Last Updated on July 22, 2019 by admin
सितम्बर सन् १९७० की बात है। पिलखुवास्थित हमारे निवासस्थानपर हापुड़ के सुप्रसिद्ध कर्मकाण्डी विद्वान् पं० श्रीबालकरामजी शास्त्री पधारे। उन्होंने श्राद्ध-तर्पण, पिण्डदान, गयाश्राद्ध आदि के द्वारा पितरों का और भूत-प्रेतादिकों का कल्याण कैसे होता है, इसे शास्त्रोंके प्रमाण देकर सिद्ध करनेके पश्चात् स्वयं अपनी आँखों-देखी पार्वणश्राद्ध के द्वारा प्रेतात्मा के उद्धारकी एक सत्य घटनाका भी आद्योपान्त वर्णन किया, जिसे सुनकर लोग आश्चर्यचकित हो गये। शास्त्रीजी द्वारा सुनायी गयी घटना हम यहाँ उन्हींके शब्दों में दे रहे हैं ।
हापुड़ के एक अग्रवाल वैश्य हैं। जिनकी लड़की का नाम सत्यवती है। वह गाजियाबाद में विवाही है। उसके माता-पिता, भाई-बन्धु आदि तो सभी सनातनधर्मी हैं, परंतु जहाँ वह लड़की विवाही है, वहाँके लोग कुछ आर्यसमाजी विचारों के हैं। कुछ दिनों पूर्व वह लड़की बीमार हो गयी और उसका बड़े-बड़े चिकित्सकों से इलाज कराया गया, पर उससे उसे कुछ भी लाभ नहीं हुआ। उसे कोई शारीरिक रोग तो था नहीं कि औषधियाँ काम करतीं। उसे तो था प्रेतावेश, जिसे उसके घरवाले समझ नहीं रहे थे। एक दिन सत्यवती का भाई महेन्द्रकुमार अपनी इस बहन को देखने के लिये गाजियाबाद गया और उसने उसकी ऐसी हालत देखी तो वह समझ गया कि सत्यवतीको कोई बीमारी नहीं है, अपितु उसे प्रेतावेश है-उसे प्रेत सताता है। जब उसके सामने ही सत्यवतीको प्रेतावेश हुआ, तब प्रेतने उससे अपने उद्धार की माँग की और साथ ही अपना उद्धार होने पर सत्यवती को छोड़ देनेका वचन दिया। महेन्द्रकुमार उस प्रेत को उद्धारका आश्वासन देकर वहाँ से मेरे पास आया। मैं उस समय हापुड़ में माहेश्वरियोंवाले भगवान् श्रीराधावल्लभ जी महाराजके मन्दिर में था। महेन्द्रकुमार ने आकर मुझसे अपनी बहन सत्यवतीकी यह कष्टकर दु:ख गाथा सुनायी और उसने मुझसे कहा कि शास्त्रीजी ! किसी प्रकार हमारी बहन को सतानेवाले प्रेतका उद्धार हो, ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे उस दुष्ट प्रेत से मेरी बहनका भी छुटकारा हो जाय।
मुझे उसकी बहनकी दु:खगाथा सुनकर बड़ा ही दुःख हुआ और उसपर बड़ी दया भी आयी। परंतु उस प्रेतका उद्धार हो तो कैसे हो और लड़कीको उस प्रेतसे छुटकारा कैसे मिले, अब यह समस्या मेरे सामने आयी। उसका उस समय कोई तात्कालिक उपाय मुझे सूझ नहीं रहा था कि अब हो तो क्या हो? दैवयोग से उस दिन हापुड़में सुप्रसिद्ध धर्माचार्य पूज्यपाद श्रीजगद्गुरु शंकराचार्य ज्योतिष्पीठाधीश्वर स्वामी श्रीकृष्णबोधाश्रमजी महाराज पधारे हुए थे, जो उस समय भगवान् श्रीराधावल्लभजी महाराजके मन्दिर में ही ऊपरके कमरे में विराजमान थे। मेरा ध्यान बरबस उनकी ओर गया, सोचा कि यदि लड़की की रक्षा हो सकती है तो बस, पूज्यपाद जगद्गुरुजी महाराजके बताये उपायसे ही हो सकती है, अन्यथा नहीं।
मैं लड़कीके भाईको अपने साथ लेकर जगद्गुरुजी महाराजके श्रीचरणों में जा पहुँचा। पूज्य श्रीआचार्यचरण रात्रि अधिक होने के कारण अभी-अभी विश्राम करनेके लिये लेटे ही थे कि हमारे आने की आहट सुनकर जाग गये और बैठते हुए हमसे बोले कि शास्त्रीजी! इस समय कैसे आना हुआ? । महेन्द्रकुमार ने पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्यजी महाराज को अपनी बहनकी दु:खगाथा सुनाते हुए बताया कि महाराज! मेरी बहनके शरीर में प्रेतका आवेश होता है और वह दुष्ट प्रेत मेरी बहनको बहुत ही सताता है, इस कारण बहनके साथ-ही-साथ हम सभी तथा उसके ससुरालवाले भी बड़े ही परेशान हैं। किसी प्रकार उस प्रेतसे छुटकारा मिले, ऐसा कोई उपाय बतानेकी कृपा करें।
श्रीआचार्यचरणने महेन्द्रसे पूछा कि तुम्हारी बहनके शरीरमें प्रेतका आवेश है, यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ? । महेन्द्रकुमार ने महाराजश्री को आद्योपान्त घटना सुनाते हुए कहा कि महाराज ! मैं हापुड़से अपनी परेशान बहन सत्यवतीको देखनेके लिये गाजियाबाद गया हुआ था, तो उस समय मेरी बहन सत्यवतीके शरीरमें प्रेतका आवेश था। मैंने उस प्रेतसे इस प्रकार बातें कीं
मैं– तुम कौन हो?
