Last Updated on January 18, 2023 by admin
ज्ञानेन्द्रिया क्या है ? :
विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं (sensations) के द्वारा ही किसी भी इंसान को बाह्य जगत के ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। संवेदना को तभी महसूस किया जा सकता है जब उससे संबन्धित संवेदी- तन्त्रिकाओं (sensory nerves) को सही उद्दीपन (उत्तेजना) (stimulus) प्राप्त हो सके। उद्दीपनों (उत्तेजना) के पैदा हो जाने पर और उनके मस्तिष्क या स्पाइनल कॉर्ड (सुषुम्ना) में संचारित होने के बाद उनका विश्लेषण केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र के द्वारा होता है। हम उस विशेष संवेदना को मस्तिष्क के द्वारा अनुवादित होने पर ही महसूस करते हैं। शरीर ध्वनि, प्रकाश, गंध, दाब आदि के प्रति संवेदनशील होता है। इनकी संवेदना विशेष प्रकार के सांवेदनिक अंगों (Special sense organs) पर निर्भर करती है। यह अंग शरीर के अलग-अलग भागों में स्थित होते हैं।
तन्त्रिका तन्तुओं का सम्बन्ध खास तरह के सांवेदनिक अंगों से रहता है। तन्त्रिका तन्तुओं का खास तरह के सांवेदनिक अंगों में अन्त (termination) होने से पहले ये अपने न्यूरोलीमा (neurolemma) तथा मायलिन आवरण (myelin sheath) का त्याग कर देते हैं। हर संवेदी तन्त्रिका का आखिरी भाग कुछ विशेष प्रकार का बना होता है। इस विशेष सिरे को अन्तांग (end organ) कहते हैं और ये अन्तांग ही संवेदन (sense) के खास अंग होते हैं। हर ज्ञानेन्द्रिय से संबन्धित बहुत से उपांग होते हैं, जो उद्दीपन (उत्तेजना) को अन्तांग तक संचारित (transmit) करते हैं। लेकिन वास्तविक उद्दीपन अन्तांग में ही होता है और वहां से वह मस्तिष्क में पहुंचता है, जहां इसका विश्लेषण होता है ओर खास संवेदना (special sense) का ज्ञान होता है।
ज्ञानेन्द्रियों के नाम :
मानव शरीर में निम्न पांच ज्ञानेन्द्रियां (sense organs) होती हैं, जिनके द्वारा बाह्य जगत का ज्ञान होता है-
- स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) (Skin)- इस ज्ञानेन्द्रिय द्वारा स्पर्श (छूना), दाब, पीड़ा (दर्द) ताप (गर्मी) (heat) और शीत (सर्दी) (cold) का एहसास होता है।
- स्वादेन्द्रिय (जीभ) (Tongue)- इस ज्ञानेन्द्रिय द्वारा किसी वस्तु को चखने से उसके स्वाद का ज्ञान होता है।
- घ्राणेन्द्रिय (नाक) (Nose)- इस ज्ञानेन्द्रिय द्वारा किसी वस्तु की गंध का एहसास होता है।
- श्रवणेन्द्रियाँ (कान) (Ears)- यह ज्ञानेन्द्रिय हमें कई प्रकार की ध्वनियों का ज्ञान कराती हैं।
- द्रश्येन्द्रियां (आंखे) (Eyes)- इस ज्ञानेन्द्रिय द्वारा संसार की हर वस्तु को देखा जा सकता है।
1. स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) का स्वरूप एवं इसका कार्य :
स्पर्शेन्द्रिय (sense of touch) का क्षेत्र बहुत ही फैला हुआ होता है, जबकि शरीर की दूसरी सभी ज्ञानेन्द्रियां स्थानीय होती हैं तथा एक निश्चित क्षेत्र में कार्य करती हैं। स्पर्श (छूने) के अलावा ताप (गर्मी), शीत (सर्दी), दाब (दबाव), पीड़ा (दर्द), हल्का, भारी, सूखा, चिकना आदि संवेदनाओं का ज्ञान इसी ज्ञानेन्द्रिय द्वारा होता है। पूरे शरीर की त्वचा में तन्त्रिका तन्तुओं के अंन्तागों (nerve endings) का एक जाल-सा फैला रहता है, जो अलग-अलग संवेदनाओं को ग्रहण करके मस्तिष्क में पहुंचाते हैं। इन्हें रिसेप्टर्स (receptors) कहा जाता है।
किसी एक संवेदना के रिसेप्टर्स एक जैसे होते हैं तथा कई प्रकार की संवेदनाओं के रिसेप्टर्स एक-दूसरे से अलग होते हैं। इनकी रचना भी अलग-अलग होती है। त्वचा में मौजूद कई प्रकार के रिसेप्टर्स एक-दूसरे से पर्याप्त दूरी पर स्थित रहते हैं। सही प्रकार के उद्दीपक को त्वचा पर लगाकर विशेष वर्ग के रिसेप्टर की स्थिति (location) का पता किया जाता है। उस बिन्दु को उस विशेष संवेदना का बिन्दु (spot) कहते हैं। त्वचा के जिन बिन्दुओं पर कुछ सख्त बालों (hair) के द्वारा स्पर्श कराने से स्पर्श की संवेदना (sense of touch) महसूस होती है, उन्हें स्पर्श-बिन्दु (tactile spots) कहते हैं। इस तरह से जिन बिन्दुओं पर (ताप) गर्मी, (शीत) सर्दी या (वेदना) दर्द का अनुभव होता है, उन क्षेत्रों को ‘ताप बिन्दु’ (warm spots), ‘शीत बिन्दु’ (cold spots), पीड़ा बिन्दु (pain spots) कहते हैं। किसी विशेष संवेदना के बिन्दु, त्वचा के किसी भाग पर अधिक और कहीं कम रहते हैं।
यदि किसी सख्त वस्तु जैसे पेन्सिल की नोक से त्वचा पर दबाव डालते हुए स्पर्श कराया जाए तो वह दाब (pressure) की संवेदना होती है, जिसके रिसेप्टर्स खास वर्ग के होते हैं। इस प्रकार के रिसेप्टर्स त्वचा के अलावा शरीर के दूसरे भाग- जैसे अस्थिआवरण (हड्डी की परत) (periosteum), टेन्डन्स के नीचे और आन्त्रयोजनी (mesentery) ग्रन्थियों में भी पाए जाते हैं। इस संवेदना से हमें अपने शरीर या इसके अलग-अलग भागों की स्थिति और गति का ज्ञान होता है। इस प्रकार के रिसेप्टर्स को लेमीलेटेड या पैसिनियन (Lamellated or Pacinian) कॉर्पसल्स (कणिका) कहते हैं। इसी से शरीर में स्थिति और गति की जानकारी होती है। उदाहरण के तौर पर यदि एक व्यक्ति अपनी दोनों आंखे बन्द करके अपने एक हाथ को टेबल पर रख दें और अपने दूसरे हाथ को भी ठीक वैसी ही स्थिति में टेबल पर रखे, तो वह सहज ही पहले रखे गए हाथ के पास अपने दूसरे हाथ को ठीक वैसी ही स्थिति में रख लेगा।
इसी प्रकार विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं के लिए रिसेप्टर्स भी खास प्रकार के होते हैं जैसे- स्पर्श की संवेदना के लिए ‘स्पर्श कणिकाएं’ (Tactile corpuscles), दाब के लिए ‘पैसिनियन कणिका’ (Pacinian corpuscles), कॉर्पसल्स ऑफ रफीनी (Corpuscles of Ruffini), कार्पसल्स ऑफ क्रॉज (Corpuscles of Krause), ताप (गर्मी) के लिए गॉल्जी-मेजोनी (Golgi-Mazzoni organs) और रफीनी (Ruffini) कॉर्पसल्स के तन्त्रिका-अन्तांग, शीत (ठंड) के लिए बल्बस कॉर्पसल्स ऑफ क्रॉज़ (Bulbous corpuscles of Krause) के तन्त्रिका अन्त्रांग, आदि कुछ खास संयोजक ऊतकों से बने अन्तांग हैं, जिनमें क्यूटेनियस तन्त्रिकाओं के छोरों (cutaneous nerve endings) का अंत होता है। पेशी स्पिन्डल (muscle spindle), गाल्जी बॉडी तथा अन्तांग प्लेट्स (end plates) आदि भी त्वचा संवेदनाओं के माध्यम हैं। इनके अलावा दर्द के आवेगों को ले जाने वाली तन्त्रिकाओं के अन्तांग त्वचा पर स्वतन्त्र रूप से फैले रहते हैं। कुछ तन्त्रिका-अन्तांग बालों की जड़ों में भी लिपटे रहते हैं जो स्पर्श संवेदना से सम्बन्धित होते हैं और स्पर्श का ज्ञान कराते हैं।
इस प्रकार विभिन्न वर्ग के रिसेप्टर अलग-अलग संवेदनाओं को ग्रहण करते हैं। किसी एक प्रकार के रिसेप्टर्स किसी एक ही संवेदना को ग्रहण कर सकते हैं। जो तन्त्रिका-अन्तांग ताप के लिए हों उनसे स्पर्श की संवेदना नहीं हो सकती है।
2. स्वादेन्द्रिय (जीभ) का स्वरूप एवं इसका कार्य :
