Last Updated on September 2, 2019 by admin
स्वस्थ एवं स्वच्छ मुँह उत्तम स्वास्थ्य की पहचान :
मुख के स्वरूप का वर्णन करते हुए आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रंथ ‘भावप्रकाश’ के चिकित्सा प्रकरण के 66 वें अध्याय ‘मुखरोगाधिकार’ में कहा गया है-
ओष्ठौच दंतमूलानि दंताजिह्वे च तालु च।
गलो मुखानि सकलं सप्ताङ्गं मुखमुच्यते॥
अर्थात-दाँतों की जड़ें-मसूड़े, दाँत, जिह्वा, तालु, गला और कंठ स्थान से लेकर संपूर्ण मुख-ये सब सातों अंग मिलाकर मुख कहलाते हैं। इन अंगों में उत्पन्न होने वाले रोगों का उल्लेख करते हुए इसी ग्रंथ के अगले सूत्र में कहा गया है।
स्युरष्टावोष्ठयोर्दन्तमूले तु दश षट् तथा।
दंतेष्वष्टौ च जिह्वायां पञ्च स्युर्नव तालुनि॥
कंठे त्वष्टादश प्रोक्तास्त्रयः सर्वेषु च स्मृताः।
एवं मुखामयाः सर्वे सप्तषष्टिर्मता बुधैः॥
अर्थात-ओंठों में ८ प्रकार के, दंतमूल-मसूड़ों में १६, दाँतों में ८, जिह्वा में ५, तालु में ९, गले में १८ एवं मुख में ३ प्रकार के रोग होते हैं। इस तरह मुख-रोगों की कुल संख्या ६७ है।
स्वस्थ एवं स्वच्छ मुँह उत्तम स्वास्थ्य की प्रथम पहचान है। इसके बिना शारीरिक स्वास्थ्य की कल्पना नहीं की जा सकती। मोतियों से चमकते दाँत मनुष्य के हँसते-खिलखिलाते चेहरे पर सुंदरता के चार चाँद लगा देते हैं, लेकिन अगर वही दाँत एवं मसूड़े रोगग्रस्त हों तो उन्हें देखकर स्वयं तो व्यक्ति व्यथित होता ही है, सामने वाला व्यक्ति भी दूर हटकर बात करता है। स्पष्ट है कि बीमारियों का प्रवेशद्वार हमारा मुख ही है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि जो कुछ हम खाते-पीते हैं, उसका प्रथम संपर्क हमारे मुँह, जिह्वा एवं दाँतों से होता है। इनकी साफ-सफाई का ध्यान न रखा
जाए तो जो खाया-पिया गया है, उसका कुछ-न-कुछ अंश दाँतों के मध्य मसूड़ों से चिपका रहता है। इन्हीं अन्न आदि कणों की सड़न से मुख-रोग की शुरुआत होती है, जिसका अर्थ है-समूचे कायतंत्र को बीमारियों का आश्रयस्थल बनाना।
सर्वेक्षणकर्ता चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि दाँतों की नब्बे प्रतिशत बीमारियाँ अहितकर आहार एवं उलटे-सीधे भोजन करने तथा दाँतों की सफाई न करने से पैदा होती हैं। इनसे पनपे बैक्टीरिया दंत-संरचना में भाग लेने वाले इनेमल, डैन्टाइन, पल्पकैविटी स्थित सूक्ष्म तंत्रिकाओं एवं रक्तनलिकाओं के साथ-साथ मसूड़ों को अपना आहार बनाते हैं। फलतः दाँतों में कीड़े लगने, दाँत खोखले होने से लेकर दंतक्षय, पायरिया, मसूड़ों की सूजन आदि अनेक रोग सामने आते हैं। इसके साथ ही भोजन या लार के साथ इन रोगों के जीवाणु पेट में पहुंचकर कई तरह की कष्टकारी बीमारियों को जन्म देते हैं।
कहा जा चुका है कि मुँह के सातों अंगों में कुल सड़सठ तरह की बीमारियाँ पनपती हैं। उन सभी का वर्णन न करके केवल दाँतों एवं मसूड़ों से संबंधित रोगों की आरंभिक जानकारी देते हुए उनको दूर करने के उपाय ही यहाँ पर बताए जा रहे हैं।
मुँह के रोग – प्रकार और उनके लक्षण :
