Last Updated on February 6, 2022 by admin
ब्रह्मचर्य क्या है ? : brahmacharya / celibacy in hindi
ब्रह्मचर्य का यौगिक अर्थ है ब्रह्म की प्राप्ति के लिये वेदों का अध्ययन करना। प्राचीन कालमें छात्रगण ब्रह्मकी प्राप्ति के लिये गुरुके यहाँ रहकर सावधानी के साथ वीर्यकी रक्षा करते हुए वेदाध्ययन करते थे। इसलिये धीरे-धीरे ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द वीर्यरक्षा के अर्थमें रूढ़ हो गया। आज हमें इसी वीर्यरक्षाके सम्बन्ध में कुछ विचार करना है।
वीर्यरक्षा ही जीवन है और वीर्यका नाश ही मृत्यु है। वीर्यरक्षा के प्रभाव से ही प्राचीन कालके लोग दीर्घजीवी, नीरोग, हृष्ट-पुष्ट, बलवान्, बुद्धिमान्, तेजस्वी, शूरवीर और दृढ़संकल्प होते थे। वीर्यरक्षा के कारण ही वे शीत, आतप, वर्षा आदि को सहकर नाना प्रकार के तप करने में समर्थ होते थे। ब्रह्मचर्य के बल से ही वे प्राणवायु को रोककर शरीर और मनकी शुद्धिके द्वारा नाना प्रकारके योग-साधनों में सफलता प्राप्त करते थे। ब्रह्मचर्यके बलसे ही वे थोड़े ही समयमें नाना प्रकारकी विद्याओंको सीखकर अपने ज्ञानके द्वारा अपना और जगत्का लौकिक एवं पारमार्थिक दोनों प्रकारका कल्याण करनेमें समर्थ होते थे।
शरीरमें सार वस्तु वीर्य ही है। इसीके नाशसे आज हमारा देश रसातलको पहुँच गया है। ब्रह्मचर्यके नाशके कारण ही
आज हमलोग नाना प्रकारकी बीमारियोंके शिकार हो रहे हैं, थोड़ी ही अवस्थामें कालके गालमें जा रहे हैं। इसीके कारण आज हमलोग अपने बल, तेज, वीरता और आत्मसम्मानको खोकर पराधीनताकी बेड़ीमें जकड़े हुए हैं और जो हमारा देश किसी समय विश्वका सिरमौर और सभ्यताका उद्गमस्थान बना हुआ था, वही आज दूसरोंके द्वारा लाञ्छित और पददलित हो रहा है। विद्या-बुद्धि, बल-वीर्य, कला-कौशल-सबमें आज हम पिछड़े हुए हैं। इसीके कारण आज हम चरित्रसे भी गिर गये हैं। सारांश यह है कि किसी भी बातको लेकर आज हम संसारके सामने अपना मस्तक ऊँचा नहीं कर सकते। वीर्यका नाश ही हमारी इस गिरी हुई दशाका प्रधान कारण मालूम होता है। वीर्यके नाश से शरीर, बल, तेज, बुद्धि, धन, मान, लोक, परलोक
सबकी हानि होती है। परमात्माकी प्राप्ति तो वीर्यको रक्षा न करनेवालेसे कोसों दूर रहती है।ब्रह्मचर्यके बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता। रोगसे मुक्त होनेके लिये, स्वास्थ्य-लाभके लिये, बलबुद्धिके विकासके लिये, विद्याभ्यासके लिये तथा योगाभ्यासके लिये तो ब्रह्मचर्यकी बड़ी भारी आवश्यकता है। उत्तम संतानकी प्राप्ति, स्वर्गकी प्राप्ति, सिद्धियोंकी प्राप्ति, अन्त:करणकी शुद्धि तथा परमात्माकी प्राप्तिब्रह्मचर्यसे सब कुछ सम्भव है और ब्रह्मचर्यके बिना कुछ भी नहीं हो सकता। सांख्ययोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग, हठयोग-सभी साधनों में ब्रह्मचर्यकी आवश्यकता होती है। अत: लोक-परलोकमें अपना हित चाहनेवालेको बड़ी सावधानी एवं तत्परताके साथ वीर्यरक्षाके लिये चेष्टा करनी चाहिये।