परिवृत्त अंकुरक (Circumvallate papillae)– ये अंकुरक जीभ की ऊपर की परत पर पीछे की ओर अर्थात पोस्टीरियर दो तिहाई भाग के पास रहते हैं। ये अंग्रेजी के उल्टे ‘V’ के आकार में दो समान्तर पंक्तियों (rows) में 10 से 12 की संख्या में होते हैं। हर परिवृत्त अंकुरक में 90 से 250 स्वाद कलिकाएं मौजूद रहती हैं। ये बड़े आकार के और आसानी से दिखाई देने वाले अंकुरक (पैपिली) होते हैं।
छत्रिकाकुंर (Fungiform papillae)- ये जीभ पर विशेषकर उसके छोर (अग्रभाग) तथा किनारों पर स्थित मशरूम (mushroom) के जैसे दिखाई देने वाले, एकल फैले हुए (singly scattered) अंकुरक होते हैं। इन हर अंकुरक में 1 से 8 स्वाद कलिकाएं मौजूद रहती हैं।
सूत्रिकांकुर (Filliform papillae)- ये जीभ के अगले दो तिहाई भाग की परत पर पाए जाने वाले धागे के समान (thread like) नुकीले अंकुरक होते हैं। इनमें स्वाद कलिकाएं नहीं रहती है। इनका कार्य स्वाद ज्ञान कराने की अपेक्षा वस्तु को प्रतीत कराना है। स्वाद को परिवृत्त (सरकमबैलेट) अंकुरक और फन्गिफॉर्म पैपिली (सूत्रिकांकुर अंकुरक) द्वारा ही महसूस किया जा सकता है।
स्वाद कलिकाएं (taste buds) एवं स्वाद ग्रहण करने की क्रिया विधि :
स्वाद कलिकाएं (taste buds) ही स्वाद के विशेष अन्तांग हैं। इनकी हर कोशिका में स्वाद-तन्त्रिका (lingual and glossopharyngeal nerve) की शाखा आती है। हर स्वाद कलिका अंकुरक की परत पर सूक्ष्म रन्ध्र (tiny pore) से खुलती है और उसकी सभी कोशिकाएं, जो इस स्थान पर एकसाथ पहुंचती हैं, उनका अन्त सूक्ष्म बाल के समान अनेकों उभारों में होता है। खाद्य पदार्थ इन रन्ध्रों में प्रवेश कर इन उभारों को अपने संस्पर्श से उत्तेजित करते हैं। इनमें उत्पन्न उत्तेजना के आवेग स्वाद-संवेद की तन्त्रिकाओं (VII, IX व X कपालीय तन्त्रिकाएं) के द्वारा मस्तिष्क के स्वाद केन्द्र (taste centre) में संचारित होते हैं और वहाँ स्वाद का विश्लेषण होता है। इसके बाद ही हमें विभिन्न प्रकार के स्वादों का ज्ञान होता है।
हर स्वाद कलिका अण्डाकार होती है। इनके अक्ष परत पर सीधे एवं लम्बबद्ध (perpendicular) दिशा में स्थित रहते हैं। इनमें नीचे की ओर से रक्तवाहिकाएं और तन्त्रिकाएँ भी प्रवेश करती हैं। स्वाद कलिकाओं में कीमोरिसेप्टर या गस्टेटरी कोशिकाएं तथा सहारा देने वाली सपोर्टिंग कोशिकाएं रहती हैं।
मूलभूत स्वाद संवेदन (Basic taste sensations) :
मुख्य रूप से स्वाद की अनुभूतियां चार प्रकार की होती हैं- मीठी, खट्टी, कड़वी और नमकीन। ज्यादातर खाद्य पदार्थों में स्वाद के साथ-साथ गंध (महक) (flavour) भी होती है। लेकिन यह गंध की संवेदना से सम्बन्धित रहती है और गंध के रिसेप्टर्स को उत्तेजित करती है, स्वाद के रिसेप्टर्स को नहीं।
मूलभूत स्वाद संवेदनाएं जीभ की परत के सारे भागों में एक समान रूप से पैदा नहीं होती हैं। जीभ के निश्चित भाग ही किसी खास स्वाद द्वारा प्रभावित होते हैं। मीठा एवं नमकीन स्वाद जीभ के छोर (अग्रभाग) (tip) पर, खट्टा स्वाद जीभ के दोनों पार्श्वो (sides) में तथा कड़वा स्वाद जीभ के पिछले भाग (गले के पास) में पता लगता है। जीभ के बीच वाले भाग में खास ‘स्वाद संवेदना’ नहीं रहती है। इस प्रकार, प्रत्येक निश्चित विशेष स्वाद के लिए जीभ में निश्चित विशेष स्वाद कलिकाएं (taste buds) रहती हैं, जो किसी खास प्रकार के उद्दीपन (उत्तेजना) से ही प्रभावित होती हैं।
स्वाद आवेगों का पथ (मार्ग) (Pathways for taste impulses) :
स्वाद संवेदनाओं के आवेग जीभ के अगले दो तिहाई भाग से फेशियल तन्त्रिका (Facial nerve) की शाखा द्वारा, पिछले एक तिहाई भाग से ग्लॉसोरन्जि़यल तन्त्रिका (Glossopharyngeal nerve) द्वारा तथा तालू (palate) एवं ग्रसनी (pharynx) से वेगस तन्त्रिका (Vagus nerve) द्वारा मस्तिष्क में संचारित होते हैं। ऊपर बताए गए तीनों कपालीय तन्त्रिकाओं के स्वाद तन्तु (taste fibres) मेड्यूला ऑब्लांगेटा के न्यूक्लियस सोलिटेरियम (nucleus solitarium) में समाप्त (terminate) होते हैं। यहां से अक्षतन्तु (axons) थैलेमस (thalamus) की ओर निकलते हैं और फिर प्रमस्तिष्कीय कॉर्टेक्स के पैराइटल लोब में स्थित ‘स्वाद केन्द्र’ (taste center) में पहुंच जाते हैं।
3. ध्राणेन्द्रिय (नाक) का स्वरूप एवं इसका कार्य :
इस ज्ञानेन्द्रिय अर्थात नाक का कार्य किसी वस्तु या पदार्थ की गन्ध को महसूस करना या सूंघना (olfaction) होता है। जिस प्रकार स्वाद को महसूस करने के लिए पदार्थ का घोल के रूप में होना जरूरी है, उसी प्रकार गन्ध के ज्ञान या उसे सूंघने के लिए पदार्थ का गैस या भाप के रूप में होना जरूरी है। नाक में पहुंचकर भाप या गैस स्थानीय स्राव में घुल जाता है और घ्राण क्षेत्र की कोशिकाओं (olfactory cells) को उत्तेजित करता है। यहां से उत्तेजना के आवेग घ्राण बल्ब में और फिर घ्राण-मार्ग से होकर मस्तिष्क के घ्राण क्षेत्र में पहुंचते हैं। इस क्षेत्र पर आवेगों का विश्लेषण होकर गन्ध का ज्ञान होता है।
नाक या नासिका की संरचना एवं घ्राण या गन्ध संवेदन (Structure of nose and sense of smell)
तीन छोटी हड्डियों (nasal conchae) द्वारा नासा गुहा (nasal cavity) की श्लेष्मा कई कक्षों में बंट जाती है। यह कक्ष नाक की बाहरी भित्ति से शुरु होते हैं। तीनों हड्डियों (nasal conchae) के कारण इस स्थान पर तीन छोटे टीलों की तरह के उभार बन जाते हैं। पूरे क्षेत्र पर नेजल म्यूकस मेम्ब्रेन (नेजल श्लेष्मक झिल्ली) बिछी रहती है, जो कॉन्यूमनर सिलिएटेड एपीथीलियम से बनी रहती हैं। इसमें गॉब्लेट कोशिकाएं (goblet cells) भी रहती हैं। इन कोशिकाओं के स्राव से नाक की म्यूकस मेम्ब्रेन (श्लेष्मक झिल्ली) गीली, चिकनी तथा चिपचिपी-सी रहती है।
नेजल कोंचा से नासिका में ऊर्ध्व, मध्य तथा निम्न क्षैतिज खांचें बन जाती हैं। हड्डी से बने तीनों खांचे नासिका के प्रत्येक आधे भाग को अपूर्ण रूप से चार कक्षों में बांट देते हैं, जो सामने से पीछे की ओर जाते हैं तथा एक के ऊपर एक स्थित रहते हैं। प्रश्वसित वायु, नीचे के तीन कक्षों से होकर जाती है लेकिन सबसे ऊपर वाले कक्ष में सामान्य रूप से नहीं जाती है। घ्राण (smell) के अंग, सबसे ऊपर वाले कक्ष की घ्राण श्लेष्मिक कला (olfactory mucous membrane) में स्थित होते हैं। घ्राण कोशिकाओं के अन्तांग इसी मेम्ब्रेन (झिल्ली) में फैले रहते हैं। नासा गुहा का सबसे ऊपर वाला कक्ष एक अंधगुहा या पॉकेट के समान होता है, जिसका वहीं अंत हो जाता है। घ्राण उपकला (olfactory epithelium) गंध के प्रति संवेदनशील होती है और नाक की छत के पास होती है। इसमें तीन तरह की कोशिकाएं होती हैं- सहारा देने वाली कोशिकाएं (supporting cells), आधारीय कोशिकाएं (basal cells) और द्विध्रुवीय तन्त्रिका कोशिकाएं (bipolar nerve cells)। इनके अलावा एक निचले स्तर (lamina propria) में कुछ बॉमेन्स ग्रन्थियां (Bowman’s glands) भी रहती हैं। इन ग्रन्थियों से निकलने वाला स्राव पूरी परत को गीला रखता है तथा गंधयुक्त भापों (odorous vapours) को घोलने का कार्य करता है। सहारा देने वाली कोशिकाओं का आधार (base) ऊपर की ओर रहता है और एक सतही मेम्ब्रेन (झिल्ली) बनाता है, जिसके बीच के खाली स्थानों में से घ्राण कोशिकाओं (olfactory cells) के बाल के जैसे प्रवर्ध (cilia) बाहर की और निकले रहते हैं।
