Last Updated on November 21, 2019 by admin
कुष्ठ (कोढ़) रोग के कारण : kushth rog (kod) kaise hota hai
यह रोग ‘बेसिलस लेप्रो” (Bacillus Leproe) नामक कीड़े से उत्पन्न होता है, जो शरीर में नाक, मुँह, फटी हुई त्वचा या ‘जननेन्द्रियों” द्वारा प्रविष्ट हो जाते हैं। यह रोग सम्पर्क द्वारा रोगी से दूसरे स्वस्थ व्यक्तियों को लग जाता है। गरीबी, क्षुधार्त्तता, गन्दी या घनी बस्तियों में रहना, आदि इस रोग के प्रसार में सहायक हैं। | यह एक जीर्ण संक्रामक रोग है जो 30 वर्ष की आयु से पूर्व प्रारम्भ होता है। यह रोग ‘स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों को अधिक होता है। जिसको एक बार ‘कुष्ठ हो जाये, वह आजीवन -‘कुष्ठी’ ही रहता है। यह छूत से एक दूसरे को लग सकता है, किन्तु ‘पैत्रिक रोग’ नहीं है। यह कोचीन केरल, वर्मा, आसाम और समुद्र के किनारों पर रहने वालों को अधिक होता है। इस रोग के विशेष प्रकार के कीटाणु को ‘माइको बैकटैरियम-लेपराई’ (Myco-Bacterium Leprae) तथा डाक्टरी में इस रोग को हैन्सेनंस डिजीज” (Hensen’s Disease) भी कहा जाता है।
प्राचीन काल में इस रोग को सख्त संक्रामक रोग समझा जाता था किन्तु आधुनिक विद्वान आचार्यों की खोजानुसार-यह कीटाणु से होने वाले दूसरे समस्त रोगों में सबसे कम संक्रामक है। यह रोग वंशज भी नहीं कहा जा सकता है। यदि कुष्ठ से पीड़ित माता के बच्चे को पैदा होते ही उससे अलग कर लिया जाये तो बच्चे को यह रोग नहीं हो पाता है। यह अनेक प्रकार का होता है। जिसका उल्लेख निम्न प्रकार है।
कुष्ठ (कोढ़) रोग के प्रकार : kushth rog (kod) ke prakar
1. संज्ञाहीन कोढ़ (Neutral Leprosy) यह रोग गर्म देशों में होता है।
2. गुठली वाला कोढ़ (Lepromatous) यह कोढ़ सर्द देशों में अधिक होता है। इसको ‘‘उभार वाला कुष्ठ रोग भी कहते हैं।
3. मिश्रित कुष्ठ (Mixed Leprosy) इसमें पहले दोनों प्रकार के लक्षण मिले-जुले रहते हैं।
4. अंसवेदी कुष्ठ (Anaesthetic Leprosy)
5. मध्यवर्ती कुष्ठ (Barder line form of Leprosy)
6. उभयरूपी कुष्ठ (Dimoriphous form of Leprosy)
7. अनिर्धारित कुष्ठ (Indeterminate Leprosy)
8. असम्वेदी चित्ती कुष्ठ Maculoanaesthetic Leprosy)
9. वृहत टयूबरकुलाइड कुष्ठ या बृद्ध यक्ष्मिका कुष्ठ(Major Tuberculaid Leprosy)
10. लघु यक्ष्मिकाभ कुष्ठ या लघु टयूबरकुलाइड कुष्ठ(Minimum Th-ber culaid Leprosy)
11. एक तन्त्रिकी कुष्ठ (Mononeuritic from of Leprosy)
12. बहुतन्त्रिकी कुष्ठ (Polyneuritic from of Leprosy)
13.तन्त्रिकी कुष्ठ(Neural Leprosy.)
