Last Updated on December 2, 2020 by admin
पृश्निपर्णी (पिठवन) क्या है ? : What is Prishniparni in Hindi
प्रकृति के अनुपम उपहारों में एक औषधि पृश्निपर्णी भी है जिसकी गुणगाथा ऋग्वेद से लेकर आज तक के वनौषधि मनीषियों ने गाई है। भगवान चरक ने मधुर स्कन्ध में इस वनौषधि की अंगमर्द प्रशमन, संधानीय तथा शोथहर द्रव्यसमूह में गणना की है।
अंगमर्द प्रशमन वे द्रव्य हैं जो अंगमर्द (शरीर दबाने जैसी पीड़ा) को शान्त करते हैं, अंगों में मर्दनवत् पीड़ा अंगमर्द कहलाती है। रोगी के शरीर में एक ऐसी पीड़ा होती है। जिसे दूर करने के लिये वह चाहता है कि कोई उसे दबाता रहे। इस अंगमर्द को लोक में हड़फूटन कहा जाता है। अर्श, असृग्दर, आमवात आदि रोगों में अंगमर्द विशेष होता है। प्रमेह और प्रदर रोगी को यह अंगमर्द इतना होता है कि वह अंगों को दबाने के लिए ही परिवारीजनों से या परिचारक से आग्रह करता रहता है। जब पेशियों में रक्त का संचरण धीमी गति से होता है तो यह अंगमर्द होता है और दबाने से रक्त का संचार उन्हें तरोताजा कर देता है। पृश्निपर्णी उष्णवीर्य एवं वायु का शमन करने के कारण अंगमर्द का निवारण करती है।
‘संधानीय भग्नसंधानकारकम्’ अस्थिभग्न आदि के संयोग के लिए उपयुक्त द्रव्य संधानीय कहे जाते हैं। पृश्निपर्णी भग्नसंधानकारक होने से संधानीय है। यह अस्थि ही नहीं अपितु शरीर में टूटे हुए किंवा अलग हुए त्वचा, रक्तवाहिनियों को भी जोड़ने का काम करती है।
इसी प्रकार यह शोथ (सूजन) को दूर करने के कारण शोथहर भी कहलाती है।
आधुनिक मतानुसार पृश्निपर्णी शिम्बीकुल (लेम्युमिनोसी) तथा अपराजिता उपकुल (पैपिलिओनेसी) की वनौषधि है।
पृश्निपर्णी का विभिन्न भाषाओं में नाम : Name of Prishniparni in Different Languages
Prishparni in –
- संस्कृत (Sanskrit) – पृश्निपर्णी (जिसकी पतली और लम्बी पत्तियां हों या जिसके पत्र विचित्र से हों), कलशी (कलश से सदृश जिसके पत्ते हों),श्रृगाल विन्ना (श्रृगाल पुष्छवत् पुष्पमंजरी जिसकी हो), पृश्निका (पृश्नौ जलं कायति शोभते इति पृश्निका अर्थात जलीय आर्द्र प्रदेश में उगने वाली वनौषधि अथवा पृश्निः अल्पं काय विभ्रति इति प्रश्निका अर्थात छोटे आकार वाली), धाविनी (जो रोगों को धो दें,), अघ्रिवला (मजबूत होने के कारण जो शीघ्र न उखड़ सके), गुहा, पृथकपर्णी, चित्रपर्णी आदि।
- हिन्दी (Hindi) – पिठवन
- गुजराती (Gujarati) – पीठवण
- मराठी (Marathi) – पिठवण
- बंगाली (Bangali) – शंकरजटा
- तामिल (Tamil) – कोलपोन्ना
- तेलगु (Telugu) – कोलकुपोन्ना
- लैटिन (Latin) – यूरेरिया पिक्टा
पृश्निपर्णी का पौधा कहां पाया या उगाया जाता है ? : Where is Prishniparni Plant Found or Grown ?
