Bhallataka Lehya ke Fayde | भल्लातक लेह के फायदे ,उपयोग और दुष्प्रभाव

Last Updated on June 1, 2020 by admin

भल्लातक लेह क्या है ? : What is Bhallataka Lehya in Hindi

भल्लातक लेह एक पारंपरिक आयुर्वेदिक दवा है, जिसका उपयोग पुराने त्वचा रोगों ,झुर्रियां ,बालों का सफेद होना ,कमजोरी ,खून की कमी ,बवासीर जैसे रोगों के उपचार के लिए किया जाता है।

घटक और उनकी मात्रा :

  • चित्रक मूलत्वक – 160 ग्राम,
  • त्रिफला सम्मिलित – 160 ग्राम,
  • नागर मोथा – 160 ग्राम,
  • पिप्पली मूल – 160 ग्राम,
  • चव्य – 160 ग्राम,
  • गिलोय – 160 ग्राम,
  • गजपीपल – 160 ग्राम,
  • अपामार्ग काण्ड – 160 ग्राम,
  • नीलोफर – 160 ग्राम,
  • कसेरु – 160 ग्राम,
  • भल्लातक – 2000 दाने (फल),
  • तीक्ष्ण लोह (फौलाद) भस्म – 2000 ग्राम,
  • गोघृत – 320 ग्राम,
  • त्रिकटु (सम्मिलित) – 10 ग्राम,
  • त्रिफला (सम्मिलित) – 10 ग्राम,
  • चित्रक मूल त्वक – 10 ग्राम,
  • सैन्धा लवण – 10 ग्राम,
  • नोशादर – 10 ग्राम,
  • भूक्षार – 10 ग्राम,
  • सौवर्चल लवण – 10 ग्राम,
  • विडंग – 10 ग्राम,
  • विधारा बीज – 160 ग्राम,
  • सफेद मूसली – 160 ग्राम,
  • सूरण कन्द – 320 ग्राम
  • मधु – 320 ग्राम,
  • जल – 10.240 मि.लिटर।

प्रमुख घटकों के विशेष गुण :

  1. चित्रक : दीपक, पाचक, कुष्टघ्न, अर्शोघ्न, आमपाचक।
  2. त्रिफला : चाक्षुष्य, बल्य, सारक, रसायन।
  3. नागर मोथा : आम पाचक, दीपक, लेखन।
  4. पिप्पली मूल : दीपक, पाचक, वातकफघ्न, श्वासघ्न, आमपाचक।
  5. चव्य : दीपक, पाचक, शूल प्रशामक अर्शोघ्न।
  6. गडूची : वयः स्थापक, दाह प्रशामक, त्रिदोषशामक, रसायन।
  7. गजपीपल : वातकफ शामक, दीपक, पाचक, शूलप्रशमन ।
  8. अपामार्ग : कृमिघ्न, श्वासघ्न, वात कफशामक, मूत्रल, शोथन, कुष्टघ्न ।
  9. नीलोफर : स्निग्ध, मधुर, शीतल, हृदय।
  10. कसेरु : व्रण शोथहर, दाह प्रशामक, चक्षुष्य, बल्य।
  11. भल्लातक : वात कफ नाशक, आमपाचक, बल्य, बृष्य, रसायन, अर्शोघ्न।
  12. फौलाद भस्म : रक्त बर्धक, यकृत, प्लीहा, बलदायक, बल्य, बृष्य, रसायन ।
  13. गोघृत : स्नेहन, वयःस्थापक, अग्नि, बल, वीर्य बर्धक, रसायन।
  14. त्रिकटु : दीपन, पाचन, कफ वात नाशक, आमनाशक।
  15. पंचलवण : दीपन, पाचन, कलेदन, मलवायु सारक।
  16. विडंग : कृमिघ्न, दीपन पाचन, शोथहर।
  17. सूरण कन्द : अर्शोघ्न, दीपन, पाचन।
  18. विधारा : वात शामक, बल्य, बृष्य, वीर्य बर्धक।
  19. सफेद मूसली : वीर्य, बल, ओज बर्धक, वातशामक।
  20. मधु : वातकफ शामक, लेखन, बल्य, रसायन।

