Last Updated on April 29, 2020 by admin
चीड़ क्या है ? : What is Pine (cheed) in Hindi
चीड़ एक बहुआयामी और बहुउपयोगी वृक्ष है। इसकी फुनगियों पर बसंत आते ही सुकोमल, रंग-बिरंगे फूल खिल उठते हैं। फूलों की सुगन्ध जब वातावरण में व्याप्त हो जाती है तो मानवों का तन-मन भी महकने लगता है और यह महक हमें स्वस्थ बनाने में सहायक होती है। ऐसा माना जाता है कि चीड़ के फूलों की महक इसके नुकीले किन्तु विशेष आकार के पत्तों की हवा हमें स्वास्थ्यवर्धक सांसें देने में कमाल का काम करती हैं।
इनकी चितकबरी पीठ और भुजाओं के समान फैली हुई शाखायें छोटे-छोटे नुकीले पत्रों के गुच्छों से परिवेष्टित बड़ी भली मालूम पड़ती है।
बिना पुष्पों के ही ये पत्र- गुच्छ हरित पुष्पों से जान पड़ते हैं तेज हवा के आवेग से जब ये शाखायें झूमती हैं, तब तो उनकी शोभा देखते ही बनती है। मार्ग के दोनों ओर की पहाड़ियों पर ये वृक्ष हिमालय के इन शिखरों को निराली शोभा प्रदान करते हैं। जहाँ पर अन्य वृक्ष नहीं हैं वहाँ पर तो यह शोभा अधिक सुन्दर हो जाती है। देवदार और चीड़ दोनों भाइयों की तरह दिखलाई देते हैं। चीड़ का भी तो कुल देवदारु कुल ( पाइनेसी) ही है।
चीड़ का पेड़ कहां पाया या उगाया जाता है ? : Where is Pine Tree (Cheed) Found or Grown?
नरेन्द्रनगर (ऋषिकेश से लगभग 15 कि.मी. हिमालय की ओर) से चीड़ के सुन्दर वृक्षों के दर्शन होने लगते हैं। यह वृक्ष 4000 फुट की ऊँचाई पर होता है जो आगे उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुये लगभग 7000 फुट की ऊँचाई पर निर्वश हो जाता है।
चीड़ के वृक्ष हिमालय प्रदेश में बहुतायत से पाये जाते हैं। हिमालय के चंबा, गढ़वाल, अल्मोड़ा कांगड़ा, मंडी, सिरमौर, सोलन, शिमला, किन्नोर, कुल्लु आदि के क्षेत्रों को चीड़ की उपस्थिति ने सौम्य एवं हरा-भरा बनाया है। यहाँ के निवासी जीवन पर्यन्त चीड़ का प्रयोग किसी न किसी रूप में करते रहते हैं। ये सीधे सरल वृक्ष विरलों को ही प्राप्त होते हैं और बहुत कम मिलते हैं
चीड़ के पेड़ का विभिन्न भाषाओं में नाम : Name of Pine Tree in Different Languages
Pine Tree (Cheed) in–
- संस्कृत (Sanskrit) – सरल (काण्ड सीधा होने के कारण), सुरभिदारुक (काण्ड सुगन्धित होने के कारण)
- हिन्दी (Hindi) – चीड़, चील, धूप सरल
- गुजराती (Gujarati) – तेलियो देवदार
- मराठी (Marathi) – सरल देवदार
- बंगाली (Bangali) – सरल गाछ
- अंग्रेजी (English) – लौंगलीब्ड पाइन या चिर पाइन (LongLeaved Pine / Chir Pine)
- लैटिन (Latin) – पाइनस रोक्सबाई (Pinus Roxburghii Sargent)
चीड़ का पेड़ कैसा होता है ? :
चीड़ के वृक्ष बहुत ऊँचे प्राय: 100-125 फीट ऊँचे होते हैं। काण्ड की परिधि प्राय: 12 फुट होती है। इसकी शाखायें इस प्रकार क्रम से लगातार निकलती हैं, कि वृक्ष का शीर्ष भाग गोलाकार दिखाई देता है।
वृक्ष की शिखा गोल पुच्छाकार, नाचते हुये मोर की तरह होती है। वृक्ष की छाल एक से दो इंच मोटी, बाहर से रक्ताभ धूसर तथा भीतर गहरे लाल रंग की होती है। काण्ड पर बने हुये असामान्य चकत्ते इसे एक विशेष पहचान देते हैं।
- चीड़ के पत्ते – देवदार के पत्र छोटे और चीड़ के लम्बे (तिगुने) होते हैं, जो कि शल्य कार्य में आने वाली सूई के समान होते हैं। ये पत्र एक कलामय कोष से आवृत तथा नीचे की ओर झुके होते हैं।
