Last Updated on October 22, 2019 by admin
योग के आठ अंगों में प्रारम्भिक पांचयम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार बहिरंग योग कहलाते हैं। धारणा, ध्यान और समाधि को अन्तरंग योग कहते हैं। इन तीनों के समुदाय को योग के पारिभाषिक शब्दों में संयम भी कहा जाता है। धारणा को समझने से पहले चित्त की विभिन्न अवस्थाओं पर ध्यान देना आवश्यक है।
चित्त की पाँच अवस्थाएं :
- क्षिप्त अवस्था- चित्त की यह अति चंचल अवस्था है। हम सब सांसारिक लोग मन की चंचलता से अस्थिर बने रहते हैं।
- मूढ़ अवस्था- यह तमोगुण की भूमिका है। मन इन्द्रियां विषयों में लिप्त होने के कारण तत्व-चिन्तन करने में अयोग्य हो जाता है। मन की इस अवस्था में तन्द्रा एवं निद्रा आने लगती है।
- विक्षिप्त अवस्था – इस अवस्था में चित्त कभी चंचल, कभी स्थिर हो जाता है। इसे दुराग्रह की अवस्था कहने लगते हैं। जो हम नहीं हैं उसी को हम मानने लगते हैं। स्थूल देह से तादाम्य होने पर हम स्थूल देह को ही अपना स्वरूप समझने लगते हैं।
- एकाग्र अवस्था- हमारा मन संसार की तरफ यानी अनेकाग्रता की तरफ हमेशा लगा रहता है। जब हम मन को संसार की तरफ़ से मोड़ कर अन्तर्मुखी करने लगते हैं तब चित्त का अवलम्बन एक मात्र आत्मा की तरफ लगता है। जब हमारा मन आत्मविषयक पर हमेशा जागरुक बना रहे तभी उसे एकाग्रता कहते हैं।
यह अवस्था योगियों की होती है और इसी से ध्यान व समाधि सिद्ध होते हैं। अपनी आत्मा की ओर अवगत होना ही एकाग्रता है। - निरुद्ध अवस्था- यह चित्त की पांचवीं अवस्था है। जब हमारा चित्त शान्त हो जाता है तब हम प्रसन्नता का अनुभव करने लगते है। इसमें हमारा मन आत्मतत्व में विलीन हो जाता है। इसी को आत्मबोध की अवस्था भी कहते हैं।
तो मन को अपने आत्मा में जागरुक बनाये रखना ही एकाग्रता है। जोर जबरदस्ती से मन को लगाना एकाग्रता नहीं है बल्कि मन का अपने आप आत्मा में अवगत होना एकाग्रता है।
धारणा में मन अपने आप में अवगत होता है।
आइए अब योग के छठे अंग ‘धारणा’ के विषय में थोड़ी बात करते हैं।
( और पढ़े – आओ सीखें योग )
धारणा किसे कहते हैं ? : Dharana in Hindi
यह योग का छठा अंग है। चित्त को किसी एक देश या स्थान में बांधने का नाम धारणा है। इसका दूसरा अर्थ है मन को लगातार उसी स्थान में जागरुक बनाये रखना ही एकाग्रता है। धारणा की अवस्था जब परिपक्व हो जाती है तब उसे ध्यान कहा जाता है।
चित्त को नाभि चक्र, हृदय स्थल, शीर्ष प्रकाश में, नासिका के अग्रभाग, जिह्वा के अग्रभाग आदि आन्तरिक देशों में या देवमूर्ति जैसे बाहरी स्थान में, सात्विक दृष्टि से लगातार जागरुक बनाये रखना ही धारणा कहलाती है। धारणा की सिद्धि में प्राणायाम अति सहायक है जैसा कि पतंजलि स्वयं कहते हैं-
‘धारणासु च योग्यता मनसः’ (योग सूत्र 2/53)