वस्तुतः द्विध्रुवीय तन्त्रिका कोशिकाएं (bipolar nerve cells) ही घ्राण की रिसेप्टर (ग्राही) कोशिकाएं (receptor cells) होती हैं। मानव शरीर में ये 25 मिलियन से अधिक होती हैं तथा हर सहारा देने वाली कोशिकाओं से घिरी रहती है। प्रत्येक रिसेप्टर (ग्राही) कोशिका में एक गोल न्यूक्लियस तथा एक लम्बे धागे के रूप में प्रोटोप्लाज्म रहता है। ये कोशिकाएं म्यूकस मेम्ब्रेन (श्लेष्मिक झिल्ली) में धंसी रहती है। हर कोशिका के दो प्रवर्ध (processes) दोनों ध्रुवों में से निकले रहते हैं। कोशिकाएं लम्बे अक्ष में एक-दूसरी से चिपकी हुई, परत से लम्बबद्ध दिशा में (perpendicular) खड़ी हुए रूप में स्थित रहती हैं। इन कोशिकाओं के पार्श्वतन्तु (डेण्ड्राइट) छोटे आकार के अभिवाही प्रवर्ध (afferent nerve fibres) होते हैं, जो एपिथीलियम के बीच खाली स्थानों से निकले रहते हैं। ऊपर ये थोड़े फैलकर ऑल्फेक्टरी रॉड्स बनाते हैं तथा विस्फारित घ्राण स्फोटिका (bulbous olfactory vesicle) में समाप्त हो जाते हैं। हर स्फोटिका (कोष) (vesicle) से 6-20 लम्बे बाल के जैसे प्रवर्ध (cilia) निकले रहते हैं, जो सतही एपीथीलियम (surface epithelium) को आच्छादित किए रहते हैं। इन्हें घ्राण-रोम-कोशिका कहते हैं। स्फोटिका (कोष) (vesicle) और इसके प्रवर्ध (cilia) ही घ्राण के अन्तांग (olfactory end organs) होते हैं।
रिसेप्टर (ग्राही) कोशिकाओं के अक्षतन्तु (एक्सोन्स) (यह घ्राण तन्त्रिका (olfactory nerve) की रचना करते हैं) दूसरे सिरे से निकलकर ऊपर उठते हैं और इथमॉइड हड्डी (ethmoid bone) की छिद्रित प्लेट (cribriform plate) से होकर गुजरते हुए घ्राण-बल्ब्स (olfactory bulbs) में पहुंचते हैं। घ्राण बल्ब्स भूरे द्रव्य की खास तरह की संरचाएं हैं, जो मस्तिष्क के घ्राण-क्षेत्र (olfactory region) के स्तम्भाकार विस्तार होते हैं। घ्राण-बल्ब के अन्दर रिसेप्टर (ग्राही) कोशिकाओं का टर्मिनल एक्सॉन्स (अक्ष तन्तुओं के अन्तांग) गुच्छित कोशिकाओं (tufted cells), ग्रैन्यूल कोशिकाओं (granule cells) एवं माइट्रल कोशिकाओं (mitral cells) के डेण्ड्राइट्स (पार्श्वतन्तुओं) के साथ तन्तुमिलन (synapse) होता है। जिससे एक विशिष्ट गोलाकार अंग घ्राण गुच्छिका (Olfactory glomeruli) की रचना होती है। हर ग्लोमेरूलस (glomerulus) रिसेप्टर (ग्राही) कोशिका के लगभग 26,000 अक्षतंतुओं (एक्सॉन्स) से आवेगों को प्राप्त करता है। माइट्रल एवं गुच्छित (tufted) कोशिकाओं के अक्षतन्तु (एक्सॉन्स) ही घ्राण-मार्ग (Olfactory tract) बनाते हैं, जो पीछे जाकर प्रमस्तिष्कीय कॉर्टेक्स के टेम्पोरल लोब में घ्राण केन्द्र (olfactory or smell center) में पहुंचता है। इस केन्द पर आवेगों का विश्लेषण होता है और हमें खास प्रकार की गन्ध महसूस होती है।
4. श्रवणेन्द्रिय (कान) का स्वरूप एवं इसका कार्य :
बाह्य कर्ण (कान) (External Ear)
बाह्य कर्ण के दो भाग होते हैं- कर्णपाली (बाहरी कान) (auricle of pinna) तथा बाह्य कर्ण कुहर। (external auditory meatus), कर्णपाली (auricle or pinna) कान का सिर के पार्श्व से बाहर को निकला रहने वाला भाग होता है। यह लचीले तंतु उपास्थि (फाइब्रोकार्टिलेज़) से बनता है तथा त्वचा से ढका रहता है। यह भाग सिर के दोनों ओर स्थित रहता है। कर्णपाली का आकार टेढ़ा-मेढ़ा और अनियमित होता है। इसके बाहरी किनारे को हेलिक्स (कुंडल) (helix) कहते हैं। हेलिक्स (कुंडल) से अन्दर की ओर के अर्द्धवृत्ताकार उभार (semicircular ridge) को एन्टहेलिक्स (nathelix) कहते हैं। ऊपर के भाग में स्थित उथले गर्त को ट्राइएन्गूलर फोसा (triangular fossa) तथा बाह्य कर्ण कुहर से चिपके हुए गहरे भाग को कोन्चा (concha) कहते हैं एवं कुहर के प्रवेश स्थल के सामने स्थित छोटे से उत्सेघ (प्रक्षेप) (projection) को ट्रैगस (tragus) कहते हैं। इसका निचला लटका हुआ भाग (ear lobule) कोमल और वसा-संयोजक-ऊतक (adipose connective tissue) से बना होता है। इस भाग में रक्त वाहिनियों की आपूर्ति बहुत अधिक रहती है। कर्णपाली कान की रक्षा करती है तथा ध्वनि से उत्पन्न तरंगों को इकट्ठा करके आगे कान के अन्दर भेजने में मदद करती है।
बाह्य कर्ण कुहर (external auditory meatus) बाहर कर्णपाली से अंदर टिम्पेनिक मेम्ब्रेन (टिम्पेनिक झिल्ली) या कान का पर्दा (ईयर ड्रम) तक जाने वाली नली होती है। यह नली अंग्रेजी के अक्षर ‘S’ के समान घुमावदार और लगभग 2.5 सेमीमीटर (1”) लम्बी तथा संकरी होती है। टिम्पेनिक मेम्ब्रेन (टिम्पेनिक झिल्ली) द्वारा यह मध्यकर्ण से अलग रहती है। इसका एक तिहाई बाहरी भाग उपास्थि (कार्टिलेज) का बना होता है तथा बाकी दो तिहाई अंदरूनी भाग एक नली के रूप में टेम्पोरल हड्डी में चला जाता है। यह अंदरूनी भाग हड्डी द्वारा बनता होता है। पूरा बाह्य कर्ण कुहर रोमिल त्वचा से अस्तरित होता है, जो कर्णपाली को आच्छादित करने वाली त्वचा के सातत्य में ही रहता है। कार्टिलेजिन भाग की त्वचा में बहुत सी सीबेसियस एवं सेर्यूमिनस (ceruminous) ग्रन्थियां होती हैं। ये ग्रंथियां क्रमशः सीबम (तैलीय स्राव) एवं सेर्यूमेन (कान का मैल या ईयर वैक्स) का स्राव करती हैं। ईयर वैक्स (ear wax) से, बालों (रोम) से तथा कर्ण कुहर के घुमावदार होने से धूलकण, कीट-पंतगें आदि जैसी बाहरी वस्तुएं कान के अंदर नहीं जा पाते हैं।
कर्णपटह (कान का पर्दा) (Tympanic membrane)
कर्णपटह को कान का पर्दा (ear drum) भी कहते हैं। यह बाह्य कर्ण एवं मध्य कर्ण के बीच बंटवारा (partition) करने वाली चौरस कोन आकार की एक पतली फाइबर्स सीट होती है। यह बाहर की ओर त्वचा के साथ तथा अन्दर की ओर मध्य कर्ण को आस्तरित करने वाली श्लेष्मिक झिल्ली (म्यूकस मेम्ब्रेन) के सातत्य (continuation) में रहती हैं। कर्णपटह मध्य कर्ण की ओर दबा सा रहता है। यह बिन्दु अम्बो (umbo) कहलाता है। इसी स्थान पर मध्य कर्ण पर स्थित मैलीयस (malleus) हड्डीी कर्णपटह के भीतर की ओर से चिपकी रहती हैं। कर्णपटह के ज्यादातर किनारे (margin) टिम्पेनिक ग्रूव (खांचे) में जुटे (embedded) रहते हैं। यह खांचा (ग्रूव) बाह्य कर्ण कुहर के अन्दरूनी सिरे (inner end) की परत पर स्थित होता है। बाहरी कान तथा बाह्य कर्णकुहर दोनों ही ध्वनि तरंगों को इकट्ठा करके अंदर भेजते हैं। जब ध्वनि तरंगें कर्णपटह से टकराती हैं तो उसमें प्रकम्पन (vibration) पैदा होता है, जिसे वह मध्यकर्ण की अस्थिकाओं (ossicles) द्वारा अन्त: कर्ण में भेजता है।
मध्यकर्ण (Middle ear)
मध्यकर्ण, कर्णपटह (टिम्पेनिक मेम्ब्रेन) एवं अतः कर्ण के बीच स्थित एक छोटा कक्ष होता (chamber) है। इसमें कर्णपटही गुहा (tympanic cavity) एवं श्रवणीय अस्थिकाएं (auditory ossicles) शामिल होती है।
