Last Updated on September 7, 2019 by admin
कभी हार न मानो :
‘सदा विजयी’ आत्मविश्वास का यह ध्येय वाक्य है। आत्मविश्वास विजय के रथ पर आरूढ़ होता है, पराजय इसके पास नहीं फटकती। यह तमस के सघन कुहासे में तेजस्वी सूर्य-सा चमकता है। कठिनाइयाँ, बाधाएँ, विपत्तियों के बीच पल-बढ़कर यह और भी उत्तप्त एवं प्रखर होता है। यह हर विपरीत परिस्थितियों को चीरकर निकल जाता है। प्रतिकूलता में अनुकूलता उसका मुख्य लक्ष्य होता है। आत्मविश्वास कभी हार नहीं मानता, कभी हारता नहीं, थकता नहीं, रुकता नहीं। सदैव अपने लक्ष्यपथ पर बढ़ता रहता है। वह अपने दुर्धर्ष पुरुषार्थ पर अपेक्षा रखता है औरों पर नहीं। वह केवल परमात्मा के विधान के सामने नतमस्तक होता है, कभी कमजोरियों पर नहीं।
आत्मशक्ति पर चट्टानी विश्वास :
आत्मविश्वासी का चट्टानी विश्वास अपनी आत्मशक्ति पर होता है। उसकी सपस्त आस्था इस महान सत्य पर घनीभूत होती है। शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निरंजनोऽसि के इस परम ऋषिमंत्र का वह ध्याता होता है। भगवकृपा का सतत आभास होने के कारण वह सफलता के शिखर पर भी गर्वोन्नत नहीं होता है, शांत-स्थिर होता है तथा असफलता के घोर निराशा के क्षणों में भी गहरे अँधेरों से घिरता नहीं है, विचारों की लौ को प्रदीप्त किए रहता है। आत्मविश्वास से रीते-रिक्त व्यक्ति को सफलता, सम्मान, श्रेय एवं यश मिलते ही फूलकर कुप्पा हो जाता है तथा दूसरों को हेय, तुच्छ एवं क्षुद्र समझने लगता है। इसके ठीक विपरीत असफलताओं की चोट को सह नहीं पाता है और आत्महत्या जैसे जघन्य कार्य करने हेतु उतारू हो जाता है।
सफलता को ईश्वरीय अनुदान माने :
आत्मविश्वास सफलता का पर्याय और प्रतीक है। आत्मविश्वासी इस सफलता को अपने पुरुषार्थ से उपार्जित न मानकर दित्य ईश्वरीय अनुदान मानता है। सफलता के लिए किया गया उसका हर संघर्ष उसे एक नए अनुभव एवं एक नई विशेषता से भर देता है। इस संघर्ष के माध्यम से उसमें सद्गुणों का संवर्द्धन एवं विकास होता है, जबकि विफलताएँ उसे अपनी कमियों-खामियों को पहचानने में और उनके निराकरण करने में सहायक साबित होती हैं। आत्मविश्वासी प्राप्त सफलता को अपने ही उपयोग-उपभोग में इस्तेमाल नहीं करता वरन् उसे औरों में बाँटता एवं समृद्धि के द्वारा अगणित लोगों की सेवा-सहायता करता है। जिस किसी तरह से श्रेय-सफलता एवं यश-सम्मान हासिल करने की प्रवृत्ति उसमें नहीं होती।
हम स्वयं को जैसा मानेंगे वैसा ही हम बन जाएँगे :
