पुरुष प्रजनन अंग : संरचना और इसके कार्य

Last Updated on May 13, 2023 by admin

प्रजनन-संस्थान क्या है ?

हर जीवधारी अपने वंश की वृद्धि करने तथा वंश को चलाने के लिए जनन-क्रिया द्वारा अपने जैसे दूसरा जीव पैदा करता है। इनका विकास कोशिकाओं के संवर्द्धन के फलस्वरूप होता है। इस प्रकार अपनी जाति की उत्पत्ति करने को ‘प्रजनन’ कहा जाता है। निर्जीवों में यह प्रजनन क्रिया नहीं होती। अलग-अलग जीवों में प्रजनन की व्यवस्था अलग-अलग होती है। एक कोशिकीय जीवों जैसे- अमीबा, बैक्टीरिया आदि में अलैंगिक जनन (asexual reproduction) होता है। बहुकोशिकीय जीव अर्थात मानव में प्रजनन लैंगिक जनन (sexual reproduction) होता है, अर्थात लैंगिक संसर्ग (संभोग) के द्वारा नया जीव (संतान) पैदा होता है तथा माता-पिता दोनों के आनुवांशिक गुण उसमें पहुंचते हैं। पुरुष एवं स्त्री के जनन-अंग रचना और कार्य में अलग-अलग होते हैं। दोनों में विशिष्ट जनन कोशिकाएं, पुरुष में शुक्राणु (spermatozoa) और स्त्री में डिम्ब (ovum) होती है, जिन्हें युग्मक (gamete) कहते हैं। संभोग के द्वारा, शुक्राणु का डिम्ब के साथ मिलन हो जाने पर एक सम्मिलित कोशिका बनती है जिसे युग्मनज या जाइगोट (zygote) कहते हैं। यह कोशिका स्त्री के गर्भाशय में विकसित होकर एक नए जीव (शिशु) का आकार ले लेती है।

पुरुष के प्रजनन संस्थान का कार्य शुक्राणुओं को पैदा करना तथा उन्हें स्त्री की योनि में संचारित करना है। स्त्री प्रजनन-तन्त्र का कार्य पुरुषों की अपेक्षा कुछ अधिक जटिल होता है। यह डिम्ब (ova) पैदा करने के अलावा, गर्भाधान (fertilization) के बाद विकासशील भ्रूण का पोषण एवं सुरक्षा करता है तथा शिशु का जन्म होने के बाद उसके स्तन्य पान (पोषण) के लिए स्तनों में दूध का उत्पादन करना होता है।

वृषण (Testes) क्या है ? संरचना और कार्य

    पुरुष की प्रजनन ग्रंथियों (gonads) को वृषण कहा जाता है। यह ग्रंथियां शुक्राणुओं का उत्पादन करती है। भ्रूणीय विकास के दौरान वृषण (टेस्टीज) उदर श्रोणि गुहा के भीतर वृक्कों (गुर्दों) के बिल्कुल नीचे बनते हैं। तीन महीने का भ्रूण होने पर हर वृषण अपनी ऑरिजिनल (असल) जगह से नीचे उतरकर इन्ग्वाइनल केनाल (inguinal canal) में आ जाता है। सातवें महीने के बाद ये इन्ग्वाइनल केनाल से गुजरकर अण्डकोष (Scrotum) में आ जाते हैं। अण्डकोष शिश्नमूल के नीचे और जांघों के बीच लटकने वाली त्वचा की एक थैली होती है। वृषण (टेस्टीज) अण्डकोष में जन्म के बाद या उससे थोडा पहले पूरी तरह उतरते हैं। इन्ग्वाइनल केनाल वृषण (टेस्टीज) के गुजरने के बाद अक्सर बंद (sealed off) हो जाती है। यदि केनाल सही तरह से बंद नहीं हो पाती, तो इन्ग्वाइनल हर्निया हो सकती है। यदि वृषण (टेस्टीज) नियमानुसार उतरने के बजाय उदरगुहा में ही रह जाए (undescended testes), तो अक्सर शुरुआती बाल्यावस्था में ही सर्जरी करानी पड़ती है। यदि इस स्थिति को ठीक नहीं किया जाए, तो वृषण (टेस्टीज) द्वारा टेस्टोस्टीरॉन नामक हॉर्मोन तो पैदा होता है लेकिन शुक्राणु पैदा नहीं होते। इसके परिणाम स्वरूप बांझपन (sterility) रोग हो जाता है। इसके अलावा टेस्टीकुलर कैंसर की सम्भावना बढ़ जाती है।