कर्णपटही गुहा (tympanic cavity) टेम्पोरल अस्थि (हड्डी) के अश्माभ भाग (petrous portion) में स्थित संकरा, असमान आकार का वायु से भरा (air filled) एक स्थान है। इसमें 4 भित्तियां- अग्र, पश्च, मध्यवर्ती एवं पार्श्वीय तथा छत और फर्श होता है। ये सभी श्लेष्मिक झिल्ली (म्यूकस मेम्ब्रेन) से आस्तरित रहते हैं। टेम्पोरल हड्डी की पतली प्लेटें छत (roof) और फर्श (floor) का निर्माण करती हैं, जो टिम्पेनिक गुहा को ऊपर से मिडिल क्रेनियल फोसा से तथा नीचे से ग्रीवा की वाहिकाओं (vessels) से अलग करती हैं। इसकी पश्चभित्ति (posterior wall) में एक द्वार (aditus) होता है जो ‘कर्णमूल वायु कोशिकाओं’ (mastoid air cells) में खुलता है। इसमें हड्डी का एक छोटा-सा कोन आकार का पिण्ड (pyramid) भी होता है, जो स्टैपीडियस पेशी (stapedius muscle) से घिरा रहता है। इस पेशी का टेन्डन, छिद्र (द्वार) से गुजरकर पिरामिड (pyramid) के ऊपरी सिरे पर स्टैपीज (stapes) से जुड़ता है। इसकी पार्श्वीय भित्ति (lateral wall) टिम्पेनिक मेम्ब्रेन (झिल्ली) से बनती है। मध्यवर्ती भित्ति (medial wall) टेम्पोरल हड्डी की एक पतली परत होती है, जिसमें दूसरी ओर अंतःकर्ण (internal ear) होता है। इसमें दो छिद्र (openings) होते हैं, जो मेम्ब्रेन (श्लेष्मा( से ढके रहते हैं। इसका ऊपर वाला छिद्र अण्डकार होता है, जो अन्तःकर्ण के प्रघाण (vestibule) में खुलता है तथा इसे फेनेस्ट्रा ओवेलिस (fenestra ovalis) कहते हैं। इसका दूसरा छिद्र गोलाकार होता है जिसे फेनेस्ट्रा रोटनडम (fenestra rotundum) कहते हैं। यह गोलाकार छिद्र मध्य कर्ण की म्यूकस मेम्ब्रेन (श्लेष्मिक झिल्ली) से बन्द रहता है तथा इसका सम्बन्ध अन्तःकर्ण की कॉक्लिया से रहता है। अग्रभित्ति (anterior wall) टेम्पोरेल हड्डी से बनी होती है। इसमें कर्णपटह (tympanic membrane) के बिल्कुल पास ही एक छिद्र होता है जो यूस्टेचियन टयूब (कर्णनली) (Eustachian tube) का मुखद्वार होता है।
यूस्टेचियन टयूब (कर्णनली), श्रवणीय नली (auditory tube) या फेरिन्जोटिम्पेनि नली (pharyngotympanic tube), मध्यकर्ण की गुहा एवं नासाग्रसनी (masopharynx) के बीच में सम्बन्ध स्थापित करती है। मध्यकर्ण को आस्तरित करने वाली श्लेष्मक झिल्ली (म्यूकस मेम्ब्रेन) सातत्य में इस नली को भी आस्तरित करती है। मध्यकर्ण का सम्बन्ध कर्णमूल वायु कोशिकाओं (mastoid air cells) से भी रहता है। गले के संक्रमण (throat infections) अक्सर इसी नली के द्वारा मध्य कान में पहुंचते हैं तथा यहां से कर्णमूल कोशिकाओं में पहुँचकर विद्रधियां (फोड़े-फुंसियां) (abscesses) पैदा कर सकते हैं।
श्रवणीय अस्थिकाएं (auditory ossicles) छोटी-छोटी तीन हड्डियां (मैलीयस, इन्कस या एन्विल तथा स्टैपीज) हैं, जो श्रृंखलाबद्ध तरह से कर्णपटह (tympanic membrane) से लेकर मध्यवर्ती भित्ति पर स्थित अण्डाकार छिद्र (fenestra ovalis) तक स्थित रहती हैं। हर हड्डी (मैलीयस) का छोर दूसरी हड्डी के सिरे से संधिबद्ध रहता है। पहली हड्डी का सिरा कर्णपटह (tympanic membrane) से सम्बन्धित रहता है और अन्तिम हड्डी स्टैपीज का छोर फेनेस्ट्रा ओवेलिस में चिपका रहता है। श्रृंखलाबद्ध होने के कारण ध्वनि-तरंगों से पैदा होने वाले प्रकम्पन (vibration) कर्णपटह (tympanic membrane) से, इन तीनों अस्थिकाओं (auditory ossicles) से होता हुआ इन्हीं के द्वारा अन्तःकर्ण तक पहुंच जाता है तथा बाह्यकर्ण का अन्तःकर्ण से सम्बन्ध स्थापित रहता है।
अन्तःकर्ण (Internal ear)
यह टेम्पोरल हड्डी के अश्माभ भाग (petrous portion) में स्थित श्रवणेन्द्रिय (कान) का प्रमुख अंग है। इसी में सुनने तथा सन्तुलन के अंग स्थित होते हैं। अन्तःकर्ण की बनावट टेढ़ी-मेढ़ी एवं कठिन है जो कुछ-कुछ घोंघे (snail) के समान होती है। इसमें दो मुख्य रचनाएं होती हैं, जो एक दूसरे के भीतर रहती हैं- अस्थिल लैबिरिन्थ (bony labyrinth) तथा कलामय लैबिरिन्थ (membtanous labyrinth)। अस्थिल लैबिरिन्थ टेम्पोरल हड्डी के अश्माभ भाग में स्थित टेढ़ी-मेढ़ी अनियमित आकार की नलिकाओं की एक श्रृंखला (series of channels) होती है, जो परिलसीका (perilymph) नामक तरल से भरी होती है।
कलामय लैबिरिन्थ अस्थिल लैबिरिन्थ में स्थित रहता है। इसमें यूट्रिक्ल (utricle), सैक्यूल (saccule), अर्द्धवृत्ताकार वाहिकाएं (semicircular ducts) एवं कॉक्लियर वाहिका (cochlear duct) शामिल होती है। इन सारी रचनाओं में अंतःकर्णोद (endolymph) तरल भरा रहता है तथा सुनने एवं सन्तुलन के सारे संवेदी रिसेप्टर्स (ग्राही) मौजूद रहते हैं। अर्द्धवृत्ताकार वाहिकाएं अर्द्धवृत्ताकार नलिकाओं के अंदर स्थित रहती हैं। अस्थिल नलिकाओं (canals) एवं वाहिकाओं (ducts) के बीच के स्थान में परिलसीका (perilymph) भरा रहता है। चूंकि कलामय लैबिरिन्थ अस्थिल लैबिरिन्थ के अंदर स्थित रहता है, इसीलिए इनका आकार समान रहता है। इनका वर्णन अस्थिल लैबिरिन्थ में ही किया गया है।
अस्थिल लैबिरिन्थ (bony labyrinth) में तीन रचनाओं का समावेश रहता है-
- प्रघाण (Vestibule)
- तीन अर्द्धवृत्ताकार नलिकाएं (3 Semicircular canals)
- कर्णावर्त (Cochlea)
प्रघाण (Vestibule)- यह लैबिरिन्थ का मध्य कक्ष होता है। इसके सामने कॉक्लिया और पीछे अर्द्धवृत्ताकार नलिकाएं रहती हैं। प्रघाण की बाहरी भित्ति के अण्डाकार छिद्र (fenestra ovalis) में मध्य कर्ण की स्टैपीज़ अस्थिका की प्लेट लगी रहती है। इसी के द्वारा प्रघाण का सम्पर्क सीधा मध्यकर्ण से रहता है। मध्यकर्ण और प्रघाण के बीच में सिर्फ इस खिड़की के जैसा छिद्र में लगा हुआ झिल्ली का पर्दा रहता है। प्रघाण के अंदर अन्तःकर्णोद (endolymph) से भरी कलामय लैबिरिन्थ की दो थैली (sacs) होते हैं। जिन्हें यूट्रिक्ल (utricle) तथा सैक्यूल (saccule) कहते हैं। हर थैली (sac) में संवेदी पैच (sensory patch) मौजूद रहता है, जिसे मैक्यूल (macule) कहा जाता है।
अर्द्धवृत्ताकार नलिकाएं (Semicircular canals)- प्रघाण के ऊपर (superior), पीछे (posterior) तथा पार्श्व में (lateral), ये तीन अस्थिल अर्द्धवृत्ताकार नलिकाएँ होती हैं। ये नलिकाएं प्रघाण से जुड़ी रहती हैं। ये तीनों नलियां एक दूसरे के लम्बवत् (perpendicular) होती हैं। इनके अंदर कलामय वाहिकाएं (ducts) रहती हैं। कलामय वाहिकाओं (membranous semicircular ducts) और अस्थिल नलिकाओं (bony semicircular canals) के बीच में परिलसीका तरल भरा रहता है तथा कलामय वाहिकाओं के अंदर अन्तःकर्णोद तरल भरा रहता है। हर वाहिका का छोर कुछ फूला-हुआ (expanded) होता है, जिसे ‘एम्पूला’ (ampulla) कहते हैं। इसमें संवेदी रिसेप्टर (ग्राही) क्रिस्टा एम्पूलैरिस (crista ampullaris) रहता है। इसमें कुपोला (cupola) नामक रोम कोशिकाएं (hair cells) भी रहती हैं। यहीं पर आठवीं कपालीय तन्त्रिका की शाखा प्रघाण तन्त्रिका (Vestibular nerve) आती है।
