Last Updated on July 22, 2019 by admin
आयुर्वेद मानता है कि शरीर तथा मस्तिष्क की सभी गतिविधियों को नाड़ी अध्ययन द्वारा जाना जा सकता है। शरीर की कोशिकाएँ, ऊतक तथा सब अंगों की सभी गतिविधियाँ रक्त प्रवाह के द्वारा हृदय से जुड़ी होती हैं, जो नाड़ी में प्रतिबिंबित होती हैं। इस प्रकार नाड़ी का अध्ययन हमें स्वास्थ्य या रोगों के बारे में जानकारी देने के साथ व्यक्ति की अवस्था के बारे में भी बताता है। आयुर्वेद में बुखार से लेकर एड्स तक किसी भी बीमारी के निदान के लिए नाड़ी अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह शरीर की बीमारियों तक पहुँचने का रास्ता है। आयुर्वेदिक चिकित्सक कलाई पर नाड़ी परीक्षा करके रोग का निदान करता है। यह नाड़ी विज्ञान ( नाड़ीवीजन) प्राचीन काल में बहुत लोकप्रिय था।
एक रोगी श्रीधर पैर में दर्द की शिकायत लेकर मेरे पास आया । रोगी की नाड़ी देखकर उसे बताया कि दस वर्ष पहले उसका एक एक्सीडेंट हुआ था, जिसके बाद पीठ में दर्द शुरू हुआ, जो बाद में पैरों की ओर बढ़ गया। इसकी चिकित्सा हेतु उसे आयुर्वेदिक औषधियाँ दी गईं। उपचार के बाद उसकी बीमारी हमेशा के लिए ठीक हो गई।
नाड़ी परीक्षण में विभिन्न प्रकार की बीमारियों को देखा जा सकता है। नाड़ी का अध्ययन करके छोटी आँत, बड़ी आँत, तिल्ली, यकृत, गुरदा या मस्तिष्क की बीमारियों का पता लगाया जा सकता है। प्रकृति ने यह एक विलक्षण व्यवस्था की है। विज्ञान की कोई उन्नत तकनीक ऐसी सूक्ष्म व्यवस्था करने की स्थिति में नहीं होगी। आनेवाले समय में होनेवाले शारीरिक परिवर्तनों को नाड़ी देखकर बताया जा सकता है। दोषों तथा ऊतकों या अंगों के संतुलन या असंतुलन का दैनिक अध्ययन नाड़ी द्वारा किया जा सकता है। नाड़ी देखकर शारीरिक तथा यांत्रिक शरीर में होनेवाले परिवर्तनों को भी देखा जा सकता है।
रोगोपचार की आठ विधियाँ हैं और नाड़ी उनमें से एक है। एक स्वस्थ व्यक्ति में नाड़ी उसकी प्रकृति का पता लगाने में मदद करती है, जैसे-वह वात प्रकृति का है या कफ प्रकृति का। भोजन का सार यानी रस बाद में रक्त में परिवर्तित हो जाता है और पूरे शरीर में संचारित होता है। इसलिए हमें रस की गति के बारे में पता होना चाहिए। गति आणविक स्तर, कोशिकीय स्तर या शरीर के ऊर्जा स्तर पर होती है। ध्वनि तरंगें रक्त प्रवाह के द्वारा प्रेषित होती हैं। नाड़ी परीक्षण की कला किसी योग्य आयुर्वेदिक चिकित्सक से सीखनी चाहिए।
नाड़ी कैसे देखें ? : nadi pariksha kaise kare
