हठयोग के लाभ और उसकी साधना | Hatha Yoga Benefits in Hindi

Last Updated on July 22, 2019 by admin

हठयोग क्या है ? : hatha yoga in hindi

नाथ सम्प्रदाय की योग साधना जगत के लिये एक अनुपम, विशिष्ट और मौलिक देन है। यह विद्या शिव कथित है। योगिराज श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी की साधना में तथा महायोगी गोरखनाथकृत गोरक्षसंहिता, सिद्धसिद्धान्तपद्धति, विवेकमार्तण्ड, योगबीज आदि संस्कृत-ग्रन्थों और ‘गोरखबानी’ में हठयोग-साधनाकी ही अमृतमयी सारगर्भित व्याख्या उपलब्ध होती है। नाथसिद्ध चौरंगीनाथ, भर्तृहरिनाथ, गोपीचन्द, जालन्धरनाथ आदि की बानियों में भी इस साधनाका प्रक्रियात्मक विश्लेषण प्राप्त होता है। हठयोग-साधनाके सम्बन्धमें भगवान् शिवजी  का कथन है
इदमेकं सुनिष्पन्नं योगशास्त्रं परं मतम्॥
(शिवसंहिता)
यह शिवद्वारा परिभाषित हठयोग-साधना परम गोप्य है। योग शास्त्रों में इस साधना को अधिकारी के प्रति ही निरूपित करने का आदेश है। हठयोग-साधना प्राण-साधना है।

हठयोग के लाभ : benefits of hatha yoga

हठयोगके सम्बन्धमें महायोगी गोरखनाथजी कहते हैं
हकारः कीर्तितः सूर्यष्ठकारश्चन्द्र उच्यते। सूर्याचन्द्रमसोर्योगाद्धठयोगो निगद्यते॥
1- हठयोग तनको स्वस्थ, मनको स्थिर और आत्माको परमपद में प्रतिष्ठित करने अथवा अमृतत्व को प्राप्त करनेका अमोघ साधन तथा महाज्ञान है।
2-हठयोग साधना मानवीय जीवन को सहज और नैसर्गिक प्राकृतिक वातावरण के अनुकूल संयोजित करनेका शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक प्रयोग है।

हठयोग के सिद्धांत : hatha yoga rules

हठयोग साधना की जरुरी बातें
✦हठयोगकी साधनामें लगे साधक को इस बातका ज्ञान होना आवश्यक है कि जो कुछ ब्रह्माण्डमें है, वह सब हमारे शरीर में भी है। हठयोगकी अन्तरङ्ग-साधनामें इस जानकारीकी महती उपयोगिता है। पिण्डमें ही ब्रह्माण्डदर्शन अथवा सर्वात्मबोध हठयोगका मूल तत्त्व है। महायोगी श्रीगोरखनाथजीका स्वयं कथन है कि षट्चक्र, द्विलक्ष्य, पञ्चव्योम, स्तम्भ, नवद्वार, पञ्चाधिदैवकी अपने शरीरमें ही विद्यमानताका जिन्हें ज्ञान नहीं है, वे किस हठयोगकी साधनामें सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। यह शरीर ब्रह्माण्ड कहा जाता है।

✦ यद्यपि श्रीगोरखनाथजीने ‘सिद्धसिद्धान्तपद्धति’ में नवचक्रोंका वर्णन किया है तथापि छः चक्रों पर ही हठयोगकी साधना आधारित है। उन्हींके भेदनसे साधक सहस्रारमें शिवका साक्षात्कार करता है। वे षट्चक्र मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञाचक्र नामवाले हैं।

✦ इसी तरह सोलह आधार और हैं-पादाङ्गष्ठ, मूलाधार, गुदा, मेद्वाधार, उड्डीयानबन्धाधार, नाभि-आधार, हृदयाधार, कण्ठाधार, घण्टिकाधार, तालु-आधार, जिह्वा-आधार, भ्रूमध्य-आधार, नासाधार, नासिकामूलाधार, ललाट-आधार और ब्रह्मरन्ध्रआधार।