- चीड़ के फूल – इसके पुष्प गुच्छों के रूप में निकलते हैं। ये भूरे रंग के तथा 4 से 8 इंच लम्बे होते हैं।
- चीड़ के फल – चीड़ के पेड़ में पुष्प के बाद फल लगते हैं जो कि देवदार फल की तरह, किन्तु आकार में बड़े होते हैं। इसके बीज देवदार के बीज से लम्बे, चिलकोजे की तरह, परन्तु अंडाकार होते हैं। बीज के गले पद्रेश पर तितली के पंख की तरह एक पत्ता सा होता है।
इस पर पुष्प जनवरी में आते हैं, फल अगले वर्ष जून-जुलाई में प्रौढ़ हो जाते हैं। उसके अगले वर्ष ग्रीष्म ऋतु में ये फूट जाते हैं जिनसे बीज बाहर निकल जाते है। इस प्रकार पूरी प्रक्रिया में लगभग 26 महीने लग जाते हैं।
चीड़ के पेड़ का रासायनिक विश्लेषण : Pine Tree (Cheed) Chemical Constituents
चीड़ के कांड में क्षत करने से एक तैलीय राल-गोंद निकलता है इसे ही श्रीवेष्टक, सरल निर्यास (गंधा बिरोजा) कहते हैं। इस गन्धा बिरोजा से परिस्रवण विधि के द्वारा जो तैल प्राप्त होता है, उसे तारपीन का तेल (टर्पेन्टाइन आयल) कहते हैं। इसे खन्नु तेल या खन्ना का तेल भी कहते हैं।
गंधा बिरोजा से लगभग 20 प्रतिशत यह तैल निकलता है। शेष 80 प्रतिशत भाग कोरेझिन या कोलोफोनि कहते हैं ।
तारपान तेल स्वच्छ रंगीन एवं विशिष्ट प्रकार की गन्ध से युक्त होता है। इसमें पाइनिन, कैरीन, लोगिफोलिन तथा अन्य टर्पिन पाये जाते हैं। भारतीय व्यापारी तेल में कई पदार्थों का मिश्रण कर देते हैं।
बिरोजे का सत्व – एक पात्र में दूध और जल समभाग लें, उस पर कपड़ा बांध, उसके ऊपर गंधा बिरोजा डालकर, नीचे आग देने से यह टपक कर नीचे के पात्र में जम जाता है। इसे बिरोजे का सत्व कहते हैं।
चीड़ के पेड़ का उपयोगी भाग : Beneficial Part of Pine Tree (Cheed) in Hindi
काष्ठ, निर्यास (गोंद / गंधा बिरोजा) तथा तेल (तारपीन का तेल / टर्पेन्टाइन आयल)
उपयोग की मात्रा :
- काष्ठ चूर्ण – 1 से 3 ग्राम
- निर्यास (गोंद / गंधा बिरोजा) – 1 से 2 ग्राम
- तेल – 1 से 3 बूंद
चीड़ के औषधीय गुण : Cheed ke Gun in Hindi
- रस – कटु, तिक्त मधुर
- गुण – लघु, तीक्ष्ण, स्निग्ध
- वीर्य – उष्ण
- विपाक – कटु
- दोषकर्म – कफ वात शामक
आयुर्वेद के आचार्यों ने इसे बहुत से रोगों में भी उपयोगी पाया है, जिसका उल्लेख ग्रन्थों में यत्र-तत्र मिलता है। आचार्य चरक ने इसे पुरीष विरजनीय गण में तथा सुश्रुत ने एलादिगण में इसकी गणना की है।
चीड़ की लकड़ी (काष्ठ) के औषधीय गुण –
- काष्ठ चूर्ण शोथहर (सूजन मिटाने वाला) एवं वेदना स्थापन है।
- इसका उपयोग क्वाथ अथवा चर्ण के रूप में किया जाता है। चूर्ण का अन्य उपयोगी औषधियों के साथ भी मिश्रण किया जाता है।
- जिन यक्ष्मा के रोगियों में दुर्गन्धित कफ आता है उन्हें इसका उपयोग कराना चाहिये क्योंकि यह श्लेष्मपूतिहर है।
- इसके अतिरिक्त यह अर्दित (लकवा) पक्षाघात,कफज्वर, कास (खाँसी), हिचकी (वातजन्य), मूत्रकृच्छ्र आदि में भी लाभप्रद है।
- इसके सेवन से फुफ्फुस (फेफड़ें) एवं श्वासनलिका का रक्त संवहन बढ़ता है तथा रक्तनिष्ठीवन (रक्त में सना बलगम) बन्द होता है।
- गुदभ्रंश एवं गुदविकार आदि में इसके क्वाथ में रोगी को बिठाने से लाभ होता है।