भल्लातक लेह बनाने की विधि :

चौदह से 19 नम्बर की औषधियों का वस्त्रपूत चूर्ण बनाकर सुरक्षित कर लें। एक से 11 नम्बर की औषधियों के यवकुट चूर्ण को 10.240 मि.लिटर जल में डालकर मन्दाग्नि पर पकाएं, 260 लिटिर शेष रह जाने पर क्वाथ को ठण्डा होने दें फिर मसल कर कपड़े से छान कर लोहे की कढ़ाई में डालकर पुनः आँच पर रख दें, जब क्वाथ उबलने लगे उसमें 2 किलो ग्राम लोह भस्म डालकर कड़छी से चलाते रहे। जब गाढ़ा होने लगे तब 14 से 19 नम्बर की औषधियें डालकर मन्दाग्नि पर पकाएं अवलेहवत होने पर आँच से उतार लें और ठण्डा होने पर 320 ग्राम मधु मिलाकर आलोड़ित करके चौड़े मुँह की शीशियों में भर लें।

उपलब्धता : यह योग इसी नाम से बना बनाया आयुर्वेदिक औषधि विक्रेता के यहां मिलता है।

अनुपान :

तक्र, दही, दूध।

भल्लातक लेह की खुराक : Dosage of Bhallataka Lehya

500 मि.ग्रा. से एक ग्राम प्रातः सायं भोजन के बाद।

भल्लातक लेह के फायदे और उपयोग : Benefits & Uses of Bhallataka Lehya in Hindi

बवासीर (अर्श) में फायदेमंद भल्लातक लेह का प्रयोग

भल्लातक अकेले भी वातार्श की प्रमुख औषधि है परन्तु इस रसायन में चित्रक, सूरण, मुस्तक, चव्य, अपामार्ग, कसेरु इत्यादि अर्शोघ्न एवं लोह भस्म, त्रिफला विधारा, श्वेत मूसली, गोघृत, गडूचि इत्यादि रसायन औषधियों का सम्मिश्रण होने से यह अर्श के लिए विशेष औषधि का स्थान रखती है। इस औषधि का चालीस दिनों तक प्रयोग करने से वातार्श निश्चित रूप से ठीक हो जाती है, अर्शाङ्कर सिकुड़ जाते हैं, रोगी की अग्नि प्रदीप्त हो जाती है। रक्ताल्पता नष्ट हो जाती है और रोगी की सप्त धातुओं की वृद्धि होकर उसे रसायन सेवन का लाभ मिलता है ।

सहायक औषधियों में अर्श कुठार रस, कंकायन वटी, रसांजन वटी, सूरण वटक, इत्यादि में किसी एक या दो का उपयोग अवश्य करवाएं।

ग्रहणी में लाभकारी है भल्लातक लेह का सेवन

ग्रहणी रोग का मूल कारण मन्दाग्नि होता है, अत: वास्तव में ग्रहणी की चिकित्सा मन्दाग्नि की ही चिकित्सा होती है। प्रस्तुत भल्लातक लेह परम अग्निबर्धक है, अत: संग्रहणी में सफलता पूर्वक प्रयुक्त होता है। मात्रा 500 मि.ग्रा. से एक ग्राम रोगी की सहन शक्ति के अनुरूप इस योग से ग्रहणी में प्रथम सप्ताह से लाभ मिलने लगता है। पूर्ण लाभ के लिए चालीस दिनों तक अवश्य प्रयोग करवाऐं।

सहायक औषधियों में कर्पूर रस, गंगाधर रस, ग्रहणी कपाट रस, कुटजादि लोह, कुटजारिष्ट, कुटजघनवटी इत्यादि का प्रयोग भी करवाएं।

खून कि कमी (पाण्डु) दूर करे भल्लातक लेह का उपयोग

पाण्डु रोग के प्रमुख कारणों में कृमि और मन्दाग्नि का निर्देश है। भल्लातक कृमि और मन्दाग्नि दोनों का नाश करता है। लोह रक्तबर्धक होने से रक्त में हीमोगोलोबिन की मात्रा को बढ़ाता है तथा भल्लातक लोह के अन्य घटक अपने रसायन गुणों के कारण रोगी को शक्ति प्रदान करते हैं।