आत्मविश्वास का विकास अपने ही विचारों और मान्यताओं के आधार पर होता है। हम स्वयं को जैसा मानेंगे वैसा ही हम बन जाएँगे। कायरता या प्रखरता, राख या अंगारे का चयन हमें करना है। आत्मविश्वासी इन दोनों में से उच्चतम का वरण करता है और उस पथ पर बढ़ चलता है, जिसके पदचिह्न औरों के लिए पाथेय बनते हैं। वह प्रतिकूल परिस्थितियों को अनकल कर अपने चारों ओर स्वर्गीय एवं सुंदर वातावरण विनिर्मित कर लेता है, ठीक इसके विपरीत दुर्बल मन:स्थिति का व्यक्ति ख्याली पुलाव पकाता रहता है, कोरी कल्पनाओं के संजाल में फँसा पड़ा रहता है। उसमें दृढ़ निश्चय तो दूर, कार्य की उमंग ही नहीं होती है। आत्मविश्वासी की दृढ़ता कठिन-से-कठिनतम कार्य को सरल एवं आसान बना लेती है। ऐसे में उसका आधा कार्य तो कार्यारंभ से पूर्व ही पूर्ण हो जाता है।
लक्ष्य के प्रति दृढ़ विश्वास :
आत्मविश्वासी का व्यवहार भी आकर्षक एवं लुभावना होता है। आत्मविश्वास एक ऐसी संजीवनी है जो व्यक्तित्व के तीनों पहलुओं-चरित्र, चिंतन और व्यवहार को प्रभावित करता है। लक्ष्य के प्रति विश्वास की प्रगाढ़ता हमारी कल्पनाओं और विचार-तरंगों को उसी ओर उन्मुख कर देती है। आत्मविश्वासी लक्ष्य का चयन करता है, सततसर्वदा उसी का चिंतन करता रहता है, उसकी योजना के बारे में सोचता है तथा उसे क्रियान्वित करने का हर संभव प्रयास-पुरुषार्थ करता है। यह प्रक्रिया इतनी गहरी होती है कि चरित्र के रूप में अचेतन की गहराई में जमे हुए संस्कार एवं प्रवृत्तियाँ उसी के अनुरूप चलना प्रारंभ कर देती हैं।
संपूर्ण सफलता का रहस्य :
आत्मविश्वासी विचारों और भावनाओं के बीच सामंजस्य रखने में दक्ष और कुशल होता है। विचारों के क्षेत्र में तर्क की बनावट-बुनावट बड़ी ही सघन होती है और वह स्वयं को ही औरों के समान चुभती-टीसती रहती है, जबकि कोरी भावुकता एक उद्दाम उफान के समान होती है, जो – अपने प्रवाह में विचारों को तिनके की तरह बहा ले चलती है। एक तर्क का कँटीला रेगिस्तान है तो दूसरा भावुकता का धंसता दलदल। दोनों ही अधूरे-अपूर्ण हैं। आत्मविश्वासी की द्रष्टि दोनों को समान रूप से देखती है। उसका व्यवहार दोनों को समग्र रूप से व्यवहृत करता है। अत: वह कर्तव्य के क्षेत्र में अत्यंत दृढ़ होता है तो भावना के क्षेत्र में उतना ही शालीन एवं विनम्र। इस प्रकार इसमें दृढ़ता एवं सुकोमलता का अनोखा और अद्भुत संयोग होता है, जो संपूर्ण सफलता का रहस्य है, कुंजी है।
सफलता का यह सूत्र अपने मूल में बीज के समान छोटा होता है, परंतु इस बीज में विराट वृक्ष की अनंत संभावनाएँ एवं शक्ति-सामर्थ्य छिपी रहती है। आत्मविश्वासी इस बीज को उपयोगी पोषण देकर विशालकाय छायादार वृक्ष के रूप में विकसित कर देता है, जिसकी छाँव तले न जाने कितने थके-हारे पथिकों को शीतलता मिलती है, आगे बढ़ने से पूर्व थोड़ा विश्राम मिलता है। इस प्रकार वह स्वयं में तृप्त होता है और औरों को भी तृप्ति प्रदान करता है। आत्मविश्वासी का अंतर सजल भावनाओं से छलकता रहता है और अपने इर्दगिर्द प्रेमपूर्ण सौहार्द्र वातावरण बनाए रखता है। इस आंतरिक अनमोल शक्ति एवं सामर्थ्य को जान-परख लेने पर कोई भी सहज ही महानता के शिखरों पर पहुँच सकता है, कामयाबी की बुलंदियों को छू सकता है।