14. गुलिकाभया यक्ष्मिकाभ कुष्ठ (Tuberculaid Leprosy)
कुष्ठ (कोढ़) रोग के लक्षण : kushth rog ke lakshan
लक्षणों के अनुसार कुष्ठ के तीन भेद
1. ग्रन्थिल कुष्ठ : इस जाति के कुष्ठ रोगों में पहले बदन में जगह-जगह लाल रंग की जुलपित्ती (जिसमें बहुत दर्द रहता है।) या लाल रंग की फुन्सियां | दिखलायी देती हैं। इसके बाद उन गाँठों का मुख खुल जाता है और वहाँ गहरा जख्म | हो जाता है। पलकें, भौंह, हाथ-पैर आदि की अंगुलियाँ, नाक की श्लैष्मिक झिल्ली,आदि अंग सड़कर गिरने लगते हैं तथा कभी-कभी फेफड़ों में जलन और प्रदाह होकर रोगी मर जाता है।
2. वातिक कुष्ठ : इस रोग में सभी स्नायुओं पर आक्रमण होता है। शरीर में हर जगह सम्वेदना अधिक होती है। इसके बाद वहाँ का चमड़ा मुर्दा हो जाता है। (अनुभव करने की शक्ति नष्ट हो जाती है।) बड़े-बड़े फफोले पैदा हो जाते है। पेशियाँ पतली पड़कर पक्षाघात” भी हो सकता है।
3. मिश्रित कुष्ठ : इसमें ‘ग्रन्थिल’ और ‘वातिक’ दोनों प्रकार के कुष्ठों के लक्षण उपस्थित होते हैं। कभी-कभी ‘वातिक कुष्ठ’ के लक्षण पहले तथा कभी कभी ‘ग्रन्थिल कुष्ठ’ के लक्षण पहले प्रारम्भ हुआ करते हैं।
रोगी की नाक के अन्दर की श्लैष्मिक-कला खुरच कर परीक्षा करें। यदि उसमें ‘वेसीलस लेप्रा’ हो तो रोगी को अवश्य ही ‘कोढ़’ होगा। ‘ग्रन्थिक कुष्ठ’ में रोगी 2 से 10 वर्ष के अन्दर- मर जाया करता है। साधारणतया और औसत काल 6 साल है।’वातिक कुष्ठ’ का रोगी 10 से 20 वर्ष तक जीवित रहता है। ।
नोटः-इस रोग का “चम्बल’ (सोरायसिस) (अपरस) तथा श्वेत कुष्ठ (सफेद दाग) से अन्तर जानना आवश्यक है। ‘चम्बल’ के दागों का चर्म कोढ़ की भांति संज्ञाहीन (सुन्न) नहीं होता है और न ही कुष्ठ की भांति चर्म अधिक उभरा हुआ होता है, कुष्ठ का स्थान का चर्म हमेशा शुष्क रहता है। ‘श्वेत कुष्ठ’ के धब्बे कुष्ठ की भाँति सुन्न नहीं होते तथा धब्बों के किनारे साफ रहते हैं।
कुष्ठ (कोढ़) रोग में क्या नहीं खाना चाहिए : kushth rog me kya nahi khaye
1) वातकारी, (वादी, गुरु तथा उष्ण) जैसे-आलू, बैंगन, मसूर की दाल, मांस, मछली, कबाब, लाल मिर्च, कचालू आदि बिल्कुल न खिलायें।
2) रोगी को साफ सुथरा तथा अलग रखें। स्वस्थ मनुष्य को रोगी के पास बैठने, खाने-पीने न दें। तथा न ही उसके कपड़ों का प्रयोग करने दें। किन्तु रोगी से ‘घृणा’ भी न करें।
3) मूल कारणों को दूर करें।
कुष्ठ (कोढ़) रोग में क्या खाना चाहिए : kushth rog me kya khaye
1) विरेचन काल में केवल मूंग की दाल की नरम (गीली) खिचड़ी (जिसमें दाल 2 हिस्सा तथा चावल 1 हिस्सा हो) एक समय-तीसरे पहर खिलायें।
2) इसके अलावा चपाती के साथ शीतल साग, कददू, तुरई, कुलफा, पालक, मूंग की दाल, दूध, मक्खन, घी, आदि वस्तुएँ रोगी की पाचन-शक्ति के अनुसार दें।
