Last Updated on July 22, 2019 by admin
औषधियों के धूम्र को पान करने की एक चिकित्सा पद्धति भी आयुर्वेदिक ग्रन्थों में वर्णित है। यज्ञों द्वारा अग्निकुण्ड से निकले पवित्र होतव्य द्रव्य से उद्दीप्त वायु द्वारा सम्पूर्ण वायुमण्डल की पवित्रता सर्वविश्रुत ही है। इस धूम से न केवल देवता आप्यायित होते हैं, अपितु सम्पूर्ण प्राणिजगत् लाभान्वित होता है। प्राचीन काल में नित्य हवन की परम्परा थी। जिस से पूरा परिसर सुगन्धित रहता था। आयुर्वेद के आचार्यों ने रोगों के उपशमन के लिये विशेष प्रकार की औषधियों द्वारा धूम्र वर्तिका का निर्माण करके पुनः उसे प्रज्वलित कर विधिपूर्वक धूम्र के सेवन का विधान किया है, जिससे अनेक रोग शान्त हो जाते हैं। यह धूम्रपान आज के तथाकथित पतनकारी और अनारोग्यकारक धूम्रपान से सर्वथा भिन्न है।
इसमें यह सिद्धान्त है कि जब मादक द्रव्यों की गन्ध अग्नि के संसर्गसे तीव्र होकर शरीर को अधिक हानि पहुँचाती है तथा नये विकार उत्पन्न करती है। तो रोगनाशक या पौष्टिक द्रव्य निश्चय ही अग्नि के माध्यम से विखण्डित हो, धूम्रपान द्वारा शरीर को पुष्टि तथा आरोग्य प्रदान करेंगे।
धूम्रपान चिकित्सा के लाभ :
धूम्रपान के लाभ के विषयमें आचार्य चरक बताते हैं-
• धूम्रपान करने से सिरका भारीपन, शिरःशूल,पीनस, अर्धाव-भेदक (Hemicrania), शूल, कास, हिचकी, दमा, गलग्रह, दाँतों की दुर्बलता, कान, नाक, नेत्रों से दोषजन्य-स्राव का होना, पूतिघ्राण (नाक से दुर्गन्ध का निकलना Ogoena), आस्य गन्ध (Foul smell of mouth), दाँत का शूल, खालित्य, केशों का पीला होना, केशों का गिरना (इन्द्रलुप्त), छींक आना, अधिक तन्द्रा होना, बुद्धि (ज्ञानेन्द्रियों)-का व्यामोह होना तथा अधिक निद्रा आना आदि अनेक रोग शान्त होते हैं।
• बाल, कपाल, इन्द्रियों का तथा स्वरका बल अधिक बढ़ता है, जो व्यक्ति मुख से धूम्र-सेवन करता है, उसे जत्रु (ठोढ़ी) के ऊपरी भाग में होनेवाले रोग विशेषकर शिरोभाग में वात-कफजन्य बल वती व्याधियाँ नहीं होती हैं।
• यदि सिर, नाक और नेत्रगत दोष हो और धूम्र पीने योग्य पुरुष हो तो उसे नासिका से धूम्रपान करना चाहिये और यदि कण्ठगत दोष हो तो मुखसे धूम्र पीना चाहिये।
• नासिका से धूम्र पीने के बाद धूम्र को मुख से ही निकालना चाहिये। धूम-कवल (घूंट) मुख से लेने पर | नासिका से कभी न निकाले; क्योंकि विरुद्ध मार्ग में गया हुआ धूम नेत्रों को नष्ट कर देता है।
• औषधि के धूम्रपान की विधि का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि रोग के अनुसार निर्धारित औषधियों को कूट-छानकर एक सरकंडे के ऊपर लपेटकर जौ के आकार की (बीचमें मोटी आदि-अन्तमें पतली) अँगूठेके समान मोटी तथा आठ अंगुल लम्बी वर्ति (बत्ती) बनानी चाहिये। छाया में रखने पर जब बत्ती सूख जाय तो सीक को निकालकर घृत, तेल आदि स्नेह से उसे आर्द्रकर धूमनेत्र (Cigarette Holder)-में रखकर अग्नि से जलाकर इस सुखकारी प्रायोगिक धूम्र का धीरे-धीरे तीन या नौ बार सुखपूर्वक सेवन करना चाहिये।
• धूम्रपान हेतु योग (मिश्रण हेतु औषधियों) का वर्णन करते हुए महर्षि चरक लिखते हैं
हरेणुकां प्रियङ्गं च पृथ्वीको केशरं नखम्॥
व ह्रीवेरं चन्दनं पत्रं त्वगेलोशीरपद्मकम्।
ध्यामकं मधुकं मांसीं गुग्गुल्वगुरुशर्करम्॥
न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थप्लक्षलोध्रत्वचः शुभाः।
वन्यं सर्जरसं मुस्तं शैलेयं कमलोत्पले॥
श्रीवेष्टकं शल्लकीं च शुकबर्हमथापि च।
(चरक सूत्र० ५। २०-२३)
अर्थात् -हरेणुका, प्रियंगुफूल, पृथ्वीका (काला जीरा), केशर, नख, हीवेर, सफेद चन्दन, तेजपत्र, दालचीनी, छोटी इलायची, खश, पद्मांक, ध्यामक, मुलहठी, जटामासी, गुग्गुल, अगर, शर्करा, बरगद की छाल, गूलर की छाल, पीपल की छाल, पाकड़ की छाल, लोध की छाल, वन्य, सर्ज रस (राल), नागरमोथा, शैलेय, श्वेत कमलपुष्प, नील कमल, श्रीवेष्टक, शल्ल की तथा शुकबहइन औषधियों की वर्तिका बनानी चाहिये।
• शिरोविरेचनार्थ (सिरके भारी होने पर छींक लेने हेतु) निम्न धूम्रपान-योग बताया गया है
श्वेता ज्योतिष्मती चैव हरितालं मन:शिला॥
गन्धाश्चागुरुपत्राद्या धूमं मूर्धविरेचने।
(चरक सू० ५। २६-२७)
अर्थात् -अपराजिता, मालकाँगनी, हरताल, मैनसिल, अगर तथा तेजपत्र-इन औषधियों की वर्तिका बनाकर धूम्रपान करने से शिरोविरेचन होता है। यह चिकित्सा पद्धति अब लुप्तप्राय हो गयी है, पर प्राचीन समय में यह मुख्य आरोग्यविधि थी।