सहायक औषधियों में मण्डूर वज्र वटक, पुनर्नवादि मण्डूर, सप्तामृत लोह इत्यादि का प्रयोग भी करवाना चाहिए। चिकित्सावधि सामान्यतः एक मास।

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कृमि रोग में लाभकारी है भल्लातक लेह का सेवन

कृमि रोग के कारण में मधुर एवं अम्ल रसों का अति सेवन अजीर्ण में भोजन. द्रव (कोल्ड ड्रिंक्स) पिष्ट ( मैदा और उससे बनी वस्तुएँ अधुना फास्ट फूड) गुड़ (गुड़ विकृतियाँ चीनी इत्यादि) श्रम विहीन जीवन, विरुद्ध भोजन और दिवास्वप्न इत्यादि कारण कहे हैं।
ध्यान पूर्वक देखा जाए तो यह सभी कारण कफ बर्धक और मन्दाग्नि कारक है। अत: कृमि की चिकित्सा निदान परिवर्जन के अनुसार कफनाशक और अग्निबर्धक ही हुई।
भल्लातक लेह में कफनाशन और अग्निवर्धन दोनों ही गुणों का समावेश है। अत: कृमिरोगों की चिकित्सा में भल्लातक लेह एक शक्तिशाली औषधि है।

सहायक औषधियों में विडंगासव, कृमि कुठार रस, कृमि मुदगर रस इत्यादि का उपयोग भी यशदायक होता है। चिकित्सावधि नवीण रोग में 10 दिन जीर्ण में एक मण्डल (चालीस दिन)।

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प्रमेह में आराम दिलाए भल्लातक लेह का सेवन

प्रमेह के कारण ‘कफ कृच्च सर्व’ कृमि के कारणों से साम्य रखते हैं। अतः कृमियों की भाँती प्रमेह में भी कफनाशन और अग्निवर्धन चिकित्सा ही मूल सूत्र है। अपने अग्नि दीपन, कफघ्न, प्रमेहघ्न और रसायन गुणों के कारण भल्लातके लेह एक आदर्श औषधि है। इसके सेवन से अग्नि प्रदीप्त होकर सञ्चित कफ का नाश करती है और नवीन कफ (आम) की उत्पत्ती को बाधित करती है। अतः प्रमेही का मूत्र स्वच्छ हो जाता है । प्रमेह का प्रमुख चिन्ह ‘प्रभूताविलमूत्रता’ समाप्त हो जाता है । रसायन गुण के कारण नवीन धातुओं की उत्पत्ती होकर रोगी के बल, वर्ण, वीर्य और उत्साह में वृद्धि होती है।

सहायक औषधियों में सर्वेश्वर रस, वृहवंगेश्वर रस, मेहमुग्दर रस, शिलाजित के योगों का सेवन भी करवाना चाहिए। चिकित्सावधि एक सप्ताह से तीन मास रोग की अवस्था के अनुसार।

पेट दर्द मिटाए भल्लातक लेह का उपयोग

उदर के वायु जनित शूलों में भल्लातक लेह एक उत्तम औषधि है। वायु के आवरण (अवरोध) के कारण उदर में कहीं भी शूल हो इस योग की दो से तीन मात्राएं पर्याप्त है। आवश्यकता पड़ने पर अधिक समय तक भी प्रयोग करवा सकते हैं ।
परन्तु पित्ताशय का शूल, परिणामशूल, वृक्क शूल, एवं रक्तज प्रवाहिका के शूल में इसका सेवन नहीं होता इन सब शूलों में पित्त की अधिकता होती है। पित्त प्रकृति एवं पैत्तिक रोगों से ग्रसित व्यक्तियों को भल्लातक का प्रयोग वर्जित है।