प्रेत– मैं एक प्रेत हूँ।
मैं– तुम इसे क्यों सताते हो, क्यों कष्ट देते हो?
प्रेत– मैं बड़े कष्टमें हूँ, मेरा उद्धार करो।
मैं– तुम अपने उद्धारका कोई उपाय हमें बताओ, जिसे करनेसे तुम्हारा उद्धार हो जाय और हमारी बहनका भी कष्ट दूर हो जाय।।
प्रेत– तुमलोग मेरे निमित्त कोई ऐसा शुभ कर्म करो अथवा कराओ, जिससे मुझे शान्ति मिले और मेरा प्रेतयोनि से उद्धार हो, तभी मैं तुम्हारी बहनको छोडूंगा।
मैं– हमारी इस बहन की ससुरालवाले तो आर्यसमाजी विचारके हैं, इसलिये वे तो इन सब बातोंको मानते नहीं हैं और जब उनका इन सब बातों में विश्वास ही नहीं है तो वे कुछ करेंगे ही नहीं। अब यदि हम तुम्हारे उद्धारके लिये कुछ करा दें तो क्या हमारे करनेसे तुम्हारा उद्धार हो जायगा?
प्रेत– तुम करवा दो, तुम्हारे करानेसे भी मेरा उद्धार हो । जायगा।
मैं– अब यह बताओ कि तुम्हारे उद्धारके लिये हम क्या उपाय करें?
प्रेत– देख भाई ! मुझे तो इसका कुछ पता है नहीं कि किस शुभ कर्मके करनेसे मेरा उद्धार होगा, यह तो तुम किसी ब्राह्मणसे मालूम करो कि किस शुभ कर्मके करानेसे प्रेतका उद्धार होता है तो फिर वह शुभ कर्म तुम मेरे निमित्त करवा दो, जिससे मेरा उद्धार हो जाय।
मैं– अच्छा, हम तुम्हारे उद्धारका कोई-न-कोई उपाय । अवश्य ही करा देंगे।
प्रेत– यदि तुमने मेरा उद्धार करा दिया तो मैं भी तुम्हारी । बहनको छोड़ दूंगा।
मैं– अच्छा, अब तो तुम इसे छोड़ दो।
प्रेत– तुम हमें यह वचन दो कि हमारे उद्धारका उपाय कितने दिनों में करा दोगे?
मैं– आज मंगलवारका दिन है, हम आनेवाले रविवारतक तुम्हारे निमित्त कोई-न-कोई ऐसा शुभ कर्म अवश्य ही करवा देंगे कि जिससे तुम्हारा उद्धार हो जाय। इसलिये अब तुम इसे छोड़ दो।
प्रेत– बहुत अच्छा, अब मैं तुम्हारी इस बहनको छोड़ देता हूँ और फिर इसे मैं नहीं सताऊँगा। तुम आनेवाले रविवारतक मेरे उद्धारका कोई-न-कोई उपाय अवश्य करा दो। यदि तुमने मेरे उद्धारका कोई उपाय न कराया तो मैं पुनः आकर इसे सताऊँगा।
मैंने जब बार-बार उसे आश्वस्त किया, तब उसने मेरी बात स्वीकार कर ली और वह तुरंत उसी समय मेरी बहनको छोड़कर उसके शरीर से चला गया। अब क्या था? उस प्रेतके जाते ही एकदम बेहोश सत्यवती बिलकुल होशमें आ गयीबिलकुल ठीक-ठीक हो गयी, वह ऐसी दिखलायी पड़ने लगी, मानो इसे कुछ हुआ ही न हो।
परम पूज्यपाद स्वामी श्रीकृष्णबोधाश्रम जी महाराजने पूछा क्या तुमने उस प्रेतके उद्धारका कोई उपाय कराया है?