आठ प्रकार के मैथुन त्याग से ब्रह्मचर्य सिद्धि :
सब प्रकारके मैथुनके त्यागका नाम ही ब्रह्मचर्य है। मैथुनके निम्नलिखित प्रकार शास्त्रों में कहे गये हैं –
1. स्मरण – किसी सुन्दर युवती स्त्रीके रूपलावण्य अथवा हाव, भाव, कटाक्ष एवं शृङ्गारका स्मरण करना, कुत्सित पुरुषोंकी कुत्सित क्रियाओंका स्मरण करना, अपने द्वारा पूर्वमें घटी हुई मैथुन आदि क्रियाका स्मरण करना, भविष्यमें किसी स्त्रीके साथ मैथुन करनेका संकल्प अथवा भावना करना, माला, चन्दन, इत्र, फुलेल, लवेंडर आदि कामोद्दीपक एवं शृङ्गारके पदार्थोंका स्मरण करना, पूर्व में देखे हुए किसी सुन्दर स्त्री अथवा बालकके चित्रका या अश्लील चित्रका स्मरण करना – ये सभी मानसिक मैथुनके अन्तर्गत हैं। इनसे वीर्यका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्षरूपमें नाश होता है और मनपर तो बुरा प्रभाव पड़ता ही है। मन खराब होनेसे आगे चलकर वैसी क्रिया भी घट सकती है। इसलिये सर्वाङ्गमें ब्रह्मचर्यका पालन करनेवालेको चाहिये कि वह उक्त सभी प्रकारके मानसिक मैथुनका त्याग कर दे, जिससे मनमें कामोद्दीपन हो ऐसा कोई संकल्प ही न करे और यदि हो जाय तो उसका तत्काल विवेक एवं विचारके द्वारा त्याग कर दे।
2. श्रवण – गंदे तथा कामोद्दीपक एवं शृङ्गाररसके गानोंको सुनना, शृङ्गार-रसका गद्य-पद्यात्मक वर्णन सुनना, स्त्रियोंके रूप-लावण्य तथा अङ्गका वर्णन सुनना, उनके हाव, भाव, कटाक्षका वर्णन सुनना, कामविषयक बातें सुनना आदि-ये सभी श्रवणरूप मैथुनके अन्तर्गत हैं। ब्रह्मचारीको चाहिये कि वह उक्त सभी प्रकारके श्रवणका त्याग कर दे।
3. कीर्तन – अश्लील बातोंका कथन, शृङ्गाररसका वर्णन, स्त्रियोंके रूप-लावण्य, यौवन एवं शृङ्गारकी प्रशंसा तथा उनके हाव, भाव, कटाक्ष आदिका वर्णन, विलासिताका वर्णन, कामोद्दीपक अथवा गंदे गीत गाना तथा ऐसे साहित्यको स्वयं पढ़ना और दूसरों को सुनाना एवं कथा आदिमें ऐसे प्रसङ्गोंको विस्तारके साथ कहनाये सभी कीर्तनरूप मैथुनके अन्तर्गत हैं। ब्रह्मचारीको चाहिये कि वह इन सबका त्याग कर दे।
4. प्रेक्षण – स्त्रियोंके रूप-लावण्य, शृङ्गार तथा उनके अङ्गोंकी रचनाको देखना, किसी सुन्दरी स्त्री अथवा सुन्दर बालकके रूप या चित्रको देखना, नाटक-सिनेमा देखना, कामोद्दीपक वस्तुओं तथा सजावटके सामानको देखना, दर्पण आदिमें अपना रूप तथा शृङ्गार देखना-यह सभी प्रेक्षणरूप मैथुनके अन्तर्गत हैं। ब्रह्मचारीको चाहिये कि वह जान-बूझकर तो इन वस्तुओंको देखे ही नहीं; यदि भूलसे इनपर दृष्टि पड़ जाय तो इन्हें स्वप्नवत्, मायामय, नाशवान् एवं दुःखरूप समझकर तुरंत इनपरसे दृष्टिको हटा ले, दृष्टिको इनपर ठहरने न दे।