  बायां वृषण (टेस्टीज) दाएं वृषण की अपेक्षा नीचे को कुछ अधिक लटका हुआ होता है। इससे सामान्य क्रियाओं के दौरान वे आपस में टकराते नहीं है। चूंकि वृषण (टेस्टीज) शरीर के बाहर अंडकोष में लटके रहते हैं, इसलिए इनका तापमान शरीर के तापमान से लगभग 30f कम रहता है। यह निम्न तापमान सक्रीय शुक्राणुओं को पैदा करने तथा उनके जीवित रहने के लिए जरूरी होता है।

  अंडकोष का आतंरिक भाग एक तंतुमय मीडियन सेप्टम द्वारा दो भागों (कक्षों) में बंटा रहता है। हर कक्ष में एक वृषण (टेस्टीस) रहता है। मीडियन सेप्टम की रेखा अंडकोष पर बाहर की ओर त्वचा के उभार (रेखा), पेरीनियल रेफी (perineal raphe), के रूप में दिखाई देती है, जो आगे चलकर लिंग के नीचे स्थित मध्य रेखा तथा पीछे मूलाधार (perineum) से गुदा तक स्थित मध्य रेखा में लुप्त हो जाती है।

  वयस्कों में, प्रत्येक वृषण (testis) अण्डाकार आकृति का होता है। यह लगभग 4.5 सेटीमीटर लम्बा और 2.5 सेटीमीटर चौडा़ होता है। ये अंडकोष में दोनों ओर वृषण रज्जुओं द्वारा लटके रहते हैं। प्रत्येक वृषण एक तंतुमय थैली (fibroussac) (इस थैली को ट्यूनिका एल्ब्यूजीनिया (Tunica albuginea) कहते हैं) में बंद रहता है। इस थैली में वृषण में अंदर की तरफ कई पट (septae) निकलकर इसे कई कक्षों (इन कक्षों को खण्डक (lobules) कहते हैं) में बांट देते हैं। ट्यूनिका एल्ब्यूजीनिया ट्यूनिका वैस्कुलोसा (Tunica vasculosa) से आस्तरित (ढकी) होती है तथा ट्यूनिका वैजाइनैलिस (Tunica vaginalis) से आच्छादित (ढकी) रहती है। ट्यूनिका वैस्कुलोसा वाहिकामय (vascular) परत होती है, जिसमें कोशिकाओं का जाल मौजूद होता है तथा ट्यूनिका वैजाइनैलिस दो परतों वाली सीरमी कला होती है, जो उदर श्रोणि गुहा को आस्तरित करती है एवं गायब हो जाती है।

  प्रत्येक वृषण में 800 से अधिक कसी हुई कुण्डलित सूक्ष्म नलिकाएं होती है। इन नलिकाओं को शुक्रजनक नलिकाएं (seminiferous tubules) कहते हैं और ये एक स्वस्थ व्यक्ति में हर सेकण्ड में हजारों शुक्राणु पैदा करती है। दोनों वृषणों में मौजूद शुक्रजनक नलिकाओं की कुल लम्बाई लगभग 225 मीटर होती है। इनकी भित्तियां जर्मिनल ऊतक (germinal tissue) द्वारा आस्तरित होती है जिसमें दो तरह की कोशिकाएं शुक्राणुजनक कोशिकाएं (spermatogenic cells) एवं सहारा देने वाली सर्टोली (sertoli) कोशिकाएं रहती है। शुक्राणुजनक कोशिकाएं शुक्राणुओं में बदल जाती है। शुक्राणु का विकास अथवा शुक्राणुजनन (spermatogenesis) का वर्णन आगे किया गया है। सर्टोली कोशिकाएं जर्मिनल शुक्राणुओं को पकने के लिए पोषण उपलब्ध कराती है। ये कोशिकाएं नलिकाओं (tubules) के अंदर एक तरल का स्राव भी करती है, जो विकासशील शुक्राणुओं के बाहर की ओर बहने के लिए एक तरल माध्यम का कार्य करता है। ये कोशिकाएं एण्ड्रोजन-बाइडिंग प्रोटीन का स्राव करती है, जो टेस्टोस्टीरॉन एवं ईस्ट्रोजन दोनों को बांधती है तथा इन हॉर्मोंस को शुक्रजनक नलिकाओं के भीतर के तरल में पहुंचाती है। यहां ये पकने वाले शुक्राणुओं के लिए मौजूद रहते हैं। ये कोशिकाएं इनहिबिन (Inhibin) नामक हॉर्मोन का भी स्राव करती है जो पिट्यूटरी ग्रंथि से मुक्त होने वाले फॉलिक्ल स्टीमुलेटिंग हॉर्मोन (FSH) का नियमन करता है।

