ध्यान द्वारा रोगों से मुक्ति : (ऐसे करें ध्यान)

Last Updated on February 22, 2024 by admin

ध्यान से रोगों का इलाज : Cure Disease Through Meditation

ध्यान अंतर्मन का परिष्कार है। यह समग्र अस्तित्व का परिमार्जन करता है और अंतश्चेतना को ब्राह्मीचेतना से जोड़ता है, तदाकार करता है। ध्यान का अर्थ गहन है और इस अर्थ का मर्म अनोखा है। इस अनोखेपन का आस्वाद ध्यान के गंभीर अनुभव से गुजरने में ही मिल सकता है। ध्यान एक समग्र चिकित्सापद्धति है।

यह एक ओर जहाँ मन में चुभे काँटों को निकालता है, दरद का निवारण करता है तो दूसरी ओर मन को, भाव को पुलकन एवं आनंद से भर देता है। ध्यान से जीवन की खोई हुई लय फिर से प्राप्त होती है। बिखरे हुए स्वरों को, ध्यान के संगीत में सजाकर जिंदगी का भूला हुआ गीत फिर से गाते हैं। इसी कारण आधुनिक मनोचिकित्सकों ने इस उपवारप्रक्रिया को अपनाना प्रारम्भ किया है।

जीवन की यात्रा अनंत और शाश्वत है। योग इसकी शाश्वतता और सनातनता से सुपरिचित है, परंतु मनोविज्ञान इसके वर्तमान में परिलक्षित एक पक्ष को ही निहारता है। दोनों की अपनी प्रविधियाँ और प्रक्रियाएँ हैं, परंतु उद्देश्य और लक्ष्य एक है। योग इसके अस्तित्व को जानतासमझता है, मनोविज्ञान इस अस्तित्व के एक अंग का उपचार करता है। मनोविज्ञान के अनुसार वर्तमान जीवन के कड़वे अनुभव के पीछे अतीत में घटी कँटीली घटनाएँ जिम्मेदार हैं। इन घटनाओं से जीवन बड़ा ही असहज हो जाता है। असहनीय दरद उठता है, जिसे न तो सहा जा सकता है और न ही निकालना संभव होता है। क्योंकि घटनाओं के अतीत में जो काँटा चुभा है, वह दरद देता है। चुभने में भी दरद होता है और उसे निकालने में तो दरद और बढ़ जाता है।

मनोविज्ञान दरद निवारण की इस प्रक्रिया में इस जीवन के उस हादसे की यात्रा करता है, जहाँ यह काँटा लगता है। मनोविज्ञान की भाषा में इसे प्रतिगमन उपचार (रिग्रेजन थेरेपी) कहते हैं। इसमें इस जीवन के अतीत की घटनाओं का विवेकपूर्ण ढंग से साक्षात्कार कराया जाता है और वर्तमान में उस अतीत को फिर से सामने लाकर उसकी वास्तविकता से परिचय कराया जाता है।

जैसे किसी को पानी से डर लगता है तो उसके जीवन के अतीत में उस भय को तलाशा जाता है, जिस कारण यह भय व्याप्त हुआ है। इस उपचारप्रक्रिया के दौरान कई व्यक्तियों में पाया गया कि वे बचपन में टब में या बाथरूप में पानी में गिर गए थे, जिसका भय उनके अचेतन में समा गया. जो समय और परिस्थिति के परिवर्तन के साथ ही और भी जटिल होता गया। कभीकभी घटनाएँ इस जीवन में घटित हुई नहीं होती हैं, विगत जीवन की किन्हीं परतों में लिपटी हुई होती हैं। ऐसे में मनोवैज्ञानिक प्रतिगमन उपचारपद्धति को विगत जीवन की ओर ले जाने के प्रयास में लगे हुए हैं। उन्हें इससे लाभ भी हुआ है।

कर्म-संस्कार को परिष्कृत करने में ध्यान सर्वोत्तम :

योग में इन घटनाओं को संस्कार कहा जाता है। कोई कार्य जब इच्छापूर्वक बारंबार किया जाता है तो यह आदत में शुमार हो जाता है। आदत अचेतन की गहराई में दबकर संस्कार के रूप में परिवर्तित हो जाती है। प्रतिगमन उपचार से संस्कार के एक परत की धुलाई की जाती है, परंतु इससे बात बनती नहीं है। महान योगविज्ञानी एवं मनोविज्ञानी, पतंजलि इस कर्म-संस्कार को परिष्कृत करने के लिए ध्यान को सर्वोत्तम उपचार मानते हैं। प्रतिगमन उपचार से वर्तमान जीवन की विगत घटनाओं से परिचय प्राप्त किया जाता है, जबकि ध्यान अस्तित्व के प्रारम्भ से वर्तमान तक एवं वर्तमान से सुदूर भविष्य तक की, अनंत की यात्रा है। ध्यान अस्तित्व की समग्रता को देखता है और उसके व्यतिक्रमों-समस्याओं को समूल रूप में विनष्ट करता है। यह व्यक्तित्व को पूर्णरूपेण स्वच्छ एवं निर्मल तथा सभी आयामों के साथ विकसित करता है। ध्यान से व्यक्तित्व का कोई आयाम चाहे वह बौद्धिक हो या भावनात्मक, सभी एक साथ पल्लवित होते हैं, कोई भी नहीं छूटता।

