड़ ,प्रसन्ना और नमक के साथ सेवन करना हृदय रोगों का नाश करता है।
(ग) पुष्करमूल चूर्ण को शहद के साथ सेवन करने से हृदयशूल, श्वास, कास, क्षय रोग नष्ट होते हैं।
(घ) पुष्करमूल, भुनी हींग, वच, विडनमक, सोंठ, पिप्पली, कूठ, बड़ी हरड़, चित्रक की छाल, यवक्षार और कालानमक को जौ के काढ़े के साथ सेवन करने से हृदयरोग, मूत्रकृच्छ, उदरशूल आदि रोग मिटते हैं।
(ड) पुष्करमूल, पीपर, कचूर, रास्ना, वच, हरड़ और सोठ का चूर्ण गोमूत्र के साथ सेवन करें। इससे कफजन्य हृदयरोग दूर होता है।
(च) पुष्करमूल, रास्ना, बला, नागवला, अर्जुन की छाल, वचा, हरीतकी, कचूर, पिप्पली, सोंठ इन दस द्रव्यों का चूर्ण 3-3 ग्राम लेकर घी के साथ सेवन करने से हृदय रोगों में लाभ होता है।
(छ) पुष्करमूल, वचा, यवक्षार, पाठा,हरीतकी, अम्लवेत, यवासा, चित्रक, त्रिफला, कचूर, इमली, अनारदाना, बिजौरा, नींबू की जड़ समान भाग लेकर चूर्ण बनालें, इस चूर्ण के सेवन से हृदयरोग ,अर्श, शूल, गुल्म आदि मिटते हैं।

(8). शिरःशूल (सरदर्द)
पुष्करमूल, सोंठ, चित्रक चूर्ण 1-1 ग्राम को मावा (खोआ) में मिलाकर देने से अर्धावभेदक शिरःशूल मिटता है।

(9). वृक्कशूल (किडनी का दर्द)
पुष्करमूल , सेंधानमक, हींग, क्रमशः एक भाग आधा भाग एवं चौथाई भाग लेकर क्वाथ बनाकर पिलावें।

(10). अर्श (बवासीर)
पुष्करमूल, त्रिकटु, पिपरामूल, यवानी, सैंधवचूर्ण के सेवन से वातार्श मिटता है।

(11). कृमि रोग
पुष्करमूल और संहजने के बीजों का चूर्ण कृमिहर है।

(12). उत्फुल्लिका (न्यूमोनिया)
पुष्करमूल, अतीस चूर्ण शहद से चटावें।

(13). वातरोग
(क) पुष्करमूल चूर्ण 3 ग्राम। भुनी हींग एक ग्राम चूर्ण को दशमूल के क्वाथ के साथ या निर्गुण्डी क्वाथ के साथ देने से गृध्रसी मिटती है।
(ख) पुष्करमूल के साथ समभाग असगंध व चोपचीनी का चूर्ण मिला एक ग्राम की मात्रा में शहद से सेवन करने से सन्धिशूल शोथ मिटता है।
(ग) पुष्करमूल, नेपाली धनियां, हरड़, हींग, सेंधव, कालानमक का क्वाथ अपतानक को मिटाता है।

(14). ज्वर
(क) पुष्करमूल, गिलोय, कटेरी की जड़ सोंठ का क्वाथ वातकफ ज्वर, श्वास, शूल को मेटने वाला है।
(ख) पुष्करमूल, गिलोय, कुटकी, चिरायता, सोंठ क्वाथ बना शहद मिला साम निराम सभी ज्वर दूर करता
(ग) पुष्करमूल, तुलसीपत्र, पिप्पली 10-10 ग्राम करंज 5 ग्राम चूर्ण बना शहद से लेने से कफज्वर मिटता है।

पुष्करमूल से निर्मित विविध कल्प (आयुर्वेदिक दवा):

