Last Updated on July 22, 2019 by admin
दुर्लभ मनुष्यदेह बार-बार नहीं मिलता। इसलिये हृदय में हरि-नाम से प्रेम धारण करने का प्रयत्न करो। यदि एक बार दृढ़ निश्चय कर लो कि प्रभु-प्राप्ति करके ही रहूँगा तो फिर ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो तुम्हें प्रभु-प्राप्ति के मार्ग से हटा दे। भगवत्साक्षात्कार करके मानवजीवन को धन्य तथा सफल बनाना है। इसके लिये आयुवृद्धि और स्वास्थ्य-रक्षा के लिये प्रयत्नशील रहना अपना कर्तव्य है
आचार्य कहते हैं-‘इदं शरीरं खलु धर्मसाधनम्।’ तथा
धर्मार्थकाममोक्षाणां शरीरं साधनं यतः।
सर्वकार्येष्वन्तरङ्गं शरीरस्य हि रक्षणम्॥
‘धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थो की प्राप्ति के लिये नीरोग तथा स्वस्थ शरीर ही मुख्य साधन है। इसलिये शरीर की रक्षा अवश्य करनी चाहिये। वेद में भी दीर्घ जीवन की प्राप्ति के लिये बार-बार कहा गया है
स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्। आयुः प्राणं प्रजां पशु कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्यं दत्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्॥ (अथर्ववेद १९ । ७१ । १)
‘ब्राह्मणों को पवित्र करनेवाली, वरदान देनेवाली वेदमाता गायत्री की हम स्तुति करते हैं। वे हमें आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करके ब्रह्मलोक में जायें।’
इस मन्त्र में सबसे प्रथम आयुका उल्लेख किया गया है। आयु के बिना प्रजा, कीर्ति, धन आदि का कुछ भी मूल्य नहीं है। आत्मा के बिना देह का कोई मूल्य नहीं। यही बात आयु के विषय में है। सौ वर्ष की आयु के लिये अनेक प्रार्थनाएँ देखने में आती हैं।
लंबी उम्र के लिए क्या करें ?
दीर्घ जीवन के लिये अथवा मृत्यु को दूर करनेके लिये छः बातें आवश्यक हैं-
(१) ब्रह्मचर्य, (२) प्राणायाम, (३) प्रणव-जप, (४) सिद्ध पुरुषकी कृपा, (५) ओषधि तथा रसायन-सेवन और (६) मिताहार। आयु की रक्षा और वृद्धि के ये छः स्तम्भ हैं।
( और पढ़े – दीर्घायु होने के 23 सरल उपाय)
ब्रह्मचर्य :
ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत।
इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवभ्यः स्वराभरत्॥
(अथर्ववेद ११।५। १९)
‘ब्रह्मचर्यरूपी तपसे विद्वानों ने मृत्यु को दूर हटा दिया। इन्द्र ने भी ब्रह्मचर्य के प्रतापसे देवताओं को सुख
और तेज प्रदान किया। यह मन्त्र आज्ञा देता है कि मृत्यु को दूर करनेके लिये ब्रह्मचर्यका पालन अवश्य करो। ब्रह्मचर्य की महिमा को मनुष्य ने जबसे भुलाया, तभी से उसका अध:पतन आरम्भ हो गया। जीवन में उबाल, मेधाकी अप्रतिम शक्ति, जीवन की मस्ती, यौवन का सात्त्विक उल्लास, आकृति का ओजस्, वाणीकी दृढ़ता, कार्यकी दृढ़ता, सच्चे साहस की स्वाभाविकता, जीवन में चापल्य और चाञ्चल्य-ये सब पूर्ण ब्रह्मचर्य के चिह्न हैं।
वैज्ञानिकों ने यह निश्चय किया है कि ८० पाउंड भोजनसे ८० तोला खून बनता है और ८० तोला खून से दो तोला वीर्य बनता है। एक मास की कमाई डेढ़ तोला वीर्य है। एक बार ब्रह्मचर्य-भङ्ग होने से लगभग डेढ़ | तोला वीर्य निकलता है। इससे आयु घटती जाती है।
कठिन परिश्रम से प्राप्त की हुई शक्ति को एक बार में नष्ट कर देना कैसी मूर्खता है। यही वीर्य यदि नष्ट न हो, तो ओजस् बनकर सारे शरीर को तेजस्वी बना देता है।