समस्त भारत की शुष्क भूमि तथा खुले जंगलों में 6 हजार फीट की ऊंचाई तक इसका क्षुप पाया जाता है। बंगाल में यह विशेष उपलब्ध होती है।
पृश्निपर्णी का इतिहास : History of Prishniparni in Hindi
वेदों में इसके नाम से कई मन्त्र मिलते हैं। सुतरा इसका इतिहास अति प्राचीन है। ऋग्वेद, अर्थर्ववेद एवं शतपथ ब्राह्मण (13.8-1-16) में इसका उल्लेख मिलता है। इसका विशेष वर्णन अथर्ववेद में प्राप्त होता है। अथर्ववेद के काण्ड 2/25 सूत्र 1-5 में इसका यह वर्णन मिलता है।
“शं नो देवी प्रश्निपर्ण्यशं निकृत्या ……कण्वं नाशय पृश्निपर्णी सहस्त्र च।।”
अर्थात – यह प्रश्निपर्णी औषधि अनेक गुणों से युक्त है। यह हमारा कल्याण करे। यह रोगों को नष्ट करने वाली है। यह उष्णवीर्य औषधि कृमिजन्य रोगों का नाश करने वाली है। यह दुर्नाम, गर्भाद और क्रव्याद कृमियों पर अपना प्रभाव डालती है। हे पृश्निपर्णी तू उन सभी रोगों को जो कि गर्भ की वृद्धि में बाधक है तथा रक्ताल्पता करने वाले हैं। जिन्हें हम देख नहीं सकते, उन्हें नष्ट कर दें।
संहिताग्रंथों में इसके उपयोग का स्थान स्थान पर वर्णन मिलता है। दशमूल का यह प्रमुख घटक द्रव्य है।
पृश्निपर्णी का पौधा कैसा होता है ? : Description of Prishniparni Plant in Hindi
- पृश्निपर्णी का पौधा – इसका छोटा क्षुप 2-4 फुट ऊंचा होता है पत्र संयुक्त, विभिन्न आकार के नीचे गोलाई लिये तथा ऊपर से लम्बे होते हैं।
- पृश्निपर्णी का पत्ता – पत्रक 4-6 कभी 9 तथा 3-6 इंच लम्बे रेखाकार होते हैं। जिन पर सफेद रंग की चौड़ी धारियां होती है।
- पृश्निपर्णी का फूल – पुष्प छोटे, रक्तवर्ण या बैंगनी 3-4 इंच सघन मंजरी में लगते हैं।
- पृश्निपर्णी का फल – फल आने पर ये मंजरियां श्रृगालपुच्छाकार लगती है। फली 3-6 पर्वयुक्त, चिकनी व श्वेताभ होती है।
- पृश्निपर्णी का बीज – बीज वृक्काकार, पीताभ एक से बारह होते है। इस पर वर्षा में पुष्प लगते हैं इसके बाद फल लगते हैं ।
पृश्निपर्णी का उपयोगी भाग : Beneficial Part of Prishniparni Plant in Hindi
प्रयोज्य अंग – मूल (विशेषतः) , समग्र क्षुप
पृश्निपर्णी के औषधीय गुण : Prishniparni ke Gun in Hindi
- रस – मधुर तिक्त
- गुण – लघु, स्निग्ध
- वीर्य – उष्ण
- विपाक – मधुर
- दोषकर्म – त्रिदोषशामक
- प्रतिनिधि – शालपर्णी
सेवन की मात्रा :
क्वाथ – 50 से 100 मिली.
मूल चूर्ण – 3 से 5 ग्राम
पृश्निपर्णी का उपयोग : Uses of Prishniparni in Hindi
- यह तृष्णाशामक होने से तृष्णा रोग में दीपन अनुलोमन होने से कोष्ठवात,अर्श में तथा ग्राही होने से अतिसार संग्रहणी में उपयोगी है।
- शोणितस्थापन होने से रक्तार्श, रक्तातिसार में भी लाभप्रद है। पृश्निपर्णी का अर्क रक्तातिसार में विशेष लाभदायक कहा गया है। अतिसार पीड़ित व्यक्ति को थकान के साथ अंगमर्द होता है तब उसे अतिसार हर अन्य औषधियों के अतिरिक्त भोजन के साथ पृश्निपर्णी आदि की चाय बनाकर पिलानी चाहिये।
- नाड़ी बल्य होने से यह नाड़ी संस्थान गत रोगों में लाभप्रद है।