महेन्द्रकुमारने कहा- ‘महाराजजी ! हम उस प्रेतके उद्धारका उपाय पूछनेके लिये उसी दिनसे बराबर लगे हुए हैं। बहुतों से पूछा भी, किंतु हमें कोई सफलता अबतक नहीं मिली है।’
शंकराचार्यजी महाराजने यह सब सुनकर परामर्श दिया कि तुमलोग सुप्रसिद्ध तीर्थ श्रीगढ़मुक्तेश्वरमें जाओ और वहाँपर जाकर पतितपावनी कलिमलहारिणी भगवती भागीरथीके परम पवित्र तटपर बैठकर पार्वणश्राद्ध और तीर्थश्राद्ध करो तथा दो सदाचारी पण्डितों को गायत्रीका जप करनेके लिये बैठा दो।
पार्वणश्राद्ध कौन कराये? अब यह समस्या सामने आयी।
पूज्यपाद जगद्गुरु शंकराचार्यजी महाराजने कहा कि शास्त्रीजी ! तुम्हीं श्रीगढ़मुक्तेश्वर जाकर इसका विधि- विधानसे सब कार्य सम्पन्न कराओ। तत्पश्चात् हम पूज्य महाराजश्रीकी आज्ञा शिरोधार्य कर उनके निर्देशानुसार श्रीगढ़मुक्तेश्वर, व्रजघाटपर पहुँच गये और उधरसे महेन्द्र भी सत्यवती एवं उसके पति आदिके साथ वहाँ पहले ही पहुँच गया था।
वहाँ पहुँचनेपर पता चला कि सत्यवतीपर पुनः प्रेतका आवेश हो गया है और वह बेहोशीकी अवस्थामें एक झोपड़ीमें लेटी हुई है। भाईने लड़कीके शरीरमें आये उस प्रेतसे कहा कि पण्डितजीके आनेमें कुछ देर हुई है और अब पण्डितजी आ गये हैं, तुम्हारे उद्धारका सब कार्य करेंगे, तुम जरा धैर्य रखो।
सर्वप्रथम हम सभीने श्रीगङ्गाजीमें स्नान किया तथा वहाँके देवी-देवताओंका दर्शन-पूजन आदि किया। तदनन्तर पार्वणश्राद्ध करानेका सब कार्य प्रारम्भ हुआ। दो पण्डित गायत्री-जप करनेके लिये बैठा दिये गये। लड़की के पतिने अपने आर्यसमाजी विचारोंको छोड़कर बड़ी श्रद्धा-भक्तिके साथ सनातनधर्मानुकूल जो हमने बताये थे, सब कार्य सम्पन्न किये। कर्म करते समय आधा कर्म हो जानेपर पार्वणश्राद्धने, गायत्रीमन्त्रने और माता गङ्गाजीने अपना ऐसा अद्भुत चमत्कार दिखाना प्रारम्भ किया कि लड़की के भाईने हमसे आकर कहा कि शास्त्रीजी! हमारी बहन झोपड़ीमें बैठी हुई है और वह यह कहती है कि लाओ हमारा भाग। तब हमने उससे कहा कि पण्डितजी उपाय करा रहे हैं, तुम्हारे निमित्त शुभ कार्यमें ही हम सब लगे हुए हैं।
उसके पश्चात् पार्वणश्राद्धके समाप्त होते समय अकस्मात् ऐसा चमत्कार हुआ कि जो लड़की अबतक झोपड़ीमें बेहोश पड़ी हुई थी, वही लड़की सहसा सबके देखते-देखते उठी और उस झोपड़ीमेंसे निकलकर श्रीगङ्गाजीकी ओर चल दी। वह अपने मुखसे बार-बार यह कहती जाती थी ‘लो अब मेरा उद्धार हो गया और अब मैं यहाँसे जा रहा हूँ। ऐसा कहते-कहते वह श्रीगङ्गाजीके जलमें प्रवेश कर आगे बढ़ती ही चली गयी। यह देखकर सब लोग भयभीत हो गये। हम सभी यह सोचने लगे। कि कहीं ऐसा न हो कि यह गहरे जलमें जाकर डूब जाय। मैंने उसके घरवालोंसे कहा कि तुम घबराओ नहीं, इसे अंदर जाने दो, चिन्ता न करो।
उसने अंदर जाकर कण्ठतक जलमें खड़े होकर श्रीगङ्गाजीमें ज्यों ही गोता लगाया, त्यों ही उसके शरीरमें व्याप्त उस प्रेतका उद्धार हो गया और वह लड़की उस प्रेतसे छुटकारा पाकर पूर्ण स्वस्थ और प्रसन्न होकर जलसे बाहर आ गयी तथा सदासर्वदाके लिये उसे उस प्रेतसे छुटकारा मिल गया। अब तो सबमें प्रसन्नताकी लहर दौड़ गयी, सभी गद्गद हो गये।
यद्यपि पार्वणश्राद्धद्वारा प्रेतका उद्धार और इस लड़कीका संकट दूर हो चुका था, परंतु फिर भी हमने बादमें पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्यजी महाराजके निर्देशानुसार तीर्थश्राद्ध भी कराया। सब कार्य करते-कराते सायंकाल हो गया और सब लोग बड़े ही प्रसन्न थे। इसी प्रसन्नतामें सब लोग मिलकर पतितपावनी भगवती भागीरथीके परम पवित्र तटपर श्रीगङ्गाजी महारानीकी पूजा-प्रार्थना करके लौट आये।
उसके पश्चात् फिर कभी उस लड़कीको कोई कष्ट नहीं हुआ।
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