✦ बाह्य और आभ्यन्तर दो लक्ष्य हैं। तीसरा लक्ष्य मध्य भी कहा जाता है। आत्माके स्वरूपकी अभिव्यक्तिके लिये पञ्चाकाशमें आकाश, पराकाश, महाकाश, तत्त्वाकाश और सूर्याकाशके महत्त्वपर बल दिया जाता है।

✦ मुख, दो नेत्र, दो कान, दो नासारन्ध्र, एक उपस्थ और एक गुदाये शरीरके नौ दरवाजे हैं। पाँच अधिदेवताका अभिप्राय आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वीसे है। ये देवता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर तथा सदाशिव हैं।
हठयोगमें इन तत्त्वोंका ज्ञान होना आवश्यक है।

हठयोग कैसे करे ? : how to do hatha yoga in hindi

• इसमें शरीर-शुद्धिके साधन इस प्रकार बताये गये हैं
शोधनं दृढता चैव स्थैर्य धैर्यं च लाघवम्।।
प्रत्यक्षं च निर्लिप्तं च घटस्थं सप्तसाधनम्॥
षट्कर्मणा शोधनं च आसनेन भवेद् दृढम्।
मुद्रया स्थिरता चैव प्रत्याहारेण धीरता॥
प्राणायामाल्लाघवं च ध्यानात्प्रत्यक्षमात्मनि।
समाधिना निर्लिप्तं च मुक्तिरेव न संशयः॥
(घेरण्डसंहिता १। ९-११)

शरीरकी शुद्धिके लिये शोधन, दृढ़ता, स्थैर्य, धैर्य, लाघव, प्रत्यक्ष और निर्लिप्त-ये सप्तसाधन हैं। षट्कर्मद्वारा शोधन, आसनों से दृढ़ता, मुद्राओं से स्थिरता, प्रत्याहार से धीरता, प्राणायाम से लाघव, ध्यान से ध्येयका प्रत्यक्ष दर्शन तथा समाधि द्वारा निर्लिप्त-अनासक्ति का विधान है। इस क्रमसे हठयोग-साधना करने पर मुक्ति स्वरूपावस्थान की प्राप्ति होती है।

• हठयोगमें कायशोधन अथवा घटशोधन या शरीरकी शुद्धि आवश्यक साधन-तत्त्व है। इसमें षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्राबन्धकी क्रियाका ही महत्त्व स्वीकृत है
इनके द्वारा शरीर योगाग्निमें शुद्ध होकर पक्वदेह कहलाता है। षट्कर्मके अङ्ग हैं-धौति, वस्ति, नेति, नौलि, त्राटक और कपालभाति। इनके द्वारा कफपित्त-वातके दोष नष्ट होते हैं। शरीरमें ताजगी आती है। दीर्घायु और आरोग्यकी प्राप्ति होती है। शरीरके मलका शोधन होता है। ( और पढ़ेनाड़ीशोधन प्राणायाम की विधि व इसके 8 जबरदस्त फायदे )

• नाडियोंके निर्दोष होनेपर प्राणवायुका शरीरमें सञ्चार होता है। वायुकी यथेष्ट धारणा, जठराग्निका प्रदीपन, नादकी अभिव्यक्ति और आरोग्य आदि शरीरकी नाडियोंके मलशोधनके ही परिणाम हैं।

• हठयोगकी साधनामें आसनोंको बड़ा महत्त्व दिया है। गोरक्षसंहितामें सिद्धासन और पद्मासनके अभ्यासपर बल दिया गया है। ‘सिद्धसिद्धान्तपद्धति’ में गोरखनाथजीने ‘आसनमिति स्वरूपसमानता’ कहा है।’हठयोगप्रदीपिका’ में आसनको हठयोगका प्रथम अङ्ग बताया है। आसनोंसे शारीरिक
और मानसिक रोग तथा प्राणायामसे पाप नष्ट होते हैं। ‘गोरक्षसंहिता’ के दूसरे शतकमें कहा गया है
आसनेन रुजो हन्ति प्राणायामेन पातकम्।
वायुका अभ्यास ही प्राणायाम है। मलसे भरी नाडियोंके चक्रका शोधन प्राणायामसे ही होता है।

