Last Updated on July 22, 2019 by admin
१-फालसे-
पके फालसे मधुर, शीतल, विष्टम्भी, पुष्टिकारक तथा स्वाद में प्रिय होते हैं तथा यह खून खराबी के रोग, ज्वर, क्षय, पित्त की दाह-जलन का नाश करते हैं। पके फालसे खट्टे-मीठे होने की वजह से निहायत जायकेदार मालूम होते हैं। भोजनोपरान्त थोड़े से फालसे खाने से खाना अच्छी तरह हजम हो जाता है। पके फालसों को खाने या शर्बत बनाकर पीने से स्वप्नदोष, प्रमेह, सुजाक, पित्त के कारण उत्पन्न हुई शिकायतें, दाहजलन, चक्कर आना और स्त्री-पुरुषों की पेशाब की नली की जलन आदि रोग शर्तिया नष्ट हो जाते हैं।
फालसों का शर्बत बहुत ही सुस्वादु, जायकेदार और गुणकारी होता है। थोड़े-से पके फालसे लेकर पत्थर या काँच के बर्तन में जल डालकर 1-2 घण्टे तक फालसों को भिगोकर रखें । तदुपरान्त फालसों को उसी जल में मसलकर, अन्दाज से मिश्री डालकर, कपड़े से छानकर इस फालसे के शर्बत को पीएँ । काँच के बर्तन को पानी की बर्फ में थोड़ी देर तक रखा भी जा सकता है। इस शर्बत को एकदम गटागट न पीकर धीरे-धीरे चुस्कियाँ लगाकर पीएँ। इस शर्बत के सेवन से खट्टी, चरपरी, पित्तकारक चीजें खाने की खराबियाँ दाह-जलन, घबराहट और प्यास आदि शान्त होकर, मन खिल उठता है तथा शान्ति मिलती है।
जिन लोगों को प्रमेह, सूजाक या स्वप्नदोष आदि ऊपर लिखे दोष हों, वे लोग वैसाख, जेठ में जब फालसों का मौसम होता है फालसों का शर्बत अवश्य पीएँ।
बहुत-से लोग फालसों को केवल नमक लगाकर खाते हैं। कुछ नमक, काली मिर्च, इलायची लगाकर खाते हैं। अनेक लोग नमक, मिर्च, जीरा, धनिया डालकर चटनी बनाकर लेते हैं। यह चटनी बड़ी ही जायकेदार और हाजिम होती है। भूख जरा भी न हो तो भी खाने के लिए रुचि उत्पन्न हो जाती है।
२-आम-
इसे संस्कृत भाषा में रसाल, पिकवल्लभ, फलश्रेष्ठ, स्त्रीप्रिय, बसन्तदूत और नृपप्रिय आदि नामों से भी जाना जाता है। आम कई तरह के होते हैं। उनकी कलमी नस्लें भी होती हैं तथा उनके जायके और गुण नामानुसार अलग-अलग होते हैं जैसे-लँगड़ा, मालदा, कृष्णभोग, फजली, गुलाबपाश, तोतापरी, राढ़ी, बम्बईया, लखनौआ, सफेदा, कलमी, दसेरी इत्यादि।
उसी भाँति सब तरह के आम दो प्रकार के होते हैं-1. कच्चे और 2. पके। कच्चे आम में गुणागुण दोनों होते हैं। कच्चे आमों को भूभल या आग में भूनकर पानी के साथ मसलकर आम का पना बनाते हैं। इसमें भुना जीरा, सैंधानमक और काली मिर्च डालते हैं। इस पने के पीने से भयानक से भयानक लू (गर्मी के मौसम में चलने वाली हवा) क्यों न लगी हो आराम हो जाता है। आम के पने को शरीर पर भी मलते हैं। पके आम मीठे हों तो वीर्य बढ़ाने वाले, ताकतवर, सुखदायी, हृदय को प्रिय, रंग को निखारने वाले और ठण्डे होते हैं, पित्त को नहीं बढ़ाते । कसैले रस के आम वायुनाशक और खट्टे-मीठे होते हैं तथा कुछ-कुछ पित्त को कुपित करते हैं।