यूट्रिक्ल, सैक्यूल एवं अर्द्धवृत्ताकार वाहिकाओं, तीनों का सम्बन्ध शरीर के संतुलन (equilibrium) को बनाए रखने से है न कि सुनने की क्रिया से।
कर्णावर्त (Cochlea)
कर्णावत अपने ऊपर ही लिपटी हुई सर्पिल आकार की एक नलिका को कहते हैं। यह देखने में घोंघे के कवच के जैसी दिखाई देती है। यह बीच में स्थित शंक्वाकार अस्थिल अक्ष स्तम्भ (इसे मॉडियोलस कहते हैं) के चारों ओर दो और तीन चौथाई (2¾) बार कुण्डलित होती है। इसका नीचे का चक्र सबसे बड़ा होता है और ऊपर का सबसे छोटा। कर्णावत की नलिका अण्डाकार छिद्र की खिड़की फेनेस्ट्रा ओवेलिस (fenestra ovalis) से शुरु होकर गोलाकर छिद्र वाली खिड़की फेनेस्ट्रा रोटण्डा (fenestra rotunda) तक फैली रहती है। अस्थिल कर्णावत के अंदर, ठीक इसी आकार की कलामय कर्णावत की वाहिका (duct) होती है। इन दोनों नलिकाओं के बीच परिलसीका (perilymph) तरल भरा रहता है।
कलामय कर्णावत वाहिका प्रघाण (वेस्टिब्यूलर) एंव बेसिलर नामक दो मेम्ब्रेन्स (झिल्ली) द्वारा लम्बवत् रूप में तीन अलग-अलग कुण्डलित (सर्पिल) वाहिकाओं में बंट जाती है- जो निम्नलिखित हैं-
- स्कैला वेस्टिब्यूलाइ (Scala vestibuli)
- स्कैला मीडिया (Scala media) या कॉक्लियर डक्ट (Cochlear duct)
- स्कैला टिम्पेनाइ (Scala tympani)
स्कैला वेस्टिब्यूलाइ का प्रघाण से सम्बन्ध रहता है और स्कैला टिम्पेनाइ का समापन (end) गोलाकार छिद्र वाली खिड़की पर होता है। स्कैला मीडिया बाकी दोनों वाहिकाओं के बीच रहती है तथा इसमें अंतः कर्णोद (endolymph) तरल भरा रहता है। स्कैला वेस्टिब्यूलाइ और स्कैला टिम्पेनाइ में परिलसीका (perilymph) भरा रहता है। ये तीनों वहिकाएं (ducts) समानान्तर व्यवस्थित रहकर अस्थिल अक्ष स्तम्भ (modiolus) के चारों ओर कुण्डलित होकर ऊपर की ओर चढ़ती हैं। स्कैला मीडिया (जिसे कॉक्लियर डक्ट भी कहते हैं) में स्पाइरल अंग (spiral organ) भी मौजूद रहते हैं, जो श्रवण अंग (organ of Corti) कहलाते हैं।
श्रवण अंग (organ of Corti) सहारा देने वाली कोशिकाओं (supporting cells) एवं रोम कोशिकाओं (hair cells) से मिलकर बना श्रवण अन्तांग (end organ of hearing) है। रोम कोशिकाएं कुण्डली की पूरी लम्बाई के साथ-साथ पंक्तियों में तथा आन्तरिक रोम कोशिकाएं बेसिलर मेम्ब्रेन (झिल्ली) के अंदरूनी किनारे के साथ-साथ एक लाईन में व्यवस्थित रहती हैं। मानव में लगभग 3500 आन्तरिक रोम कोशिकाएं तथा 20,000 बाहरी रोम कोशिकाएं होती हैं। इन दोनों आन्तरिक एवं बाहरी रोम कोशिकाओं में सूक्ष्मबाल के जैसी संवेदी रोम (sensory hair) या स्टीरियो सिलिया (stereocilia) रहते हैं। हर बाहरी रोम कोशिका में 80 से 100 संवेदी रोम (sensory hairs) तथा आन्तरिक रोम कोशिका में 40 से 60 संवेदी रोम रहते हैं। हर रोम कोशिका में, रोम लाईनों में स्थित रहते हैं, जो अंग्रेजी के अक्षर ‘W’ या ‘U’ बनाते हैं। रोमों (hairs) के छोर (tips) एकसाथ मिलकर एक छिद्र युक्त झिल्ली (perforated membrane) कहते हैं, जो श्रवण अंग (spiral organ) के ऊपर जमी (firmly bound) रहती है।
कान की तन्त्रिकाएं (Nerves of the Ear)
कान में आठवीं (VIII) कपालीय तन्त्रिका (Vestibulocochlear nerve) की आपूर्ति होती है। यह दो शाखाओं में बंट जाती है। एक प्रघाण (वेस्टिब्यूल) में जाती है और दूसरी कॉक्लिया में। प्रघाण में जाने वाली शाखा प्रघाण तन्त्रिका (Vestibular nerve) कहलाती है। इसका सम्बन्ध शरीर का संतुलन बनाए रखने की क्रिया से है। उद्दीपन (उत्तेजना) मिलने पर यह आवेगों को अनुमस्तिष्क (cerebellum) में संचारित करती है।
दूसरी तन्त्रिका (कॉक्लिया में जाती है) को कॉक्लियर तन्त्रिका (Cochlear nerve) कहते हैं। यह कॉक्लिया के मध्य में स्थित अस्थिल अक्ष स्तम्भ (modiolus) में प्रवेश करती है और श्रवण अंग (organ of Corti) के पास पहुंचकर इसकी बहुत सी शाखाएं चारों ओर फैल जाती हैं। इस तन्त्रिका द्वारा ले जाए जाने वाले आवेग प्रमस्तिष्क (cerebrum) के टेम्पोरल लोब में स्थित श्रवण केन्द्र (hearing center) में पहुंचते हैं। इस केन्द्र में ‘ध्वनि’ (sound) का विश्लेषण होता है और हमें खास प्रकार की ध्वनि की संवेदना महसूस होती है।
श्रवण-क्रिया (Mechanisum of Hearing)
ध्वनि के कारण वायु में तरंगे (प्रकम्पन) पैदा होती हैं जो लगभग 332 मीटर प्रति सेकण्ड की गति से संचारित होती हैं। किसी स्वर का सुनना तभी संभव होता है जबकि उसमें वायु में तरंगे पैदा करने की क्षमता हो और फिर वायु में पैदा होने वाली ये तंरगें कान से टकराएं। ध्वनि का प्रकार, उसका तारत्व (pitch), उसकी तीव्रता अथवा मन्दता (intersity), उसकी मधुरता या रूक्षता आदि वायु तरंगों की आवृत्ति (frequency), आकार (size) तथा आकृति (form) पर निर्भर करता है।
जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है कि बाह्यकर्ण की कर्णपाली (auricle) ध्वनि तरंगों को जमा करती है और उन्हें बाह्य कर्ण कुहर (external auditory meatus) के द्वारा कान में प्रेषित करती है। इसके बाद ध्वनि तरंगें कर्णपटह (tympanic membrane) से टकराकर उसी प्रकार की प्रकम्पन (तरंगे) (vibration) पैदा करती हैं। कर्णपटह के प्रकम्पन अस्थिकाओं (ossicles) में गति होने से मध्यकर्ण से होकर संचारित हो जाते हैं। कर्णपटह का प्रकम्पन उसी से सटी मैलियस (malleus) अस्थिका द्वारा क्रमशः इन्कस (incus) एवं स्टैपीज़ (stapes) अस्थिकाओं में होता हुआ अण्डाकार छिद्र वाली खिड़की (fenestra ovalis) पर लगी झिल्ली में पहुंच जाता है। प्रकम्पन के यहां तक पहुँच जाने पर प्रघाण (vastibule) में स्थित परिलसीका (perilymph) तरल में तरंगें पैदा हो जाती हैं। स्कैला वेस्टिब्यूलाइ एवं स्कैला टिम्पेनाइ में स्थित परिलसीका वेस्टिब्यूल के परिलसीका से सम्बन्धित रहता है, इसलिए वह भी तरंगित हो उठता है। स्कैला वेस्टिब्यूलाइ एवं स्कैला टिम्पेनाइ की तरंगें स्कैला मीडिया अथवा कॉक्लियर वाहिका (cochlear duct) के एण्डोलिम्फ को भी तरंगित कर देती हैं। इसके फलस्वरूप बेसिलर मेम्ब्रेन (झिल्ली) में प्रकम्पन पैदा होता है तथा श्रवण अंग (organ of Corti) की रोम कोशिकाओं (hair cells) के श्रवण रिसेप्टर्स (ग्राही) (auditory receptors) में उत्तेजना होती है। इससे पैदा होने वाले तन्त्रिका आवेग (nerve impulses) आठवीं कपालीय तन्त्रिका (वेस्टिब्युलोकॉक्लियर तन्त्रिका) की कॉक्लियर शाखा के द्वारा प्रमस्तिष्क के टेम्पोरल लोब में स्थित श्रवण केन्द्र में पहुंचते हैं। इस केन्द्र में ध्वनि का विश्लेषण होता है और खास प्रकार की ध्वनि का एहसास होता है।
शरीर का सन्तुलन (balance of the body)