• हठयोग के साधक को बद्ध पद्मासनमें स्थित होकर चन्द्रनाडी इडासे प्राणको भीतर भरना पूरक’ कहलाता है। प्राणको रोकना ‘कुम्भक’ कहलाता है, इसके बाद सूर्यनाडीपिङ्गलासे वायुको बाहर करना चाहिये, यह ‘रेचक’ है। प्राणायामके समय अमृतस्वरूप चन्द्रमाका ध्यान करनेसे प्राणी सुखी होता है। इसी तरह दायें नासारन्ध्रसे श्वास खींचकर थोड़ी देर भीतर रोककर वामनासारन्ध्रचन्द्रनाडीसे बाहर निकालना चाहिये।

• वायुको भीतर स्थिर रखनेके समय नाभिमण्डलमें सूर्यका ध्यान करनेसे साधक सुखी होता है। प्राणसाधनासे नाडियोंके शुद्ध होनेपर साधक नाद-श्रवणद्वारा परमात्मचिन्तनमें तत्पर हो जाता है।

• गोरखनाथजीने ‘सिद्धसिद्धान्तपद्धति’ के दूसरे उपदेशमें कहा है कि-प्राणायाम करने से प्राण स्थिर होता है-‘प्राणायाम इति प्राणस्य स्थिरता।’
पाँचों इन्द्रियों को अपने विषयसे पृथक् कर लेना ही प्रत्याहार है। योगी प्रत्याहारके द्वारा इन्द्रियों को विषयोंसे हटाकर आत्माभिमुखी कर देता है। ऐसे तो हठयोगके परमाचार्य श्री गोरखनाथ जी ने ‘गोरक्ष संहिता’ | के दूसरे शतकमें कहा है कि चन्द्रमाकी अमृतमयी धाराको मूलाधार में स्थित सूर्य ग्रस्त कर लेता है, उसे सूर्यके मुखमें न पड़ने देकर योगी स्वयं ग्रस्त कर लेता है। यह प्रत्याहार है।

• हृदयमें मनकी निश्चलता के साथ पञ्चभूत-पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाशका धारण करना ही धारणा है। इससे पाँचों तत्त्वों पर योगी विजय प्राप्त करता है। अपने चित्तमें आत्मतत्त्वका चिन्तन करना हठयोग की साधनामें ध्यान कहा जाता है।

• आत्मध्यान से अमरत्वकी प्राप्ति होती है, चक्रभेदन करते हुए ध्यान द्वारा कुण्डलिनीको जाग्रत् करनेसे जीवात्मा परम शिवका साक्षात्कार कर लेता है। समाधिमें आत्माके यथार्थ स्वरूपका अनुभव होता है। ध्याता, ध्येय और ध्यान-तीनों एक हो जाते हैं। आत्मा और मनकी एकता ही समाधि है।
हठयोगकी चरम परिणति कुण्डलिनी-जागरणद्वारा षट्चक्रभेदन कर सहस्रारमें शिवका साक्षात्कार है, यह ‘उन्मनी’ अवस्थाकी परमसिद्धि है।

• हठयोग में मुद्रा और बन्धके द्वारा नादानुसन्धान तथा कुण्डलिनी-जागरण में विशिष्ट सहायता मिलती है। यद्यपि नादानुसन्धान प्राणायाम की सिद्धिका परिणाम है तथापि मुद्रा और अभ्यास से योगसाधक नाद सुनता है और नादकी सम्पूर्ण लयावस्था में कुण्डलिनी-जागरण के फलस्वरूप वह शून्य अलख निरञ्जनरूपी तत्त्वमें समाहित हो जाता है।