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार दाँतों एवं मसूड़ों में कई तरह के रोग पनपते हैं। उनमें प्रमुख हैं-
(१) Toothache/Odontalgia (दंतशूल)
(२) Dental Caries (दंतक्षरण या दंतकृमि)
(३) Odontoseisis (दाँतों का हिलना)
(४) Bleeding/Spongy guins (मसूड़ों से खून आना)
(५) दाँतों पर पानी लगना -शीताद रोग
(६) Gumboil (मसूड़ों का फोड़ा)
(७) Gingivitis (दंतमूल शोथ)
(८) Pyorhoea (दंतपूय या दंतवेष्टक)
(९) Alvealar abscess(दंत विद्रधि)
(१०) odontorrhagia (दाँतों से अधिक रक्त साव)
(११) Trenchmouth/Vincent’s Infection (विन्सेण्ट्स इन्फेक्शन) एवं
(१२) दाँतों में कीड़ा लगना आदि।
(१) TOOTHACHE अर्थात दाढ़ का दर्द या दंतशूल –
चिकित्सा विज्ञानी इसे ही Odontalgia या Odontodynia भी कहते हैं। दाँतों का यह एक आम रोग है, जिसका कोई एक कारण नहीं होता, वरन् कई सम्मिलित कारण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, दाँतों का खोखला होना या कीड़ा लगना, दाँतों का टूट जाना, दाँतों की जड़ों में टार्टर या मैल जमा होना और उसमें जीवाणु संक्रमण होने के कारण दो-तीन दाँतों में असह्य पीड़ा होना। सही ढंग से दाँतों की सफाई न करने से, दाँतों या मसूड़ों की सूजन से, ठंढे या गरम पानी के संपर्क से भी दाढों में दरद हो सकता है। पायरिया होने अथवा मुँह में चोट लगने से भी दंतशूल होता है।
(२) DENTAL CARIES अर्थात दंतक्षरण या दंतकृमि के –
दाँतों का यह रोग प्रायः दाँतों को भली भाँति स्वच्छ न करने, मसूड़ों या दाँतों में कीड़े लग जाने तथा पायरिया हो जाने के कारण उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त मुँह के विकार, विटामिन ‘ए’ तथा विटामिन ‘डी’ की कमी, फॉस्फोरस का अभाव, कैल्सियम की कमी आदि कारणों से भी दंतक्षरण होता है। इस रोग में दाँत और दाढ़ गलने लगते हैं और अंत में टुकड़े-टुकड़े होकर निकल जाते हैं। कभी-कभी दाँत भीतर से खोखला हो जाता है और गल-गलकर गिर जाता है। खाने-पीने की कोई चीज जब इस खोखले भाग में फँस जाती है तो असह्य पीड़ा होती है।
(३) ODONTOSEISIS अर्थात दाँतों का हिलना –
दाँतों में यह विकार प्रायः पायरिया आदि के कारण उत्पन्न होता है, जिसमें मसूड़े सूज जाते हैं और दाँत हिलने लगते हैं। पारे आदि की विषाक्तता के कारण भी कभी-कभी यह रोग उत्पन्न होता है।
(४) BLEEDING ORSPONGY GUMS अर्थात मसूड़ों से खून आना –
यह भी दाँतों की एक आम बीमारी है, जिसमें मसूड़ों से खून आने लगता है। इसकी उत्पत्ति ठीक तरह से मंजन या ब्रश न करने और दाँतों को अस्वच्छ बनाए रखने से होती है। असावधानीवश जब कभी मसूड़े जख्मी हो जाते हैं तो अपने स्थान से हट जाते हैं। कुछ समय पश्चात उनमें शोथ उत्पन्न हो जाता है और जरा-सा दबाव पड़ने मात्र से उनसे रक्त निकलने लगता है। मसूड़ों पर टार्टर (पपड़ो) जमने से भी रक्त आने लगता है।
(५) दाँतों पर पानी लगना या शीतादरोग –