पुष्करादि क्वाथ –

  1. पुष्करमूल, कायफल, भारंगी, सोंठ, पीपर इनका क्वाथ बनाकर पीवें, यह क्वाथ कफ, खांसी, श्वास और हृदय रोगों में हितकारी है।
  2. पुष्करमूल, बिजौरा नींबू का मूल, पलाश की छाल, कचूर, देवदारु, इसका क्वाथ बनाकर उसमें सोंठ, जीरा, मीठा वच, अजवायन, यवक्षार और नमक का प्रक्षेप देकर सेवन करने से हृदयरोग में हितकर है।– भै. र.
  3. पुष्करमूल, देवदारु, गिलोय, सोंठ, नागरमोथा, लवंग, भारंगी, बड़ी कटेरी प्रत्येक 10-10 ग्राम लेकर यवकुट कर रख लें, इनमें से 10 ग्राम का क्वाथ बनाकर उसमें 500 मिग्रा. यवक्षार मिलाकर सेवन करने से श्वास कास रोग मिटते हैं।- सिद्धौषधि रत्नमाला

पुष्करादिचूर्ण –

  1. पुष्करमूल, अतीस, काकड़ासिंगी, पिप्पली, धमासा का कपड़छन चूर्ण बनाकर शहद के साथ मिश्रण कर प्रयुक्त करने पर कास एवं हृदय रोग नष्ट होते हैं। मात्रा 3-5 ग्राम है। – भै.र.
  2. पुष्करमूल, अतीस, काकड़ासिंगी, पिप्पली व धमासा समान मात्रा में लेकर चूर्ण तैयार कर लें। इस चूर्ण को शहद से चटाने से बालकों को होने वाले सभी प्रकार के कास (खाँसी) मिटते हैं। मात्रा- एक वर्ष के बालक के लिए 100 मिग्रा. है। इसी प्रकार आयु के अनुसार मात्रा को कम ज्यादा किया जा सकता है। – ग. नि.

पुष्करमूलासव –

पुष्करमूल 5 किलो, धमासा 3 किलो 500 ग्राम, सोंठ, मिर्च, पिप्पली तीनों एकत्र एक किलो तथा मंजीठ, कूठ,कालीमिर्च, कैथ, देवदारु, विडंग, चव्य, लोध्र, पीपरामूल, खस, खंभारी के फूल, रास्ना, भारंगी व सोंठ प्रत्येक 100-100 ग्राम ।
सबको कूट कर 52 लीटर जल में पकावें जब तेरह लीटर जल शेष रहे तब छानकर ठण्डा होने पर शुद्ध संधान पात्र में भरकर उसमें 15 किलो गुड़, एक किलो धाय के फूलों का चूर्ण तथा कालीमिर्च, नागकेशर, निशोथ, इलायची, दालचीनी व तेजपात का चूर्ण 50-50 ग्राम और पिप्पली का चूर्ण 200 ग्राम मिला पात्र का मुख बन्द कर एक मास तक सुरक्षित रखें। फिर छानकर बोतलों में भर लेवे। इसे 15 से 50 मिली. तक सेवन करने से क्षय, अपस्मार, कास, रक्तदोष, गुल्म तथा भगन्दर में लाभ होता है।

पुष्करमूल के अनुभूत प्रयोग :