• हठयोगमें नाद-श्रवणका भी बड़ा महत्त्व है। अनाहत ध्वनिरूपी नादके श्रवणसे सहज समाधि लग जाती है। नाद-श्रवणके लिये योगीको मुक्तासनमें स्थित होकर शाम्भवी मुद्राके द्वारा एकाग्रचित्तसे कर्ण, नेत्र और नासाके रन्ध्रों तथा मुखके द्वार हाथकी अँगुलियोंसे बंद करनेपर सुषुम्णा-मार्गसे स्फुट नादका श्रवण होता है। नादके अनुसन्धानसे सञ्चित पापोंका क्षय होता है। नादके चित्तकी तात्त्विक लय-अवस्थामें सर्वथा विलीन हो जानेपर योगी उन्मनी-अवस्था अथवा निर्विकल्पके भी परे सहज शून्यपद या कैवल्यमें स्वस्थ हो जाता है।

• मुद्रासे शरीर और मनकी स्थिरता सिद्ध होती है। हठयोगके आचार्य महर्षि घेरण्डने ‘मुद्रया स्थिरता’ का प्रतिपादन किया है। महायोगी गोरखनाथका कथन है। कि महामुद्रा, नभोमुद्रा, उड्डीयानबन्ध, जालन्धरबन्ध और मूलबन्धके अभ्यासमें जो योगी कुशल होता है, वह मुक्तिका पात्र होता है

• हृदयमें ठोड़ीको लगाकर दायें पैरकी एड़ीको योनिस्थानपर दबाकर बायें पैरको लम्बा करे और दोनों हाथोंसे पैरको मध्यसे पकड़े। भीतर प्राण भरे, कुछ देर रोककर निकाल दे। इससे सारे रोग नष्ट हो जाते हैं। इसके अभ्याससे सुप्त कुण्डलिनी सहज जाग जाती है। इसके बाद नभोमुद्रा और खेचरी मुद्राका विधान है।

• योगी जीभ ऊपर करके कुम्भककी विधिसे प्राण भीतर रोके। इसके अभ्याससे रोग, मृत्यु, क्षुधा, निद्रा, तृष्णा, मूर्च्छा पर विजय प्राप्त कर लेता है। खेचरीके अभ्याससे वीर्य स्थिर होता है। उड्डीयानबन्धमें पेटको पीठकी ओर सिकोड़ा जाता है, इससे वायुकी शुद्धि होती है, जठराग्नि बढ़ती है। कण्ठको संकुचित करके ठोड़ीको हृदयसे लगाना ‘जालन्धरबन्ध’ है, यह बन्ध चन्द्रामृतरूपी जलको कपाल-कुहरके नीचे नहीं गिरने देता। मूलाधारमें स्थित सूर्य इस अमृतको नहीं सोख पाता। अपानवायुको ऊपरकी ओर खींच करके प्राणवायुसे मिलाना और पैरकी एड़ीसे सीवनी दबाकर गुदा-द्वारको सिकोड़ना मूलबन्ध है। विपरीतकरणी मुद्राके अभ्याससे योगी चन्द्रामृतका स्वयं पान करता है। चन्द्रमा तालुमूल में विशुद्धचक्र में स्थिर होकर सुधाका स्राव करता है, जिसे नाभिमण्डल में स्थित सूर्य अथवा अग्निसे बचाकर योगी स्वयं पी लेता है। इस मुद्राकी सिद्धिमें शीर्षासनका योगदान महत्त्वपूर्ण है।

