Last Updated on November 7, 2021 by admin
गर्भधारण के बाद अधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष है माता और बच्चे की देखभाल । इन दोनों पक्षों में उचित तालमेल रखकर ही स्वस्थ माता के द्वारा स्वस्थ शिशु को जन्म देने की बात सोची जा सकती है। गर्भावस्था में नीचे लिखी बातों पर अन्य बातों के अलावा, पूरा ध्यान दें।आइये जाने गर्भावस्था में किन बातों का ध्यान रखना चाहिए –
गर्भावस्था के दौरान सावधानियां : Garbhavastha me Savdhaniya in Hindi
इस महत् कार्य में गर्भवती महिला और उसके अन्य अभिभावकों का विशेष कर्तव्य बन जाता है।
1. मानसिक तनाव :
मानसिक तनाव, घर की कलह माता के शरीर और मन पर बुरा प्रभाव डालकर बच्चे की प्रगति पर भी बुरा प्रभाव डालते हैं। गर्भवती महिला को जहाँ तक संभव हो प्रसन्नचित्त होना चाहिये। ज़रा-ज़रा-सी बात पर खिन्न और दुःखी होना ठीक नहीं। माता की मनोदशा स्वस्थ, स्वच्छ और उदात्त होनी आवश्यक है। तनाव का शरीर की अंत:स्रावी ग्रंथियों की कार्यशीलता पर विपरीत प्रभाव पड़ने से उनकी कार्यप्रणाली भी बिगड़ जाती है जिससे सारे शरीर की प्रक्रियाएँ बाधित होती हैं। ( और पढ़े – गर्भवती महिला रखे इन 15 बातों का ध्यान)
2. भोजन :
कहते हैं जैसा अन्न वैसा मन’ अर्थात् शरीर स्वस्थ होगा तो मन भी स्वस्थ रहेगा। शरीर ही सारे सांसारिक कार्यों के संपादन में विशेष भूमिका निभाता है। शरीर को ठीक रखने का मतलब यह न लगाया जाये कि भोजन की गुणवत्ता के स्थान पर भोजन की मात्रा को महत्ता दी जाये। उचित भोजन से तात्पर्य संतुलित भोजन से है, जिसमें फल, चोकरयुक्त अनाज, घी, सब्जियाँ, फलों/सब्जियों का रस, दूध-दही-लस्सी और मक्खन का उचित मात्रा में प्रयोग। ( और पढ़े –गर्भवती महिला के लिए संतुलित भोजन )
इस बात पर ध्यान दें कि जो भोजन महिला खा रही है उसमें पोषक तत्त्व कितना है। क्या उसे खाने से माता के शरीर की सारी जरूरतें और भावी शिशु के पोषण की सारी आवश्यकताएँ पूरी हो रही हैं? भोजन के विषय में समयबद्ध तरीके से चला जाये तो बेहतर रहेगा। इसमें महत्त्व और तथ्य की बात यह है कि यदि समय पर ही उचित मात्रा पर भोजन खाया जाये तो शरीर के सारे अंगों का पोषण हो जाता है। बेवक्त खाने से खाना ठीक प्रकार से पचता नहीं और पेट में हवा पैदा हो जाने से दर्द, हवा रुकने, खट्टे या कड़वे डकार आने लग जाते हैं और कब्ज या पेचिश/दस्त की शिकायत हो जाती है। इससे माता के शरीर पर तो बुरा प्रभाव पड़ता ही है, शिशु की मानसिक और शारीरिक क्रिया में भी बाधा उत्पन्न होती है।
गर्भवती यदि उत्तेजक, मादक, मिर्च-मसाले, मांस आदि का प्रयोग गर्भावस्था के दौरान करती है तो उसका प्रभाव शिशु (गर्भावस्था) पर भी पड़ेगा, क्योंकि माता जो भी खाएगी. उसी में से और उसी के द्वारा शिशु का पोषण होता है। शिशु के सर्वांगीण विकास के लिए मन, तन और भोजन का शुद्ध, सात्त्विक होना बहुत जरूरी है। इन सब बातों का समवेत रूप से बच्चे की मानसिक और शारीरकि संरचना और विकास पर भी प्रभाव पड़ता है।
