Last Updated on August 8, 2019 by admin
रामेठा की सामान्य जानकारी / परिचय :
इस वनस्वति के वृक्ष दक्षिणी हिन्दुस्तान में महाबलेश्वर, माथेरान, लानोली तथा बड़े सेकी टेकरियों में और गुफाओं में पैदा होते हैं। इसका वृक्ष २ फुट से ६ फुट तक ऊचा होंता है। इसके हलके लाल रंग की अथवा बैंगनी रंग की सीधी-सीधी बहुत सी डालियां निकलती हैं। इसके पत्ते अखंडित किनारों वाले, दो से तीन इंच तक लंबे और बरछी के आकार के होते हैं। इसके फल शाखाओं के सिरों पर आते हैं। हर एक फल में ४ है लेकर ५ तक पंखुडियाँ होती हैं । इसके फल की नली बहुत संकीर्ण होती हैं और उसके ऊपर सफेद अथवा पीले दलों की पीछी लगी हुई रहती है । इसके फल बहुत छोटे होते हैं और ये फूल की नली के हिस्से में लगते हैं। हर एक फल में एक २ बीज होता है ।
अलग-अलग भाषाओं में रामेठा के नाम :
संस्कृत – दग्ध, दग्धाहा । हिन्दी – रामेठा । मराठी – रामेठी । गुजराती – राबैठा । लेटिन – Lasiosiphon eriocephalus ( लेसियोसिफोन इरियोसीफेलस ) ।
रामेठा के औषधीय गुण ,फायदे और उपयोग :
• आयुर्वेद के मत से रामेठी तीक्ष्ण, तुरा, गर्म, कफ और वात को नष्ट करनेवाला, पित्त को कुपित करनेवाला और जठराग्नि को दीपन करनेवाला होता है ।
• इस वनस्पति के सम्बन्ध में वैद्य समाज के अन्दर कई प्रकार की किवदतियाँ प्रचलित हैं । विशेषकर गुजरात के वैद्यों में इस वनस्पति को लेकर बहुत ऊहापोह हुआ है। मगर अभी तक इस वनस्पति के निश्चित गुणों के सम्बन्ध में कोई भी विश्वसनीय बात मालूल नहीं हो सकी है और आज भी यह वनस्पति वैद्य समाज के सम्मुख उतनी ही रहस्यपूर्ण बनी हुई है । अतः इस वनस्पति के सम्बन्ध में जो भी विवेचन यहाँ किया जाता है उसको असंदिग्ध नहीं मानना चाहिये।
• ‘जगलनी जड़ी बूटी’ के लेखक इस वनस्पति का विवेचन करते हुये लिखते हैं कि
‘इस वनस्पति के पत्ते और इसकी छाल भयंकर जलन पैदा करनेवाली और जहरीली होती है। अगर यह भूल से चबाने में आ ज़ाय तो मुंह में अत्यन्त वेदना उत्पन्न करती है । इतना ही नहीं बल्कि अगर यह कुछ अधिक मात्रा में चबाने में आजाय तो मुह से लार बहने लगती है। दांत के मसूड़े सूज जाते हैं। दाँत ढीले हो जाते हैं। अथवा गिर भी जाते हैं । इसकी लकड़ी अथवा इसकी राख भी इसी प्रकार दांतों को नष्ट करती है और इसीलिये अगर कोई डाढ़ पोली हो जाय और उस में बार बार वेदना होती हो तो उसे डाढ़ के अन्दर इस वनस्पति का चूर्ण भरने से वह डाढ़ जड़मूल से उखड़ जाती है और रोगी को शान्ति मिल जाती है। फिर भी इस कार्य के लिये इसका उपयोग करना बहुत खतरनाक हैं क्योंकि अगर डाढ़ में भरते समय दूसरे दाँतों पर भी यह वनस्पति लग गई तो वे दाँत भी कमजोर हो जाते हैं ।
• निमोनिया रोग में रामेठा के फायदे –
आगे चलकर उपर्युक्त ग्रन्थ के लेखक लिखते हैं कि –
‘इस संसार में निमोनिया के रोग को दूर करने के लिये इस वनस्पति के समान श्रेष्ठ दूसरी कोई औषधि देखने में नहीं आई । निमोनिया के रोग में इसकी ६ रत्ती छाल का रस अथवा उसका काढ़ा चावल के मांड में मिलाकर दांतों पर न लगे इस तरीके से पिलाना चाहिये । इससे पहिले उल्टी के द्वारा और फिर दस्त के द्वारा छाती में जमा हुआ सब कफ निकल जाता है । यह एक अत्यन्त उग्र औषधि है । इसलिये इसका बार-बार उपयोग करने की आवश्यकता नहीं होती। इसको सिर्फ एक ही बार देने से और यदि रोग बहुत भयंकर हो तो अधिक से अधिक दो बार देने पर सारा कफ निकल जाता है । भयंकर केस में भी इसको दो बार से अधिक देने की जरूरत नहीं पड़ती।’
