Last Updated on July 12, 2021 by admin
फेफड़े रक्त को साफ करते है व शरीर के हर भाग तक इनका संपर्क रहता है। सीने के दोनों तरफ एक-एक फेफड़ा रहता है। बाएँ फेफड़े से दिल ढका रहता है। शायद इसीलिए बायाँ कुछ छोटा होता है। बाएँ फेफड़े के दो भाग होते हैं, दाहिने के तीन भाग।
फेफड़े का रंग बदलता रहता है। नवजात शिशु के फेफड़े का रंग गुलाबी-सा, फिर जैसे-जैसे मनुष्य बढ़ता है और जैसा उसका रहन-सहन होता है, उसके अनुसार इनका रंग बदलता है। शहरों, औद्योगिक कस्बों में रहनेवाले या जहाँ धुआँ व गर्द अधिक हो, या जो धूम्रपान अधिक करते हों, उनके फेफड़ों का रंग बिलकुल सलेटी रंग का कालानुमा होता है। जो शहरों के बाहर रहते हैं या जो समुद्र पर ही अधिक रहते हैं, उनके फेफड़े काफी कम कालापन लिये होते हैं।
फेफड़े की संरचना (Structure of Lungs in Hindi)
फेफड़े नीचे डायाफ्राम (Diaphragm) के ऊपर रखे रहते हैं, जो कलश (Dome) के आकार का होता है।
ऊपर ये श्वासनली से जुड़े हुए उसी के सहारे हलक में खुलते हैं। ये फैलते व सिकुड़ते रहते हैं। हर श्वास के साथ जब श्वास अंदर लेते हैं तो ये फूलते हैं और जब श्वास बाहर निकालते हैं तो सिकुड़ जाते हैं। ये एक झिल्ली से ढके रहते हैं और यह झिल्ली, जिसे Pleura कहते हैं, सीने के अंदर के हिस्सों से चिपकी रहती है। यह बिलकुल सब तरफ से बंद होती है, जिसे Pleural Cavity कहते हैं।
इसमें पानी की तरह पतला तरल पदार्थ भी होता है। इस केविटी में Negative Pressure Vacum होता है। इसी के सहारे फेफड़े सिकुड़ते व फैलते हैं। यदि सीने में कोई चोट ऐसी लग जाए जिससे सीने में छेद हो जाए, तो हवा अंदर इस केविटी (Cavity) में पहुँच जाएगी; यानी वेकुअम (Vacum) नहीं रहेगा और फेफड़ा सिकुड़ जाएगा। जब तक इलाज न हो, यह काम न कर सकेगा।
फेफड़े की कार्यप्रणाली (Function of Human Lungs in Hindi)
श्वासनली के दो बड़े हिस्से हो जाते हैं एक-एक दोनों फेफड़ों के लिए। यह ब्रांकियल ट्यूब्स (Bronchial Tubes) कहलाते हैं। फिर इनके छोटे-छोटे हिस्से होते चले जाते हैं -बिलकुल पेड़ की शाखाओं की तरह ब्रांकस (Bronchus) दोनों फेफड़ों के लिए, फिर हर ब्रांकस के छोटे-छोटे ब्रांकियल्स (Bronchioles) से जाते हैं। एक ब्रांकियल्स का व्यास इंच के 1/100 वें हिस्से के बराबर होता है।
ब्रांकियल्स के अनगिनत छोटे-छोटे हिस्से हो जाते हैं। यह हवा की नलकियों का ही काम करता है। प्रति ब्रांकियल्स का अंत वायु कोष्ठिका (Alveoli) में होता है, जो अनगिनत होती हैं,जैसे हवा की छोटी-छोटी फूली हुई थैलियाँ। ये बहुत लचीली होती हैं, यानी फेफड़े का मुख्य काम इन्हीं वायु कोष्ठिकाओं में होता है। इनका आकार बिलकुल अंगूर के गुच्छे की तरह होता है। यही फूलती और पिचकती हैं।
ब्रांकियल्स के चारों ओर खून की नली होती हैं, जो बेहद पतली होती हैं। ये कैपलरीज (Capliaries) कहलाती हैं। ये इतनी पतली होती हैं कि अशुद्ध रक्त की धमनियों में से छनकर अपनी (CO2) कार्बन डाइऑक्साइड वायु कोष्ठिका में छोड़ देती हैं और ऑक्सीजन वायु कोष्ठिका से लेकर अच्छे खून की नली से रक्त को भेज देती हैं; अर्थात् रक्त यहाँ शुद्ध होता है।
