Last Updated on November 15, 2019 by admin
संसार में प्रत्येक व्यक्ति आरोग्य और दीर्घ जीवन की इच्छा रखता है। चाहे किसी के पास कितने ही सांसारिक सुख-वैभव और भोग-सामग्रियाँ क्यों न हों, पर यदि वह स्वस्थ नहीं है तो उसके लिए वे सब साधन सामग्रियाँ व्यर्थ हैं। आरोग्य-शास्त्र के आचार्यों ने उत्तम स्वास्थ्य के लिए मूल चार बाते बतलायी हैं- आहार, श्रम, विश्राम और ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य के विषय में भगवान धन्वंतरी ने कहा हैः ‘जो शांति-कांति, स्मृति, ज्ञान, आरोग्य और उत्तम संतति चाहता हो उसे संसार के सर्वोत्तम धर्म ‘ब्रह्मचर्य’ का पालन करना चाहिए। आयुर्वेद के आचार्य वाग्भट्ट का कथन हैः ‘संसार में जितना सुख है वह आयु के अधीन है और आयु ब्रह्मचर्य के अधीन है। आयुर्वेद के आदि ग्रन्थ ‘चरक संहिता’ में ब्रह्मचर्य को सांसारिक सुख का साधन ही नहीं, मोक्ष का दाता भी बताया गया हैः
सत्तामुपासनं सम्यगसतां परिवर्जनम्।
ब्रह्मचर्योपवासश्च नियमाश्च पृथग्विधाः।।
‘सज्जनों की सेवा, दुर्जनों का त्याग, ब्रह्मचर्य, उपवास, धर्मशास्त्र के नियमों का ज्ञान और अभ्यास आत्मकल्याण का मार्ग है।’
(दू.भा. 143)
आयुर्वेद के महान आचार्यों ने सभी श्रेणियों के मनुष्यों को चेतावनी दी है कि यदि वे अपने स्वास्थ्य और आरोग्य को स्थिर रखते हुए सुखी जीवन व्यतीत करने के इच्छुक हैं तो प्रयत्नपूर्वक वीर्यरक्षा करें। वीर्य एक ऐसी पूँजी है, जिसे बाजार से खरीदा नहीं जा सकता, जिसके अपव्यय से व्यक्ति इतना दरिद्र बन जाता है कि प्रकृति भी उसके ऊपर दया नहीं करती। उसका आरोग्य लुट जाता है और आयु क्षीण हो जाती है। यह पूँजी कोई उधार नहीं दे सकता। इसकी भिक्षा नहीं माँगी जा सकती। अतः सावधान !
जो नवयुवक सिनेमा देखकर, कामविकार बढ़ानेवाली पुस्तकें पढ़कर या अनुभवहीन लोगों की दलीलें सुनकर स्वयं भी ब्रह्मचर्य को निरर्थक कहने लगते हैं, वे अपने चारों तरफ निगाह दौड़ाकर अपने साथियों की दशा देखें। उनमें से हजारों जवानी में ही शक्तिहीनता का अनुभव करके ताकत की दवाएँ या टॉनिक आदि ढूँढने लगते हैं। हजारों ऐसे भी हैं जो भयंकर रोगों के शिकार होकर अपने जीवन को बरबाद कर लेते हैं।
नेत्र व कपोल अंदर धंस जाना, कोई रोग न होने पर भी शरीर का जर्जर, ढीला सा रहना, गालों में झाँई-मुँहासे, काले चकते पड़ना, जोड़ों में दर्द, तलवे तथा हथेली पसीजना, अपच और कब्जियत, रीढ़ की हड्डी का झुक जाना, एकाएक आँखों के सामने अँधेरा छा जाना, मूर्छा आ जाना, छाती के मध्य भाग का अंदर धंस जाना, हड्डियाँ दिखना, आवाज का रूखा और अप्रिय बन जाना, सिर, कमर तथा छाती में दर्द उत्पन्न होना – ये वे शारीरिक विकार हैं जो वीर्य रक्षा न करने वाले युवकों में पाये जाते हैं।