- मेधावृद्धि के लिए बालक को इसके सेवन का परामर्श दिया गया है।
- वातव्याधि में इसकी उपादेयता सर्वसिद्ध है। वातहर प्रसिद्ध दशमूल से कौन अनभिज्ञ है। पित्तानुबन्धी वात में लघु पंचमूल और कफानुबन्धी में बृहत पंचमूल उपयोगी है।
- पृश्निपर्णी अवसाद की स्थिति में दूध के साथ उपयोगी हो सकती है। शोकातिसार में यह इसीलिए लाभ पहुंचाती है।
- यह ज्वरघ्न एवं दाह शामक होने से ज्वर को दूर कर ज्वर जनित दाह एवं अंगमर्द का शमन करती है। ज्वर में दशमूल की उपादेयता प्रसिद्ध है। दशमूल को सर्वज्वरनिवनाशन कहा गया है।
- ज्वर, दाह के अतिरिक्त कफनि:सारक होने से पृश्निपर्णी काम श्वास में भी लाभदायक पाई जाती है।
- मूत्रल होने से मूत्रकृच्छ को मिटने में भी श्रेष्ठ है। अश्मरीयुक्त रोगी को इसीलिए लघुपंचमूल का अर्क दिया जाता है ।
- सूतिकारोगों में दशमूल क्वाथ दशमूलारिष्ट सभी उपयोग में लाते हैं। पृश्निपर्णी के मूल केअतिरिक्त काण्डपत्र गर्भाशय बलकारक कहे गये हैं। सूतिका रोगों के अतिरिक्त प्रदर में भी इसकी उपादेयता प्रकट की गई है ।
- पृश्निपर्णी वृष्य होने से शुक्रदौर्बल्य में भी प्रयुक्त की जाती है। इसके अतिरिक्त यह शोथहर, हृद्य
और शोणित स्थापन की कार्मुकता रखने के कारण रक्तवह संस्थान के बहुत से रोगों में लाभ पहुंचाती है। - रक्त विकार, हृद्रोग, वातरक्त एवं शोथ में दशमूल का अर्क लाभदायक होता है।
- यह विषघ्न, बल्य, संधानीय, जिसका वर्णन प्रारम्भ में किया गया है। अस्थिभग्न में इसके उपयोग का परामर्श दिया गया है ।
पृश्निपर्णी के फायदे और प्रयोग : Benefits of Prishniparni in Hindi
पृश्निपर्णी के कुछ स्वास्थ्य लाभ निम्नलिखित हैं –
1.भगन्दर की उपयोगी औषधि पृश्निपर्णी
- पृश्निपर्णी मूल का महीन चूर्ण कर लेवें। इस चूर्ण को भगंदर व्रणों में भरने से उनका पूरण होता है।
- पृश्निपर्णी के पत्तों के साथ में कत्था को पीसकर लगाने से भी लाभ होता है।
- पृश्निपर्णी पत्र, कालीमिर्च और कत्था को पीसकर पिलाना भगन्दर में हितकर है।
( और पढ़े – भगन्दर का आयुर्वेदिक इलाज )
2. एकाहिक ज्वर में पृश्निपर्णी के लाभ
पुष्य नक्षत्र में पृश्निपर्णी मूल को ग्रहण कर उसे लाल सूत्र में बांधकर रोगी के गले में या दक्षिण भुजा पर बांधने से इस ज्वर का वेग रुकता है।
3. श्वानदंश (कुत्ते के काटने) में है फायदेमंद पृश्निपर्णी
कुत्ते के काटने पर इसके मूल को घिसकर लगाया जाता है। इसी प्रकार सर्पविष पर भी लगाते हैं।
4. सुखप्रसवार्थ पृश्निपर्णी का उपयोग
नाभि, बस्ति व योनि पर मूल का लेप करना चाहिये।
5. वातज्वर में पृश्निपर्णी के लाभ
- पृश्निपर्णी, शालपर्णी, रास्ना और गिलोय का क्वाथ वातज्वर रोगी को पिलावें। इससे रोगी को आराम मिलता है।
- पृश्निपर्णी, शालपर्णी, गिलोय और चिरायता का क्वाथ भी वातज्वर में हितकारी है।
6. वातपित्त ज्वर ठीक करे पृश्निपर्णी
पृश्निपर्णी, शालपर्णी, दोनों कटेरी, गोखरू, नागरमोथा, सोंठ और चिरायता का क्वाथ वातपित्त ज्वर में लाभदायक है।