कभीकभी दाँतों की ऊपरी परत (इनेमल) हट जाती है या जड़ के पास मसूड़े ढीले पड़ जाते हैं तो गरम या ठंढा पानी पीने पर यह दाँतों पर लगता है और उनमें दरद होता है। कभी-कभी ये दाँत इतने अधिक संवेदनशील हो जाते हैं कि तनिक-सा हवा का झोंका तक नहीं सहन कर पाते और असह्य वेदना पैदा करते हैं। यह रोग प्रायः पायरिया की प्राथमिक अवस्था में तथा दाँतों में कीड़े लगने के कारण होता है।
(६) GUMBOIL अर्थात मसूड़ों का फोड़ा या दंत पुप्पुटक के लक्षण –
इस दंत रोग में मसूड़ा शोथयुक्त लाल रंग का एवं उभरा हुआ जान पड़ता है। दबाने पर यह पिलपिलासा मालूम होता है। छूने या दबाने पर दरद होता है।
(७) GINGIVITIS अर्थात दंतमूल शोथ –
इसे ही मसूड़ों की सूजन भी कहते हैं। संक्रमण के कारण जब मसूड़ों में सूजन आ जाती है और चिकित्सा न होने पर इनमें मवाद पड़ जाता है तो दाँतों में तेज दरद होता है। चेहरा लाल हो जाता है और उस पर सूजन स्पष्ट नजर आने लगती है।
(८) PYORRHOEA अर्थात पायरिया –
आयुर्वेद में इसे दंतपूय, दंतवेष्टक, परिदर या पूयस्राव कहते हैं। दाँतों का यह सबसे खतरनाक रोग माना जाता है। यह बैक्टीरियाजन्य रोग है, जो बड़ी कठिनाई से दूर होता है। बहुधा यह रोग उन्हीं लोगों को होता है, जो दिनभर कुछन-कुछ खाते-चबाते रहते हैं और दाँतों की सफाई पर ध्यान नहीं देते। जो बच्चे आइसक्रीम, टॉफी, कैंडी, चॉकलेट या मीठा पदार्थ आदि खाते रहते हैं और दांतों की सफाई मंजन, ब्रश किए बिना ही रात में सो जाते हैं, उनके दाँतों में इन पदार्थों के छोटे-छोटे कण चिपके या फसे रहते हैं। यही कण जीवाणुओं के कारण सड़ने लगते हैं और दाँतों में पायरिया रोग की शुरुआत हो जाती है। संतुलित आहार न लेने, आहार में विटामिन ‘बी-कमप्लेक्स’ एवं विटामिन ‘सी’ की कमी, दातुन या ब्रश से दाँतों की सही रीति से सफाई न करना, पेट में निरंतर कब्जियत का बने रहना, गैस की शिकायत बनी रहने से पायरिया होता है। मीठे पदार्थो का अधिक सेवन, अधिक गरम चाय, कॉफी पीना, मसूड़ों पर चोट अथवा खरोंच लगना, रात को दूध आदि पीकर बिना ब्रश किए ही सो जाना, रात-दिन फ्रिज का ठंढा पानी पीना या बरफ के टुकड़े खाते रहना पायरिया रोग उत्पन्न होने के प्रमुख कारण हैं। मसूड़ों का शोथ’ भी पायरिया का एक मुख्य कारण है।
पायरिया का संक्रमण अत्यंत मंद गति से होता है और कई सालों में बढ़कर पूरी तरह विकसित होता है। इसके कारण दाँत के रोगी को अग्निमांद्य, अपच, आमाशय के रोग, ज्वर, नेत्र रोग, आाइटिस (संधिशोथ) आदि कई रोग हो सकते हैं। इस संदर्भ में अनुसंधानरत चिकित्साविज्ञानियों ने अपने नूतन शोध-निष्कर्ष में बताया है कि दंतरोगों विशेषकर पायरिया के विषाक्त प्रभाव के कारण रोगी को हृदय रोग एवं कैंसर जैसी घातक बीमारियाँ भी हो सकती हैं।