5. केलि – स्त्रियोंके साथ हँसी-मजाक करना, नाचना-गाना, आमोद-प्रमोदके लिये क्लब वगैरहमें जाना, जलविहार करना, फाग खेलना, गंदी चेष्टाएँ करना, स्त्रीसङ्ग करना आदि-ये सभी केलिरूप मैथुनके अन्तर्गत हैं। ब्रह्मचारीको इन सबका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।
6. शृङ्गार – अपनेको सुन्दर दिखलानेके लिये बाल सँवारना, कंघी करना, काकुल रखना, शरीरको वस्त्राभूषणादिसे सजाना, इत्र, फुलेल, लवेंडर आदिका व्यवहार करना, फूलोंकी माला धारण करना, अङ्गराग एवं सुरमा लगाना, उबटन करना, साबुन-तेल, पाउडर लगाना, दाँतोंमें मिस्सी लगाना, दाँतों में सोना जड़वाना, शौकके लिये बिना आवश्यकताके चश्मा लगाना, होठ लाल करनेके लिये पान खाना – यह सभी शृङ्गार के अन्तर्गत हैं। दूसरोंके चित्तको आकर्षण करनेके उद्देश्यसे किया हुआ यह सभी शृङ्गार कामोद्दीपक, अतएव मैथुनका अङ्ग होनेके कारण ब्रह्मचारीके लिये सर्वथा त्याज्य है। कुमारी कन्याओं, बालकों, विधवाओं, संन्यासियों एवं वानप्रस्थोंको तो उक्त सभी प्रकारके शृङ्गारसे सर्वथा बचना चाहिये। विवाहित स्त्री-पुरुषोंको भी ऋतुकालमें सहवासके समयके अतिरिक्त और समयमें इन सभी शृङ्गारोंसे यथासम्भव बचना चाहिये।
7. गुह्यभाषण – स्त्रियों के साथ एकान्तमें अश्लील बातें करना, उनके रूप-लावण्य, यौवन एवं शृङ्गारकी प्रशंसा करना, हँसी-मजाक करना – यह सभी गुह्यभाषणरूप मैथुनके अन्तर्गत है, अतएव ब्रह्मचारीके लिये सर्वथा त्याज्य है।
8. स्पर्श – कामबुद्धि से किसी स्त्री अथवा बालकका स्पर्श, चुम्बन तथा आलिङ्गन करना, कामोद्दीपक पदार्थोंका स्पर्श करना आदि यह सभी स्पर्शरूप मैथुनके अन्तर्गत है, अतएव ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवालेके लिये त्याज्य है।
उपर्युक्त बातें पुरुषोंको लक्ष्यमें रखकर ही कही गयी हैं। स्त्रियोंको भी पुरुषोंके सम्बन्धमें यही बात समझनी चाहिये। पुरुषोंको परस्त्रीके साथ और स्त्रियोंको परपुरुषके साथ तो इन आठों प्रकारके मैथुनका त्याग हर हालतमें करना ही चाहिये। ऐसा न करनेवाले महान् पापके भागी होते हैं और इस लोक तथा परलोकमें महान् दुःख भोगते हैं।
गृहस्थोंको अपनी विवाहिता पत्नीके साथ भी ऋतुकालकी अनिन्दित रात्रियोंको छोड़कर शेष समयमें उक्त आठों प्रकारके मैथुनसे बचना चाहिये। ऐसा करनेवाले गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचारी हैं। बाकी तीन आश्रमवालों तथा विधवा स्त्रियोंके लिये तो सभी अवस्थाओं में उक्त आठों प्रकारके मैथुनका त्याग सर्वथा अनिवार्य है।
ब्रह्मचर्य की महिमा : brahmacharya ki shakti
क्षत्रियकुलचूडामणि वीरवर भीष्मकी जो इतनी महिमा है, वह उनके अखण्ड ब्रह्मचर्य-व्रतको लेकर ही है। इसीके कारण उनका ‘भीष्म’ नाम पड़ा और इसीके प्रतापसे उन्हें अपने पिता शान्तनुसे इच्छामृत्युका वरदान मिला, जिसके कारण वे संसारमें अजेय हो गये। यही कारण था कि वे सहस्रबाहु-जैसे अप्रतिम योद्धाकी भुजाओंका छेदन करनेवाले तथा इक्कीस बार पृथ्वीको नि:क्षत्रिय कर देनेवाले महाप्रतापी परशुरामसे भी नहीं हारे। इतना ही नहीं, परात्पर भगवान् श्रीकृष्णको भी इनके कारण महाभारतयुद्धमें शस्त्र ग्रहण करना पड़ा। उनकी यह सब महिमा ब्रह्मचर्यके ही कारण थी। वे भगवान के