शरीर को सन्तुलन में बनाए रखने का कार्य अन्तःकर्ण के वेस्टिब्यूलर उपकरण (vestibular apparatus), यूट्रिक्ल, सैक्यूल एवं अर्द्धवृत्ताकार नलिकाओं द्वारा पूरा होता है। सिर की स्थिति (position) में कैसा भी बदलाव होता है, तो पेरिलिम्फ एवं एण्डोलिम्फ तरल हिल जाता है, जिससे रोम कोशिकाएं (hair cells) मुड़ (झुक) जाती हैं तथा यूट्रिक्ल, सैक्यूल एवं एम्पूलाओं (ampullae) में स्थित संवेदी तन्त्रिका अन्तांग उत्तेजित हो उठते हैं। इससे पैदा होने वाले तन्त्रिका आवेगों को वेस्टिब्यूलर तन्त्रिका (आठवीं कपालीय तन्त्रिका की शाखा) के तन्तु मस्तिष्क के सेरीबेलम में संचारित कर देते हैं। मस्तिष्क के आदेश से उन सभी पेशियों में तदनुकूल गति और क्रिया होती है। इससे शरीर का संतुलन सही बना रहता है।
5. दृश्येन्द्रिय (आंखें) का स्वरूप एवं इसका कार्य :
दृश्येन्द्रियां अर्थात आंखों के द्वारा हमें वस्तु का ‘दृष्टिज्ञान’ होता है। दृष्टि (नजर) वह संवेदन है, जिस पर मनुष्य सबसे ज्यादा निर्भर करता है। दृष्टि (vision) एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें प्रकाश किरणों के प्रति संवेदिता, स्वरूप, दूरी, रंग आदि सभी का प्रत्यक्ष ज्ञान शामिल होता है। आंखें बहुत ज्यादा जटिल ज्ञानेन्द्रिय हैं, जो दायीं-बायीं दोनों ओर एक-एक नेत्रकोटरीय गुहा (orbital cavity) में स्थित रहती हैं। ये लगभग गोलाकार होती हैं तथा इनका व्यास लगभग एक इंच (2.5 सेमी.) होता है। इन्हें नेत्रगोलक (eyeball) भी कहा जाता है। नेत्रकोटरीय गुहा शंक्वाकार (cone-shaped) होती हैं। इसके सबसे गहरे भाग (apex) में एक गोल छिद्र (फोरामेन) होता है, जिसमें से होकर द्वितीय कपालीय तन्त्रिका (ऑप्टिक तन्त्रिका) का मार्ग बनता है। इस गुहा की छत फ्रन्टल हड्डी से, फर्श मैक्ज़िला से, लेटरल भित्तियां कपोलास्थि तथा स्फीनॉइड हड्डी से बनती हैं और इसकी मीडियल भित्ति की रचना लैक्राइमल, मैक्ज़िला, इथमॉइड एवं स्फीनॉइड हड्डियां मिलकर करती हैं। इसी गुहा में नेत्रगोलक वसीय ऊतकों में अन्तःस्थापित एवं सुरक्षित रहता है।
आंख की संरचना (Structure of the eye)
नेत्र गोलक (eyeball) की भित्ति का निर्माण ऊतकों की तीन परतों से मिलकर हुआ होता है-
- बाह्य तन्तुमयी परत
- अभिमध्य वाहिकामयी परत
- आन्तरिक तन्त्रिकामयी परत
1- बाह्य तन्तुमयी परत (Outer fibrous layer)- नेत्रगोलक में यह सबसे बाहर की सहारा देने वाली परत (supporting layer) होती है। यह मुख्यतः मजबूत, तन्तुमय संयोजी ऊतक (fibrous connective tissue) की मोटी झिल्ली से बनी होती है। इसमें श्वेतपटल (sclera) और स्वच्छमण्डल (cornea) का समावेश रहता है।
श्वेतपटल नेत्रगोलक के पिछले भाग (posterior segment) की अपारदर्शी, मजबूत तन्तु ऊतकों की श्वेत (सफेद) परत होती है। इससे नेत्रगोलक का 5/6 पिछला भाग ही ढका रहता है। इसकी बाह्य सतह सफेद (white) रहती है और आंख के सफेद भाग की रचना करती है, जिस पर आंख को घुमाने वाली सभी पेशियां जुड़ी रहती हैं। यह नेत्रगोलक की आन्तरिक कोमल परतों की रक्षा करती है तथा उसके आकार (shape) को स्थिर बनाए रखती है।
स्वच्छमण्डल (कॉर्निया) बाह्य तन्तुमयी परत का अग्र (anterior) पारदर्शी भाग होता है। यह नेत्रगोलक के अग्र उभरे भाग पर स्थित रहता है। स्वच्छमण्डल नेत्रगोलक का सामने वाला 1/6 भाग बनाता है। इसमें रक्तवाहिकाओं का पूरी तरह अभाव रहता है। प्रकाश किरणें स्वच्छमण्डल से होकर दृष्टिपटल (retina) पर पंहुचती हैं।
श्वेतपटल और स्वच्छमण्डल निरन्तरता में रहते हैं। बाह्य तन्तुमयी परत नेत्रगोलक को (पिछले भाग को छोड़कर जहां श्वेतपटल में एक छोटा-सा छिद्र होता है जिसमें से होकर ऑप्टिक तन्त्रिका के तन्तु नेत्रगोलक से मस्तिष्क में पहुंचते हैं) पूरी तरह से ढंके रहती है।
2- अभिमध्य वाहिकामयी परत (Middle vascular layer)- यह नेत्रगोलक की बीच (middle) की परत होती है और इसमें बहुत सी रक्त वाहिकाएं (blood vessels) रहती हैं। इसमें रंजितपटल (choroid), रोमक पिण्ड (ciliary body) तथा उपतारा (iris) शामिल होते हैं।
पिगमेन्टों के कारण इस परत का रंग गहरा (dark colour) होता है जो ऑख के अंदरूनी कक्ष को (इसमें प्रकाश की किरणें दृष्टिपटल (retina) पर प्रतिबिम्ब बनाती हैं) पूरी तरह अन्धकारमय (light proof) बनाने में सहायक होती हैं। वाहिकामयी परत का पिछला (posterior) 2/3 भाग एक पतली झिल्ली का बना होता है, जिसे रंजितपटल कहते हैं। श्वेतपटल और दृष्टिपटल (retina) के बीच रक्त वाहिकाओं एवं संयोजी ऊतक (connective tissue) की एक परत होती है। यह (कोरॉइड) गहरे-भूरे रंग की होती है तथा दृष्टिपटल (retina) की रक्त पूर्ति करती है।
वाहिकामयी परत आगे की ओर के भाग (anterior portion) में मोटी होकर रोमक पिण्ड (ciliary body) बनाती है, जिसमें पेशीय एवं ग्रन्थिल ऊतक रहते हैं। रोमक पेशियां लेन्स का आकार नियन्त्रित करती हैं तथा जरूरत के अनुसार दूर या पास की प्रकाश की किरणों को केन्द्रित करने में भी मदद करती हैं। इन्हें समायोजन (accommodation) की पेशियां कहते हैं। रोमक ग्रन्थियां पानी जैसे द्रव का स्राव करती हैं जिसे ‘नेत्रोद’ (aqueous humour) कहते हैं। यह आंख में लेन्स तथा स्वच्छमण्डल (कॉर्निया) के बीच के स्थान में भरा रहता है तथा उपतारा (Iris) एवं स्वच्छमण्डल (कॉर्निया) के बीच के कोण में स्थित छोटे-छोटे छिद्रों के माध्यम से शिराओं में जाता है।
कोरॉइड का अग्र प्रसारण (anterior extension) एक पतली पेशीय परत के रूप में होता है जिसे उपतारा (Iris) कहते हैं। यह नेत्रगोलक का रंगीन भाग होता है जिसे से होकर देखा जा सकता है। यह और लेन्स के बीच स्थित रहता है तथा इस स्थान को एन्टीरियर एवं पोस्टीरियर चैम्बर्स में बांटता है। उपतारा (Iris) के बीच का स्थान एन्टीरियर चेम्बर (अग्रज कक्ष) तथा उपतारा (Iris) एवं लेन्स के बीच का स्थान पोस्टीरियर चैम्बर (पश्चज कक्ष) होता है। उपतारा में वृत्ताकार (circular) विकीर्ण (radiatong) तन्तुओं के रूप में पेशीय ऊतक रहते हैं। वृत्ताकार तन्तु आंख की पुतली को संकुचित करते हैं और विकीर्ण तन्तु इसे विस्फारित (फैलाते) करते हैं।
उपतारा के बीच में एक गोलाकार छिद्र होता है, जिसे आंख की पुतली (pupil) कहा जाता है। इसमें आप अपने परावर्तित प्रतिबिम्ब (reflected image) को एक छोटी-सी गुड़िया (doll) के समान देखते हैं। इस पुतली का आकार (size) प्रकाश की तेजी के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है। तेज रोशनी को आंख में जाने से से रोकने के लिए यह पुतली संकुचित हो जाती है तथा कम प्रकाश में फैल जाती है ताकि अधिक से अधिक प्रकाश दृष्टिपटल (retina) तक पहुंच सके।