पायरिया का संक्रमण होने पर सबसे पहले मसूड़ों पर हलकी सूजन उत्पन्न होती है और कुछ दिनों बाद उन पर मैल की परत-सी जमने लगती है और वे पीले पड़ने लगते हैं। दबाने या ब्रश करने पर मसूड़ों से रक्त निकलने लगता है। धीरे-धीरे दाँतों पर भी मैल की परत चढ़ती जाती है और उनकी जड़ों से ‘पस’ अर्थात मवाद या पीव निकलने लगती है। मुँह से सदा दुर्गंध आती रहती है। पायरिया के ये आरंभिक लक्षण हैं। समय पर समुचित उपचार न कराने पर रोग दूसरी अवस्था में पहुँच जाता है और तब दंतमूल में सूजन गहरी हो जाती है। इस अवस्था में रक्त के साथ-साथ मवाद की मात्रा भी बढ़ जाती है। यही विषाक्त पदार्थ लार के साथ पेट में पहुँचता है और पाचनक्रिया को गड़बड़ा देता है।
इस स्थिति में पहुँचा हुआ रोग चिकित्सा कराने पर भी एकदम से ठीक नहीं हो जाता। इसके लिए लंबे समय तक जीवाणुनाशक एंटीबायोटिक औषधियों का बड़ी मात्रा में लगातार सेवन करना पड़ता है, जिसके कभी-कभी घातक दुष्परिणाम भी देखने को मिलते हैं। ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होने ही न पाएँ, इसीलिए अपने देश में प्राचीनकाल से ही आयुर्वेद विशेषज्ञों ने दंतरक्षा के महत्त्व को समझाते हुए कितने ही उपाय-उपचार बताए हैं और रोग होने पर चिकित्सा के विविध आयाम विकसित किए हैं।
मुंह के रोगों का उपचार :
आयुर्वेद ग्रंथों में मुखरोग एवं दंतरोग के कितने ही चिकित्सा-उपचारों का उल्लेट है। इस संदर्भ में ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के चिकित्साविज्ञानियों ने अन्यान्य चिकित्सा-उपचारों की अपेक्षा यज्ञ एवं मुखमार्ग से चिकित्सकों को सर्वाधिक प्रभावी व निरापद पाया है। रोगाणुनाशन एवं जीवनीशक्ति-संवर्द्धन में यह प्रक्रिया अद्वितीय है।
संतुलित आहार लेने के साथ ही नित्य-नियमित रूप से दाँतों की सफाई का ध्यान रखा जा सकेतो हमारे दाँत जीवनपर्यंत तक साथ दे सकते हैं। इसे एक विडंबना ही कहा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय आयुर्वेदीय स्वास्थ्य संरक्षण प्रक्रिया को भूलकर आज हम रंग-बिरंगे चमकीले टूथपेस्ट, टूथ पाउडर एवं विभिन्न प्रकार के बाजारू मंजनों पर निर्भर हो गए हैं। उनमें दंत-संरक्षण के लिए उपयोगी पदार्थ कम, विजातीय पदार्थ ज्यादा होते हैं, जिनके दुष्प्रभाव हमारे दाँतों एवं मसूड़ों को ही झेलने पड़ते हैं।
आयुर्वेदिक दन्त मंजन बनाने की विधि –
आयुर्वेद ग्रंथों में बताए गए सूत्रों या छोटे-छोटे घरेलू नुस्खों के अनुसार यदि स्वयं ही मंजन बना लिया जाए तो हमारे दाँत सही-सलामत तो रहेंगे ही, पायरिया जैसे रोगों के कारण दंतविहीन होने एवं कई प्राणघातक रोगों से सरलतापूर्वक बचा जा सकता है।
इस संदर्भ में ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में अनुसंधानरत चिकित्साविज्ञानियों ने दंतमंजन का एक उत्कृष्टतम फॉर्म्युला विकसित किया है, जिसके परिणाम बहुत ही संतोषजनक रहे हैं। प्रयोक्ताओं ने इस मंजन के प्रयोग से कितने ही तरह । के मुख-रोगों जैसे मुँह के अल्सर (छाले), कैविटी, मसूड़ों की सूजन, मुँह की दुर्गंध, दंतक्षय, पायरिया आदि से निजात पाई है। इसके प्रयोग से न केवल सभी तरह के मुख-रोगों, दंतरोगों से छुटकारा पाया जा सकता है, वरन् दाँत चमकीले एवं मजबूत बनते हैं। मसूड़े दाँतों से कसे हुए रहते हैं। यह मंजन जीवाणुनाशक भी है।