अमरस-बलदायक, भारी, वातनाशक, दस्तावर, मन को प्रिय, तृप्तिकारक, पुष्टि करने वाला और कफवर्द्धक होता है। यदि आमों का रस निकालकर उसमें बराबर का दूध और सफेद बूरा या अन्दाज की मिश्री मिलाकर इसे कपड़े में छान लिया जाए तो निहायत बढ़िया सुस्वादु अमरस बन जाता है। (छानने वाला वस्त्र बहुत गफ यानि गाढ़ा नहीं होना चाहिए ।)
ऐसा दूध-मिश्री मिला अमरस-पित्त का नाश करता है तथा रुचिकारक, पुष्टिदायक और बल-वीर्यवर्द्धक होता है। स्वाद में बहुत ही उत्तम, मीठा और तासीर में ठण्डा होता है। यह अमरस यक्ष्मा के रोगियों को बहुत ही मुफीद है। इसके सेवन से उनके ज्वर और खाँसी वगैरह शिकायतें दूर हो जाती हैं तथा ताकत बढ़ती है। जब यक्ष्मा वाले को दमा श्वास रोग बहुत तकलीफ देता हो, कफ में खून के छींटे आते हों, उस दशा में अमरस विशेष लाभदायक है। पके हुए आम खाकर या चूसकर, मिश्री मिलाकर अघौटा दूध पीने से भी बल-वीर्य बढ़ता है।
३-खरबूजा-
मीठे और पके खरबूजे पेशाब लाने वाले (मूत्रल), ताकतवर, कोठा साफ करने वाले, सुस्वादु, शीतल, वीर्य बढ़ाने वाले तथा वात और पित्त का नाश करने वाले होते हैं। जो खरबूजे खट्टे होते हैं उनके खाने से सूजाक और रक्तपित्त रोग पैदा हो सकते हैं। जिनके शरीर में वीर्य की कमी है या जिन्हें वीर्य की कमी से नपुसकता रोग है, वे लोग खरबूजे के मौसम में ताजा और पके खरबूजे जरूर खाया करें । उत्तम खरबूजे खाने से यक्ष्मा रोग में अवश्य लाभ होता है।
४-सन्तरे-
सन्तरे और नारंगी एक ही चीज के दो नाम हैं। कुछ लोग मीठी नारंगियों को सन्तरे कहते हैं। नागपुर के सन्तरे और सिलहट की नारंगियाँ बहुत मशहूर हैं। नागपुरी सन्तरों का छिलका देखकर उनके कच्चे होने का भ्रम होता है किन्तु वे अत्यन्त मीठे होते हैं। सिलछठी सन्तरों में एक खास तरह का जायका होता है।
५-नारंगी-
मीठी, खट्टी अग्निदीपक और वातनाशक होती है । मिठास के साथ जरा-सी खटास होने से यह बहुत जायकेदार होती हैं। दिल को ताकत देने वाली, भोजन को पचाने वाली, रस-रक्त आदि धातुओं का पोषण करने वाली और खून के दौरे में मदद करने वाली, नवीन रक्त उत्पन्न करने वाली, बल-वीर्य बढ़ाने वाली और शरीर को पुष्ट करने वाली होती है। जिन लोगों को खाना हजम नहीं होता, वे भोजन के बाद नारंगियों को छीलकर खाएँ अथवा छीलकर रस निकालें और उसमें मिश्री मिलाकर पीएँ । यह रस भोजन में रुचि उत्पन्न करने वाला और उसे पचाने वाला होता है। यदि 2 से 6 मास के शिशु को 2 फाँकों का रस रोज पिला दिया जाए तो बालक के शरीर में अनेक रोग उठने ही न पाएँगे और बच्चे का रंग नारंगी जैसा हो जाएगा। कमजोर-से-कमजोर व्यक्ति सन्तरे खाने से ताकतवर हो सकता है क्योंकि नारंगी रक्तादि धातुओं का पोषण करती है।