अनन्य भक्त, आदर्श पितृभक्त तथा महान् ज्ञानी एवं शास्त्रोंके ज्ञाता भी थे; परंतु उनकी महिमाका प्रधान कारण उनका आदर्श ब्रह्मचर्य ही था। इसीके कारण वे अपने अस्त्रविद्याके गुरु भगवान् परशुरामके कोपभाजन हुए, परंतु विवाह न करनेका अपना हठ नहीं छोड़ा। धन्य ब्रह्मचर्य! भक्तश्रेष्ठ हनुमान्, सनकादि मुनीश्वर,महामुनि
शुकदेव तथा बालखिल्यादि ऋषि भी अपने ब्रह्मचर्यके – लिये प्रसिद्ध हैं। आइये जाने ब्रह्मचर्य के लाभ के बारें में
ब्रह्मचर्य के फायदे और लाभ : brahmacharya ke fayde aur labh
ब्रह्मचर्य की रक्षा से लाभ और उसके नाश से हानि –
- ब्रह्मचर्यकी रक्षासे शरीरमें बल, तेज, उत्साह एवं ओजकी वृद्धि होती है,
- शीत, उष्ण, पीडा आदि सहन करनेकी शक्ति आती है,
- अधिक परिश्रम करनेपर भी थकावट कम आती है,
- प्राणवायुको रोकनेकी शक्ति आती है,
- शरीरमें फुर्ती एवं चेतनता रहती है,
- आलस्य तथा तन्द्रा कम आती है,
- बीमारियोंके आक्रमणको रोकनेकी शक्ति आती है,
- मन प्रसन्न रहता है,
- कार्य करनेकी क्षमता प्रचुरमात्रामें रहती है,
- दूसरेके मनपर प्रभाव डालनेकी शक्ति आती है,
- संतान दीर्घायु, बलिष्ठ एवं स्वस्थ होती है,
- इन्द्रियाँ सबल रहती हैं,
- शरीरके अङ्ग-प्रत्यङ्ग सुदृढ़ रहते हैं, आयु बढ़ती है, वृद्धावस्था जल्दी नहीं आती,
- शरीर स्वस्थ एवं हलका रहता है,
- स्मरणशक्ति बढ़ती है, बुद्धि तीव्र होती है,
- मन बलवान् होता है, कायरता नहीं आती,
- कर्तव्यकर्म करनेमें अनुत्साह नहीं होता,
- बड़ी-से-बड़ी विपत्ति आनेपर भी धैर्य नहीं छूटता, कठिनाइयों एवं विघ्न-बाधाओंका वीरतापूर्वक सामना करनेकी शक्ति आती है,
- धर्मपर दृढ़ आस्था होती है, अन्त:करण शुद्ध रहता है,
- आत्मसम्मानका भाव बढ़ता है, दुर्बलोंको सतानेकी प्रवृत्ति कम होती है,
- क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदिके भाव कम होते हैं, क्षमाका – भाव बढ़ता है,
- दूसरोंके प्रति सहिष्णुता तथा सहानुभूति – बढ़ती है, दूसरोंका कष्ट दूर करने तथा दीन-दु:खियोंकी – सेवा करनेका भाव बढ़ता है,
- सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है,
- वीर्यमें अमोघता आती है, परस्त्रीके प्रति मातृभाव – जाग्रत् होता है,
- नास्तिकता तथा निराशाके भाव कम होते हैं;
- असफलतामें भी विषाद नहीं होता, सबके प्रति प्रेम – एवं सद्भाव रहता है
- सबसे बढ़कर भगवत्प्राप्तिकीयोग्यता आती है, जो मनुष्य-जीवनका चरम फल है, जिसके लिये यह मनुष्यदेह हमें मिला है।
ब्रह्मचर्य नाश से नुकसान : brahmacharya ke nuksan
- ब्रह्मचर्यके नाशसे मनुष्य नाना प्रकारकी बीमारियोंका शिकार हो जाता है,