7. प्रतिश्याय (सर्दी-जुकाम) में लाभदायक पृश्निपर्णी
इसके मूल का क्वाथ बनाकर उसमें मिश्री मिला पान कराने से लाभ होता है।
( और पढ़े – सर्दी जुकाम दूर करने के 31 घरेलू नुस्खे )
8. प्रदर रोग मिटाये पृश्निपर्णी
पृश्निपर्णी, गिलोय, छोटी बड़ी कटेरी, बला और एरण्डमूल का क्वाथ प्रदर को दूर करता है।
9. भस्मक रोग (तीक्ष्णानि) में पृश्निपर्णी से लाभ
- पृश्निपर्णी, एवं शालपर्णी के साथ पकाये दूध को शहद एवं घी के साथ सेवन करने से भूख कम लगती है।
- पृश्निपर्णी और पिप्पली के चूर्ण को दूध के साथ पीने से भी भूख कम लगने लगती है।
10. मदात्यय (अति मद्यपान करने से होने वाला रोग) –
पृश्निपर्णी का क्वाथ कफज मदात्यय को दूर करने वाला है।
11. वत्सनाभ विष दूर करे पृश्निपर्णी
पृश्निपर्णी पत्र स्वरस 50 मिली. में मिश्री मिला सेवन करें। इससे रक्तार्श में भी लाभ होता है।
12. तृष्णा रोग मिटाए पृश्निपर्णी
पृश्निपर्णी, नागरमोथा और मुनक्का का क्वाथ तृष्णा, कास श्वास का शमन करता है।
13. मुखपाक में लाभदायक पृश्निपर्णी
इसके बीजों के क्वाथ का गण्डूष (कुल्ला) धारण करें।
14. अतिसार में पृश्निपर्णी के इस्तेमाल से लाभ
- बकरी के दूध में पृश्निपणी चूर्ण को डाल उसमें आधा पानी डाल क्वाथ बनावें जब पानी जल जाय तब उतार छानकर पिलाने से रक्तातिसार मिटता है।
- लघुपंचमूल, बला, बिल्व, पाठा, सोंठ और धनियां का क्वाथ अतिसार रोगी के लिए हितावह है।
15. ज्वरातिसार में लाभकारी है पृश्निपर्णी का प्रयोग
पृश्निपर्णी, खरेटी, बेलगिरी, सोंठ, नीलोफर और धनियां के समभाग मिश्रित चूर्ण में से 15 ग्राम चूर्ण को दो लीटर पानी में पेया (कण सहित मांड) पका आधा पानी शेष रह जाने पर उसमें अनार का रस मिलाकर थोड़ा-थोड़ा पिलावें।
16. उदररोग में पृश्निपर्णी का उपयोग लाभदायक
- पृश्निपर्णी के पत्र और मूल का स्वरस पिलाने से प्लीहोदर में लाभ होता है।
- पृश्निपर्णी, खरेंटी, कटेरी, लाख और सोंठ समभाग मिश्रित 20 ग्राम चूर्ण को 200 लीटर दूध में डाल दुग्धपाक कर छानकर पिलाने से पित्तोदर दूर होता है।
17. गर्भिणी हेतु पृश्निपर्णी के लाभ
- पृश्निपर्णी, खरैटी और वासा का स्वरस या क्वाथ गर्भिणी के रक्तपित्त, कामला (पीलिया), शोथ (सूजन), कास (खाँसी), श्वास, ज्वर आदि को नष्ट करता है।
- गर्भवती को सातवें मास में पृश्निपर्णी से सिद्ध घृत का दूध के साथ सेवन कराने से गर्भपात का भय नहीं रहता।
18. अंगमर्द की लाभदायक औषधि पृश्निपर्णी
पृश्निपर्णी, शालपर्णी, मेंथी और सोंठ के चूर्ण का दुग्धपाक बनाकर या क्वाथ बनाकर पीने से अंगमर्द का शमन होता है।
पृश्निपर्णी के अन्य लाभदायक अनुभूत प्रयोग :
1. न्युमोनिया में लाभकारी प्रयोग –
पृश्निपर्णी, शालपर्णी, छोटी पीपर, गोखरु, गम्भारी, पाठ, बेल, सोनापाठा, छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी और तुलसी के बीज सत्व 10-10 ग्राम लेकर कूटकर कपड़छन चूर्ण बना लें। इस चूर्ण की 3-3 ग्राम मात्रा एक दो घंटे बाद गरम जल के साथ सेवन करावें। इसके प्रभाव से न्यूमोनिया का प्रकोप शांत हो जाता है। – पं. श्री शत्रुघ्नलाल शुक्ल (आयुर्वेद मंथन)