बालों का सफेद होना व झुर्रियों से छुटकारा पाने में भल्लातक लेह के सेवन से लाभ

रसायन, केश्य, त्वच्य, अग्निबर्धक, कफनाशक गुणों के कारण, भल्लातक लेह वृद्धावस्था (50 वर्ष से अधिक अवस्था) में सेवनीय एक उत्तम रसायन है। इसके सेवन से अग्निवर्धन होकर सप्त धातुओं की वृद्धि होती है, शरीर में झुरियां उत्पन्न करने वाला दोष वात इस रसायन के सेवन से शान्त होता है। फलस्वरूप त्वचा स्निग्ध एवं स्थितिस्थापकत्व युक्त हो जाती है। अतः वलियाँ (झुर्रियां) नहीं पड़ती । इस महौषधि के सेवन से भ्राजक पित्त की वृद्धि होती है, अत: त्वचा की आभा (ग्लो) में वृद्धि होती है। त्वचा स्निग्ध बनती है।

केशों को श्याम बनाने में भ्राजक पित्त (मैलिनिन) की प्रमुख भूमिका होती है। भल्लातक मैलिनिन की मात्रा में वृद्धि करता है, अतः इसके सेवन से धीरे-धीरे सफेद बाल काले होने लगते हैं। केश अपना आहार त्वचा से ही ग्रहण करते हैं, अत: त्वचा स्वस्थ होने से केश भी स्वस्थ होने लगते हैं।
वली (झुर्री) और पलित (बालों का सफेद होना) दोनों रोगों में इस योग का लम्बे समय (छ: मास) तक सेवन करवाना चाहिए इसके सेवन काल में दूध, दही, घृत, बादाम, काजू-मूंगफली, नारियल इत्यादि तैलीय पदार्थों का सेवन आवश्यक है। धूप एवं अग्नि सेवन वर्जित है। अन्य उष्ण पदार्थ, उष्ण जल से स्नान, चाय, काफी इत्यादि उष्ण पेय नहीं देने चाहिए तथा समस्त शरीर पर नारियल, तिल या जैतून के तेल की मालिश अवश्य करवानी चाहिये।

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सफेद दाग (श्वित्र) में फायदेमंद भल्लातक लेह का औषधीय गुण

श्वित्र का (कुष्ट न होने पर भी त्वचा को कुत्सित करने के कारण) वर्णन कुष्ट के साथ किया गया है। वस्तुतः श्वित्र त्वग (त्वचा) रोग न होकर अग्निमान्द्य जन्य तथा उसके फलस्वरूप कृमिजन्य रोग है, 70% श्वित्री ‘हमिवियासिस’ से पीडित होते हैं। अन्य 30% रोगी अग्निमान्द्य से पीड़ित होते हैं। अग्निमान्द्य से वर्धित कफ, स्रोतोवरोध करके भ्राजक पित्त, (मैलिनिन) के स्वभाविक प्रसार में बाधा पहुंचाता है। फलस्वरूप यहाँ मैलिनिन का अभाव रहता है वह स्थान श्वेत हो जाता है।
भल्लातक लेह अग्निबर्धक, आमनाशक, कृमिघ्न, भ्राजक पित्तोतेजक, रसबर्धक, कफवात नाशक और रसायन गुण के कारण त्वचा की लसिका वाहिनियों का अवरोध हटाकर मैलिनिन के सम्यक् प्रसार को सुनिश्चित बनाता है, मैलिनिन की मात्रा में वृद्धि करता है। त्वचा को कोमल एवं आभायुक्त बनाता है। रक्त की वृद्धि करता है। अत: इस रसायन के लम्बे समय (छ: मास से एक वर्ष) तक सेवन करने से सफेद दाग (श्वित्र) दूर होकर त्वचा सामान्य हो जाती है।

सहायक औषधियों में मूत्र कृच्छ्रान्तक रस, निशामलकी, महा तालेश्वर रस, कुष्टारि रस, (भै.र.) आरोग्यवर्धिनी, मण्डूर वज्र वटक इत्यादि का प्रयोग लाभदायक होता है।

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भल्लातक लेह का प्रयोग दूर करे मोटापा (स्थौल्य)