    शुक्रजनक नलिकाओं (seminiferous tubules) के बीच-बीच में अंतःस्रावी कोशिकाओं (endocrine cells) के गुच्छे होते हैं। इन्हें अंतरालीय एण्डोक्राइनोसाइट्स अथवा लेडिग कोशिकाएं (Leydig cells) कहते हैं। ये कोशिकाएं पुरुष सेक्स हॉर्मोंस (इन हॉर्मोंस को एण्ड्रोजन्स (androgens) कहते हैं) का स्राव करती है। इनमें टेस्टोस्टीरॉन नामक हॉर्मोंस मुख्य रूप से महत्वपूर्ण होता है।

अधिवृषण (Epididymis) क्या है ? संरचना और कार्य

    शुक्रजनक नलिकाएं वृषण (टेस्टीस) के मध्य पश्च भाग में आकर मिल जाती है। यह क्षेत्र ‘मीडिएस्टीनम टेस्टीस’ (mediastinum testis) कहलाता है। शुक्रजनक नलिकाएं सीधी होकर सीधी नलिकाएं (tubuli recti) बन जाती है जो सूक्ष्म नलिकाओं के जाल, (इसे रेटी टेस्टीस (rete testis) कहा जाता है) में खुलती है। रेटी टेस्टीस (rete testis) के ऊपरी सिरे पर 15 से 20 अपवाही नलिकाएं (efferent ducts) खुलती है।

     अपवाही नलिकाएं (इफरेंट डक्ट्स) वृषण के ऊपरी पिछले भाग पर ट्यूनिका एल्ब्यूजीनिया को बेधती हुई प्रवेश करती है तथा ऊपर की ओर बढ़कर नलिकाओं के संवलित भाग (convoluted mass) में पहुंचती है। इससे वृषण के ऊपर और नीचे पार्श्व में एक अर्द्धचंद्राकार आकृति बनती है। यह कुण्डलाकार नली अधिवृषण (epididymis) होती है। अधिक कुण्डलित अधिवृषण की लम्बाई लगभग 4 सेमीमीटर होती है लेकिन यदि उसे सीधा कर दिया जाए तो यह लगभग 6 मीटर (20 फीट) लम्बी हो जाती है। अधिवृषण के निम्नलिखित तीन मुख्य कार्य होते हैं-

  • यह शुक्राणुओं को परिपक्व होने तक और स्खलित होने तक जमा करके रखती है।
  • अधिवृषण वृषण से स्खलनीय वाहिकाओं तक शुक्राणुओं को पहुंचाने का कार्य करती है।
  • इनमें वृत्ताकार चिकनी पेशी होती है जो क्रमाकुंचक संकुचनों द्वारा परिपक्व शुक्राणुओं को लिंग की ओर धकेलने में मदद करती है।

    प्रत्येक अधिवृषण में एक सिर, काय और पूंछ होती है। इसका सिर (head) (यह वृषण के शीर्ष भाग के ऊपर फिट रहता है) मुख्यतः संवलित अपवाही वाहिकाओं (convoluted efferent ducts) का बना होता है। काय (body) वृषण के पिछले पार्श्वीय (posterolateral) किनारे पर नीचे की ओर को फैला हुआ भाग होता है। पूंछ (tail) वृषण के तल तक  फैला हुआ भाग होता है, जहां इसके संवलन कम होते जाते हैं और अंत में यह फैल (delate) जाते है तथा ऊपर की ओर मुड़कर शुक्रवाहिका (vas deferens) में विलीन हो जाती है।