धिक्कार है उस पापमय जिंदगी पर, जो मक्खियों की तरह पाप कि विष्ठा के ऊपर भिनभिनाने में और विषय-भोगों में व्यतीत होती है ! जिस तत्त्व को शरीर का राजा कहा जाता है और बल, ओज, तेज, साहस, उत्साह आदि सब जिससे स्थिर रहते हैं, उसको नष्ट करके ब्रह्मचर्य को निरर्थक तथा अवैज्ञानिक कहने वाले अभागे लोग जीवन में सुख-शांति और सफलता किस प्रकार पा सकेंगे ? ऐसे लोग निश्चय ही दुराचारी, दुर्गुणी, शठ, लम्पट बनकर अपना जीवन नष्ट करते हैं और जिस समाज में रहते हैं उसे भी तरह-तरह के षड्यंत्रों द्वारा नीचे गिराते हैं।
चारित्रिक पतन के कारणों में अश्लील साहित्य का भी हाथ है। निम्न प्रवृत्तियों के अनेक लेखक चारित्र की गरिमा को बिल्कुल भुला बैठे हैं। आज लेखकों को एक ऐसी श्रेणी पैदा हो गयी है जो यौन दुराचार तथा कामुकता की बातों का यथातथ्य वर्णन करने में ही अपनी विशेषता मानती है। इस प्रकार की पुस्तकों तथा पत्रिकाओं का पठन युवकों के लिए बहुत घातक होता है। बड़े नगरों में कुछ पुस्तक विक्रेता सड़कों पर अश्लील चित्र एवं पुस्तकें बेचते हैं। अखबारों के रंगीन पृष्ठों पर ऐसे चित्र छापे जाते हैं जिन्हें देखकर बेशर्मी भी शरमा जाय।
जीवन के जिस क्षेत्र में देखिये, सिनेमा का कुप्रभाव दृष्टिगोचर होता है। सिनेमा तो शैतान का जादू, कुमार्ग का कुआँ, कुत्सित कल्पनाओं का भण्डार है। मनोरंजन के नाम पर स्त्रियों के अर्धनग्न अंगों का प्रदर्शन करके, अश्लीलतापूर्ण गाने और नाच दिखाकर विद्यार्थियों तथा युवक-युवतियों में जिन वासनाओं और कुप्रवृत्तियों को भड़काया जाता है जिससे उनका नैतिक स्तर चरमरा जाता है। किशोरों, युवकों तथा विद्यार्थियों का जितना पतन सिनेमा ने किया है, उतना अन्य किसी ने नहीं किया।
छोटे-छोटे बच्चे बीड़ी-सिगरेट फूँकते हैं, पानमसाला खाते हैं। सिनेमा में भद्दे गाने गाते हैं, कुचेष्टाएँ करते फिरते हैं। पापाचरण में डालते हैं। वीर्यनाश का फल उस समय तो विदित नहीं होता परंतु कुछ आयु बढ़ने पर उनके मोह का पर्दा हटता है। फिर वे अपने अज्ञान के लिए पश्चाताप करते हैं। ऐसे बूढ़े नवयुवक आज गली-गली में वीर्यवर्धक चूरन, चटनी, माजून, गोलियाँ ढूँढते फिरते हैं लेकिन उन्हें घोर निराशा ही हाथ लगती है। वे ठगे जाते हैं। अतः प्रत्येक माता, पिता, अध्यापक, सामाजिक संस्था तथा धार्मिक संगठन कृपा करके पतन की गहरी खाई में गिर रही युवा पीढ़ी को बचाने का प्रयास करे।
यदि समाज सदाचार को महत्त्व देनेवाला हो और चरित्रहीनता को हेय दृष्टि से देखता रो तो बहुत कम व्यक्ति कुमार्ग पर जाने का साहस करेंगे। यदि समाज का सदाचारी भाग प्रभावशाली हो तो व्यभिचार के इच्छुक भी गलत मार्ग पर चलने से रुक जायेंगे। सदाचारी व्यक्ति अपना तथा अपने देश और समाज का उत्थान कर सकता है और किसी उच्च लक्ष्य को पूरा लोक और परलोक में सदगति का अधिकारी बन सकता है।