- शोथ (सूजन) में इसे गोमूत्र के साथ पीसकर लेप किया जाता है तथा व्रणरोपणार्थ भी उपयोग में लाया जाता है।
चीड़ की निर्यास (गोंद / गंधा बिरोजा) के औषधीय गुण –
- यह मूत्रल, कृमिघ्न, शूलशामक, कण्डूहर (खाज, खुजली) , व्रणरोपक तथा आर्त्तव (मासिक धर्म) प्रर्तक है।
- यह रक्त में बहुत शीघ्र मिल जाता है, एवं फिर श्वासोच्छ्वास की श्लेमलकला के द्वारा तथा मूत्र व पसीने के द्वारा बाहर निकलता है।
- इसका विशेष उपयोग सुजाक (गोनोरिया) में किया जाता है।
- व्रणों के कृमिनाशनार्थ तथा उनके रोपण के लिये इसका उपयोग मरहमों में किया जाता है।
- कंठमाला, ग्रन्थि (गाँठ) आदि के विलयनार्थ इसका लेप लगाया जाता है।
चीड़ के पेड़ के फायदे और उपयोग : Benefits of Pine Tree (Cheed) in Hindi
1). सुजाक (गोनोरिया)
(क) शुद्ध बिरोजा (बिरोजे का सत्व) 10 ग्राम, शुद्ध राल 25 ग्राम, गूगल 50 ग्राम, रूमीमस्तंगी 25 ग्राम तथा चन्दन का तैल 25 ग्राम इन सबको घोटकर एक एक ग्राम की गोलियां बना लें। दिनभर में चार-पांच गोलियां सेवन कर ऊपर दारूहल्दी का क्वाथ पीना चाहिए।
(ख) शुद्ध बिरोजा (बिरोजे का सत्व) 25 ग्राम, छोटी इलायची के बीज 10 ग्राम और मिश्री 60 ग्राम का बारीक चूर्ण कर 5-6 ग्राम चूर्ण दूध-जल की लस्सी या शीतल जल के साथ दिन में दो बार सेवन कराने से सुजाक एवं तज्जन्य कष्टों का निवारण होता है।
(ग) बिरोजा सत्व (शु. बिरोजा) 50 ग्राम में मकरध्वज या षड्गुण बलजारित रस सिन्दूर 8 ग्राम लेकर इनका अच्छी तरह मर्दन कर 1-2 ग्राम दिन में दो बार ताजा दूध या मिश्री मिश्रित जल के साथ सेवन करने से लाभ होता है। इससे सुजाक, मूत्रकृच्छ्र, मूत्रदाह आदि मिटते हैं। इसके सेवन से मूत्र प्रसेकनलिका का घाव भरने लगता है और उससे पूय (पस)आना बन्द होता है।
2). कच्छु (गीली खुजली)
शुद्ध बिरोजा 60 ग्राम के साथ समभाग लोध्र, राल, कमीला, मैनसिल, अजवायन एवं गंधक का चूर्ण लेकर घृत 2 लिटर तथा पानी 8 लिटर में मिला धूप में रख दें। पानी के सूख जाने पर घृत को छान लें। यह श्रीवासघृत है। इसकी मालिश करने से खुजली नष्ट होती है।
3). कर्णशूल (कान का दर्द)
बिरोज को गुलरोगन (गुलाब के तेल) में घोटकर कान में टपकावें । इससे कफ प्रकोपजन्य कर्णशूल का शमन होता है। सिर दर्द होने पर इसकी सिर पर मालिश करें।
4). व्रण (घाव)
(क) गन्धा बिरोजा (चीड़ की गोंद), गूगल और राल की धूप देने से व्रणों के स्राव तथा वेदना दूर होती है। अकेले बिरोजे की भी धूप लाभप्रद होती है।
(ख) गन्धा बिरोजा (चीड़ की गोंद) 500 ग्राम को कड़ाही में मन्दाग्नि पर पकावें। मलहम योग्य इसका पाक हो जाने पर नीचे उतार कर तुरन्त कपड़े से छान उसमें हिंगुल चूर्ण 15 ग्राम थोड़ा-थोड़ा डालते जावें और चलाते रहें। शीतल होने पर निकाल कर रख लें। यह लाल मलहम व्रण शोधन तथा रोपणार्थ उपयोगी है। इसके लेप से पार्श्वशूल (पसली का दर्द ) में भी लाभ होता है। कितने ही कल-कारखाने इस बिरोजा (चीड़ की गोंद) के आधार पर चलते हैं। बिरोजा से अनेक उत्पाद बनते हैं।
तारपीन तेल (टर्पेन्टाइन आयल) के फायदे और उपयोग : Uses and Benefits of Turpentine Oil