3- आन्तरिक तन्त्रिकामयी परत (Inner nervous layer)- नेत्रगोलक के सबसे अंदर की परत को दृष्टिपटल (retina) कहते हैं। यह तन्त्रिका कोशिकाओं (neurons) और तन्त्रिका तन्तुओं की बहुत सारी परतों से बना होता है और आंख के पोस्टीरियर चैम्बर में स्थित होता है। इसके एक ओर रजितपटल (choroid) होता है और यह उससे चिपका हुआ-सा रहता है। इसके दूसरी ओर नेत्रकाचाभ द्रव (vitrous humour) भरा रहता है। रोमक पिण्ड के बिल्कुल पीछे इसका अन्त हो जाता है। यह अण्डाकार होता है। दृष्टिपटल (retina) में एक मोटी और एक पतली परत होती है। मोटी परत तन्त्रिका ऊतक (nervous tissue) की होती है जिसे न्यूरोरेटिना (neuroretina) कहते हैं। यह आप्टिक तन्त्रिका (optic nerve) से जुड़ती है। इसके पीछे वर्णक युक्त उपकला (pigmented epithelium) की एक पतली परत होती है, जो रजितपटल (choroid) से जुड़ती है और दृष्टिपटल (retina) के पीछे से रिफ्लेक्शन को रोकती है। न्यूरोरेटिना में लम्बी छड़ के आकार की कोशिकाएं रॉड्स (Rods) एवं शंकु के आकार की कोशिकाएं कोन्स (Cones) रहती हैं जो अपने अंदर मौजूद प्रकाश सुग्राही पिगमेन्टों के कारण प्रकाश के प्रति अति संवेदनशील होती हैं। इनके अलावा न्यूरोरेटिना में बहुत सी दूसरी तन्त्रिका कोशिकाएं (न्यूरोन्स) भी रहती हैं। हर आंख में लगभग 125 मिलियन रॉड्स एवं 7 मिलियन कोन्स होती हैं, जिनके कार्य अलग-अलग होते हैं। ज्यादातर कोन्स दृष्टिपटल (retina) के बीच में लेन्स के ठीक पीछे के क्षेत्र (इस क्षेत्र को पीत बिन्दु या मैक्यूला ल्यूटिया (yellow spot or macula lutea) कहते हैं) में स्थित रहते हैं। मैक्यूला ल्यूटिया के केन्द्र में एक छोटा-सा गड्ढ़ा होता है, इसे गर्तिका (Fovea) अथवा केन्द्रीय गर्तिका या फोबिया सेन्ट्रेलिस (Fovea centralis) कहते हैं। दृष्टिपटल (retina) के बाकी भाग (इस भाग को परिसरीय दृष्टिपटल (retina) (peripheral ratina) कहते हैं) में रॉड्स एवं कुछ कोन्स स्थित रहते हैं। मैक्यूला ल्यूटिया दृष्टिपटल (retina) का वह स्थान है जहां पर सबसे ज्यादा साफ प्रतिबिम्ब बनता है। कोन्स रंग का ज्ञान (colour perception) कराते हैं जबकि रॉड्स काली-सफेद छायाओं का ज्ञान कराते हैं। इनके ही माध्यम से हम कम प्रकाश में भी वस्तुओं को देख पाते हैं।
मैक्यूला ल्यूटिया के नाक वाले भाग की ओर लगभग 3 मिलीलीटर की दूरी से ऑप्टिक तन्त्रिका (optic nerve) नेत्र गोलक से बाहर निकलती है। यह छोटा-सा स्थान दृष्टि-चक्रिका (optic disc) कहलाता है और चूंकि यह प्रकाश के प्रति असंवेदनशील होता है इसलिए इसे अन्ध बिन्दु (blind spot) भी कहते हैं। अन्ध बिन्दु पर बिम्ब न बनने का कारण यह है कि इस स्थान पर रॉड्स एवं कोन्स का पूरी तरह अभाव रहता हैं।
राड्स एवं कोन्स दृष्टि के वास्तविक संग्राहक अंग (receptors) होते हैं तथा जो प्रकाश उन पर पहुंचता है, आवेग (impulses) पैदा करता है, जिनका संचारण ऑप्टिक तन्त्रिका के द्वारा मस्तिष्क के दृष्टि केन्द्र में होता है। इस केन्द्र में दृष्टि-प्रभाव (visual impression) पैदा होते हैं।
नेत्रगोलक की गुहाएं (Cavities of the eyeball)
नेत्रगोलक को तीन गुहाओं में बांटा गया है। एवं उपतारा (Iris) के बीच के क्षेत्र को अग्र कक्ष (anterior chamber) तथा उपतारा (Iris) और लेंस के बीच के क्षेत्र को पश्च कक्ष (posterior chamber) कहते हैं। दोनों कक्षों में पारदर्शी, पतला, जलीय तरल भरा रहता है जिसे नेत्रोद (aqueous humour) कहते हैं। नेत्रगोलक के अंदर के दाब को (intraocular pressure) स्थिर बनाए रखने का कार्य इसी के ऊपर निर्भर करता है। यह लेन्स तथा को जरूरी पोषक जैसे ऑक्सीजन, ग्लूकोज़ एवं अमीनो-एसिड्स की आपूर्ति करता है, जिनमें पोषण के लिए रक्त वाहिकाएँ नहीं होती हैं। नेत्रोद का उत्पादन रोमक पिण्ड (सिलियरी बॉडी) की कोशिकाओं (capillaires) द्वारा होता है। यह पश्च कक्ष (posterior chamber) से होकर गुजरता हुआ अग्र कक्ष (anterior chamber) में पहुंचता है और के आधार पर स्थित स्क्लेरल वीनस साइनस (इसे श्लेमन की नलिका (canal of Schlemn) भी कहते हैं) में फैल जाता है।
नेत्रगोलक की तीसरी और सबसे बड़ी गुहा को नेत्रकाचाभ (vitreous chamber) कहते हैं। यह नेत्रगोलक के लगभग 80 प्रतिशत भाग में होती है। यह लेन्स के पीछे के पूरे स्थान (space) को भरती है। इस कक्ष में रंगहीन पारदर्शी जैली के जैसा पदार्थ भरा होता है जिसे नेत्रकाचाभ द्रव (vitreous humour) कहते हैं। यह वास्तव में संयोजी ऊतक का रूपान्तरण होता है। इसका कार्य बाह्य दबाव के कारण नेत्रगोलक को बाहर निकलने से रोकना होता है। इसमें कोलेजन एवं हायलूरोनिक एसिड के अलावा दूसरे संघटक नेत्रोद के समान ही होते हैं। नेत्रकाचाभ द्रव का उत्पादन रोमक पिण्ड (सिलियरी बॉडी) द्वारा होता है। यह लेन्स एवं दृष्टिपटल (retina) के लिए पोषण की आपूर्ति करता है।
लेन्स (Lens)
लेन्स नेत्रगोलक में उपतारा (Iris) के बिल्कुल पीछे स्थित रहता है। यह पारदर्शी, मजबूत लेकिन लचीली, वृत्ताकार द्विउत्तल (biconvex) रचना है, जिसमें रक्त वाहिकाएं होती हैं। यह एक पारदर्शक, लचीले कैप्सूल में बन्द रहता है तथा सस्पेन्सरी लिगामेन्ट्स (suspensory ligaments) द्वारा रोमक पिण्ड (सिलियरी बॉडी) से जुड़ा होता है। ये ससपेन्सरी लिगामेन्ट्स लेन्स को स्थिति में बनाये रखते हैं और इन्हीं के माध्यम से रोमक पेशियां लेन्स पर खिंचाव डालती हैं और दूर या पास की वस्तुओं के देखने के लिये लेन्स के आकार को परिवर्तित करती हैं। ससपेन्सरी लिगामेन्ट्स के शिथिलन (relaxation) से लेन्स दोनों ओर को उठ जाता है अर्थात् लेन्स की उत्तलता (convexity) बढ़ जाती है तथा इनके तनाव से लेन्स की उत्तलता कम हो जाती है और वह चपटा-सा हो जाता है। ऐसी क्रिया विभिन्न दूरियों की दृश्य वस्तुओं के अनुसार अपने आप होती है। इसे ‘नेत्रों का समायोजन’ (accommodation of eyes) भी कहते हैं।
आंख की सहायक संरचनाएँ (Accessory Structures of the Eye)
आंखें बहुत नाजुक अंग हैं जो सहायक संरचनाओं के द्वारा सुरक्षित रहती हैं, ये रचनाएं निम्नलिखित हैं-
- नेत्रगुहा (Orbit or orbital cavity)- इसका वर्णन पहले किया जा चुका हैं।
- भौंहे (Eyebrows)
- पलकें (Eyelids)
- बरौनी (Eyelashes)
- नेत्रश्लेष्मला या कँन्ज़क्टाइवा (Conjunctiva)
- अश्रुप्रवाही उपकरण (Lacrimal apparatus)
- नेत्र पेशियाँ (Muscles of the eye)
1- भौंहे (Eyebrows)- फ्रन्टल हड्डी के आर्बिटल प्रवर्ध के ऊपर स्थित त्वचा पर तिरछेपन के साथ उगे छोटे, बालों को भौंहे कहते हैं। इनका प्रमुख कार्य सुरक्षा है। ये माथे पर आने वाले पसीने को आंखों में आने से रोकते हैं तथा तेज धूप से बचाते हैं।
2- पलकें (Eyelids)- ये प्रत्येक आंख के सामने ऊपर एवं नीचे पतली त्वचा से आच्छदित अवकाशी ऊतक (areolar tissue) की दो गतिशील परतें (movable folds) होती हैं। इन दोनों में से ऊपर वाली पलकें अधिक बड़ी एवं अधिक गतिशील रहती है। ऊपर एवं नीचे वाली पलकों के संगम स्थल को ‘कैन्थाइ’ (canthi) कहा जाता है। नाक की ओर के भीतरी कैन्थस को ‘मीडियल कैन्थस’ (medial canthus) और कान की ओर के बाहरी कैन्थस को ‘लेटरल कैन्थस’ (lateral canthus) कहते हैं। पलकों को चार परतों में बांटा जा सकता है: (1) त्वचीय परत- इसमें बरौनियां (eyelashes) होती हैं, (2) पेशीय परत- इसमें आर्बिकुलैरिस ऑक्यूलाइ (Orbicularis oculi) पेशी रहती है जो पलक को आंख के ऊपर गिराती है, (3) तन्तुमयी संयोजी ऊतक (fibrous connective tissue) की परत- इसमें बहुत-सी त्वग्वसीय ग्रन्थियां (sebaceous glands) होती हैं, जो मीबोमियन ग्रन्थियां (Mebomian glands) कहलाती हैं। इनसे स्रावित होने वाला तैलीय पदार्थ दोनों पलकों को आपस में चिपकने से बचाता है। (4) सबसे अन्दर की परत एक पतली गुलाबी झिल्ली से आस्तरित होती है, जिसे कनज़क्टाइवा (conjunctiva) कहते हैं।