संसार वीर्यवान के लिये है। वीर्यवान जातियों ने संसार में राज्य किया और वीर्यवान होने पर उनका नामोनिशान मिट गया। वीर्यहीन डरपोक, कायर, दीन-हीन और दुर्बल होता है। ज्यों-ज्यों वीर्यशक्ति क्षीण होती है मानों, मृत्यु का संदेश सुनाती है। वीर्य को नष्ट करने वाला जीवनभर रोगी, दुर्भाग्यशाली और दुःखी रहता है। उसका स्वभाव चिड़चिड़ा, क्रोधी और रूक्ष बन जाता है। उसके मन में कामी विचार हुड़दंग मचाते रहते हैं, मानसिक दुर्बलता बढ़ जाती है, स्मृति कमजोर हो जाती है।
जैसे सूर्य संसार को प्रकाश देता है, वैसे ही वीर्य मनुष्य और पशु-पक्षियों में अपना प्रभाव दिखाता है। जिस प्रकार सूर्य की रश्मियों से रंग-बिरंगे फूल विकसित होकर प्रकृति का सौन्दर्य बढ़ाते हैं, इसी प्रकार यह वीर्य भी अपने भिन्न-भिन्न स्वरूपों में अपनी प्रभा की छटा दिखाता है। ब्रह्मचर्य से बुद्धि प्रखर होती है, इन्द्रियाँ अंतर्मुखी हो जाती हैं, चित्त में एकाग्रता आती है, आत्मिक बल बढ़ता है, आत्मनिर्भरता, निर्भीकता आदि दैवी गुण स्वतः प्रकट होने लगते हैं। वीर्यवान पुरुषार्थी होता है, कठिनाई का मुकाबला कर सकता है। वह सजीव, शक्तिशाली और दृढ़निश्चयी होता है। उसे रोग नहीं सताते, वासनाएँ चंचल नहीं बनातीं, दुर्बलताएँ विवश नहीं करतीं। वह प्रतिभाशाली व्यक्तित्व प्राप्त करता है और दया, क्षमा, शांति, परोपकार, भक्ति, प्रेम, स्वतंत्रता तथा सत्य द्वारा पुण्यात्मा बनता है। धन्य हैं ऐसे वीर्यरक्षक युवान।
परशुराम, हनुमान और भीष्म इसी व्रत के बल पर न केवल अतुलित बलधाम बने, बल्कि उन्होंने जरा और मृत्यु तक को जीत लिया। हनुमान ने समुद्र पार कर दिखाया और अकेले परशुराम ने 21 बार पृथ्वी से आततायी और अनाचारी राजाओं को नष्ट कर डाला। परशुराम और हनुमान के पास तो मृत्यु आयी ही नहीं, पर भीष्म ने तो उसे आने पर डाँटकर भगा दिया और तब रोम-रोम में बिँधे बाणों की सेज पर तब तक सुखपूर्वक लेटे रहे, जब तक सूर्य का उत्तरायण में प्रवेश नहीं हुआ। सूर्य का उत्तरायण में प्रवेश हो जाने पर ही उन्होंने स्वयं मृत्यु का वरण किया। शरशय्या पर लेटे हुए भी वे केवल जीवित ही नहीं बने रहे, अपितु स्वस्थ और चैतन्य भी बने रहे। महाभारत के युद्ध के पश्चात उन्होंने इसी अवस्था में पाण्डवों को धर्म तथा ज्ञान का आदर्श उपदेश भी दिया। यह सारा चमत्कार उस ब्रह्मचर्य-व्रत का ही था, जिसका उन्होंने आजीवन पालन किया था।
