Last Updated on August 29, 2019 by admin
शारीरिक और मानसिक कष्टों से बचाने वाले अमूल्य उपाय :
(१) आँख, कान और नाक वगैर – मल निकलने के स्थानों और दोनों पैरों को खूब साफ़ रखो। 15 दिनों में चार बार दाढ़ी बनाओ और नाखून कटाओ।
(२) जहाँ तक बन पड़े, कभी मैले और फटे-पुराने कपड़े मत पहनो।
(३) सदा प्रसन्न-चित्त रहो, क्योंकि प्रसन्न-चित्त मनुष्य तन्दुरुस्त और हृष्ट-पुष्ट रहता है।
(४) यथाशक्ति सुगन्धित चीजों का व्यवहार किया करो।
(५) मस्तक, नाक, कान और पैरों में नित्य तेल दिया करो।
(६) कोई काम करते-करते शरीर में थकान आये, उसके पहले ही उस काम को छोड़ दो।
(७) चिन्ता से सदा बचो। चिन्ता के समान सर्वनाशी और कुछ नहीं है। चिन्ता से बल, वीर्य और रूप आदि नष्ट हो जाते हैं। चिन्ता भी राजयक्ष्मा रोग का एक कारण है। राजयक्ष्मा ऐसा रोग है, जिसे ब्रह्मा भी आराम नहीं कर सकता; और सब बीमारियों का इलाज है; किन्तु चिन्ता की बीमारी का इलाज नहीं है। चिता मरे हुए को जलाती है, मगर चिन्ता जीते हुए को ही जला-जला कर खाक कर देती है। यदि सुख से बहुत दिन तक जीना चाहो तो चिन्ता को त्यागो।
(८) हर काम को पहले खूब विचार कर पीछे करो, जिससे पीछे पछताना और दुःखित होना न पड़े।
(९) बिना जूते पहने घर से बाहर न निकलो।
(१०) जब रास्ते में चलो, तब चार हाथ आगे देखते चलों; ताकि गाड़ी, बग्घी, घोड़ा वगैर तुम्हारे सिर पर न आ जायँ और सर्प आदि जीव-जन्तुओं पर तुम्हारा
पैर न पड़ जाय।
(११) न तो राजद्रोही बनो और न राजद्रोहियों की सुहबत(साथ) करो।
(१२) ख़राब सवारी (सवारी का साधन) पर मत चढ़ो और घुटनों के बल न बैठो, क्योंकि इनसे नसें मारी जाती हैं।
(१३) जो चारपाई छोटी और टेढ़ी-मेढ़ी हो, जिस पर ओढ़ने और बिछौने के कपड़े न हों, ऐसी चारपाई पर कभी मत सोओ।
(१४) पहाड़ या पर्वत की चोटी पर मत फिरो।
(१५) वृक्ष पर मत चढ़ो, क्योंकि उससे गिर पड़ने और मृत्यु हो जाने का भय है।
(१६) तेजी से बहने वाली नदी में स्नान मत करो।
(१७) बेर के दरख़्त(पेड़, वृक्ष) की छाया में मत बैठो।
(१८) जहाँ आग लग रही हो, वहाँ मत जाओ।
(१९) ज़ोर से अथवा खिलखिला कर कभी मत हँसो।
(२०) जब हँसना, छींकना और जमुहाई लेना हो, तो मुँह के आगे रूमाल लगा लो।
(२१) नाक मत कुरेदा करो।
(२२) दाँतों और नाखूनों को मत चबाया करो।
(२३) ज़मीन को पैर के नाखूनों से न कुरेदा करो।
(२४) आलस्य में बैठे हुए मिट्टी के ढेले न फोड़ा करो।
(२५) शरीर को सिकोड़ कर या फैला कर कोई काम न किया करो।
(२६) सूर्य और अग्नि आदि तेज ज्योति वालों के सामने न देखा करो।
(२७) रात के समय देव-मन्दिर, श्मशान और बध्य भूमि में मत रहो।
(२८) सूने मकान और सूने वन में अकेले मत जाओ और न वहाँ अकेले रहो।
(२९) अति साहस, अति निद्रा, अति जागना, बहुत स्नान करना, बहुत पानी पीना, बहुत भोजन करना और अति मैथुन करना—ये कभी मत किया करो।
(३०) ऊपर की ओर घुटने करके बहुत देर तक मत बैठो।
(३१) साँप, सिंह, चीते और गाय, भैंस आदि से दूर रहो।
(३२) पूरब की हवा, सूर्य की धूप, बर्फ, कुहरा और अत्यन्त तेज हवा से बचो।
(३३) कभी कलह मत करो।
(३४) आग की अँगीठी, खाट या पलंग के नीचे रख कर कभी मत सोओ। इस भाँति आग रखने से बहुत से लोगों की मृत्यु हो गयी हैं।
(३५) जब तक थकान और पसीना दूर न हो जाय, तब तक स्नान मत करो और जल भी न पियो।
(३६) नग्न हो कर स्नान मत करो।
(३७) जिस कपड़े को पहन कर स्नान करो, उससे माथा न पोंछो।
(३८) नहा कर पहने हुए बासी कपड़े कभी मत पहनो।