ध्यान उपचार, प्रतिगमन उपचार से अधिक विकसित और समग्र है। यह अतिवैज्ञानिक प्रविधि है। इसके माध्यम से व्यक्तित्व में ऐसे खिड़की-दरवाजे खुलते हैं, जिससे ब्राह्मीचेतना का सुखद-सुरभित और निर्मल झोंका हमारे व्यक्तित्व में प्रवाहित होता है। ध्यान से एक ओर जहाँ हम अपने विगत कर्मों का साक्षात्कार करते हैं, उस कर्म-संजाल की गहन गुफा में पवित्र प्रकाश बिखेरते हैं, वहीं दूसरी ओर परिष्कृत चेतना को सतत विकसित करते हैं। ध्यान से अंतर्मन उच्चस्तरीय आयामों में गति करता है। हमारी बाह्य शारीरिक संरचना में विशेष बदलाव न होने के बावजूद अंदर का सब कुछ बदल जाता है।

ध्यान समस्त कर्म-संस्कारों के क्षय का सर्वोत्तम साधन :

प्रखर ध्यानयोगी अपने समस्त कर्म-संस्कारों को ध्यान के महाताप में गलाता है। ध्यान ही उसके लिए कर्मक्षय का सर्वोत्तम साधन बनता है और सच कहें तो ध्यान ही एक ऐसा माध्यम है, जो चित्त में जमे संस्कारों के आवरण को समुचित ढंग से स्वच्छ कर पाने में सक्षम है। जप आदि अन्य माध्यमों से भी यह प्रक्रिया पूरी की जाती है, परंतु ध्यान सर्वोत्तम है। वस्तुतः हम ध्यान की इस दिव्यता का स्पर्श न कर पाने के कारण ही भटकते फिरते हैं, बेहोशी की जिंदगी जीते हैं। अपने और अपने आस-पास के वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते। विचार और भावनाओं में व्यतिरेक और अतिरेक पैदा होता है। इसके सही सामंजस्य के अभाव में हम या तो बौद्धिक होते हैं या फिर भावुकता की लहरों में गिरतेउठते रहते हैं। जीवन बड़ा ही बेढब और बेकार-सा बना रहता है। तृप्ति, तुष्टि और शांति के कणमात्र से दूर रहते हैं। बाहरी साधनों की विपुलता में भी अंतर से महाकंगाल बने रहते हैं क्योंकि उस आनंद का आस्वाद जो नहीं मिला है। ध्यान उस आनंद के महासागर में डुबो देता है, विलीन और विलय कर देता है और इसी कारण बाहरी कंगाली के बावजूद अंतर महाऐश्वर्य से मंडित और विभूषित होता है।

कैसे करें ध्यान ? :

ध्यान एक कला है। ध्यान मन से धींगामुश्ती नहीं है, जो अक्सर हम करते हैं। ध्यान मन की सहजावस्था है। मन जिस भी उत्कृष्ट चीज में लग जाए वहीं से इसकी शुरुआत करनी चाहिए। मन जहाँ भी अपनेपन में टिक जाए, ठहर जाए, वहीं अपनी यादों को इतना प्रगाढ़ करते रहें, जब तक कि यह प्रगाढ़ता हमारी आस्था, श्रद्धा और प्रेम में परिवर्तित न हो जाए। फिर इस प्रेमपूर्ण छवि को अपने मार्गदर्शन या मनोनुकूल केंद्रों यथा हृदयस्थान अथवा मस्तक (मस्तिष्क) पर दोनों भौंहों के बीच स्थापित करना चाहिए। विचार और भावनाएँ स्वतः ही इस ओर मुड़ जाएँगी और हम ध्यान के प्रवाह में बहना प्रारम्भ कर देंगे।

ध्यान द्वारा अनंत की महायात्रा :

ध्यान फिर हमारे अस्तित्व में समाकार हो उठेगा। सबसे पहले अंतश्चेतना एकाग्र होगी, जिससे मानसिक क्षमता के सारे बंद द्वार खुलने लगेंगे। फिर यह एकाग्रता अंतर्मुखी हो हमारे अचेतन मन को परिष्कृत करने लगेगी। यह अवस्था बड़ी ही दुष्कर, कठिन और अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। ध्यान रहे ध्यानसाधक की यही असली अग्निपरीक्षा है, जिससे धैर्यपूर्वक गुजर जाने से अगले क्रम में ब्राह्मीचेतना के महा-आनंद से महालय स्थापित हो जाता है और दिव्य अनुभवों का निर्झर झरने लगता है। यह अंतिम पड़ाव नहीं है, वरन् ध्यान के अनुभव का प्रथम स्पर्श है। फिर तो यह अनंत की महायात्रा कराता है। एक सामान्य-सा जीवन विराट जीवन का अभिन्न और अखंड अंश बन जाता है और उसी में सतत निमग्न रहता है। सब मानदंड बदल जाते हैं, कुछ भी शेष नहीं रहता है। अतः ध्यान की इस कला को क्रमशः जीवन में उतारकर हमें भी अपने खोए मूलकेंद्र की ओर वापस लौटना चाहिए।

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१- धारणा और ध्यान
२-ध्यान से चिंता निवारण
३-ध्यान – स्वामी ब्रह्मानंद

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