आत्मविश्वास बढ़ाने वाले विचार (दिव्य सूत्र) :
आत्मविश्वास विकसित करने के कुछ दिव्य सूत्र हैं, जिनका अनुपालन-अनुसरण कर कोई भी आत्मविश्वास रूपी संपदा को उपलब्ध कर सकता है।
१. दूसरों पर आश्रित रहने के बजाय स्वयं पर भरोसा करना चाहिए।
२. संदेह, शंका एवं संशय से सदा दूर रहना चाहिए, क्योंकि इनसे आत्मविश्वास घटता है।
३. स्वयं को हीन, दुर्बल एवं कमजोर तथा दूसरे को श्रेष्ठ नहीं मानना चाहिए। यह मनःस्थिति ईर्ष्या को जन्म देती है।
४. सफलता मिलने पर अहंता तथा असफलता से निराशा नहीं आनी चाहिए। असफलता के मूल कारणों का पता लगाते समय यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
५. दुर्गुण, कुटेव, बुरी आदतों से सदैव सतर्क-सावधान एवं सजग रहना चाहिए।
६. सदा शिष्ट, विनम्र एवं आदरयुक्त व्यवहार करना चाहिए।
७. नित्यप्रति नियमपूर्वक निर्धारित समय में स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था बनानी चाहिए।
इन सूत्रों में आत्मविश्वास बढ़ाने-विकसित करने की समस्त संभावनाएँ दबी-छिपी हुई हैं। इन्हें अपनाकर निर्विवाद रूप से हर कोई आत्मविश्वासरूपी अक्षय, अमूल्य विभूति से सराबोर हो सकता है।
आत्मविश्वास बढ़ाने वाली कहानी (सत्य घटना):
सरदी के दिनों अँगीठी सुलगाने के प्रयास में दो छोटे बच्चों ने मिट्टी के तेल के स्थान पर पेट्रोल डाल दिया, आग भड़की। एक तो तत्काल मर गया। दूसरा महीनों अस्पताल में रहने के बाद, कुरूप और अपंग हो गया। दोनों पैर लकड़ी की तरह सूख गए। पहिएदार कुरसी के सहारे घर लौटा तो किसी को आशा न थी कि वह कभी चल सकेगा।
पर लड़के ने हिम्मत नहीं छोड़ी। आज की तुलना में अधिक अच्छी स्थिति प्राप्त करने के लिए वह निरंतर प्रयत्न करता रहा। निराश या खिन्न होने के स्थान पर उसने प्रतिकूलता को चुनौती के रूप में लिया और उसे अनुकूलता में बदलने के लिए अपने कौशल और पौरुष को दाँव पर लगाता रहा। उसने वैसाखी के सहारे न केवल चलने में वरन् दौड़ने में भी सफलता पाई और पुरस्कार जीते।
इस विपन्नता के बीच भी उसने पढ़ाई जारी रखी। एम.ए. पी-एच.डी. उत्तीर्ण की और विश्वविद्यालय में निदेशक के पद पर आसीन हुआ।
द्वितीय विश्वयुद्ध में वह मोरचे पर भी गया और जहाँ अड़ा वहीं सफल भी रहा। रिटायर होने पर उसने अपनी जमापूँजी से अपंगों को स्वावलंबन देने वाला एक आश्रम खोला, जिसमें इन दिनों पंद्रह हजार अपंगों को पढ़ने, रहने और कमाने का प्रबंध है।
अमेरिका के इस संकल्पवान साहसी ग्लेन कनिंघम का नाम बड़ी श्रद्धापूर्वक लिया जाता है। कठिनाइयों से जूझने के लिए उसका जीवन वृत्तांत पढ़ने-सुनने का परामर्श दिया जाता है।
आगे पढ़ने के लिए कुछ अन्य सुझाव :
• ईश्वर की शक्ति पाओ और कभी किसी चीज से मत डरो (प्रेरक प्रसंग)
• हाँ… आप कर सकते हैं ! ( प्रेरक प्रसंग )
• निर्भयता का रहस्य (प्रेरक हिंदी कहानी