3) मानसिक अवस्था सुधारें। ‘आयरन’ एवं ‘कैल्शियम’ की वस्तुएँ अधिक दें।
4) इसमें खाने तथा लगाने की दोनों दवाऐं एक साथ प्रयोग करनी चाहिए। इस रोग में मुख द्वारा दवाएँ खिलाने के बदले सूचीवेधों से शीघ्र लाभ होता है। आइये जाने कुष्ठ रोग (कोढ़) के उपचार के बारे में | kusht rog ka ilaj hindi me
कुष्ठ रोग (कोढ़) का घरेलू उपचार : kusht rog ka gharelu ilaj
1) चाल मोंगरा का तेल 4 से 2 ड्राम तक नित्य गर्म दूध से कई साल तक धैर्य पूर्वक सेवन कराने से अवश्य लाभ होता है। चाल मोंगरा का तैल 5 बूंद कैपसूल में बन्द करके दिन में 3 बार भोजन के बाद दें। धीरे-धीरे मात्रा 10 बूंदों तक पहुँचा दें। यदि यह तैल रोगी को न पचे और उसका जी मिचलाये या उल्टी आये तो चाल मोगरा का सत मेग्नेशियम गाईनो कारडेट (Magnesium Gyno Cardate) 125 से 200 मि.ग्रा. तक दिन में 3 बार खिलायें। ( और पढ़ें – कुष्ठ रोग के 84 घरेलु उपाय )
2) चाल मोगरा का तैल तथा नीम का तैल समभाग मिलाकर कुष्ठ के घावों पर दिन में 2-3 बार लगायें। भांगरा और बाकुची का चूर्ण 6 ग्राम पानी के साथ सेवन करने से तथा इसी चूर्ण का 21 दिन तक लेप करने से कुष्ठ रोग जड़ से नष्ट हो जाता है। नमक का सेवन प्रयोगकाल में वर्जित है। लाभ 21 दिन में हो जाता है। ( और पढ़ें – नीम अर्क के फायदे )
3) विजयसार की लकड़ी 8 ग्राम का काढ़ा पीने से कुष्ठ रोग नष्ट हो जाता है।
4) नीम के पत्तों को जल में उबालकर स्नान करने तथा गाय के दूध में 3 ग्राम नीम के पत्तों को पीसकर 2-3 माह तक सेवन करने से रक्तपित्त एवं कुष्ठ रोग नष्ट हो जाता है। कुष्ठ रोगी को रात्रि में नीम के वृक्ष के नीचे सोना परम लाभदायक है।
5) आक की जड़ 10 ग्राम जौकुटकर 400 ग्राम जल अष्टमांश क्वाथ कर कुछ दिनों के नियमित सेवन से गलित कुष्ठ की पूर्णावस्था (हाथ पैर की अंगुलियां जकड़ गई हों तथा नासिका एवं मुख मन्डल सूज गया हो) में भी लाभ होता है। ( और पढ़ें – आक के 22 चमत्कारी आयुर्वेदिक प्रयोग )
6) आक की जड़ की छाल का चूर्ण 2-2 रत्ती की मात्रा में समभाग सौंठ चूर्ण मिलाकर शहद के साथ नित्य 3 बार के सेवन से तथा इसी की छाल का सिरके में पीसकर पतला-पतला लेप करने से कुष्ठ में लाभ हो जाता है।
7) काली जीरी के साथ समभाग काले तिल पीसकर 4 ग्राम की मात्रा में सुखोष्ण जल के साथ दीर्घकाल तक सेवन कराने से कुष्ठ नष्ट हो जाता है।
8) आमला तथा नीम पत्र (समभाग) का महीन चूर्ण 2 से 6 या 10 ग्राम तक नित्य शहद के साथ सेवन करने से गलित कुष्ठ में लाभ होता है। ( और पढ़ें – आँवला रस के 16 बड़े फायदे )