(३९) अपवित्र, अभक्त, और मूर्ख नौकरों के सामने और जहाँ बहुत से मनुष्य हों, वहाँ भोजन मत करो। ख़राब बर्तन, खोटे स्थान और कुसमय में भी भोजन मत किया करो।
(४०) शत्रु की दी हुई कोई चीज़ मत खाया करो।
(४१) रात के समय दही मत खाओ।
(४२) दिन में केवल सत्तू खा कर न रह जाओ। रात में सत्तू मत खाओ। भोजन करने के पीछे भी सत्तू न खाओ और बिना जल मिलाये भी सत्तू न खाओ।
(४३) दाँतों से खूब चबाये बिना भोजन मत करो।
(४४) शरीर को टेढ़ा करके भोजन मत करो।
(४५) टेढ़ी देह करके मत सोओ, और टेढ़ी देह से छींक भी मत लो।
(४६) मल-मूत्र के वेग को रोक कर कोई काम न करो, अर्थात् कोई काम करते-करते पेशाब या पाख़ाने की हाजत हो जाय, तो काम छोड़ दो और पहले उनसे
फारिग हो लो।
(४७) अग्नि, जल, सूर्य और गुरु के सामने न तो थूको और न मल-मूत्र त्याग करो।
(४८) स्त्री की अवज्ञा भी न करो और उसका अत्यन्त विश्वास भी मत करो। छिपी रखने योग्य बात स्त्री से कभी मत कहो। स्त्री को घर की मालकिन बनाओ; किन्तु उसे कुल अख्तियार(अधिकार) मत दे दो।
(४९) देवता की छत्री, चौराहा, उपवन, श्मशान, बध्य स्थान, जल और देवालय आदि में मैथुन न करना चाहिये।
(५०) बूढों की ,राजा की ,गुरु की ,बहुत मनुष्यों के दल की निंदा न करों ।
(५१) भूकम्प होने के समय, बिजली चमकते समय, बड़े भारी उत्सव के समय, तारे टूटने के समय, ग्रहण लगने के समय, प्रात:काल और सन्ध्या समय न पढ़ो न पढ़ाओ।
(५२) बहुत जोर से चिल्ला-चिल्ला कर, बहुत धीरे-धीरे और बहुत जल्दी-जल्दी मत पढ़ो।
(५३) रात के समय अनजानी जगह में मत फिरो।
(५४) भोजन, पढ़ना-पढ़ाना, स्त्री-प्रसंग और सोना—ये काम शाम के वक्त कभी मत करो।
(५५) बालक, बूढ़े, लोभी, मूर्ख, रोगी और नपुंसक-नामर्द से मित्रता न करो।
(५६) शराब कभी मत पियो। कहते हैं, “शराब-मुँह लगी ख़राब”। शराब पीने से उम्र घटती है और धन का नाश होता है। भले आदमी इसे कभी नहीं पीते।
(५७) जूआ मत खेलो। जूआ खेलना बहुत ही बुरा काम है। जूआ खेल कर कोई धनवान नहीं हुआ। जूआ खेलने वाले राजा नल और महाराज युधिष्ठिर ने घोर कष्ट भोगा, राज-पाट गँवा कर वन-वन खाक छानते डोले।
(५८) अपने अन्त:करण की या अपने मन की गुप्त बात न तो भाई से कहो, न मित्र से कहो; यहाँ तक कि अपनी परम प्यारी स्त्री से भी न कहो। ऋषियों की लिखी हुई इस बात की हम अक्षर-अक्षर परीक्षा कर चुके हैं। ज़माना ऐसा खोटा आ गया है, कि बाप, भाई, मित्र आदि कोई भी विश्वास योग्य नहीं। किसी से भी अपनी गुप्त बात कहने में लाभ नहीं है। बाप, भाई, मित्र प्रभृति पहले तो गुप्त बात को सुनते हैं और विश्वासघात न करने की कसम तक खा जाते हैं; लेकिन आपत्तिकाल में वही बाप, भाई, मित्र आदि अपनी गुप्त बात कहने वाले की स्वाधीनता पर पानी फेरते हैं और बेचारे को क़दम-कदम पर घोर कष्ट देते हैं; इस वास्ते बुद्धिमान, भूल कर भी, अपने मन की बात मानवमात्र से न कहे। हमारा काम तो सैकड़ों आदमियों से पड़ा; करीब-करीब सब ही विश्वासघातक मिले।
(५९) किसी का अपमान कभी मत करो।
(६०) किसी के अच्छे काम में वृथा दोष न निकालो। अगर उसके दोषों का बखान करो, तो उसके गुणों का वर्णन करना भी न भूलो। स्तनों पर लगी हुई जोंक जिस तरह अच्छे दूध को त्याग कर मैला खून पीती है, उसी तरह किसी के ऐब-ही-ऐब मत ढूँढो। जिसमें कुछ ऐब होता है, उसमें कुछ-न-कुछ गुण भी अवश्य होता है। संसार में यही बात नज़र आती है। केवल ऐबों की तरफ ध्यान देना दुर्जनों का स्वभाव है । सज्जनों का स्वभाव इसके विपरीत होता है ।
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