• हठयोगका परम लक्ष्य कुण्डलिनी-जागरणद्वारा षट्चक्रभेदन तथा कैवल्यकी प्राप्ति है। कुण्डलिनी हमारे मूलाधार में अप्रबुद्ध और प्रबुद्ध-रूपमें स्थित है। यद्यपि देहमें स्थित कुण्डलिनी स्वभावसे चेतन है। तथापि प्रबुद्ध न होनेकी अवस्थातक जीवात्माको सांसारिक द्वन्द्वों में विमोहित करनेके कारण बन्धन कारिणी है। जबतक वह सुप्त है, तबतक जन्म-मरणका फल देती है और जागनेपर सहस्रदलतक सञ्चार करती हुई योगियोंको उनके शुद्ध व्यापक आत्माके स्वरूपका ज्ञान करा देती है। ( और पढ़े –  कुण्डलनी शक्ति जागरण की चमत्कारी योग विधि)

• गुदासे दो अङ्गुल ऊपर और लिङ्गसे दो अङ्गल नीचे मूलाधारचक्रके बीच त्रिकोणके आधारके योनि कामपीठ के मध्य शिवलिङ्ग को साढ़े तीन वलयों में लपेटकर नीचे की ओर मुख करके विद्युत् प्रभा के समान चमकती हुई सुषुम्णा के मार्ग को रोककर कुण्डलिनी स्थित है। अपानवायु के निकुञ्चन से उसका उत्थान किया जाता है, वह सुषुम्णा के द्वारको छोड़ देती है। इसका उत्थान मूलबन्ध, उड्डीयानबन्ध और जालन्धरबन्ध के अभ्यास से किया जाता है। वह ऊर्ध्वमुखी होकर षट्चक्रभेदन करती हुई सहस्रारमें पहुँच जाती है।

• मूलाधार में ब्रह्मचक्र है। इसमें अग्निके समान दीप्तिशक्तिका ध्यान करनेसे कुण्डलिनी जाग जाती है। इसके बाद स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञाचक्रका भेदन करती हुई सहस्रार में पहुँच जाती है। सहस्रारसे स्रावित चन्द्रामृत का पान करने में योगी इसी समय प्रवृत्त होता है। ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचकर कुण्डलिनी शिव से मिल जाती है अर्थात् अन्तर्भूत हो जाती है। चन्द्रमाके द्वारपर सूर्यका स्थित होना, जीवात्माका शिवपदमें अभिन्न होना हठयोगका परम लक्ष्य है। यही हठयोग की सिद्धि है, जिसे राजयोग-समाधि का सहज फल स्वीकार किया जाता है। यही उन्मनी सहजावस्था है, अमनस्कता के धरातल पर जीवात्मा और परमात्मा की अभेदता है।

• आज सारे संसारके मानव शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक निश्चिन्त-अवस्थाकी प्राप्तिके लिये उद्विग्न हैं। वे शारीरिक समस्याको सुलझानेके लिये भारतकी योगसाधना-पद्धतिसे प्रेरणा ग्रहण करनेके लिये समुत्सुक हैं। हठयोगकी साधना सर्वाङ्गपूर्ण योगसाधना है। यह निर्विवाद है कि हठयोग के विभिन्न अङ्गों की साधना के द्वारा जगत के लोग स्वास्थ्य समस्या के समाधान प्राप्त कर सकते हैं। ये अपने शरीरको नीरोग और मनको शान्त तथा स्थिर करनेके लिये भगवान् शिव द्वारा उपदिष्ट तथा महर्षि पतञ्जलिद्वारा अनुशासित और महायोगी गोरखनाथ तथा उनके अनुवर्ती नाथ सिद्धों द्वारा आचरित और उपदिष्ट योग-विशेषतया हठयोग को ग्रहण करके लोककल्याण तथा आत्मोद्धारके प्रयत्न में सफल हो सकते हैं।

• हठयोगके शास्त्र-वर्णित साधना-क्रमसे अभ्यास करनेसे आजके जगत्में योग के सम्बन्ध में प्रचलित गलत धारणाओं और मनमा नी मिथ्या विचारों का निराकरण हो सकता है। मानव के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक जागरणमें हठयोग की महनीयता पूर्णरूप से स्पष्ट है।

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