2. वात रोगों में उपयोगी प्रयोग –
यदि वायु के प्रत्येक रोगी को लघु पंचमूल (शालपर्णी, पृश्निपर्णी, बड़ी कटेरी और छोटी कटेरी और गोक्षुर) की चाय का सेवन शुण्ठी चूर्ण का प्रक्षेप देकर दिया जाय तो लाभ होगा। – वैद्य श्री मदनमोहन लाल चरौरे
3. उपदंश हर प्रयोग –
पृश्निपर्णी 50 ग्राम लाकर 250 मिली गाय के दूध में पीसकर एक सप्ताह तक रोज सुबह पिलावें और 25 ग्राम पृश्निपर्णी को 50 ग्राम सरसों के तेल में जलाकर काला करके खूब घोटकर मलहम बना लें, तथा उपदंश व्रण पर लगावें, आशातीत लाभ होता है यह नाड़ी व्रण में भी लाभप्रद योग है। – श्री रामकरण सिंह वैद्य (सुधा. प्र.सं. अंक भाग-1)
4. ज्वरातिसार हर प्रयोग –
पृश्निपर्णी, शालपर्णी, छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, गोखरु, पाठा, नागरमोथा, खरेंटी बीज, कुटज छाल, खस, कुटकी, गिलोय, सोंठ और बेलगिरी सभी 10-10 ग्राम। सभी द्रव्यों को एक किलो पानी में औटावें। शेष 250 ग्राम रहने पर सुबह, दोपहर शाम 60-60 मिली की मात्रा में थोड़ा मधु मिलाकर सेवन करावें। – वैद्य श्री काशीनाथ मिश्र (अनु. संग्रह)
पृश्निपर्णी से निर्मित आयुर्वेदिक दवा (कल्प) :
पृश्निपादि क्वाथ –
- पृश्निपर्णी, नागरमोथा, सुगन्धवाला और सोंठ समभाग लेकर क्वाथ बनाकर पिलाने से पित्तजन्य शोथ (सूजन) का शमन होता है। इस क्वाथ के साथ रोगी को अन्य आहार न देकर केवल दूध का सेवन कराना चाहिये।
- पृश्निपर्णी, खरेंटीमूल, बेलगिरी, धनियां, नीलोफर, सोंठ, विडंग, अतीस, नागरमोथा, देवदारु, पाठा और अतीस का क्वाथ बनाकर उसमें कुछ काली मिर्च का चूर्ण डालकर पिलाने से शोकज अतिसार दूर होता है। – चि. त. प्रदीप
- पृश्निपर्णी, शालपर्णी, छोटी कटेरी, बड़ी कटेरी, गोखरु कटसरैयामूल, गन्धप्रसारिणी, सोंठ, गिलोय और नागरमोथा सभी औषधियों को सामान मात्रा में लेकर 12 ग्राम का क्वाथ बनाकर पिलाने से सभी प्रकार के सूतिकारोग, ज्वर, दाह, पिपासा, शिरःशूल, अतिसार, उदरशूल एवं सर्वाङ्गशूल आदि विकारों का शमन होता है।
पृश्निपर्णी का अर्क –
पृश्निपर्णी 2 किलो 500 ग्राम को सायंकाल 20 लीटर पानी में भिगो दें प्रातः यंत्र द्वारा अर्क खींच लें।
मात्रा – 20-25 मिली दिन में 2-3 बार ।
यह अर्क ज्वर, श्वास, रक्तातिसार और दाह आदि रोगों का नाश करता है। – अर्क प्रकाश
इसके अतिरिक्त च्यवनप्राश, दशमूलारिष्ट, दशमूल क्वाथ, दशमूल तैल, अमृतारिष्ट, चित्रकहरीतकी, महामाष तैल, महानारायण तैल आदि शास्त्रीय कल्पनाओं में पृश्निपर्णी की योजना की गई है।
पृश्निपर्णी के दुष्प्रभाव : Prishniparni ke Nuksan in Hindi
- पृश्निपर्णी लेने से पहले अपने चिकित्सक से परामर्श करें ।
- पृश्निपर्णी को डॉक्टर की सलाह अनुसार ,सटीक खुराक के रूप में समय की सीमित अवधि के लिए लें।
(अस्वीकरण : दवा ,उपाय व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार उपयोग करें)