सामान्यतः नाड़ी अँगूठे की मदद से कलाई के जोड़ के काफी करीब रेडियल आर्टरी (अरीय धमनी) पर देखी जाती है। नाड़ी को गरदन या कलाई के जोड़ के ऊपर अँगूठे की मदद से महसूस किया जा सकता है। इसे गरदन या टखने के जोड़ के ऊपर या पैर के अँगूठे में महसूस किया जा सकता है। रोगी को शारीरिक तथा मानसिक रूप से सहज होना चाहिए।मल-मूत्र के त्याग के बाद सामान्यतः दाएँ हाथ की नाड़ी देखी जाती है। तीन अंगुलियों-तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिकासे स्वास्थ्य अथवा रोग की प्रकृति का पता लगाया जाता है। तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिका के बिंदु क्रमश: वात दोष, पित्त दोष तथा कफ दोष बताते हैं।
वात दोषवाली नाड़ी जोंक या सर्प की गति की तरह होती है। यह बहुत तेज और हलकी होती है।
पित्त दोषवाली नाड़ी मेंढक या कौए की गति की तरह होती है। इसकी गति तेज और तीक्ष्ण होती है।
कफ दोषवाली नाड़ी हंस या फाख्ता की गति से मिलती-जुलती है। इसकी गति धीमी तथा भारी होती है।
निम्नलिखित अवस्थाओं में नाड़ी कमजोर तथा धीमी होती है:
1. रक्तस्राव, 2. मनोवैज्ञानिक रोग-जैसे अवसाद, विक्षोभ, तनाव तथा चिंता, 3. आंतरिक रक्तस्राव-जैसे आँत संबंधी, योनि रक्तस्राव, 4. सामान्य रोग जैसे निष्क्रियता, काँपना, डरना और 5. मधुमेह में नाड़ी सूक्ष्म तथा मंद होती है।
पुरुषों में दाएँ हाथ की रेडियल आर्टरी तथा महिलाओं में बाएँ हाथ की रेडियल आर्टरी पर नाड़ी परीक्षण किया जाता है।
नाड़ी-अध्ययन कब नहीं करना चाहिए :
1. भोजन करने, 2. सूर्यस्नान, 3. शराब पीने, 4. परिश्रम वाले कार्य, 5. मालिश और 6. आग के पास रहने के बाद ।
नाड़ी अध्ययन का प्रयोग :
❉ दाईं रेडियल नाड़ी के ऊपरी स्पर्श से बड़ी आँत, गॉल ब्लाडर (पित्ताशय) तथा पैरीकार्डियम (हृदय के चारों ओर स्थित झिल्ली) के विकारों का पता लगाया जा सकता है।
❉ दाएँ हाथ की नाड़ी के गहरे स्पर्श से फेफड़ों, यकृत तथा तीनों दोषों-वात, पित्त तथा कफ-की बीमारियों के बारे में जानकारी मिल सकती है।
❉ बाईं नाड़ी के सतही स्पर्श से छोटी आँत, पेट तथा मूत्राशय के रोगों का पता चल सकता है।
❉ दाईं रेडियल नाड़ी के गहरे स्पर्श से हृदय, तिल्ली और गुरदों के विकारों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
❉ नाड़ी की गति सुबह में धीमी होती है, दोपहर में बढ़ जाती है और वात अवधि के दौरान अधिक होती है।
❉ अंगुलियों के पोरों पर 13000 तंत्रिका अंत (नसों के सिरे) होते हैं, जिनका नाड़ी-अध्ययन के दौरान मस्तिष्क से प्रत्यक्ष संपर्क होता है।
नाड़ी-गति तथा आयु :
✥ 160 प्रति मिनट,
✥ जन्म के बाद-140 प्रति मिनट,
✥ 3-7 वर्ष-95 प्रति मिनट,
✥ 8-14 वर्ष-80 प्रति मिनट,
✥ वयस्क-72 प्रति मिनट,
✥ वृद्धावस्था-65-70 प्रति मिनट,
✥ मृत्यु के समय-160 प्रति मिनट।
दिन के अलगअलग समय में नाड़ी-गति में परिवर्तन होता रहता है तथा भूख व उत्तेजना के समय भी नाड़ी की गति परिवर्तित हो जाती है।