   परिपक्व होने वाले शुक्राणु शुक्रजनक नलिकाओं से निकलकर अधिवृषण में गति करते हैं। शुक्राणुओं के परिपक्व होने तक ये अधिवृषण में जमा होते रहते हैं जहां इन्हें पोषण मिलता है। जब शुक्राणु परिपक्व हो जाते हैं तो ये स्खलनीय वाहिका के द्वारा शुक्रवाहिका (vas deferens) में प्रवेश करते हैं। यहां ये लगभग 30 दिनों तक जीवित रहते हैं। यदि इस समय में ये स्खलित नहीं होते तो ये अपघटित हो जाते हैं तथा शरीर में पुर्नशोषित (resorbed) हो जाते हैं।

शुक्राणु (Sperm or spermatozoa) क्या है ? संरचना और कार्य

  परिपक्व शुक्राणु (mature sperm) सूक्ष्म लम्बाकार होता है। इसके शरीर के तीन भाग होते हैं- सिर (head) ग्रीवा (neck) और पूंछ (tail)। इसका सिर अण्डाकार होता है तथा इसके अगले नुकीले भाग पर एन्जाइम्स वाली टोपीनुमा मेम्ब्रेन (झिल्ली) रहती है। इसके द्वारा शुक्राणु स्त्री के डिम्ब (ovum) को बेधकर उसमें प्रवेश कर जाता है। सिर के मध्य भाग में केंद्रक होता है जिसमें गुणसूत्र (chromosomes) रहते हैं। ग्रीवा या मध्य भाग सिर के पीछे पतली रचना होती है, जिसमें मुख्यतः कुण्डलित माइटोकोण्ड्रिया रहती है जो इसकी गतिशीलता के लिए ऊर्जा उपलब्ध करती है। पुच्छ (पूंछ) ग्रीवा के पीछे बहुत पतली और लम्बी रचना होती है जिसकी मदद से शुक्राणु शुक्र रस में इधर-उधर तैरता हुआ आगे बढ़ता है। तैरने की इस क्षमता को ‘गतिशीलता’ या मोटिलिटी (motility) कहा जाता है जो पुरुष फर्टिलिटी के लिए बहुत जरूरी होती है।

  शुक्राणु वृषण की शुक्रजनक नलिकाओं से पैदा होने वाली पुरुष जनन कोशिकाएं होती है। सिर के अगले सिरे से लेकर पुच्छ (पूंछ) के अंतिम सिरे तक इसकी लम्बाई लगभग 0.05 मिलीलीटर (5 माइक्रोन) होती है। प्रत्येक शुक्राणु पूरी तरह से परिपक्व होने में 2 महीने से अधिक का समय लेता है।

  एक बार के स्खलन में सामान्यतः 300 से 500 मिलियन (30-50 करोड़) शुक्राणु मुक्त होते हैं। यदि शुक्राणुओं की संख्या लगभग 20-30 मिलियन से कम रहती है तो ऐसे व्यक्ति संतान पैदा करने में असमर्थ (infertile) होते हैं। इस दशा को अल्पशुक्राणुता (oligospermia) कहा जाता है। शुक्राणुओं की पूर्ण अभाव वाली दशा को अशुक्राणुता (Azoospermia) कहा जाता है। अशुक्राणुता, रजित (सेक्स) रोगों (sexually transmitted diseases) के परिणाम स्वरूप हो सकती है, जो शुक्राणु उत्पादन में रुकावट होने से होता है अथवा कनफेड़ (mumps) जैसे रोगों के कारण होती है। इसमें शुक्रजनक नलिकाओं की आतंरिक कला नष्ट हो जाती है।

  शुक्राणुओं का उत्पादन शुक्रजनक नलिकाओं में लगातार होता रहता है परंतु इनकी परिपक्वता अधिवृषण (epididymis) में होती है।