- शरीर खोखला हो जाता है,
- थोड़ा-सा भी परिश्रम अथवा कष्ट सहन नहीं होता,
- शीत, उष्ण आदिका प्रभाव शरीरपर बहुत जल्दी होता है,
- स्मरणशक्ति कमजोर हो जाती है,
- संतान उत्पन्न करनेकी शक्ति नष्ट हो जाती है, संतान होती भी है तो दुर्बल एवं अल्पायु होती है,
- मन अत्यन्त दुर्बल हो जाता है,
- संकल्पशक्ति कमजोर हो जाती है,
- स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है, जरा भी प्रतिकूलता सहन नहीं होती,
- आत्मविश्वास कम हो जाता है,
- काम करनेमें उत्साह नहीं रहता, शरीरमें आलस्य छाया रहता है,
- चित्त सदा सशंकित रहता है, मनमें विषाद छाया रहता है, कोई भी नया काम हाथमें लेनेमें भय मालूम होता है,
- थोड़े-से भी मानसिक परिश्रमसे दिमागमें थकान आ जाती है,
- बुद्धि मन्द हो जाती है, अधिक सोचनेकी शक्ति नहीं रहती,
- असमयमें ही वृद्धावस्था आ घेरती है और थोड़ी ही अवस्थामें मनुष्य कालके गालमें चला जाता है,
- चित्त स्थिर नहीं हो पाता, मन और इन्द्रियाँ वशमें नहीं हो पातीं और मनुष्य भगवत्प्राप्तिके मार्गसे कोसों दूर हट जाता है।
- वह न इस लोकमें सुखी रहता है और न परलोकमें ही।
- ऐसी अवस्थामें मनुष्यको चाहिये कि बड़ी सावधानीसे वीर्यकी रक्षा करे। वीर्यरक्षा ही जीवन है और वीर्यनाश ही मृत्यु है, इस बातको सदा स्मरण रखे। गृहस्थाश्रममें भी केवल संतानोत्पादनके उद्देश्यसे ऋतुकालमें अधिक-से-अधिक महीनेमें दो बार स्त्रीसङ्ग करे।
आइये जाने ब्रह्मचर्य का पालन कैसे करें ( ब्रह्मचर्य सिद्धि के नियम )
ब्रह्मचर्यरक्षा के उपाय व नियम : brahmacharya raksha ke upay
उपर्युक्त प्रकारके मैथुनके त्यागके अतिरिक्त निम्नलिखित साधन भी ब्रह्मचर्यकी रक्षामें सहायक हो सकते हैं।
- भोजन में उत्तेजक पदार्थोंका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। मिर्च, राई, गरम मसाले, अचार, खटाई, अधिक मीठा और अधिक गरम चीजें नहीं खानी चाहिये। भोजन खूब चबाकर करना चाहिये। भोजन सदा सादा, ताजा और नियमित समयपर करना चाहिये। मांस, लहसुन, प्याज आदि अभक्ष्य पदार्थ और मद्य, गाँजा, भाँग आदि अन्य नशीली वस्तुएँ तथा केशर, कस्तूरी एवं मकरध्वज आदि वाजीकरण औषधोंका भी सेवन नहीं करना चाहिये।
- यथासाध्य नित्य खुली हवामें सबेरे और सायंकाल पैदल घूमना चाहिये।
- रातको जल्दी सोकर सबेरे ब्राह्ममुहूर्तमें अर्थात् पहरभर रात रहे अथवा सूर्योदयसे कम-से-कम घंटेभर पूर्व अवश्य उठ जाना चाहिये। सोते समय पेशाब करके, हाथ-पैर धोकर तथा कुल्ला करके भगवान का स्मरण करते हुए सोना चाहिये।
- कुसङ्गका सर्वथा त्याग कर यथासाध्य सदाचारी, वैराग्यवान्, भगवद्भक्त पुरुषोंका सङ्ग करना चाहिये, जिससे मलिन वासनाएँ नष्ट होकर हृदयमें अच्छे भावोंको संग्रह हो।
- पति-पत्नीको छोड़कर अन्य स्त्री-पुरुष अकेलेमें कभी न बैठे और न एकान्तमें बातचीत ही करें।