बहुत से केसों में तो इसको एक ही बार देने से निमोनिया रोग बिदा हो जाता है । परन्तु जो रोग भयानक हो और एक बार से सारा कफ बाहर न निकले तो तीन दिन के बाद इसकी दूसरी खुराक देनी चाहिये । जिससे कफ का रहा-सहा अश भी निकल जाता है और निमोनिया से पूर्ण छुटकारा हो जाता है ।
‘इसकी सूखी छाल की अपेक्षा हरी छाल विशेष गुणदायक होती है । छ-सात रत्ती ताजी छाल को कूट कर उसका रस निकाल कर चावल के मोड़ में मिलाकर देना उत्तम होता है । मगर यदि ताजी छाल न मिले तो इसकी सूखी छाल को छ-सात रत्ती की मात्रा में लेकर उसका काढ़ा बनाकर उस काढ़े को चावल के मड़ि में मिलाकर निमोनिया के रोगी को पिलाना चाहिये । जिस से पहिले रोगी को वमन होगा । उस वमन से बहुत सा कफ निकलेगा । उसके पश्चात् रोगी के दस्त में भी बहुत सा कफ निकलेगा । इस औषधि से शरीर में पित्त का प्रभाव बहुत बढ़ जाता है । इसलिये वमनविरेचन के पश्चात् रोगी को शांति मिलने के लिये मोती की भस्म, सितो. पलादि चूर्ण, अभ्रक भस्म, इत्यादि पौष्टिक, हृदयोत्तेजक, बलवर्द्धक और पित्तशामक औषधियों का सेवन रोगी को कुछ दिनों तक करना चाहिये ।
‘भूमंडल पर अस्तित्व में आये हुये किसी भी चिकित्सा शास्त्र में अभी तक ऐसी औषधि की खोज नहीं हुई जिसकी सिर्फ एक या दो मात्रा में लेने से ही भयानक निमोनिया का रोग नष्ट हो जाय । परन्तु परमात्मा की कृपा से अभी ही यह औषधि हाथ लगी और इसका प्रयोग करने पर यह अक्सीर मालूम हुई है।
• ऊपर हमने रामेठा नामक वनस्पति के सम्बन्ध में ‘जंगलनी जड़ी बूटी’ नामक ग्रन्थ का उदाहरण दिया है । इसी प्रकार सन् १९१५ के वैद्य कल्पतरु में भी इस वनस्पति के सम्बन्ध में कुछ चर्चा हुई थी । बंबई की वैद्य सभा के समक्ष जामनगर के प्रोफेसर हीरजी माधवजी ने भी इस वनस्पति का विवेचन करते हुये बतलाया था कि इस वनस्पति की शाखाए झीपटे के समान होती हैं । अपामार्ग की डाली में जैसी गठाने होती हैं वैसी गठानें इसकी शाखाओं में भी होती हैं । यह वनस्पति दक्षिण प्रान्त में बहुत अधिक होती है । इस वनस्पति का दातोन करने से दाँत की सारी बत्तीसी ढीली होकर गिर जाती है । अगर किसी को कोई दाँत गिराना हो तो उस दाँत के पास उतने ही भाग में इस वनस्पति की डाली की सावधानी के साथ घिसने से वह दाँत बिना किसी प्रकार की तकलीफ के बाहर निकल आता है । इसी प्रकार अगर इस वनस्पति को जलाकर इसकी राख भी दाँत पर लगाई जाय तो भी उससे दाँत निकल आते हैं ।
• इसके पश्चात् सुप्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री जयकृष्ण इन्द्रजी ने भी वैद्य कल्पतरु में इस वनस्पति के सम्बन्ध में कुछ चच की थी। उन्होंने लिखा था किः –
‘वनस्पति शास्त्र के अनुसार रामेठा थाईमिलेसी ( Thymelaceae ) नामक वर्ग की वनस्पति है। इस वनस्पति का लेटिन नाम लेसियोसीफोन इरियोसिफैलस है । इस वर्ग में करीब ३६० भिन्न-भिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ पैदा होती हैं। इनमें से करीब २० जातियाँ भारतवर्ष में भी पैदा होती हैं।’