शुक्रवाहिका (Vas deferens or ductus deferens) क्या है ? संरचना और कार्य

  यह अधिवृषण की वाहिका (ductus epididymis) की निरंतरता में फैली हुई नली होती है। ये संख्या में दो होती है और प्रत्येक वृषण की अधिवृषण एवं स्खलनीय वाहिका के बीच में स्थित होती है। प्रत्येक शुक्रवाहिका अधिवृषण की पुच्छ से गुजरकर, वृषण रज्जु (स्पर्मेटिक कॉर्ड) (इसमें टेस्टीकुलर धमनी, शिराएं, ऑटोनॉमिक तंत्रिकाएं, लसीका वाहिनियां एवं संयोजी ऊतक का समावेश रहता है) से ढकी रहती है। वृषणकोष से निकलने के बाद ऊपर की ओर बढ़कर शुक्र वाहिकाएं वंक्षणीय नाल (inguinal canal) के रास्ते से होकर उदरीय भित्ति के निचले भाग में प्रवेश करती है। यहां शुक्र वाहिकाएं वृषण रज्जु (स्पर्मेटिक कॉर्ड) से आजाद हो जाती है तथा मूत्राशय के पीछे से गुजरकर प्रोस्टेट ग्रंथि के पास स्थित शुक्राशय (seminal vesicle) की वाहिका से जुड़ जाती है और स्खलनीय वाहिका (ejaculatory duct) कहलाती है।

  शुक्राशय तक पहुंचने से बिल्कुल पहले शुक्र वाहिका चौड़ी हो जाती है। यह चौड़ा भाग एम्पूला (ampulla) कहलाता है जिसमें स्खलन से पहले शुक्राणु जमा रहते हैं।

वृषण रज्जु (Spermatic cords) क्या है ? संरचना और कार्य

     वृषणरज्जु छोटे-छोटे अण्डे के आकार के होते हैं। एक वयस्क व्यक्ति के वृषणरज्जु की लंबाई लगभग 4 सेमीमीटर और चौड़ाई 2.5 सेमीमीटर होती है। वृषण 2 होते हैं जो लिंग के दोनों तरफ की थैली में स्थित होते है। वृषण के शरीर के बाहर रहने से उनका तापमान शरीर के तापमान से 3-5 डिग्री फेरनहीट कम होता है। शुक्राणु उत्पन्न करने और उन्हे जीवित रखने के लिए शरीर के अंदर और वृषण के तापमान में यह अंतर आवश्यक है। युवावस्था आरम्भ होते ही अण्डकोशों में स्थित वृषणों में शुक्राणु पैदा होने लगते हैं। उम्र के बढ़ने के साथ शुक्राणुओ की संख्या भी घटती जाती है। अधिकतर जीवनपर्यत पर्याप्त संख्या मे शुकाणु पैदा होते रहते हैं। मनुष्य के अण्डकोषों में दोनों ओर 1-1 वृषणरज्जु द्वारा एक एक शुक्रग्रंथि लटकी होती हैं। इसके 2 कार्य है-

  • शुक्राणु या जननाणु की उत्पत्ति।
  • पुरुष के लैंगिक हारमोन्स टेस्टोस्टेरोन का स्राव।

शुक्राणुओं की उत्पत्तिः मनुष्य में वृषण या टेस्टीज असंख्य कुंडलित नलिकाओं का बना होता है। इन नलिकाओं के ठीक भीतर जनन एपीथीलियम होती है। कुछ समय पहले तक यह माना जाता था कि जनन एपीथीलियम के विभाजन और परिपक्व होने से शुक्राणु बनते हैं। परंतु ऐसा नहीं है ये प्रारंभिक कोशिकाओं से बनते हैं। प्रारंभिक कोशिकाएं जनन अंगों में नहीं पैदा होती है। ये कहीं और पैदा होती हैं और फिर जनन अंगों में पहुंच जाती हैं। जनन अंगों में पहुंचकर इनमें कोशिका विभाजन होता है। जिसके फलस्वरूप अंडाणुओं या शुक्राणुओं की उत्पत्ति होती है।

पुरुष के लैंगिक हार्मोन टेस्टोस्टिरोन का स्राव- टेस्टोस्टिरोन पुरुष हार्मोन है लेकिन यह स्त्रियों में भी कई महत्वपूर्ण कार्य करता है। स्त्रियों में इसका स्राव पुरूषों के मुकाबले 5% ही होता है। यह यौवन के आगमन के लिए उत्तरदायी है जिसमें किशोर लड़कियों के जननेन्द्रियों और बगल में बाल आने शुरू हो जाते हैं। स्तन और जननेन्द्रियाँ संवेदनशील हो जाती हैं और इनमें काम-उत्तेजना होने लगती है।