रक्त से कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) निकलकर मुँह व नाक के द्वारा बाहर निकलती है और ऑक्सीजन रक्त को देकर उसको शुद्ध कर देती है। यह शुद्ध रक्त सारे शरीर को (O2) ऑक्सीजन देता है और शरीर से (CO2) कार्बन डाइऑक्साइड लेकर शरीर से बाहर निकल जाती है।
शारीरिक परिश्रम और फेफड़े :
जब मनुष्य दौड़ता-भागता या मेहनत के काम करता है, तो उसके शरीर में अधिक (CO2) कार्बन डाइऑक्साइड बनती है। यह रक्त के द्वारा मस्तिष्क के उस हिस्से में पहुँचती है जो गरदन से कुछ ऊपर होता है। इसे Medula Oblongata कहते हैं। इसमें सब सेंटरस रहते हैं, जो शरीर के रक्त-प्रवाह, साँस लेना, गरमी इत्यादि को नियंत्रित करते हैं। जैसे ही कार्बन डाइऑक्साइड से स्थित रक्त वहाँ पर छूता है, साँस की क्रिया जो आराम से लेटे या बैठे लगभग सत्रह-अठारह प्रति मिनट होती है, तुरंत बढ़ जाती है। और अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) शरीर से निकलती है तथा उसकी जगह (O2) ऑक्सीजन पहुँचती है। जैसे ही कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) की मात्रा रक्त में कम होती जाती है, साँस लेना भी कम होता जाता है।
फेफड़ों को तंदुरुस्त रखने में प्राणायाम का महत्व (Pranayama for Lung Capacity in Hindi)
आराम से साँस लेने से, जैसाकि हम हर समय करते हैं, लगभग 1/3 या 1/4 वायु कोष्ठिका काम नहीं करती है। यानी यह सिकुड़ी रहती है और इनका फैलाव कम हो सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि सारी वायु कोष्ठिका को दिन में एक या दो बार अवश्य खोल दिया जाए। यह गहरी-गहरी साँस लेने से हो सकता है, जैसे – दौड़ना, खेलना, व्यायाम इत्यादि से। एक क्रिया, जिसका बहुत महत्त्व है वह प्राणायाम है। इसको करने की अनेक विधियाँ हैं। प्राणायाम करने के लिए खाली पेट पद्मासन में बैठिए। जमीन या तखत पर गरदन, सिर व रीढ़ की हड्डी को एक सीध में करिए। धीरे-धीरे साँस को अंदर खींचकर इसे तीन तक गिनती गिनकर फिर इतनी ही देर तक रोकें, फिर धीरे-धीरे बाहर निकालें। ऐसा तीन या चार बार किया जाए।अच्छा हो, यदि किसी जानकार से परामर्श करके या उसके साथ किया जाए।
फेफड़े का ठीक काम करते रहना इनकी वायु कोष्ठिका के ऊपर निर्भर है। यदि वायु कोष्ठिका को किसी भी प्रकार से हानि पहुँचती है, यानी इनकी लचकता कम होती है या जाती रहती है, तो जीवन नहीं रह सकता। अब यह देखने की बात है कि फेफड़े किस प्रकार से ठीक रखे जाएँ और उनको कैसे हानि से बचाया जाए।
( और पढ़े – प्राणायाम के नियम, महत्व, तरीका और लाभ )
सुरक्षा प्रणाली द्वारा फेफड़ों की रक्षा :
वैसे तो फेफड़ों की बनावट ऐसी होती है कि यदि संयम व नियम से रहा जाए और धूम्रपान आदि से परहेज किया जाए, तो फेफड़े स्वयं ही अपनी रक्षा कर लेते हैं। इस संदर्भ में दो चीजें महत्त्वपूर्ण हैं – 1. लाइसोजाइम, 2. फैगोसाइटस।
- लाइसोजाइम –
लाइसोजाइम एक एंजाइम (Enzyme) है जो अधिकतर नाक व हलक में रहता है। यह मामूली कीटाणुओं व (वायरस) विषाणुओं को खाता रहता है और उन्हें नष्ट कर देता है।