इसी कारण कहा है-
‘मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्।
‘ ‘वीर्यका नाश मृत्यु है और वीर्यकी रक्षा जीवन है।’
प्राणायाम :
गुरु के सांनिध्य में रहकर प्राणायाम करना सीखना चाहिये और फिर उसका अभ्यास बढ़ाना चाहिये। स्वरोदय के अनुसार एक दिन में अर्थात् चौबीस घंटेमें मनुष्यके औसत इक्कीस हजार छ: सौ श्वास चलते हैं। उनमें जितनी कमी की जाय उतनी ही आयु बढ़ जाती है तथा जितने ही श्वास बढ़ते हैं, उतनी ही आयु घट जाती है।
मैथुनक्रिया, क्रोध, उत्तेजना, हिंसा, आवेश, अतिहर्ष, दौड़ना आदि में श्वास जल्दी-जल्दी चलकर बढ़ जाते हैं, जिससे आयु घटती है और प्राणायाम, ध्यान, शान्ति, क्षमा, ब्रह्मचर्य, नम्रता, धीरे-धीरे चलना आदि में श्वास धीमी गति से चलते हैं, अतः आयु बढ़ती है। आयु की अवधि श्वासों पर निर्धारित है, काल पर नहीं। आयु के घटने बढ़ने का यह रहस्य निरन्तर स्मरण रखना चाहिये। मनुष्य को जहाँ तक हो सके, जल्दी-जल्दी और लघु श्वास नहीं लेना चाहिये, प्रत्युत ऐसी आदत डालनी चाहिये कि श्वास लंबा हो और धीरे-धीरे चले। प्राणायाम इसका एक मुख्य साधन है। परंतु प्रत्येक मनुष्य प्राणायाम नहीं कर सकता, इसलिये दीर्घ श्वास-प्रश्वासकी क्रिया नीचे लिखे अनुसार करनेसे उद्देश्यकी सिद्धि हो सकती है।
प्रत्येक मनुष्य को प्रातः सूर्योदय से पूर्व उठना चाहिये। मल-मूत्र का त्याग करके स्नान करे। तत्पश्चात् पृथिवी पर कम्बल या दरी बिछाकर सिर के नीचे बिना कोई तकिया रखे लेट जाय। हाथ-पैर को ढीला रखे। कमर का बन्धन ढीला करे और मुँह बंद करके नाक से श्वास ले। श्वास इस प्रकार ले कि नाभि के साथ-साथ पेट फूलता जाय। इस प्रकार पेट भर जाने पर मुँह बंद रखते हुए नाक के द्वारा यों श्वास छोड़े कि धीरे-धीरे पेट बैठता चला जाय। नाक से श्वास लेने और छोड़ने का समय एक-सा होना चाहिये।
परंतु यह समय घड़ी से मापना ठीक नहीं। प्रभु की प्रार्थना से एक चरण-पद लेकर मन में एक बार जबतक पाठ होता रहे, तबतक श्वास ले; और पश्चात् वही पाठ एक बार होता रहे, तबतक श्वास छोड़े। पश्चात् जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ता जाय, वैसे-वैसे प्रार्थना के पाठकी मात्रा बढ़ाता जाय। उसका दूसरा चरण ले ले (अथवा प्रार्थना के स्थान में भगवान्के नामका जप करता रहे)। अर्थात् जितने समयमें चौबीस अक्षरका उच्चारण हो, उतने समयतक श्वास लेने और उतने ही समयतक श्वास छोड़ने का अभ्यास करे। इस प्रकार कम-से-कम सात बार और अधिक-से-अधिक इक्कीस बार श्वास लेने-छोड़नेका नियमित अभ्यास करे। यह विशेष रूप से याद रखे कि श्वास लेने में वायु नाभिपर्यन्त पहुँचता है या नहीं और श्वास छोड़ते समय नाभि खाली हो जाती है या नहीं। इस प्रकार क्रिया करनेके बाद दिन-रात यह ध्यान रखे कि श्वास छोटा तो नहीं हो रहा है। इसकी परीक्षा स्वयं ही की जा सकती है।
यदि यह क्रिया बराबर होती रहेगी तो इसे करनेवाले का मल साफ उतरेगा, पेशाब ठंडा होगा, भूख खूब लगेगी। खाया हुआ भोजन अधिक पचेगा, आँख का तेज बढ़ेगा। सिर में आने वाला चक्कर और दिमाग की गरमी शान्त होगी। शरीर में शक्ति बढ़ने लगेगी।