‘सिद्ध मंत्र निघंटु में इस वनस्पति का संस्कृत नाम दग्धा, दग्धारुहा, दग्धिका, रोमशा, कर्कशदला, इत्यादि लिखे हैं।’
‘यह वनस्पति दाँतों को गिराती हैं या नहीं इस विषय का प्रत्यक्ष अनुभव हमको नहीं है । पर कांगरा गजेटियर में लिखा है कि इसकी लकड़ी और इसकी राख दांतों का नाश कर देती है। इसी भय से यहाँ के देशी लोग इसका उपयोग करने से बहुत डरते हैं ।
• सर जे० पेक्रटन कहते हैं कि इस वर्ग की वनस्पतियों की छाल इतनी दाहक ( Cawstic ) होती है कि अगर इसको दाँतों के नीचे चाबी जाये तो बहुत वेदना उत्पन्न होती है।
• डॉक्टर बॅटलो का कथन है कि इस वर्ग की वनस्पतियाँ उनकी छाल को मजबूती और दाहक गुण के लिये प्रसिद्ध हैं । वनस्पतियों का यह वर्ग जहरीला होता है । इस वर्ग की वनस्पति डेफनी मझेरियून ब्रिटिश फारमाकोपिया में सम्मत मानी गयी हैं। मझेरियून की छाल छाला उठाने के लिये और दाँतों के रोग में लार बहाने के लिये चबाने के काम में ली जाती है । इसके अतिरिक्त एक उत्तेजक द्रव्य की तरह पसीना लाने और मूत्र बढ़ाने के लिये भी इसका उपयोग किया जाता है । इसके ये सब गुण इसमें पाई जाने वाली एक दाहक राल और एक दाहक उड़नशील तेल के ऊपर निर्भर है।
• डाक्टर खोरी का कथन है कि रामेठा की छाल का उपयोग बहुत सावधानी के साथ करना चाहिये क्योंकि अगर इसकी छाल को अधिक चबाया जाय तो दाँत की जड़ें ढीली पढ़कर सूज जाती हैं और दाँत गिरने का धोखा रहता है ।
• उपरोक्त सारे विवेचन से यह मालूम होता है कि रामेठा और रामेठा के वर्ग की तमाम वनस्पतियाँ दाहक और जहरीली होती हैं। इसका उपयोग करने में बहुत सावधानी की जरूरत होती है ।
उपरोक्त अवतरणों के होते हुये भी इस वनस्पति के सम्बन्ध में अभी तक सन्देह बना ही हुआ है।
• लेफ्टनेंट कर्नल कीतिकार और मेजर बसू इंडियन मेडिसिनल प्लांट्स’ में लिखते हैं कि यह वनस्पति एक शक्तिशाली चर्मदाहक पदार्थ है । लेकिन मनुष्य शरीर पर इसके क्या प्रभाव होते हैं यह बात विलकुल अनिश्चित है। इसकी छाल मछलियों के लिये विष का काम करती है । दक्षिण में इसके पत्ते धाव, भीतरी चोट और सूजन के ऊपर लगाने के काम में आते हैं।
और भी कुछ लोगों ने इस वनस्पति के सम्बन्ध में जानने की चेष्टा की है मगर वे किसी निश्चित परिणाम पर नहीं पहुंचे हैं। इसलिये इस वनस्पति का प्रयोग करने वालों को बहुत सावधानी से काम लेना चाहिये।
रामेठा के नुकसान :
1- इस आयुर्वेदिक औषधि को स्वय से लेना खतरनाक साबित हो सकता है।
2- रामेठा के उपयोग से पहले चिकित्सक से परामर्श करें ।
3- यह ओषधि बहुत तीव्र होती है। इसलिये छोटे बालकों और कोमल प्रकृति के मनुष्यों पर इसका उपयोग नहीं करना चाहिये । अगर किया जाय तो कुशल वैद्य के द्वारा बहुत छोटी मात्रा में इसका उपयोग करना चाहिये ।
4- इसकी ताजी छाल का रस अगर आंखों में लग जाय तो अन्धा होने का भय रहता है और यदि चमड़ी पर लग जाय तो दाह और सूजन हो जाती है। इसलिये इस वनस्पति का व्यवहार बहुत सावधानी से करना चाहिये । इतने पर भी इसका कहीं अपव्यवहार हो जाय तो इसके दर्प को नष्ट करने के लिये मक्खन और घी का प्रयोग करना चाहिये ।
5- इसकी लकड़ी और इसकी राख दांतों का नाश कर देती है।
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