शुक्राशय (Seminal vesicles) क्या है ? संरचना और कार्य

    शुक्राशय दो स्रावी थैली होती है। यह शुक्र वाहिका के एम्पूला के सामने तथा प्रोस्टेट ग्रंथि के पास मूत्राशय के फण्डस (बुघ्न) और मलाशय के निचले भाग के बीच स्थित रहती है । ये क्षारीय द्रव का स्राव करती है, जिसमें मुख्यतः पानी, फ्रक्टोज, प्रोस्टैग्लैण्डिंस और विटामिन ‘सी’ आदि पोषक पदार्थ मौजूद होते हैं जो शुक्राणुओं को पोषण उपलब्ध कराते हैं और शुक्रीय द्रव (seminal fluid) वीर्य का ज्यादातर भाग बनाता है। हर शुक्राशय अपने निचले सिरे पर एक छोटी-सी वाहिका में खुलता है जो अपनी तरफ की शुक्र वाहिका में खुलकर स्खलनीय वाहिका की रचना करती है।

स्खलनीय वहिकाएं (Ejaculatory ducts) : संरचना और कार्य

    स्खलनीय वाहिकाओं की रचना शुक्राशय की वाहिकाओं और शुक्र वाहिकाओं के एम्पूला के एकसाथ मिलने से होती है। हर स्खलनीय वाहिका लगभग 1 इंच (2 सेमी) लम्बी होती है। ये वाहिका प्रोस्टेट ग्रंथि की पश्च सतह से होकर गुजरती हुई वहां से शुक्राशय के स्राव के अलावा और भी स्राव प्राप्त करती है तथा अंत में मूत्रमार्ग (urethra) में स्थित प्रोस्टैटिक यूट्रिकल के छिद्र पर जाकर जुड़ जाती है।

प्रोस्टेट ग्रंथि (Prostate gland) क्या है ? संरचना और कार्य

    यह ग्रंथि अखरोट के आकार की एक गोलाकार और सख्त ग्रंथि होती है, जो तंतुमय ऊतक एवं चिकनी पेशी के पतले, मजबूत सम्पुट (capsule) से ढकी रहती है। यह ग्रंथि मलाशय के सामने, मूत्राशय के नीचे और मूत्रमार्ग (urethra) के पहले भाग को चारों तरफ से घेरे हुए स्थित रहती है। । प्रोस्टेट ग्रंथि अंदर से तीन तरह की ग्रंथियों से मिलकर बनती है, जो अपने स्रावों को अलग-अलग वाहिकाओं से होकर मूत्रमार्ग के प्रोस्टेटिक भाग में पहुंचाती है-

  1. सबसे अंदर की श्लेष्मल ग्रंथियां (Mucosal glands) श्लेष्मा का स्राव करती है। ये छोटी-छोटी ग्रंथियां कभी-कभी बूढ़े व्यक्तियों में प्रदाहित तथा विबृर्द्धित (बड़ी) (enlarged) हो जाती है। इसके कारण मूत्रमार्ग संकरा हो जाता है तथा मूत्र त्याग में परेशानी होती है।
  2. बीच की ग्रंथियां (Submucosal glands) किसी भी तरह के श्लेष्मा का स्राव नहीं करती है।
  3. बाहरी प्रोस्टेटिक ग्रंथियां पतला, चिकना और अम्लीय द्रव का स्राव करती है, जिसमें मुख्यतः पानी, एसिड फॉस्फेटेज, कॉलेस्ट्रॉल, लवण एवं फॉस्फोलिपिड्स मौजूद रहते हैं। प्रोस्टेट ग्रंथि का स्राव (prostatic secretions) प्रोस्टेट की चिकनी पेशियों के संकुचित होने के कारण बहुत से छोटे-छोटे छिद्रों से होकर मूत्रमार्ग में पहुंचता है। यह स्राव शुक्राणुओं को गतिशील बनाए रखने में मदद करता है तथा स्त्री की योनि की अम्लता को निष्क्रिय (neutrilize) करने में भी मदद करता है।