9) चम्पा की छाल का चूर्ण 3 ग्राम तक दिन में 3 बार जल के साथ 2 से 6 माह तक सेवन कराने से कीटाणु नष्ट होकर सर्व प्रकार के कुष्ठ तथा अन्य चर्म विकार नष्ट हो जाते हैं।
10) निर्गुन्डी के ताजे पत्तों को 10 ग्राम की मात्रा में पीसकर 200 ग्राम जल में मिलाकर प्रातः काल खाली पेट रोगी को लगातर कुछ दिनों पिलाते रहने से कुष्ठ के स्राव-युक्त व्रण सूख जाते हैं। साथ ही इसी के ताजे पत्तों को बिना पानी के पीसकर व्रणों पर नित्य लगाते रहने से वह शीघ्र भर जाते है। ( और पढ़ें –निर्गुण्डी के 55 चमत्कारी फायदे )
11) कुष्ठ रोगी को प्रथम दिन 1 दूसरे दिन 2 इसी प्रकार क्रमशः 100 नीम की गिरी खिलाने तथा बाद में 1-1 कम करके पुनः 1 पर आ जाने पर सेवन बन्द करने से तथा प्रयोगकाल में चने के बेसन की घृत युक्त रोटी खाने से लाभ हो जाता है। प्रयोगकाल में नमक बिल्कुल बन्द रखें।
12) मेहन्दी के 75 ग्राम पत्तों को रात भर पानी में भिगोकर सुबह मसल के छानकर पीने से 40 दिनों में कुष्ठ में लाभ होने लगता है।
13) बाबचीं तथा तिल एकत्र मिलाकर 4-6 ग्राम तक प्रातः सायं शीतल जल के साथ 1 वर्ष पर्यन्त सेवन करने से सभी प्रकार के कुष्ठों में लाभ हो जाता है।
14) बाकुची के बीज के साथ श्वेत मूसली तथा चित्रक समभाग एकत्रकर चूर्ण बनाकर 3 से 6 ग्राम की मात्रा में मधु के साथ सेवन करने से सभी प्रकार के कुष्ठों में लाभ होता है।
15) चाल मोंगरा का तैल 4 ग्राम को सादा वैसलीन 25 ग्राम में फेंटकर कुष्ठ के घावों पर लगाने से लाभ होता है।
16) बालकों को होने वाला मन्डल कुष्ठ जिसमें मृदु गाँठे उत्पन्न होती हैं। ऐसे नये रोग पर कूट के साथ धनिये को पीसकर दिन में 2-3 बार लेप करने से लाभ होता है।
17) रोज कनेर के पत्तों के उबाले जल से स्नान तथा शक्ति एवं इच्छानुसार इसी जल को पीने से 3-4 माह में ही कुष्ठ में लाभ हो जाता है।
कुष्ठ रोग का आयुर्वेदिक इलाज : kusht rog ka ayurvedic ilaj
कुष्ठ रोग सभी त्रिदोषज होते हैं। अत: लक्षणों से दोषों के बलाबल को देखकर प्रथम अग्रणी दोष की फिर अनुबन्ध दोष की चिकित्सा करनी चाहिए। वात प्रधान कुष्ठ में-सिद्ध घृत, कफ प्रधान में वमन, पित्त प्रधान में-रक्त मोक्षण, विशेषत: पहले. विरेचन देकर कराना चाहिए। यदि साधारण कुष्ठ हो तो जौंक आदि से, यदि गहरा कुष्ठ हो तो शिरावेध करके दूषित रक्त निकाल देना चाहिए।
यदि कुष्ठ रोगी बहुत दोष वाला हो तो प्राणबल की रक्षा करते हुए थोड़ा-थोड़ा करके अनेक बार में संशोधन कराना चाहिए। कोष्ठ शुद्धि करके रक्तमोक्षण कर लेने पर स्नेहपान कुछ दिन कराना चाहिए। प्रारम्भ में पंचकर्म द्वारा पूर्ण शोधन करने