अर्थात् प्राणायाम के अभ्यास से ही मन धारणा करने के सामर्थ्य को प्राप्त होता है। प्राणायाम का अभ्यास करते हुए 10 मिनिट तक श्वास रोकने का अभ्यास सिद्ध हो जाता है तब साधक धारणा के अभ्यास में समर्थ हो जाता है। इसी तरह विष्णु पुराण में कहा है कि भगवान के इस मूर्तरूप में चित्त को स्थिर करने को धारणा कहते हैं।
धारणा के प्रकार एवं लाभ : Types and Benefits of Dharana in Hindi
धारणा शरीर के आन्तरिक अथवा बाह्य स्थानों में की जाती है। नासिका का अग्रभाग, जिह्वा का अग्रभाग, तालू, जिह्वा का मध्यभाग, जिह्वा का मूल, हृदय स्थल आदि आन्तरिक देश स्थानों में से चुनकर वीतरागी व्यक्ति किसी भी स्थान में धारणा का अभ्यास करे। शिरोभाग में स्थित ज्योति में भी धारणा का अभ्यास किया जाता है। धारणा के लिए चित्त का सात्विक होना बहुत ज़रूरी है तथा ध्येय विषय पर एकाग्र करने का प्रयत्न करना भी जरूरी है। दरअसल कभी तो हमारी चित्तवृत्ति ध्येय पदार्थ या चक्र पर एकाग्र हो जाती तो कभी चंचल होकर भटक जाती है, यदि भटक जाये तो उसे पुनः उसी स्थान पर एकाग्र करना चाहिए।
महर्षि दयानन्द के अनुसार चित्त को किसी एक स्थान पर एकाग्र करने के साथ-साथ मानसिक रूप से ओंकार का जप भी करना चाहिए ।
व्यास भाष्य में धारणा के स्थल व उनके पृथक-पृथक लाभ बताये हैं जो इस प्रकार हैं
✦ नासिका का अग्रभाग – यहां पर धारणा करने से दिव्य गंध की अनुभूति होती है।
✦ जिह्वा का अग्रभाग – यहां पर धारणा करने से दिव्य रस का ज्ञान होता है।
✦ तालू – यहां पर धारणा करने से दिव्य रूप का ज्ञान होता है।
✦ जिह्वा का मध्य भाग – यहां पर धारणा करने से दिव्य स्पर्श का अनुभव होता है।
✦ जिह्वा का मूल भाग – यहां पर धारणा करने से दिव्य शब्द का ज्ञान होता है।
✦ हृदय – हृदय स्थल पर धारणा करने से निश्चयात्मक ज्ञान का उदय होता है।
✦ इच्छानुसार – अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान पर धारणा का अभ्यास किया जा सकता है जैसे- ललाट पर। पतंजलि ने कहा है कि साधक जहां भी मन रुके वहीं पर धारणा का अभ्यास करे । प्रेक्षाध्यान व विपश्यना में श्वास पर ही मन केन्द्रित किया जाता है।
विष्णु पुराण में भगवान विष्णु के मूर्तरूप में चित्त को स्थिर कर धारणा करने का निर्देश दिया है। इसका अभ्यास तब तक करते रहना चाहिए जब तक भगवान के दिव्यरूप को एकाग्र मन से धारण करने में दक्ष न हो जाएं। जब चलते फिरते, उठते-बैठते या अन्य कोई कार्य करते हुए भी उस रूप की विस्मृति न हो तब सिद्धि प्राप्त होती है।
गरुड़ पुराण में कहा गया है कि 12 बार प्राणायाम करने में जितना समय लगता है उतने समय तक मन को ब्रह्म में स्थापित करना है यही धारणा का सामान्य लक्षण है। इससे कम समय के लिए सम्पादित चित्त को देशबन्ध धारणा नहीं कहा जाता है। तब यही धारणा परिपक्व होकर आगे ध्यान में प्रविष्ट हो जाती है।
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१- धारणा और ध्यान
२-ध्यान से चिंता निवारण
३-ध्यान – स्वामी ब्रह्मानंद