Last Updated on July 22, 2019 by admin
दृढ संकल्प सफलता का प्रथम सोपान : Hindi short storie with moral
★ प्रतिष्ठापुर में राजा शालीवाहन राज्य करते थे । शालीवाहन राजा बडे वीर्यवान, बलवान और बुद्धिमान थे । उन्हें ५०० रानियाँ थीं । एक दिन रानियों के साथ जलक्रीडा करने गये । जलाशय में जलक्रीडा करते करते वे चंद्रलेखा नामकी विदूषी रानी को जल से छींटे मारने लगे ।
★ उस रानी की प्रकृति शीत थी । उसको ये सब अच्छा नहीं लग रहा था । विदुषी रानी से संस्कृत भाषा में कहा :
‘‘मा मोदकैः पूरय । (‘मा मा उदकैः पूरय’ अर्थात् मुझे पानी मत छींटो ।)
★ शालीवाहन संस्कृत भाषा नहीं जानते थे । वे समझे कि विदूषी रानी कहती है कि मुझे मोदक दीजिये, पानी नहीं चाहिए । रानी ने तो कहा मुझ पर पानी नहीं छिडकिए । लेकिन शालीवाहन समझे ‘मा मोदकैः पूरय, माने मेरी लड्डू की इच्छा पूर्ण कीजिए । स्नान का कार्यक्रम पूरा हुआ । राजा ने मंत्री को कहकर लड्डूओं का थालमंगवाकर रानी के आगे धर दिया । ‘‘ले, ये मोदक ।
★ विदूषी रानी ने देखा कि राजा संस्कृत के ज्ञान से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं । उसको हँसी आ गयी । हँसी आ गयी तो प्रतिष्ठानपुर के नरेश शालीवाहन उसकी हँसी से चिढे नहीं । उसकी हँसी से उद्विग्न नहीं हुये और उसकी हँसने लंपटु नहीं हुये । उसके चमडे चाटने में लुब्ध नहीं हुये । हँसी का कारण पूछा । ज्ञान का आदर किया, जिज्ञासा बढाई ।
★ ‘‘क्यों हँसी ? सच बता । उसने कहा : ‘‘मैंने तो आपसे कहा ‘‘मा मोदकैः पूरय… मा मा उदकैः पूरय । मुझे उदक माने पानी नहीं लगाओ । आप समझ मोदक माना लड्डू और लड्डू का थाल धर रहे हो इसलिए हँसी आ रही है ।
★ शालीवाहन को लगा कि मुझे संस्कृत का ज्ञान पाना चाहिए बैठ गये तीन दिन तक एक कमरे में । सच्चे हृदय से, तत्परता से सरस्वती का आवाहन किया । जिनके पास प्राणबल होता है वे जिधर लगते हैं उधर पार होते हैं । आधा इधर आधा उधर… ऐसे आदमी भटक जाते हैं ।
शालीवाहन की तत्परता से तीन दिन के अंदर ही सरस्वती देवी प्रकट हुई और कहा :
‘‘वरं ब्रूयात् । वर माँगो ।
★ राजा : ‘‘माँ ! अगर तुम संतुष्ट हो तो मुझ पर कृपा करो कि मैं संस्कृत का विद्वान हो जाऊँ । संस्कृत का ज्ञान मुझे जल्दी से प्राप्त हो जाये ।
मा : ‘‘एवं अस्तु ।
★ मनुष्य जिस वस्तु को चाहता है उसी वस्तु को जरूर पाता है, अगर वह संकल्प में विकल्प का कचरा नहीं डाले तो… अपने को अयोग्य मानने की बेवकूफी न करे तो । अरे ! यह तो ठीक है, सरस्वती माता से राजा ने संस्कृत का ज्ञान पाने का आशीर्वाद लिया लेकिन वह चाहता कि मुझे ब्रह्मज्ञानी गुरु मिल जायें और इन विकारी सुखों से बचकर मैं निर्विकारी नारायण का साक्षात्कार कर लूँ तो वैसा भी वरदान माँ दे देती ।
★ उस बुद्धिमान लेकिन राजसी बुद्धिमान नरेश शालीवाहन ने माँ से संस्कृत का ज्ञान माँगा । माँ ने वरदान दिया । वह इतना बिढया विद्वान हुआ कि सारस्वत्य व्याकरण की उसने रचना की । दूसरे ग्रंथ भी रचे । उस राजा के नाम से संवत्सर चला है, शालीवाहन संवत ! जैसे विक्रम संवत चलता है ऐसे ही शालीवाहन संवत चलता है ।
★ कहने का तात्पर्य है कि हे मनुष्य ! तू अपने को तुच्छ, दीन-हीन मत मान । चाहे तेरे पास मकान, वैभव कम हो चाहे ज्यादा हो, चाहे तेरे रिश्ते-नाते बडे लोगों से हो, चाहे छोटे लोगों से हो । लेकिन बडे में बडे जो परमात्मा हैं उनके साथ तो तेरा सीधा रिश्ता-नाता है ।
★ हे आत्मा ! तू परमात्मा का अभिन्न अंग है । उसके विषय में जानकारी पा ले । सत्पुरुषों की शरण खोज कर सत्य स्वरूप परमेश्वर का साक्षात्कार कर ले । ध्यान और जप की विधियाँ जान ले आत्मारामी संतो से ।
श्रोत – ऋषि प्रसाद मासिक पत्रिका (Sant Shri Asaram Bapu ji Ashram)
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