के बाद भी शोधन कर्म बन्द नहीं कराना चाहिए। क्योंकि-कुष्ठ रोग बहुत समय लेता है अतः 15-15 दिन पर वमन, 1-1 माह पर विरेचन, 9-9 माह पर थोड़ा-थोड़ा करके रक्त मोक्षण तथा 3-3 दिनों पर शिरोविरेचन कराते रहना चाहिए।
कुष्ठ रोग की आयुर्वेदिक दवा : kusht rog ki ayurvedic dawa
कुष्ठ रोग नाशक प्रमुख पेटेन्ट शास्त्रीय योग
1. रस- कुष्ठ कुठार रस- 250 मि.ग्रा. दिन में 2 बार अमृता स्वरस से दें। | सभी प्रकार के कुष्ठों में परम उपयोगी है।
2. गलित्कुष्ठारि रस- मात्रा उपरोक्त अनन्तमूल,क्वाथ से दें। गलित कुष्ठ में उपयोगी है।
3. उदय भास्कर रस- 125 मि.ग्रा. दिन में 2 बार निम्बफले क्वाथ से। सभी प्रकार के कुष्ठों में उपयोगी है।
4. तालकेशर रस- 125 से 250 मि.ग्रा. तक दिन में 2 बार। हरिद्राद्वय क्वाथ से। सभी प्रकार के कुष्ठ में उपयोगी।
5. मामणिक्य रस- मात्रा उपर्युक्त। मधु+घृत (विसम मात्रा में) के. अनुपान से। लाभ उपर्युक्त।
6. सर्वेश्वर रस- मात्रा+लाभ उपर्युक्त। वाकुची+देवदारु+एरन्ड-स्नेह | (अनुपान) से।
7. श्वेतारि रस- 250 मि.ग्रा. दिन में 2 बार मधु+घृत से। श्वित्र नाशक।
8. कुष्ठ कालानल रस-मात्रा उपर्युक्त । मधु से दें। सभी प्रकार के कुष्ठों में उपयोगी है।
9. अहिबध रस- 125 मि.ग्रा. दिन में 2 बार, महामंजिष्ठादि क्वाथ से दें।
10. त्रैलोक्य चिन्तामणि रस–मात्रा, अनुपान उपर्युक्त । कफजन्य कुष्ठ | में विशेष उपयोगी।
11. व्याधि हरण रसायन- 60 मि.ग्रा दिन में 2 बार। तिक्तक घृत से। उपदंश जन्य कुष्ठ में।
12. मल्लसिन्दूर- मात्रा, अपुपान विशेष लाभ उपर्युक्त।
13. तोल सिन्दूर- मात्रा, अनुपान उपर्युक्त। वात-कफजन्य कुष्ठ मे विशेष उपयोगी है।
14. गन्धक रसायन- 250 मि.ग्रा. दिन में 2 बार, मंजिष्ठा खदिर क्वाथ से।
15. शिलासिन्दूर- 125 मि.ग्रा. दिन में 2 बार, अनुपान उपर्युक्त । कफजन्य कुष्ठ में विशेष उपयोगी।
• तुत्थ भस्म- 15 से 30 मि.ग्रा. दिन में 2 बार, मुनक्का में रखकर निगलें। शरीर शोधन हेतु।।
• बंग भस्म- 125-250 मि.ग्रा. दिन में 2 बार, निर्गुन्डी स्वरस से दें।
• ताल भस्म- 60-120 मि.ग्रा. दिन में 2 बार, अमृतासत्व+अमृतास्वरस से वातकफ जन्य कुष्ठ में।
• पित्तल रसायन- 60-120 मि.ग्रा. दिन में 2 बार पंचतिक्त क्वाथ से। श्वित्रनाशक है।
• कासीस भस्म- 250 मि.ग्रा. दिन में 2 बार पंचतिक्त क्वाथ से। श्वित्र (कुष्ठ) नाशक है।
• नीलरत्न भस्म- 60 से 120 मि.ग्रा. दिन में 2 बार, मधु से दें। रक्त प्रसादक है।
• स्वर्ण भस्म- 60. मि.ग्रा. दिन में 2 बार, पद्मकेशर+मधु से। जन्तुघ्न, पित्तशामक, व रक्त प्रसादक है।
• हरताल सत्व- 15-30 मि.ग्रा. दिन में 2 बार, सिता+मधु से। वात-कफ जन्य कुष्ठ में विशेष उपयोगी।
• लौह सत्व- 125-250 मि.ग्रा. दिन में 2 बार, अमृता स्वरस से। पित्तजन्य कुष्ठ में विशेष उपयोगी।