वीर्य (Semen) क्या है ? :

       अधिवृषण (epididymis) शुक्राशयों (seminal vesicles) प्रोस्टेट ग्रंथि एवं काउपर ग्रंथियों के स्राव वृषण से आये शुक्राणुओं के साथ मिलकर वीर्य बनाते हैं। वीर्य में लगभग 1 प्रतिशत शुक्राणु होते हैं और 90 प्रतिशत जल होता है। इसके बाकी भाग में फ्रेक्टोज, विटामिन सी एवं इनोसिटॉल, कैल्सियम, जिंक, मैग्नीशियम, कॉपर एवं सल्फर जैसे लवण मौजूद रहते हैं। वीर्य में प्रोस्टेग्लैण्डिन्स की सांद्रता सबसे ज्यादा रहती है। वीर्य में गंध वृषण में निर्मित एमिंस (amines) के कारण पैदा होती है। एक बार के स्खलन में औसतन 3-4 मिलीलीटर वीर्य निकलता है जिसमें 300 से 500 मिलियन शुक्राणु रहते हैं।

लिंग (Penis) क्या है ? संरचना और कार्य

  • मूल (Root)- यह लिंग का मूलाधार से जुड़ा रहने वाला भाग होता है।
  • काय (दण्ड) (Body)- यह लिंग के अगले भाग, लिंगमुण्ड (Glans penis) एवं मूल (root) के बीच का लम्बाकार भाग होता है। यह भाग हर्षण या उच्छायी ऊतक (erectile tissue) और अनैच्छिक पेशी की तीन बेलनाकार दण्डिकाओं से मिलकर बना होता है। इनमें से दो पार्श्वीय दण्डिकाएं होती है कॉर्पोरा केवरनोसा और (Corpora cavernosa) एक इनके बीच की दण्डिका होती है कॉर्पस स्पान्जियोसम (Corpus spongiosum)। इस एक दण्डिका के अंदर मूत्रमार्ग (यूरेथ्रा) रहता है जो लिंगमुण्ड पर खुलता है। कॉर्पोरा कैवरनोसा दण्डिकाएं घने, कम लचीले संयोजी ऊतक (tunica albuginea) से घिरी रहती है तथा इनमें असंख्य रक्तधर कोष्ठ मौजूद रहते हैं जिन्हें शिरीय साइनुसॉयड्स (venous sinusoids) कहा जाता है। ये कोष्ठ लिंग के शिथिल होने की अवस्था में तो खाली रहते हैं परंतु उसके उत्तेजित होने के दौरान रक्त से भरकर फूल जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप लिंग सख्त, तनावपूर्ण, लम्बा एवं मोटा हो जाता है, जिसे हर्षण या स्तम्भन (erection) कहते हैं।
  • लिंगमुण्ड (Glans penis)- यह लिंग का सबसे आगे का मोटा सुपारी जैसा नजर आने वाला भाग होता है। यह कॉर्पस कैवरनोसा के ऊपर कॉर्पस स्पॉजियोसम का ही विस्तारण है। चूंकि इस भाग में अनेकों तंत्रिका अंत (nervendings) मौजूद रहते हैं इसलिए यह क्षेत्र बहुत ज्यादा संवेदनशील माना जाता है तथा लिंग उत्तेजना का महत्वपूर्ण स्रोत होता है। शिश्नीय तंत्रिका अंत (penile nerve endings) विशेष तौर से मुण्ड के सबसे पास के किनार (इस किनार को कॉरोना (corona) कहते हैं) में अधिक रहते हैं। लिंग के ऊपर की ढीली त्वचा मुण्ड के ऊपर आगे की तरफ मुड़कर (fold) लिंग मुण्डच्छद (prepuce) अथवा शिश्नाग्रच्छद (foreskin) कहलाती है। फाइमोसिस की दशा में या धार्मिक उद्देश्यों के लिए शिश्नाग्रच्छद को काटकर अलग कर दिया जाता है। इसे आम भाषा में सुन्नत या ‘खतना करवाना’ (circumcision) कहते हैं। लिंगमुण्ड की किनार (corona) के बिल्कुल नीचे, बंध (frenum) के दोनों ओर शिश्नमुण्डच्छदीय या टाइसन्ज ग्रंथियां (tyson’s glands) रहती है। यह ग्रंथियां एक तैलीय स्राव करती है। इनका स्राव लिंगमुण्ड और कॉरोना की जीर्ण एवं मृत कोशिकाओं के साथ मिलकर एक पनीर जैसा पदार्थ निर्मित करता है, जिसे शिश्नमल (smegma) कहते हैं। इसके जमा होने पर लिंग में संक्रमण होने का डर रहता है।