किंतु यह क्रिया ठीक न होती होगी तो श्वास लेने की अपेक्षा छोड़ने में समय कम लगेगा। ऐसी अवस्था में उपर्युक्त गुणों की अपेक्षा विरुद्ध परिणाम निकलेगा। यदि कभी आवश्यक कार्यवश अधिक श्रम होने के कारण श्वास जोर-जोर से चलने लगे तो घबराकर मुँह से श्वास न ले। अपितु मुँह बंद रखकर नाक से श्वास लेते रहनेसे थोड़ी ही देर में श्वास नियमित हो जायगा और थकावट दूर हो जायगी।जैसे-जैसे नाभि से श्वास निकालकर बाहर हवा में फेंका जायगा और बाहर हवा में शुद्ध हुए श्वास को नाक के द्वारा नाभिपर्यन्त पहुँचाया जायगा, वैसे-वैसे विष्णुपादा मृत की प्राप्ति अधिकाधिक होती जायगी; इस प्रकार दीर्घ जीवन प्राप्त करनेमें सफलता मिलेगी।
प्रणव-जप :
प्रणव-मन्त्र के जपसे आयु बढ़ती है। तैलधारावत् इस मन्त्र का जप श्वास-श्वास में चलना चाहिये। नाडी के साथ प्रणव-मन्त्र का जप करने से बहुत शीघ्र प्रगति होती है। श्वास-प्रश्वास की गति तालबद्ध बनती है। धातु और रसायन के विशेष योग से विद्युत्-शक्ति प्रकट होती है। इसी प्रकार श्वास-प्रश्वास के साथ प्रणव-मन्त्र का जप करनेसे अमोघ शक्ति उत्पन्न होती है। अखण्ड गति से जप करने से मन उसमें स्थिर हो जाता है। जैसे चुंबक के सामने लोहा रखने से तुरंत ही वह लोहे को खींच लेता – है, केवल चुंबक की शक्ति के पास लोहा आना चाहिये;इसी प्रकार अखण्ड प्रणव-मन्त्र का जप चुंबक के समान – है, चित्तवृत्तियाँ लोहे के समान हैं। ये दोनों समीप आ – जायें तो प्रणव-मन्त्र का जप वृत्तियों को खींच लेता है और वृत्तियाँ प्रणवमय बन जाती हैं। इस प्रकार दीर्घ जीवन और प्रभु-प्राप्ति की साधना-दोनों साथ-साथ आगे बढ़ते हैं और जीवन का ध्येय सफल हो जाता है।
सिद्ध पुरुष की कृपा :
सिद्ध पुरुष की कृपा भी इसमें विशेषरूप से सहायक होती है। यदि ऐसे पुरुष की कृपा हो तो दीर्घ जीवन और प्रभु-प्राप्ति दोनों ही सत्वर प्राप्त होते हैं।
मुमुक्षु आत्मसाक्षात्कार तथा आध्यात्मिक ज्ञान – प्राप्त करना चाहता है। परंतु इसका साधन भी शरीर ही है। यदि बीच में ही शरीर का पतन हो जाय तो अन्तिम लक्ष्य-स्थान तक पहुँचने में दीर्घ काल तक समय बिताना पड़ता है। बार-बार जन्म लेने और देह-त्याग करने में बहुत समय नष्ट होता है। अतएव किसी भी उपाय से शरीर सशक्त और स्वस्थ बना रहे तथा दीर्घ काल तक टिका रहे तो प्रभु की प्राप्ति में सहायक हो सकता है।
ओषधि तथा रसायन-सेवन :
शरीर को बलवान् बनाने में शास्त्रोक्त औषध और रसायन का सेवन भी बहुत काम करता है। कायाकल्प के प्रयोग से शरीर को फिर तरुण-जैसा बलवान् बनाया जा सकता है। अमृत पीने से यह देह अमर हो जाता है। बहुत से योगियों का मत है कि हमारे परम गुरु मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ आदि आज भी अपने असली शरीर से विद्यमान हैं। अश्वत्थामा के विषय में भी यही बात कही जाती है। अतएव औषध और रसायन का सेवन करने से अपने ध्येय में पर्याप्त सहायता मिलती है।
मिताहार :
मिताहार शरीरको स्वस्थ बनाये रखनेमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। मिताहारका अर्थ है-पेट में दो भाग भोजन से, एक भाग जल से भरे और एक भाग हवा के लिये खाली रखे। खाना तभी चाहिये जब भूख लगे।
आयु की वृद्धि एवं जीवन के परम लक्ष्य प्रभु की प्राप्ति के उपर्युक्त छः उपायों का श्रद्धा तथा दृढ़तापूर्वक पालन करके जीवन को सफल बनाना चाहिये।