दीपक का तेल बाती से होता हुआ उसके सिरे पर पहुँचकर प्रकाश उत्पन्न करता है लेकिन यदि दीपक की पेंदी में छेद हो तो न तेल बचेगा और न दीपक जलेगा। यौनशक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाना प्रयत्न और अभ्यास के द्वारा संभव है। कालिदास ने प्रयत्न और अभ्यास से इसे सिद्ध करके जड़बुद्धि से महाकवि बनने में सफलता प्राप्त की। जो पत्नी को एक क्षण के लिए छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे, ऐसे तुलसीदास जी ने जब संयम, ब्रह्मचर्य की दिशा पकड़ी तो वे श्रीरामचरितमानस जैसे ग्रंथ के रचयिता और संत-महापुरुष बन गये। वीर्य को ऊर्ध्वमुखी बनाकर संसार में आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त करने वाली ज्ञात-अज्ञात विभूतियों का विवरण इकट्ठा किया जाय तो उनकी संख्या हजारों में नहीं, लाखों में हो सकती है।
रामकृष्ण परमहंस विवाहित होकर भी योगियों की तरह रहे, वे सदैव आनंदमग्न रहते थे। स्वामी रामतीर्थ और महात्मा बुद्ध ने तो परमात्म-सुख के लिए तरुणी पत्नी तक का परित्याग कर दिया था। ब्रह्मचारी महर्षि दयानन्द ब्रह्मचर्य के ओज-तेज से सम्पन्न होकर अमर हो गये। न्यूटन के मस्तिष्क में यौनाकर्षण उठा होता तो उसने अपना बुद्धि-कौशल सृष्टि के रहस्य जानने की अपेक्षा कामसुख प्राप्त करने में झोंक दिया होता। बोलते समय काँपने वाले मोहनदास गृहस्थ होते हुए भी वीर्य को ऊर्ध्वगामी दिशा देकर अपनी आवाज से करोड़ों लोगों में प्राण फूँकने वाले महात्मा गाँधी हो गये। इस ब्रह्मचर्य व्रत को उन्होंने किस प्रकार ग्रहण किया और कैसे प्रयत्न पूर्वक इसका पालन किया इस सम्बन्ध में वे स्वयं लिखते हैं-
‘खूब चर्चा और दृढ़ विचार करने के बाद 1906 में मैंने ब्रह्मचर्य-व्रत धारण किया। व्रत लेते समय मुझे बड़ा कठिन महसूस हुआ। मेरी शक्ति कम थी। विकारों को कैसे दबा सकूँगा ? पत्नी के साथ रहते हुए विकारों से अलिप्त रहना भी अजीब बात मालूम होती थी। फिर भी मैं देख रहा था कि यह मेरा स्पष्ट कर्त्तव्य है। मेरी नीयत साफ थी। यह सोचकर कि ईश्वर शक्ति और सहायता देंगे, मैं कूद पड़ा। अब 20 वर्ष बाद उस व्रत को स्मरण करते हुए मुझे सानंद आश्चर्य होता है। संयम करने का भाव तो सन 1901 से ही प्रबल था और उसका पालन भी कर रहा था, परंतु जो स्वतंत्रता और आनंद में अब पाने लगा वह मुझे याद नहीं कि पहले कभी मिला हो। ब्रह्मचर्य के सोलह आने पालन का अर्थ है ब्रह्मदर्शन। इसके लिए तन, मन और वचन से समस्त इन्द्रियों का संयम रखना अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य में त्याग की बड़ी आवश्यकता है। प्रयत्नशील ब्रह्मचारी नित्य अपनी त्रुटियों का दर्शन करेगा तो अपने हृदय के कोने-कोने में छिपे विकारों को पहचान लेगा और उन्हें बाहर निकालने का प्रयत्न करेगा।’
sir is lekh m sab kuch good h, lekin gandhi ke bare m bilkul wrong h
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Prabhu mein brahmacharya ka palan krta hu lekin mera vajan Abhi bhi kam hai.. m jo bhi khata hu sharir Ko nhi lgta