६-सेब-
सेब कश्मीर और पेशावर आदि कई जगहों से आते हैं । कहते हैं कि कश्मीरी सेब बढ़िया होते हैं। सेब तासीर में निहायत शीतल, मीठे, रुचिकारक, स्वादिष्ट, दिल-दिमाग में ताकत पैदा करने वाले, शरीर में नवीन रक्त का संचार करने वाले, वात और पित्तनाशक, पुष्टिकारक, कफकारक और वीर्यवर्द्धक होते हैं। इनको खाने या इनका रस निकालकर भोजन के साथ अथवा भोजनोपरान्त पीने से शरीर पुष्ट और स्फूर्तिवान रहता है। जो लोग कमजोर हैं वे खाना खाने के साथ या बाद में छीलकर अथवा छिलका सहित 1-2 सेब अवश्य खाया करें। सेब को शास्त्रकारों ने ‘अमृतफल’ कहा है।
७-अँगूर-
कच्चे अँगूर गुणहीन और भारी होते हैं। खट्टे अँगूर रक्तपित्त पैदा करते हैं। पके अँगूर या दाख दस्तावर, शीतल, नेत्रों को हितकारी, धातु को पुष्ट करने वाले व पचने में हल्के होते हैं। इनको खाने से या इनका रस पीने से प्यास, ज्वर, श्वास रोग, वमन होना, वातरक्त, कामला, रक्तपित्त, मूत्रकृच्छ, दाह, जलन, मेह, शोष और मदात्यय नष्ट होते हैं। अँगूर के रस में मिश्री मिलाकर पीने से यक्ष्मा रोग में लाभ होता है।
गाय के थन जैसे दाख-भारी वीर्यवर्द्धक, कफ और पित्तनाशक होते हैं।
नोट-किशमिश में भी यही गुण होते हैं।
८-शहतूत-
शहतूत दो प्रकार के होते हैं-1. काले शहतूत और 2. सफेद शहतूत। शहतूत लाल और हरे भी देखे जाते हैं। पके हुए शहतूत पचने में भारी, स्वादिष्ट, तासीर में ठण्डे, पित्त और बादी का नाश करने वाले होते हैं।
काले शहतूत-यह मीठे और जरा खट्टे होते हैं । मिठास कुछ अधिक और खटास कुछ कम होती है। इसी से स्वाद बढ़ जाता है। प्यास, जलन, मुँह के छाले और भौंर आने में, चक्कर आना, गश या बेहोशी आना, कै होना तथा पित्तज्वर का नाश करने में लाभप्रद होते हैं। ये पुष्टिकारक, शरीर में नया खून पैदा करने वाले, भोजन पचाने वाले, भूख बढ़ाने वाले और वीर्यवर्द्धक होते हैं।
सफेद शहतूत-ये काले शहतूत से ज्यादा मीठे, किन्तु पचने में भारी होते हैं। इन गुणों के अतिरिक्त ये अन्य सब गुणों में काले शहतूत के समान ही होते हैं।
शरबत शहतूत-फालसों की तरह शहतूतों का भी शर्बत बनाया जाता है, जो पीते ही तुरन्त तेज प्यास और जलन को दूर करके शान्ति प्रदान करता है।
९-नाशपाती-