- फैगोसाइटस –
फैगोसाइटस रक्त की सफेद कणिका होती है और कीटाणुओं को अपने में समेटकर उन्हें नष्ट कर देती है। मानो खा लेती है। फेफड़ों का संपर्क सीधा बाहर से होने के नाते कीटाणु सीधे फेफड़े में पहुँचकर हानि पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं। उधर बचाव की क्रिया उनको फेफड़े में पहुँचने से रोकती है।
कैसे साफ हवा फेफड़े में पहुँचती है ? :
अब हम जानेंगे कि किस प्रकार साफ हवा फेफड़े में पहुँचती है।
नाक के बाल –
नाक के बाल धूल और कीटाणुओं को वायु के साथ अंदर (फेफड़े में) जाने से रोकते हैं। इसके बाद नाक व हलक में चिपकता हुआ श्लेष्मा (बलगम) होता है, जिसमें कीटाणु चिपककर रह जाते हैं।
सीलिया (Cilea) –
फेफड़ों का बचाव सबसे अधिक एक प्रकार की झाड़ से होता है, जिसमें अनगिनत सींकें हैं। इसे Cilea कहते हैं। यह बहुत महीन होती है, जो माइक्रोस्कोप से ही देखी जा सकती है। यह एक प्रकार की झिल्ली में लगी रहती है। जिस प्रकार खेत में लहलहाती हुई बालियाँ हवा के झकोरे लेती हैं, इसी प्रकार यह भी गंदगी इत्यादि को ऊपर फेंकती है और गंदगी हलक से बाहर निकल जाती है।
फेफड़ों पर धूम्रपान का दुष्प्रभाव :
फेफड़ों का बचाव करने वाली सीलिया (Cilea) बहुत नाजुक होती है। दूषित धुएँ, विशेष तौर पर सिगरेट आदि पीने, से यह नष्ट हो जाती है। जरा से दूषित धुएँ से यह काम करना छोड़ देती है, मानो इसको लकवा मार गया हो। जिस जगह सीलिया होती है वहाँ की नाजुक झिल्ली लगातार धुएँ की रगड़ से मोटी पड़ जाती है। इससे उसका स्रावकर्म भी बढ़ जाता है, जिसके कारण खाँसी अधिक आती है।
मैंने आज तक किसी धूम्रपान करनेवाले को बिना खाँसी के नहीं देखा। बलगम नीचे जाकर वायु कोष्ठिका में जमा होने लग जाता है। नतीजा यह होता है कि वायु कोष्ठिका की नाजुक खिंचावट दिन-पर-दिन बलगम भरे रहने से कम होती जाती है और यह भरी हुई थैलियों की तरह हो जाती है।
मनुष्य यह महसूस करता है कि उसके सीने में बलगम भरा है। उसको निकालने के लिए वह सिगरेट पीता है, जिससे उसे खाँसी आती है। खाँसी से बलगम निकलता है और सीलिया के होने के कारण नाजुक झिल्ली में और रगड़ होती है तथा अधिक बलगम पैदा होता है। फिर और अधिक खाँसी आती है। खाँसते-खाँसते फेफड़े की दो वायु कोष्ठिकाओं के बीच की नाजुक दीवारें फट जाती हैं और इनकी अनेक छोटी-छोटी थैलियाँ-सी बन जाती हैं। इनकी बहुत नाजुक स्पंज (Sponge) की-सी बनावट नष्ट हो जाती है और ये भारी हवा व दूषित बलगम से भर जाती हैं। फिर यह दमा की सूरत धारण कर लेता है। बीच की दीवारें टूट जाने से इनके चारों ओर की धमनी, नाजुक पतली रक्त की नलियाँ दबती हैं और रक्त-प्रवाह में रुकावट होती है। खून भी जैसा साफ होना चाहिए, नहीं होता है। इसके बहुत गंभीर परिणाम निकल सकते हैं, जैसे – हृदय के भयंकर रोग, दूसरे हृदय का फेल हो जाना इत्यादि। इस कारण धूम्रपान कदापि नहीं करना चाहिए।
( और पढ़े – सिगरेट (धूम्रपान) की लत छोड़ने के उपाय )
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