मूत्रमार्ग (Urethra) क्या है ? संरचना और कार्य

  प्रजनन वाहिका तन्त्र के आखिरी भाग को मूत्रमार्ग (पुरुष का मूत्रमार्ग) कहते हैं। यह मूत्राशय से निकलकर प्रोस्टेट ग्रंथि से होता हुआ लिंग के बाह्य मूत्रमार्गीय छिद्र पर खुलता है। मूत्रत्याग के दौरान मूत्राशय से मूत्र को तथा स्खलन के दौरान वीर्य को शरीर से बाहर निकालने का कार्य मूत्रमार्ग का ही होता है। मूत्रत्याग और स्खलन की क्रिया एकसाथ नहीं किया जा सकता है क्योंकि स्खलन से बिल्कुल पहले आतंरिक संकोचिनी मूत्राशय के छिद्र को बंद कर देती है। स्खलन पूरा होने तक यह संकोचिनी शिथिल नहीं होती। आतंरिक संकोचिनी के बंद होने से न तो मूत्र उतर सकता है और न ही वीर्य मूत्राशय में वापस जा सकता है।

  पुरुष मूत्रमार्ग के तीन भाग होते हैं- मूत्रमार्ग का मूत्राशय के आधार से शुरु होकर प्रोस्टेट ग्रंथि से गुजरते हुए उसके अंत तक पहुंचने वाले भाग को प्रोस्टेटिक भाग (prostatic portion) कहते हैं। यहां इसे प्रोस्टेट ग्रंथि की सूक्ष्म वाहिकाओं और दो स्खलनीय वाहिकाओं से स्राव प्राप्त होते हैं। प्रोस्टेट ग्रंथि से बाह्य मूत्राशयी संकोचिनी पेशी तक का भाग कलामय भाग (membranous portion) कहलाता है। मूत्रमार्ग का आखिरी शिश्नीय भाग (penile portion), लिंग के अंदर रहने वाले सम्पूर्ण स्पन्जी भाग से लेकर लिंगमुण्ड पर बाह्य मूत्रमार्गीय छिद्र तक होता है। यहां लिंग से मूत्र अथवा वीर्य निकलता है। मूत्रमार्ग की भित्ति पर श्लेष्मिक कला (mucous membrane) का अस्तर रहता है तथा चिकनी पेशी की एक मोटी बाहरी परत रहती है, जो अनैच्छिक रूप से संकुचित होती है। भित्ति के भीतर मूत्रमार्गीय ग्रंथियां (urethral glands) होती है, जो मूत्रमार्गीय नली (urethral canal) में श्लेष्मा का स्राव करती है।

कॉउपर की ग्रंथियां (Cowper’s glands) : संरचना और कार्य

      यह प्रोस्टेट ग्रंथि के नीचे और मूत्रमार्ग के दोनों ओर छोटी-छोटी ग्रंथियां होती है। इनमें नलिकाएं होती है जो मूत्रमार्ग में खुलती है। इन ग्रंथियों से भी एक तरल निकलता है जो वीर्य के निर्माण में सहायक होता है। संभोगक्रिया से पहले कामोत्तेजित हो जाने पर लिंग में से एक गन्धहीन, रंगहीन कुछ गाढ़ा सा चिपचिपा तरल निकलता है। यह इन्ही का स्राव होता है, जो क्षारीय होता है। मूत्रमार्ग अम्लीय होता है जिससे शुक्राणु नष्ट हो सकते हैं इसलिए संभोगक्रिया से पहले इन ग्रंथियों से निकलने वाला स्राव मूत्रमार्ग को क्षारीय बना देता है जिससे शुक्राणु नष्ट न हो।

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