गर्भावस्था में शराब, सिगरेट, तम्बाकू के प्रयोग, ड्रग्स के प्रयोग, अधिक तेज दवाओं, (विशेषकर जिनसे शरीर की निरोधक शक्ति का ह्रास होने की संभावना हो) से बचना चाहिये। जिन्हें हृदय रोग, श्वास रोग, दमा, टी.बी., कैंसर, उच्च रक्तचाप की आशंका हो उन्हें इन बातों पर विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिये और उचित सावधानी बरतनी चाहिये।
3. व्यायाम :
इस विषय में पर्याप्त मतभेद हैं। इसका प्रधान कारण है कि आजकल व्यायाम के विभिन्न साधन और प्रक्रियाएँ उपलब्ध हैं। एक बात पर सभी सहमत हैं कि गर्भवती महिला को निठल्ला, सुस्त और परिश्रमहीन जीवन कभी नहीं व्यतीत करना चाहिये। भोजन करने के बाद सो जाना, आराम परस्त जीवन बिताना, घर का सामान्य हलका-फुलका काम भी न करना उचित नहीं। योग में कई ऐसे सुगम आसन हैं जिनको गर्भ की विभिन्न अवस्थाओं में करने से कोई हानि नहीं होती। परंतु प्रत्येक आसन न तो हर महिला के लिए उपयुक्त है और न ही हर कोई इसे कर ही सकती है। प्रत्येक महिला के शरीर का ढाँचा, स्वास्थ्य, भोजन विधि, स्वभाव, आदतें, रोग सहने की क्षमता अलग-अलग होने के कारण, व्यायाम की क्षमता, प्रकार और विधि में भी अंतर होना स्वाभाविक है।
एक बात का ध्यान रखें कि कोई भी व्यायाम करने के दौरान या बाद में थकावट, साँस फूलना या शरीर में वेदना होने लगे तो समझना चाहिये कि व्यायाम शरीर के अनुसार उपयुक्त नहीं है, और व्यायाम के ढंग में परिवर्तन करना जरूरी है। कुछ व्यायाम जिनमें पेट पर बोझ पड़ता हो, रक्तचाप बढ़ता हो, आँखों पर बोझ पड़ता हो, उन्हें कभी नहीं करना चाहिये। उछलना, कूदना, भागना, दौड़ना, जॉगिंग, स्किपिंग, पेट पर पट्टी आदि बांधकर व्यायाम करना गर्भ-विकास में बाधा डाल सकते हैं। अतः केवल वही व्यायाम करें जिनसे शरीर पर कोई दबाव या बोझ न पड़े, शरीर को झटका न लगे।
प्राणायाम से साँस की प्रक्रिया सुधरती है, रक्त का संचालन नियमित होता है, रक्त शुद्ध होता है, प्रत्येक अंग में स्फूर्ति और जीवनीशक्ति का समावेश होता है। योग के आसने जिनसे पेट पर बोझ और दबाव पड़ता हो, कभी न करें । किसी योग्य योगाचार्य से इस विषय में मार्गदर्शन आवश्यक है। वे आपको इस विषय में पूरी तरह सतर्क कर सकते हैं कि कौनसे महीने में कौन-से आसन करने ठीक रहेंगे, कौन-से आसन नहीं करने चाहिएं, और कौन-से आसन वर्जित, हानिप्रद और अनुपयुक्त हैं। व्यायाम का न करना उतना हानिकारक नहीं, जितना कि गलत और अनुपयुक्त व्यायाम करना।
प्रातः भ्रमण से कई लाभ हैं। इससे सारे शरीर का व्यायाम हो जाता है, शरीर चुस्त होता है, गर्भस्थ शिशु का विकास ठीक तरह से होता है, रक्त की शुद्धि होती है, शरीर में नवचेतना का संचार होता है। इसमें एक
गर्भकाल की सामान्य व्याधियाँ :
- अधिक लक्षण तो भोजन के ठीक से न पचने के कारण होते हैं। इसलिए अजीर्ण, वायुगोला, गैस, पेटदर्द, कब्ज, अतिसार, सीने में जलन, पेट का भारीपन, उलटी (कै), जी मिचलाना आदि ऐसे रोगों के लक्षण हैं जिनसे छुटकारा पाने का साधन है कि भोजन समय पर, उचित और निर्धारित मात्रा में लें। जबतक पहला भोजन भली प्रकार पच न जाये, तबतक दूसरी बार खाना न खाएँ । खाने के बाद एकदम सोना भी ठीक नहीं। इसके स्थान पर दोपहर के खाने के बाद घर में ही आठ-दस चक्कर लगा लें, परंतु सुबह और रात के वक्त सैर अवश्य करें (यदि कोई विशेष स्वास्थ्य की समस्या न हो)।