दंतमंजन के घटक द्रव्य :
दंतमंजन में निम्नलिखित सामग्री मिलाई जाती है-
(१) कपूर सत- ८ग्राम (२) पिपरमेंट सत- ८ ग्राम । (३) अजवायन सत- १ ग्राम (४) नीलगिरी तेल- १० मि.ली. (५) लौंग तेल- १० मि.ली. (६) गेरू- १ कि० ग्राम (७) बज्रदंती- ५० ग्राम (८) सेंधा नमक- २५ ग्राम (९) कालीमिरच- ३५ ग्राम (१०) अकरकरा– १० ग्राम (११) त्रिफला चूर्ण– ८ ग्राम (१२) फिटकरी फूला- २५ ग्राम (१३) छाल-छड़ीला- १०० ग्राम (१४) कायफल – २०० ग्राम (१५) इलायची– १० ग्राम (१६) माजूफल- १०० ग्राम (१७) लौंग पाउडर- १० ग्राम (१८) खड़िया मिट्टी- १०० ग्राम (१९) तुंबरू (नैपालो धनिया)- १०० ग्राम (२०) सौंठ- ५ ग्राम (२१) पिसी हुई हल्दी चूर्ण- १० ग्राम (२२) हरड़– १० ग्राम (२३) आँवला– ८ ग्राम (२४) नीम की छाल- २५० ग्राम (२५) बबूल की छाल- २५ ग्राम (२६) मौलश्री छाल- २५ ग्राम (२७) कीकर या अरिमेद (विलायती बबूल)की छाल- २५ ग्राम (२८) अखरोट की छाल- २५ ग्राम (२९) नागरमोथा- ५० ग्राम (३०) कुचला- २५ ग्राम (३१) नीला थोथा फूला- १० ग्राम (३२)कपूर कचरी (कचूर)- ५० ग्राम (३३) तेजबल- १०० ग्राम (३४) शिरीष की छाल- १०० ग्राम (३५) वंशलोचन- १०० ग्राम ।
निर्माण विधि –
क्रमांक १ से ५ तक अर्थात कपूर से लौंग तेल तक की चीजों को छोड़कर अन्य सभी सामग्रियों,जड़ी-बूटियों को कूट-पीसकर कपड़छन करके पाउडर बना लें और उन्हें आपस में मिलाकर एकरस कर लें। इसके बाद में कपूर, पिपरमेंट एवं अजवायन सत को एक अलग बीकर या स्टील के बरतन में मिला लें, जिससे वह पानी जैसा बन जाएगा। उसे पाउडर में मिला दें। तदुपरांत क्रमश: नीलगिरी तेल और लौंग तेल को भी पाउडर में डाल दें और अच्छी तरह से मिला लें। इस तरह सर्वोत्तम दंतमंजन तैयार हो गया।
नोट : – यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि उपर्युक्त दंतमंजन में प्रयुक्त कुचला एवं नीलाथोथा को शोधन के पश्चात मिलाया जाता है। कुचले को शोधने के लिए उसे गरम तवे या कड़ाही में डालकर अच्छी तरह भूनते या तल लेते हैं और गरम अवस्था में ही सिलबटे या मिक्सी में डालकर पीस लेते हैं अन्यथा ठंढी अवस्था में कुचला पाउडर नहीं होता और इतना कठोर हो जाता है कि पिसता नहीं।
इसी तरह नीला थोथा (तूतिया) को भी चूर्ण बनाकर कड़ाही में अच्छी तरह भूना जाता है, जिससे वह शुद्ध हो जाता है। फिटकरी का फूला बनाने के लिए उसे कड़ाही या तवे पर डालकर गरम करते हैं, जिससे उसके फूले तैयार हो जाते हैं।
उपयोग विधि और लाभ –
मात्रा २ ग्राम लेकर अच्छी तरह दाँतों एवं मसूड़ों पर हलके हाथ से मालिश करें, पीछे ब्रश से दाँत साफ कर लें। रात को सोने से पहले भी इसी मंजन से ब्रश करके दंतरोगी पूर्वोक्त क्वाथ से गरारा एवं कल्ला करते रहें तो दंतरोगों से सर्वथा मुक्ति मिल जाएगी। सभी आयुवर्ग के नीरोग एवं मुँह तथा दंतरोगी इस मंजन से अपनी स्वास्थ्यरक्षा सहजतापूर्वक कर सकते हैं तथा अपने स्वच्छ-धवल दंत-पंक्तियों को जीवनपर्यंत चमकाते रह सकते हैं।
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