- तारपीन तेल कटु, तिक्त, उष्ण वातानुलोमन, आंत्र आमाशय उद्दीपक, अल्प मात्रा में सेवन से हृदय उत्तेजक अधिकमात्रा में हृदयावसादक, रक्तस्तम्भक, मूत्रल एवं रक्तातिसार उत्पन्न करने ( अधिक मात्रा) वाला है।
- तारपीन तेल से शरीर पर मर्दन करने से प्रारम्भ में त्वचा लाल होकर उसमें प्रक्षोभ (घबराहट) उत्पन्न होता है। इसके बाद नाड़ियों के अग्रभाग में अवसाद होकर शून्यता आ जाती है।
- इससे सूक्ष्म रक्त वाहिनियों का संकोच होकर स्थानीय रक्तस्राव बन्द हो जाता है। किन्तु इसके अधिक मर्दन से त्वचा पर स्फोट (फोड़ा) हो जाते हैं।
- गृध्रसीशूल (साइटिका), कटिशूल (कमरदर्द), संधिवात, जीर्ण आमवात, वातरक्त आदि में इसके मर्दन से लाभ होता है।
- सूतिका रोग (प्रसव के उपरान्त स्त्री के शरीर में होने वाले रोग) में आक्षेप (एक बात रोग जिसमें हाथ पैर रह रहकर ऐंठतें और काँपते हैं) आने पर भी तारपीन तेल की मालिश करायी जाती है।
- न्यूमोनिया (श्वसनक ज्वर) में जब पसली का दर्द असह्य होता है तब इस तारपीन तेल को जैतून के तैल या नारायण तैल में मिलाकर छाती पर अभ्यंग करना चाहिये और गर्म किये हुये लवण से सेक करना चाहिये ।
- किसी भी प्रकार के दर्द को दूर करने के लिये पहले तारपीन तेल की मालिश करें तथा बाद में फलालेन (रोंएँदार वस्त्र) के एक टुकड़े को गर्मपानी में डुबोकर उसे निचोड़ कर पीड़ित स्थान पर रखकर दबायें। ऐसा कई बार करें। इससे भी वातिकशूल मिटते हैं अथवा 500 मि.लि. तेल में कपूर 50 ग्राम मिलाकर भी हल्के हाथ से मालिश करनी चाहिए।
- गुदमार्ग से इसकी पिचकारी लगाना पेट के फूलने में उपकारक है। इससे आंतों की वायु बाहर निकलती है।
- यदि आंतों से रक्त स्राव हो रहा हो तो वह भी इसके व्यवहार से बन्द हो जाता है। आंतों के घाव में यह उपयोगी है।
- आंतों के कृमियों को निकालने के लिये भी तारपीन तेल का एनिमा लगाने से लाभ होता है। यह एनिमा साथ में एरण्ड तैल भी मिलाकर लगाया जा सकता है किन्तु एनिमा सावधानीपूर्वक लगाना चाहिये।
- अग्निदग्ध, सद्योव्रण, दाद-खुजली आदि पर इस तैल को लगाने से लाभ होता है।
- आध्मान में पेट के फूलने पर तैल लगाकर धीरे-धीरे मालिश करनी चाहिये।
- फुन्सियों पर तारपीन तेल लगाकर धोने से वे ठीक होती हैं।
- कील-मुंहासों पर भी इसे लगाकर धोने से लाभ होता है।
- हैजा, प्लेग, मौसमी बुखार एवं अन्य संक्रामक रोगों से बचने के लिये 25 मि.लि. तारपीन तेल में 6 ग्राम कपूर तथा आधा किलो हवन सामग्री मिलाकर हवन करते रहने से दूषित कीटाणु नष्ट होते हैं तथा रोगों के आक्रमण का भय नहीं रहता।
चीड़ के दुष्प्रभाव : Cheed ke Nuksan in Hindi
- चीड़ के औषधीय उपयोग से पहले अपने चिकित्सक से परामर्श करें ।
- चीड़ के उपयोगी अंगों का अधिक मात्रा में सेवन करने से वमन, अतिसार, नाड़ीमन्दता, मूत्रदाह एवं मूत्ररक्तता के लक्षण उत्पन्न होते हैं।
- इसकी अधिकमात्रा से मस्तिष्क प्रभावित होने पर तन्द्रा, अवसाद, संज्ञानाश एवं पक्षाघात हो जाने की संभावना हो जाती है।
- वृक्क (किडनी) रोगियों को यह नहीं देना चाहिए।
- कतीरा गोंद, बबूल का गोंद और मीठे बादाम का तैल इसके अहितकर प्रभाव को दूर करते हैं। साथ में रोगी की दशा के अनुसार हृद्य, बल्य, विषघ्न द्रव्यों की भी समुचित योजना करनी चाहिये।
(उपाय व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार उपयोग करें)