  1. पुष्करमूल, चित्रकछाल, शुण्ठी कलमी तीनों को समान मात्रा में लेकर कूट वस्त्रपूत करलें । यह चन्द्रामृत चूर्ण स्वकल्पित, स्वानुभूत सिद्ध प्रयोग हैं दो तीन ग्राम चूर्ण दूध के साथ देने से सूर्यावर्त, अर्धावभेदक, अनन्तवात एवं अन्य शिरःशूल शान्त होते हैं। – पं0 श्री अम्बालाल जोशी
  2. तमक श्वास पर प्रभावशाली सरल प्रयोग – आयुर्वेदीय द्रव्यगुण शास्त्र तथा भैषज्य संहिता के अनुसार श्वासरोग पर एक औषधि द्रव्यों में पुष्करमूल को तथा मिश्रित योग के रूप में तालिसादि चूर्ण का चयनकर कार्य प्रारम्भ किया गया। राजकीय आयुर्वेद अनुसंधान विभाग हैदराबाद में एक अध्ययन मृगशिरा नक्षत्र जो हर वर्ष 7वां या 8वां के प्रवेश के समय जून मे पड़ता है किया गया, इस विशेष नक्षत्र के दिन तुलसी और हींग 4:1 अनुपात में 500 मिग्रा. की मात्रा पहले दी जाती है। पश्चात चालीस दिनों तक पुष्करतालिसादि चूर्ण योग 1:3 अनुपात में दिन में दो समय शहद के साथ भोजन के बाद लेने को बताया गया। इस दवा के आरम्भ करने के 10-12 दिनों के बीच लाभ होते देखा गया। ऐसे रोगी जिन्होंने दोबारा आकर लगातार इस औषधि का 40 दिनों तक सेवन किया गया है, उनमें 80-90 प्रतिशत लाभ देखा गया। सभी रोगियों को पथ्य का पालन दृढ़ता से करने को बताया गया। इस तरह प्रतिवर्ष 3 वर्षों तक इस योग का प्रयोग करने की सलाह दी गई। – वैद्य पी.बी.राज
  3. शिरःशूलहर सरल प्रयोग – पुष्करमूल 4 ग्राम, नागकेशर 2 ग्राम को पीस लें। गेहूं का आटा 50 ग्राम, घी 50 ग्राम, शक्कर या गुड़ 75 ग्राम का हलवा बना लें, । इसमें से थोड़ा हलवा हथेली पर रख उसे चपटाकर उस पर उक्त दोनों औषधियों का चूर्ण डालकर गोली बांधकर निगल जायें। इसी प्रकार सारे हलवे से थोड़ा-थोड़ा लेकर उसमें थोड़ी-थोड़ी दवा मिलाकर गोली बनाकर सारा हलवा एवं सारी दवा निगल जावें। इस प्रकार 12 दिनों तक प्रयोग करने से आधाशीशी का दर्द एवं अन्य प्रकार के सिर दर्द मिट जाते हैं। – स्वामी श्री रामप्रकाश (सुगम उपचार दर्शन)
  4. वातश्लेष्मिक ज्वरहर प्रयोग -पुष्करमूल, भारंगी, काकड़ासिंगी, तुलसी की सूखी पत्तियों, सोंठ, मिर्च, पीपल, हरड़ और बहेड़ा सबका सूक्ष्म चूर्ण बना लें सभी द्रव्य 10-10 ग्राम लें। इस चूर्ण में 10-10 ग्राम शु० सुहागा और शु० फिटकरी का चूर्ण और मिला लें। इस चूर्ण को प्रतिदिन तीन बार गरम पानी से सेवन करें। एक बार में मात्रा 3 ग्राम लेनी चाहिये। – पं. शत्रुघ्नलाल शुक्ल (आयुर्वेद मंथन)
  5. कास, श्वासहर प्रयोग – पुष्करमूल, देवदारु, गिलोय, सोंठ, नागरमोथा, लोंग, भारंगी, बड़ी कटेरी प्रत्येक 20-20 ग्राम लेकर यवकुट कर रख लें, इसमें से 10 ग्राम द्रव्य को जल में डालकर ढक्कन लगा क्वाथविधि से क्वाथ तैयार करें। तैयार क्वाथ में 500 मिग्रा. यवक्षार मिलाकर सेवन करने से श्वास-कास, प्रतिश्याय आदि रोगों में लाभ होता है। कई बार का अनुभूत योग है।– वैद्य श्री बैंकटलाल शर्मा बागोट (वनौषधि रत्नाकर)

पुष्करमूल के दुष्प्रभाव : Pushkarmul ke Nuksan in Hindi

  • पुष्करमूल लेने से पहले अपने चिकित्सक से परामर्श करें ।
  • उष्ण तीक्ष्ण होने से पित्त प्रकृति वालों को पुष्करमूल का अधिक मात्रा में सेवन हानिकारक है।

दोषों को दूर करने के लिए : इसके दोषों को दूर करने के लिए शहद व गुलकन्द का सेवन लाभप्रद है ।

पुष्करमूल चूर्ण का मूल्य : Pushkarmul Powder Price

Tansukh Pushkarmool Powder Churna herbal | Inula racemosa | Pack of 2-60 gram X 2 = 120 gram – Rs 209

कहां से खरीदें :

अमेज़न (Amazon)

(दवा व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार सेवन करें)

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