- शरीर को विश्राम देना भी उतना ही जरूरी है, जितना कि सामान्य कामकाज करना और भोजन करना। सभी बातों में पर्याप्त और उचित तालमेल बनाए रखने से प्रायः स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ नहीं पनपती।
- यदि पहले तीन महीने में उलटी आ जाए तो तुरंत इलाज कराएँ, अन्यथा गर्भपात की संभावना बढ़ जायेगी।
- अपने आप कोई दवा कभी न लें और घर के नुस्खों या टोटकों का प्रयोग न करें। यदि करना ही हो तो किसी योग्य वैद्य या डॉक्टर से परामर्श के बाद ही कोई दवा लें।
- स्त्री के लिए गर्भकाल एक महान् परीक्षा का समय होता है। इस दौरान मन शांत और प्रसन्न, तन स्वस्थ और भोजन संतुलित और पौष्टिक रहना जरूरी है अन्यथा कोई न कोई मानसिक/शारीरिक रोग की आशंका सदा बनी रहेगी। इसके अतिरिक्त घर का वातावरण भी सुखद, तनावरहित और स्वस्थ रहना जरूरी है। गर्भकाल को बोझ समझकर या निराश, हताशा के वातावरण से भयभीत होकर अपने और दूसरों के लिए समस्याएँ पैदा न होने दें। यह एक संयुक्त उपक्रम है, जिसमें सभी का सहयोग और योगदान जरूरी है।
- अपनी चिकित्सा से अपना परीक्षण समयबद्ध तरीके से नियमित रूप से करवाएँ और उनके निर्देशों का पूरी तरह पालन करें। ऐसा करने से कई समस्याओं का समाधान हो जाता है और व्यर्थ की दुविधा और परेशानी से मुक्ति मिल जाती है। डॉक्टरी परीक्षा से बच्चे के स्वास्थ्य और विकास की भी पूरी जानकारी मिल जाती है। डॉक्टर आपके स्वास्थ्य और रोग की स्थिति में आपके खान-पान, रहन-सहन में परिवर्तन करके कई संभावित परेशानियों से बचाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। अपने चिकित्सक से कोई भी बात छुपाएँ नहीं, अपितु उन्हें अपना मित्र और मार्गदर्शक समझते हुए अपनी सभी समस्याएँ बताएँ।
गर्भवती के लिए जानने योग्य बातें :
- माँ के गर्भ में जब शिशु बत्तीस दिन का होता है तो प्रथम चिह्नों के रूप में केवल सिर व चेहरे के मुख्य अंग ही स्पष्ट हो पाते हैं।
- गर्भ में चालीसवें दिन शिशु के मस्तिष्क व आँखों की रचना हो चुकी होती है।
- गर्भ के छियालीसवें दिन गर्भस्थ शिशु के सभी अंग-हाथ, पाँव तथा उँगलियाँ बन जाती हैं, लेकिन इन अंगों की अपेक्षा सिर अनुपात में बहुत बड़ा होता है।
- गर्भ के साठ दिन बाद बाँहें व टाँगे बढ़ने लगती हैं, लेकिन शरीर की अपेक्षा सिर का आकार बड़ा होता है।
- लगभग एक सौ बीस दिन बाद गर्भ में शिशु विकसित आकार धारण कर लेता है तथा सभी अंगों की पहचान संभव होती है।
- लगभग एक सौ अस्सी दिन बाद गर्भ में शिशु के सिर पर बाल उगने लगते हैं व शरीर की रचना पूर्ण हो जाती है। शिशु गर्भ में हिलने-डुलने लगता है।