- भगवद्गीता, रामायण, महाभारत, उपनिषद्, श्रीमद्भागवत आदि उत्तम ग्रन्थोंका नित्य नियमपूर्वक स्वाध्याय करना चाहिये। इससे बुद्धि शुद्ध होती है और – मनमें गंदे विचार नहीं आते।
- ऐश, आराम, भोग, आलस्य, प्रमाद और पापमें समय नहीं बिताना चाहिये। मनको सदा किसीन-किसी अच्छे काममें लगाये रखना चाहिये।
- मूत्रत्याग और मलत्यागके बाद इन्द्रियको ठंढे जलसे धोना चाहिये और मल-मूत्रकी हाजतको कभी नहीं रोकना चाहिये।
- यथासाध्य ठंडे जलसे नित्य स्नान करना चाहिये।
- नित्य नियमितरूपसे किसी प्रकारका व्यायाम करना चाहिये। हो सके तो नित्यप्रति कुछ आसन एवं प्राणायामका भी अभ्यास करना चाहिये।
- लँगोटा या कौपीन रखना चाहिये।
- (नित्य नियमितरूपसे कुछ समयतक परमात्माका ध्यान अवश्य करना चाहिये।
- यथाशक्ति भगवान्के किसी भी नामका श्रद्धा-प्रेमपूर्वक जप तथा कीर्तन करना चाहिये। कामवासना जाग्रत् हो तो नाम-जपकी धुन लगा देनी चाहिये अथवा जोर-जोरसे कीर्तन करने लगना चाहिये। कामवासना नाम-जप और कीर्तनके सामने कभी ठहर नहीं सकती।
- जगत्में वैराग्यकी भावना करनी चाहिये। संसारकी अनित्यताका बार-बार स्मरण करना चाहिये। मृत्युको सदा याद रखना चाहिये।
- पुरुषोंको स्त्रीके शरीर में और स्त्रियोंको पुरुषके शरीर में मलिनत्व-बुद्धि करनी चाहिये। ऐसा समझना चाहिये कि जिस आकृतिको हम सुन्दर समझते हैं, वह वास्तवमें चमड़ेमें लपेटा हुआ मांस, अस्थि, रुधिर, मज्जा, मल, मूत्र, कफ आदि मलिन एवं अपवित्र पदार्थोंका एक घृणित पिण्डमात्र है।
- महीने में कम-से-कम दो दिन अर्थात् प्रत्येक एकादशीको उपवास करना चाहिये और अमावास्या तथा पूर्णिमाको केवल एक ही समय अर्थात् दिनमें भोजन करना चाहिये।
- भगवान की लीलाओं तथा महापुरुषों एवं वीर ब्रह्मचारियोंके चरित्रोंका मनन करना चाहिये।
- यथासाध्य सबमें परमात्मभावना करनी चाहिये। चाहिये।
- नित्य-निरन्तर भगवान्को स्मरण रखनेकी चेष्टा करनी चाहिये।
ऊपर जितने साधन बताये गये हैं, उनमें अन्तिम साधना सबसे उत्तम तथा सबसे अधिक कारगर है। यदि नित्य-निरन्तर अन्त:करणको भगवद्भावसे भरते रहनेकी | चेष्टा की जाय तो मनमें गंदे भाव कभी उत्पन्न हो ही नहीं सकते। किसी कविने क्या ही सुन्दर कहा है जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम। सपनेहुँ कबहुँक रहि सकें, रबि रजनी इक ठाम जिस प्रकार सूर्यके उदय होनेपर रात्रिके घोर | अन्धकारका नाश हो जाता है, उसी तरह जिस हृदयमें भगवान् अपना डेरा जमा लेते हैं अर्थात् नित्य-निरन्तर भगवान्का स्मरण होता है, वहाँ कामको उदय भी नहीं हो सकता।
( और पढ़े – ब्रह्मचर्यासन के फायदे )
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Brahmacharya may kaya kaya Ahaar lana chahi yea Omm
रात्री में 3 से 4 बादाम भिगों कर सुबह इसे खूब चबा-चबाकर सेवन किया जा सकता है ~ हरिओम
Kya ek barhmchrya badam ka sevan kar sakata hai