पकी नाशपाती पचने में हल्की, बहुत मीठी, वीर्यवर्द्धक, तीनों दोष (वात-पित्त-कफ) का नाश करने वाली, तृप्तिकारक, हृदय को हितकारी और दिल को ताकत देने वाली होती है। नाशपाती को बहुत-से लोग ‘नाक’ कहते हैं, किन्तु नाशपाती की अपेक्षा नाक, नरम, भुरभी और अधिक मीठी होती है। कश्मीर के सेबों की तरह नाशपाती भी कश्मीर की सबसे अच्छी समझी जाती है। पेशावर की नाशपातियाँ कश्मीरी की अपेक्षा सख्त और गुणों में भी हीन होती हैं, हालाँकि वे भी मीठी और सुस्वादु होती हैं। जो नाशपाती जितनी अधिक मीठी, रस वाली और नरम होती हैं, वह उतनी ही अधिक उत्तम समझी जाती हैं। सेब की तरह नाशपाती का रस भोजन के साथ या भोजन के बाद पीने या नाशपाती को छीलकर खाने से स्वास्थ्य सुधरता है, दस्त साफ होता है । यह फल त्रिदोषनाशक होता है। अतः आयुर्वेदानुसार सभी प्रकार के रोगियों के लिए मुफीद है।
१०-शरीफा या सीताफल-
यह फल अत्यन्त मीठा, चिकना और तृप्तिकारक होता है। इसके सेवन से दिल में ताकत आती है, वीर्य बढ़ता है, रस-रक्त आदि धातुओं का पोषण होता है तथा दाह, रक्तपित्त आदि रोग नष्ट होते हैं । यह पचने में भारी होता है। भोजन के बाद शरीफा खाने से जलन वगैरह नहीं होती।
११-सिंघाड़े-
ये हरे और लाल तथा छोटे और बड़े के भेद से कई तरह के होते हैं। छोटे सिंघाड़े से बड़े सिंघाड़े ज्यादा मीठे, गुणकारक और स्वादिष्ट होते हैं। उसी तरह से हरे से लाल अच्छे होते हैं। सिंघाड़े तासीर में ठण्डे, पचने में भारी, स्वादिष्ट, कसैले, ग्राही, काबिज विकार और दाह का नाश करने वाले होते हैं।
पके सिंघाड़े-
मीठे, कुछ कसैले, पुष्टिकारक, शीतल, बल और वीर्य बढ़ाने वाले तथा कुछ कफकारक होते हैं। प्रमेह वगैरः में भी मुफीद होते हैं।
कच्चे सिंघाड़े-मीठे, रुचिकारक, शीतल, प्यासनाशक, हृदय के लिए हितकारी, रक्तविकार, जलन, पित्त, थकान और रक्तपित्त आदि में रोगनाशक होते हैं। सिंघाड़े को पानी में उबालकर भी खाया जाता है। इनकी गुठलियों को सुखाकर पीसकर, पूरी, पकौड़ी, हलवा आदि पदार्थ भी बनाकर खाए जाते हैं जो बल-वीर्य बढ़ाने वाले होते हैं।
१२-खिरनी-
बल-वीर्य को बढ़ाने वाली, ठण्डी, चिकनी और पचने में भारी होती है। प्यास, बेहोशी, मद, आन्ति, क्षय और तीनों दोष (वात-पित्त-कफ) नाशक होती है तथा रक्तपित्त में भी लाभकारी होती है।
१३-बेल फल-
यह कच्चा और पका दोनों तरह का काम में आता है। कच्चे बेल का गूदा निकालकर, सुखाने से बेलगिरि बनती है और यह ग्राही होती है। यह अतिसार संग्रहणीनाशक दवाओं में डाली जाती है और यह वात तथा कफ और शूल का नाश करता है।
पका बेल- भारी, तीनों दोष वाला, दुर्जर, मुश्किल से पचने वाला, बदबूदार, जलन करने वाला, ग्राही, मीठा और अग्निमन्द करने वाला होता है। कोई-कोई वैद्य कहते हैं कि पेड़ पर पका बेल खुशबूदार, अत्यन्त मीठा, वीर्यवर्द्धक, पुष्टिकारक, गरम, मल को रोकने वाला, वायुनाशक, अतिसार, संग्रहणी, श्वास, खाँसी, क्षय और अग्निमांद्य अनेक रोगनाशक होता है। पेड़ पर पके हुए बेल का गूदा निकालकर उसे पत्थर की कैंडी में ठण्डे पानी में मसलकर और छानकर फिर उसमें छोटी इलायची, कालीमिर्च, लौंग, जरा-सा कपूर और मिश्री मिलाकर शर्बत बना लें। इस शांत के पीने से प्यास, वमन, जलन और थकान दूर होती है और एक प्रकार की सुख-शान्ति मिलती है। भोजन के बाद बेल खाने या बेल का शर्बत पीने से कब्ज नहीं होता।