आयुर्वेद में स्थौल्य और कृश दोनों अवस्थाओं के लिए ‘रस’ को उत्तरदायी माना जाता है। रस यदि कफ युक्त होगा तो शरीर की धातुओं की वृद्धि करेगा और यदि वात से अनुबन्धित होगा तो शरीर को कृश करेगा। रसोत्पत्ती अग्नि पर निर्भर करती है। मन्दाग्नि से कफाधिक्य होता है और विषमाग्नि से वाताधिक्य अग्नि और दोषों का सम्बन्ध अन्यान्योआश्रित होता है, कफाधिक्य से अग्नि मान्द्य होता है और अग्निमान्द्य से अधिक कफ का निर्माण होता है। तीक्ष्णाग्नि से पित्त की वृद्धि होती है और पित्त की वृद्धि से अग्नि तीक्ष्ण हो जाती है, इसी प्रकार वात वृद्धि से अग्नि विषम हो जाती है और अग्नि विषम हो जाने से वात की वृद्धि हो जाती है।
भल्लातक लेह वात और कफ नाशक और अग्निबर्धक होने के कारण आम का नाश करता है और वायु का भी शमन करता है। अत: यह रसायन विशुद्ध रसोत्पत्ती को सुनिश्चित करती है। फलस्वरूप स्थौल्य में लाभहोने लगता है यह रसायन उन औषधियों में से नहीं है जो केवल लेखन कार्य करके शरीर को दुबला बनाती है। इसके सेवन से केवल असामान्य मेद का नाश होता है, स्वभाविक मेद का नहीं, अत: यह मेद को कम करने के साथ शरीर को बल भी प्रदान करती है, उत्साह भी और तो और कृश रोगियों के शरीर भार में वृद्धि भी कर देती है उनका कार्य और तज्जनित अन्य लक्षण भी दूर हो जाते हैं । अतः इस रसायन का प्रयोग स्थूल और कृश दोनों प्रकार के रोगियों के लिए लाभप्रद है।

सहायक औषधियों की आवश्यकता नहीं पड़ती स्थूल रोगियों के लिए अपर्तपक और कृश रोगियों के लिए सन्तर्पक अन्न विहार की योजना अवश्य करनी चाहिए।

थायरायड ग्रंथि (चुल्लिका ग्रंथि) स्रावहीनता में लाभकारी भल्लातक लेह

यह भी एक वात कफज व्याधि है। थायरायड ग्रंथि के स्राव की हीनता बच्चों और व्यस्कों दोनों में हो सकती हैं शिशुओं में इसके ह्रास से वामनत्व, मूर्खत्व लक्षण होते हैं और व्यस्कों में स्थौल्य, शोथ (कठिन) आलस्य, त्वचा और केशों में रुक्षत्व, केशपातन, रजारोध, गर्भधारण अक्षमता इत्यादि लक्षण होते हैं ।
महिलाएं पुरुषों से अधिक अनुपात में रोग ग्रसित होती हैं। भल्लातक लेह इस रोग में एक प्रभावशाली औषधि है, यह कफ और वात दोनों दोषों को नियन्त्रित करता है। तथा चुल्लिका ग्रन्थिस्राव की वृद्धि करके तथा मार्गावरोध दूर करके स्राव के प्रसर को सुनिश्चित करता है।
500 मि.ग्रा. प्रात: सायं दूध के साथ सेवन करवाना उपयुक्त रहता है। सहायक औषधियों में गण्डमाला कण्डन रस, कांचनाराभ्र, कांचनार गुग्गुलु, आरोग्य बर्धिनीवटी, मण्डुरवज्रवटक, प्रभृति औषधियों में से किसी एक या दो औषधियों का सेवन भी करवाना चाहिए। शिशुओं को इसका प्रयोग वर्जित है।

जीर्ण प्रतिश्याय (सर्दी-जुकाम) में भल्लातक लेह से फायदा

अग्निमान्द्य कफवृद्धि, आमोत्पत्ती पुनः-पुनः प्रतिश्याय (सर्दी-जुकाम) को उत्पन्न करती है, कुछ समय के उपरान्त इनमें एक और कारण जुड़ जाता है। व्याधि क्षमत्व हीनता’, अत: रोगी बार-बार प्रतिश्याय से पीड़ित होता रहता है, औषधि सेवन से कुछ दिन आराम मिलता है, परन्तु कोई बहाना बनता है कि रोग पुनः प्रकट हो जाता है। कास (खाँसी), मन्द ज्वर, शक्तिहीनता, अपचन, कफ का अधिक निर्माण इत्यादि लक्षणों में भल्लातक लोह 500 मि.ग्रा. की मात्रा में प्रातः सायं, एक सप्ताह में लाभ दृष्टिगोचर होने लगता है। पूर्ण लाभ के लिए 48 दिन तक सेवन करवाना चाहिए।