- कई बार दो सौ दस दिनों बाद समय से पूर्व बच्चा जन्म ले लेता है। याद रहे, इस अवस्था में जन्म लेनेवाले बच्चे का विकास अधूरा व बच्चा बहुत कमजोर व आकार में छोटा होता है। ऐसे बच्चे को ‘इंक्यूवेटर’ में रखकर पालना चाहिए, जिससे शरीर को पर्याप्त गरमी पहुँचती है। याद रहे, आठवें माह के दौरान जनमे बच्चे प्रायः नहीं बच पाते । आइये जाने गर्भवती महिला की देखभाल कैसे करें ।
प्रेगनेंसी में क्या करना चाहिए :
- हर महीने अपने डॉक्टर से स्वास्थ्य संबंधी सलाह लें।
- जी मिचलाने अथवा उलटी होने पर डॉक्टर को दिखाएँ। दवा द्वारा इस समस्या से छुटकारा मिल जाता है।
- अधिक उलटी होने की अवस्था में तुरंत डॉक्टरी उपचार करवाना चाहिए । शरीर में जल की संतुलित मात्रा बनाए रखने के लिए संभव है आपको ‘ग्लूकोज’ चढ़ाना पड़े।
- 1 दिन में छह से सात बार थोड़ी-थोड़ी मात्रा में आहार लेना चाहिए। भर पेट खाने से उलटी होने की आशंका रहती है।
- प्रात:काल ताजा हवा में लंबी-लंबी श्वास लें।
- जी मिचलाता हो तो आधा नीबू काटकर चूसना चाहिए।
- गर्भ ठहरने के प्रारंभिक काल के समय हारमोंस परिवर्तन के कारण शरीर थका थका सा महसूस होता है। इस दौरान अधिक-से-अधिक विश्राम करना चाहिए।
- इस अवस्था में रात्रि के समय आठ से दस घंटे तथा दिन के समय कम-से-कम दो घंटे विश्राम करना जरूरी है।
- कभी-कभार गर्भिणी को चक्कर आने की स्थिति में बिस्तर पर बैठकर घुटने उठाएँ। घुटनों के बीच सिर टिकाकर थोड़ी देर शांत रहने से आराम मिलता है।
- शाम के समय तरल खाद्य पदार्थों का सेवन कम कर देना चाहिए अन्यथा रात्रि के समय बार-बार पेशाब आने की शिकायत रहेगी।
- गुप्तांग से बदबूदार श्वेतस्राव आना, गुप्तांग में दर्द, जलन और कभी-कभार रक्त आने पर अविलंब डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए।
- पेशाब करते समय संक्रमण के कारण दर्द व जलन का अहसास होने पर अपने डॉक्टर को बताएँ।
- दोपहर के खाने के बाद थोड़ी देर विश्राम करना चाहिए। इस स्थिति में पाँव थोड़े ऊपर उठे होने चाहिए। • साफ सुथरा, हलका और अच्छी तरह पका हुआ भोजन ही करें।
- दिन में दो बार दाँत साफ करने चाहिए।
- गर्भ के दौरान गर्भवती को मैथुन क्रीड़ा से दूर रहना ही हितकर होगा।
गर्भावस्था में इन बातों से बचिए : pregnancy me kya kam nahi karna chahiye
- तंग, असुविधाजनक तथा नायलोन आदि के वस्त्र।
- तेजाब, केमिकल एवं तेज दुर्गंध।
- चाय व कॉफी का अधिक सेवन।
- तरल पदार्थों का अधिक सेवन ।
- अधिक समय तक खड़ा रहना।
- स्नान करते समय बैठने की स्थिति से एकदम उठना।
- दुपहिया वाहन पर तथा अधिक लंबी यात्रा।
- पहले गर्भपात होने की दशा में यात्रा न करें।
- ऐसा कार्य, जिससे शारीरिक थकान हो।
- धूम्रपान या मदिरापान ।
- एक्स-रे की किरणें पड़ना।
- पालतू जानवरों को छूना।
- औषधियों का सेवन । आवश्यक होने पर डॉक्टर के परामर्शानुसार ही दवा लेनी चाहिए।
डॉक्टर से तुरंत सलाह लें, यदि :
- योनि-मार्ग से रक्त आता हो।
- पेट के निचले भाग में दर्द रहता हो।
- पेशाब करते समय जलन अथवा दर्द हो ।
- उलटियाँ न रुकती हों।
- बुखार आ जाए।
- त्वचा में खारिश व जलन हो।
- हर समय सुस्ती महसूस हो।