१४-अनार-
खट्टा, मीठा तथा खट्टा मीठा-3 प्रकार का होता है।
मीठा अनार- त्रिदोष नाशक, तृप्तिदायक, वीर्यवर्द्धक, हल्का, कसैले रस वाला, ग्राही-काबिज, चिकना, बुद्धि और बलदाता, दाह, ज्वर, हृदयरोग, कण्ठरोग तथा मुँह की बदबूनाशक होता है।
खट्टा-मीठा अनार- अग्नि को जगाने वाले, रोचक, हल्का और पित्तकारक होता है।
खट्टा अनार- पित्त को पैदा करता है तथा वात-कफ का नाश करता है। ज्वर आदि अनेक रोगों में चिकित्सक रोगियों को अनार सेवन करने की राय देते हैं। जिनको कुछ भी नहीं पचता, उन्हें अनार का रस देते हैं । अनार के दाने अलग करके, पत्थर के साफ चिकने खरल में कूटने और फिर काँच के प्याले में कपड़े द्वारा निचोड़ने से रस निकलता है। जिन यक्ष्मा-रोगियों का शरीर हड्डियों का कंकाल जैसा हो जाता है, उन्हें ऐसा रस इच्छानुसार मिलने से बहुत लाभ होता है।
यक्ष्मा-रोगी को दस्त न होते हों और खाँसी न आती हो तभी अनार का रस देना चाहिए। खाँसी कमजोर हो, तब अनार के रस को भभके द्वारा अर्क खींचकर या गरम करके पिलाना हितकारक है।
१५-खजूर-
शीतल, रुचिकारक, पचने में भारी, तृप्तिकारक, पुष्टिकारक, काबिज, बल और वीर्य बढ़ाने वाले होते हैं। इनके खाने से क्षय रोग, घाव, खाँसी, श्वास, प्यास, कोठे की वायु, वमन, कफ, ज्वर, अतिसार, मद, मूर्च्छा, रक्तपित्त, वातपित्त और मद से हुए रोग नष्ट होते हैं।
१६-केला–
पका केला स्वादिष्ट, शीतल, वीर्यवर्द्धक, पुष्टिकारक, रुचिकारक और माँसवर्द्धक होता है। भूख, प्यास, आँखों के रोग और प्रमेह का नाश करता है। पका केला वात और पित्तज खाँसी को भी नष्ट कर देता है। एक केले के फल में छिलका हटाकर 5 काली मिर्च या 1 पीपर खोंसकर रात को ओस में (खुले आसमान के नीचे) रख दें और सबरे ही छिलका हटाकर पहले खोंसी हुई मिर्च या पीपर खाकर बाद में केला खा लेने से सूखी और पित्त की खाँसी नष्ट हो जाती है। नित्य प्रति केले की पकी गहर में जरा-सा घी । मिलाकर खाने से प्रमेह दूर हो जाता है। यदि सर्दी करे तो 1 या 2 बूंद शहद भी डाल लें ।
कच्चा केला- तासीर में शीतल, पचने में भारी, दस्त को रोकने और बाँधने वाला, कफ-पित्त, रुधिर विकार, घाव, क्षय रोग और बादी का नाश करता है। अतिसार, संग्रहणी में कच्चे केले को उबाल कर छील लेते हैं। फिर 2-4 लौंगों का छौंका देकर दही, धनिया, हल्दी, सैंधानमक और गोल काली मिर्च मिलाकर पकाने से बहुत ही जायकेदार तरकारी बन जाती है। अगर खाने वाला रोगी न हो तो जरा-सी अमचूर की खटाई और लाल मिर्च डाली जा सकती हैं। स्वादिष्ट साग बनता है।