सहायक औषधियों में कण्टकार्यावलेह, चित्रक हरीतकी, अगस्त हरीतकी, च्यवन प्राश, द्राक्षारिष्ट, स्वर्ण वसन्त मालती रस, इत्यादि का प्रयोग करवाए।

त्वचा रोग मिटाए भल्लातक लेह का उपयोग

त्वगरोगों (त्वचा रोग) का मूल कारण भी अग्निमान्द्य और आम की उत्पत्ती होता है और चिकित्सा भी अग्निबर्धक और आम नाशक होती है। रक्तशोधक औषधियों से कई रोगियों में सामयिक लाभ मिल जाता है, परन्तु कुछ काल के उपरान्त रोग पुनः प्रकट हो जाता है, अत: मूलजयी चिकित्सा अग्निबर्धक और आमनाशक ही होती है। भल्लातक में अग्निबर्धक, आमनाशक दोनों गुणों का सम्मिश्रण होने से इसके प्रयोग से वातकफात्मक त्वगरोग यथा कण्डू (खुजली), सोरायसियस, दद्रू इत्यादि शीघ्र ठीक हो जाते हैं। दाह, स्फोट एवं रक्तस्रावी त्वग रोगों में इस रसायन का उपयोग नहीं होता।

वात रोगों में लाभकारी है भल्लातक लेह का सेवन

वात विकृति जन्य एवं कफावृत वात रोगों में भल्लातक लेह एक विशेष औषधि है । सन्धि शोथ, वेदना, कटिग्रह (पीठ दर्द या कमर दर्द) , आमवात, वातरक्त इत्यादि व्याधियों में यहाँ रोग का कारण वृद्धवात और आम है, में भाल्लातक लेह लाभदायक औषधि है।
500 मि.ग्रा. प्रातः सायं मधु में आलोडित कर चटाने से एक सप्ताह में ही लाभ दृष्टिगोचर होने लगता है। पूर्ण लाभ के लिए सात सप्ताह तक औषधि सेवन करवाना चाहिए।

सहायक औषधियों में बृहद्वातचिन्तामणि रस, योगेन्द्र रस, कृष्ण चतुर्मुख रस, सिंहनाद गुग्गुलु, त्र्योदशाङ्ग गुग्गुलु, इत्यादि का प्रयोग भी करवाना।

भल्लातक लेह के दुष्प्रभाव और सावधानीयाँ : Bhallataka Lehya Side Effects in Hindi

  • भल्लातक लेह लेने से पहले अपने चिकित्सक से परामर्श करें ।
  • पित्त प्रकृति एवं पैत्तिक रोगों से ग्रसित व्यक्तियों को भल्लातक लेह का प्रयोग वर्जित है।
  • औषधि सेवन के उपरान्त धूप एवं अग्नि का सेवन एवं उष्ण पदार्थों का त्याग आवश्यक है।
  • भल्लातक लेह को डॉक्टर की सलाह अनुसार ,सटीक खुराक के रूप में समय की सीमित अवधि के लिए लें।
  • यूँ तो यह योग पूर्णता सुरक्षित है किसी प्रकार की कोई व्यापत्ती नहीं होती फिरभी भल्लातक की अस्हिष्णुता, और लोह भस्म के कारण भस्म सेवन के पूर्वोपायों को ध्यान में रखना आवश्यक है।

(दवा व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार सेवन करें)

3 thoughts on “Bhallataka Lehya ke Fayde | भल्लातक लेह के फायदे ,उपयोग और दुष्प्रभाव”

  1. यह योग इसी नाम से बना बनाया आयुर्वेदिक औषधि विक्रेता के यहां मिलता है। इस दवा को ऑनलाइन या आयुर्वेदिक स्टोर से ख़रीदा जा सकता है।

  2. मुझे यह दवाई लेनी है अभी तुरन्त

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