• पंच चूर्ण- 5-10 मि.ग्रा. दिन में 2 बार, खदिरत्वक क्वाथ से।
• नारसिंह चूर्ण- 2-3 ग्राम दिन में 2 बार, दुग्ध से। वातिक कुष्ठ में परम उपयोगी है।
• मंजिष्ठादि चूर्ण- 5-10 ग्राम दिन में 2 बार, सारिवादिमहिम से दें। पित्तज कुष्ठ में परम उपयोगी है।
• नारायण चूर्ण- मात्रा उपर्युक्त जल से दें। कोष्ठ शोधनार्थ ।
• आरोग्यबर्द्धिनी वटी- 1-4 गोली दिन में 2 बार। सर्वप्रथम के कुष्ठों में जल से दें।
• सर्वांग सुन्दरी वटी– मात्रा, अनुमान उपर्युक्त । ऋण्यसिध्म व श्वेत कुष्ठ में विशेष उपयोगी।
• मल्लादि वटी- 1 वटी दिन में 2 बार, ताम्बूल में रखकर खिलायें। उपदंशजन्य कुष्ठ में।
• संशमनी वटी- 2-4 वटी दिन में 2 बार, सिता+मधु से। पित्त जन्य कुष्ठ
• शशिलेखा वटी- 1-2 वटी दिन में 2 बार । खदिरत्वक कषाय से। श्वित्रनाशक है।
• कैशोर गुग्गुल-1-4 वटी दिन में 2 बार मंजिष्ठादि क्वाथ से। सभी प्रकार के कुष्ठों में दें।
• अमृता गुग्गुल- मात्रा, अनुपान एवं विशेष लाभ उपर्युक्त।
• स्वायंभुव गुग्गुल-मात्रा, अनुपान उपर्युक्त । वातज महाकुष्ठ में परमोपयोगी
• पंचतिक्त घृत गुग्गुल- 5-10 ग्राम दिन में 2 बार दुग्ध से वातज महाकुष्ठ में परमोपयोगी है।
• मंजिष्ठादि क्वाथ- 20 से 40 ग्राम क्वाथ कर दिन में 2 बार दें। सभी प्रकार के कुष्ठों में परम उपयोगी है।
• महा मंजिष्ठादि क्वाथ- 20 से 40 ग्राम क्वाथ कर दिन में 2 बार दें। सभी प्रकार के कुष्ठों में परम उपयोगी है।
• पटोल मूलादि क्वाथ- 20 से 40 ग्राम क्वाथ कर दिन में 2 बार दें। सभी प्रकार के कुष्ठों में परम उपयोगी है।
घृत – (1) महातिक्त घृत, महाखदिर घृत, सोमराजी घृत, तिक्तषट पलक घृत, आदि 5 से 10 ग्राम दिन में 1-2 बार दुग्ध से दें। यह सभी घृत सभी प्रकार के कुष्ठों में उपयोगी है।
आसव- अरिष्ट-खदिरारिष्ट, महातिक्तासव, मंजिष्ठाअरिष्ट, सारिवाद्यासव आदि 15-20 मि.ली. समान मात्रा में जल मिलाकर भोजनोपरान्त में से सभी आसव व अरिष्ट सभी प्रकार के कुष्ठों में परम उपयोगी है।
लेप- करवीरादिलेप, मनः शिलादिलेप, करन्जादिलेप, हरीतक्यादि लेप, शैलयादि लेप, विषादि लेप, पारदादि लेप, चित्रकादि लेप, मरिचादि लेप, गन्धपापाणादि लेप आदि का यथा समय व यथेष्ट जल में पीसकर लेप करें।
तैल- महासिन्दूर तैल, कुष्ठ राक्षस तैल, कुष्ठ कालानल तैल, महा-मरिच्यादि तैल, कन्दर्पसार तैल, सोमराजी तैल, महापिन्ड तैल, कनकक्षीरी तैल, गुंजादि तैल, करवीर तैल, वज्रक तैल, विष तैल आदि का प्रयोग अभ्यांगार्थ करायें।
नोट :- किसी भी औषधि या जानकारी को व्यावहारिक रूप में आजमाने से पहले अपने चिकित्सक या सम्बंधित क्षेत्र के विशेषज्ञ से राय अवश्य ले यह नितांत जरूरी है ।