१७-नारियल-
यह 2 तरह के होते हैं-1. हरा ताजा गिरी वाला और 2. सूखी गिरी वाला ।
ताजा नारियल नर्म, सफेद, दूध-सी गिरी वाले को कच्चा नारियल कहते हैं । जो ऊपर से सूखे होते हैं और फोड़ने पर जिनमें सूखी गिरी निकलती है, उन्हें पका या सूखा नारियल कहते हैं।
कच्चा नारियल- इसके अन्दर की गिरी बहुत मीठी, जायकेदार और रुचिकारक होती है। तासीर में ठण्डी, अम्लपित्त, रक्तपित्त, पित्तज्वर, दाह-जलन, खून विकार, प्यास, वमन, भ्रम, बेहोशी और दिल के रोगों को नष्ट करने वाली होती है। जिन लोगों को अम्ल पित्त रोग हो, खाना खाने के बाद खट्टी डकारें आती हों, छाती और गले में जलन होती हो, खाना हजम न होता हो, वे लोग भोजन के बाद नित्य बिना नागा थोड़ा-सा कच्चा नारियल घीयाकस पर कसकर या जीरा-सा बनाकर अथवा चाकू से कटकर अवश्य खाया करें । इस प्रयोग से खाना आसानी से पच जाता है।
सूखा नारियल- इसकी गिरी पचने में ज्यादा भारी होती है। स्वाद में मीठी, तासीर में ठण्डी, वीर्यवर्द्धक, शक्तिप्रदायक, पेशाब की थैली को शोधने वाली, हृदय को अत्यन्त हितकारी, वात और पित्त को शान्त करने वाली, प्यास, क्षतक्षय, दाह-जलन और अम्लपित्त अर्थात् भोजन करते समय खट्टी डकारें आना, छाती में जलन होना, भोजन न पचना, बदहज्मी और विदग्ध अजीर्ण (भ्रम, प्यास, खट्टी डकारें), पसीना, दाह और पित्त के अनेक रोग प्रभृति दूर हो जाते हैं। इससे वात-पित्त की शान्ति होती है।
नोट-जिन लोगों को पुराने चावलों का भात भी नहीं पचता, वे भात खाने के बाद थोड़ी-सी नारियल की गिरी खा लिया करें तो भात आसानी से पच जाएगा। हरे नारियल मुंबई, चेन्नई और बंगाल प्रान्त में बहुतायत से पैदा होते हैं। वहाँ के लोग गर्मी के मौसम में-प्यास लगने पर हरे नारियल का पानी खूब पीते हैं। पानी के हरे नारियलों में गिरी नहीं होती, केवल पानी ही भरा रहता है। इससे तेज प्यास और कलेजे की जलन तुरन्त शान्त होती है तथा मन में शान्ति का संचार होता है। यह पानी अत्यन्त ही ठण्डा, स्वादिष्ट, तृप्तिकारक होता है। प्यास, जलन, मूच्र्छा और दिल के रोग इस जल को पीने से निश्चय ही शान्त हो जाते हैं।
नोट-उपरोक्त गुण उस नारियल के हैं, जिसमें केवल जल-ही-जल होता है, गिरी नहीं पड़ती। जिस नारियल में गिरी पड़ गई हो–यानि उसमें गिरी और पानी दोनों ही होंउसका पानी सुस्वादु, शीतल, तृप्तिकारक, रक्तपित्त, अम्लपित्त, वमन, भौंर आना और दिल के रोगों को दूर करता है। यह पानी कच्चे नारियल यानि जल वाले नारियल के जल से अधिक भारी होता है। प्रमेह रोगियों को हरे नारियल का जल मुफीद होता है।