पलकें धूल एवं दूसरी बाहरीय वस्तुओं के आंखों में प्रवेश होने से रोकने के अलावा आंखों में बहुत ज्यादा तेज प्रकाश को एकाएक प्रवेश करने से रोकती हैं। पलकों के प्रत्येक कुछ सेकण्डों पर झपकते (blinking) रहने से ग्रन्थिल स्राव (आंसू) नेत्रगोलक पर फैल जाते हैं। जिससे गीली बनी रहती है। नींद के दौरान बन्द पलकें स्रावों के वाष्पीकरण होने से रोकती हैं। जब कोई वस्तु आंख के पास आती है, तो प्रतिवर्ती क्रिया में (reflexively) पलकें अपने आप बन्द हो जाती हैं।
3- बरौनियां (Eyelashes)- पलकों के किनारों (margins) पर मोटे-मोटे और छोटे-छोटे बाल आगे की ओर निकले रहते हैं, जिन्हें बरौनी (eyelashes) कहा जाता है। बरौनी बाह्य पदार्थो को आंखों में प्रवेश करने से रोकते का कार्य करते हैं। प्रत्येक आंख की पलक में लगभग 200 बरौनियां होती हैं और प्रत्येक बरौनी 3 से 5 महीने में अपने आप झड़ जाती है और नई बरौनी उग जाती है। इसके रोमकूपों (hair follicles) में किसी तरह का संक्रमन हो जाने पर गुहेरियां (stye) निकल जाती है।
4- नेत्रश्लेष्मला (Conjunctiva)– नेत्रश्लेष्मला अर्थात कनजंक्टाइवा एक पतली पारदर्शक श्लेष्मक झिल्ली (म्यूकस मेम्ब्रेन) है जो पलकों के आन्तरिक भाग को आस्तरित करती है तथा पलटकर नेत्रगोलक की ऊपरी सतह को आच्छादित करती है। यह झिल्ली पारदर्शक पर आकार समाप्त हो जाती है, जो अनाच्छादित रहता है। पलक को आस्तरित करने वाला भाग पल्पेब्रल कनजंक्टाइवा (palperbral conjunctiva) कहलाता है, तथा आंख के सफेद भाग को आच्छादित करने वाला भाग बल्बर कनजंक्टाइवा (bulbar conjunctiva) कहलाता है। इन दोनों भागों के बीच दो नेत्रश्लेष्मकला कोष (conjunctival sacs) होते हैं। यही कोष नेत्रगोलक और पलक में गति करने में मदद करते हैं। आंख में डाली जाने वाली आईड्राप्स अक्सर निचली पलक को पीछे की ओर खींचकर अधोवर्ती नेत्रश्लेष्मकला कोष (inferior conjunctival sac) में डाली जाती हैं।
5- अश्रुप्रवाही उपकरण (Lacrimal apparatus)- प्रत्येक आंख में एक अश्रुप्रवाही उपकरण होता है। यह उपकरण अश्रुग्रन्थि (lacrimal gland), अश्रुकोष (lacrimal sac), अश्रु वाहिनियों (lacrimal ducts) तथा नासा अश्रुवाहिनी (nasolacrimal duct) से बनता है।
अश्रु ग्रन्थियां (lacrimal glands) प्रत्येक आंख की ऊपरी पलक के नीचे लेटरल कैन्थस के ऊपर स्थित होती हैं। इन ग्रंथियों के स्राव से नेत्रगोलक गीला रहता है। प्रत्येक अश्रु ग्रन्थि बादाम के आकार की होती है तथा फ्रन्टल हड्डी के ‘नेत्रगुहा प्लेट’ के गर्त में स्थित होती है। यह स्रावी उपकला कोशिकाओं की बनी होती है। इन ग्रन्थियों में से अनेक वाहिनियां निकलती हैं जो नेत्रश्लेष्मलाकोष के ऊपरी भाग में खुलती हैं। इन ग्रन्थियों में आंसू (tears) बनते हैं, जो अश्रुवाहिनियों द्वारा पलकों के नीचे आ जाते हैं और नेत्रगोलक के सामने वाले भाग पर फैलने के बाद प्रत्येक आंख के मीडियल कैन्थस की ओर जाते हैं। यहां पर ये आंसू दो अश्रुप्रवाही सूक्ष्मनलिकाओं (lacrimal canaliculi) में प्रवेश कर जाते हैं। दोनों सूक्ष्मनलिकाएं यहां स्थित मांस के एक छोटे-से लाल उभार (इस उभार को मांसाकुर (caruncle) कहते हैं) के एक ऊपर और एक नीचे से जाती है और ‘अश्रुकोष’ (lacrimal sac) में प्रवेश कर जाती हैं। अश्रुकोष ‘नासाअश्रुवाहिनी’ (masolacrimal duct) के ही ऊपर का फैला हुआ भाग होता हैं। नासा अश्रुवाहिनी नासा गुहा (nasal cavity) की अस्थिल भित्ति को नीचे की तरफ पार करती हुई नाक की इन्फीरियर मिएटस में आकर खुलती है, जिसके द्वारा आंसू नाक में पहुंच जाते हैं।
6- आंसू (Tears)- आंखें हर 2 से 10 सेकण्ड में झपकती रहती हैं, जिससे अश्रुग्रन्थि (lacrimal gland) उत्तेजित होकर एक निर्जीवाणुक (sterile) तरल का स्राव करती है। इस स्राव को आंसू (tears) कहते हैं। आंसुओं में जल, लवण, श्लेष्मारस (mucin) तथा एक जीवाणुनाशक पाचक रस (एन्जाइम) लाइसोजाइम (lysozyme) रहता है।
कार्य (functions)-
- आंसू आंखों को चिकना और नम रखते हैं। इससे पलकों को गति करने में आसानी होती है।
- आंसू बाह्य वस्तुओं, धूलकणों आदि को धोकर साफ कर देते हैं।
- आंसूओं में मौजूद जीवाणुनाशक पाचक रस (एन्जा़इम) लाइसोजाइम जीवाणुओं को नष्ट करने का कार्य करता है।
- आंसू एवं लेन्स को जल एवं पोषण की आपूर्ति करने का कार्य करते हैं।
- आंसू नेत्रगोलक को साफ, नम तथा चिकनी सतह प्रदान करते हैं।
7- नेत्रपेशियां (आंखों की पेशियां) (Muscles of the eye ball)- नेत्रगोलक की इसके सॉकेट में गति निम्न 6 पेशियों के सेट (जोड़ों) द्वारा पूरी होती है। इनमें चार सीधी और दो तिर्यक (तिरछी) पेशियां होती हैं।
सीधी पेशियां (Rectus muscles)-
- मीडियल रेक्टस (Medial rectus)
- लेटरल रेक्टस (Lateral rectus)
- सुपीरियर रेक्टस (Superior rectus)
- इन्फीरियर रेक्टस (Inferior rectus)
तिर्यक पेशियां (Oblique muscles)-
- सुपीरियर ऑब्लिक पेशी (Superior oblique muscle)
- इन्फीरियर ऑब्लिक पेशी (Inferior oblique muscle)
ये सभी पेशियां नेत्रगोलक के बाहर रहती हैं, इसलिए इनको बाह्य पेशियां (Extrinsic muscles) कहते हैं। प्रत्येक पेशी का एक सिरा कपालास्थि (खोपड़ी की हड्डी) (skullbone) से जुड़ा रहता है तथा दूसरा सिरा नेत्रगोलक के श्वेतपटल (sclera) से जुड़ा रहता है। इन सभी पेशियों की मदद से नेत्रगोलक को सभी दिशाओं में घुमाना संभव होता है। इन पेशियों की गतियों में तालमेल (co-ordination) होने से ही आंखों को घुमाया जाता हैं। इससे दोनों आंखें एक ही वस्तु पर केन्द्रित होती हैं। दोनों आंखें हमेशा एक-दूसरे की मदद से कार्य करती हैं और यही कारण है कि दोनों आंखों से देखने पर भी हमको सिर्फ एक ही वस्तु दिखाई देती है। पेशियों के कमजोर हो जाने पर या उनके रोगग्रस्त हो जाने पर दोनों आंखों की दृष्टि एक ही स्थान पर नहीं पड़ती हैं, जिससे वस्तु एक रहते हुए भी दो दिखाई देती हैं।
पेशियों की गतियां (Movements of the muscles)
ऊपर दी गई पेशियों की गतियाँ एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत होती हैं अर्थात जब पेशियों का एक सेट संकुचित होता है तो इसके ठीक विपरीत वाली पेशियों का सेट शिथिलन (relaxation) की क्रिया करता है जैसे-‘सुपीरियर रेक्टस’ के संकुचन के साथ ‘इन्फीरियर रेक्टस’ में शिथिलन होता है। इससे आंखें ऊपर उठती हैं और इसके ठीक विपरीत जब ‘इन्फीरियर रेक्टस’ संकुचित होती है, तो सुपीरियर रेक्टस में शिथिलन होता है। इससे आंखें नीचे की ओर गति करती हैं। इसी प्रकार मीडियल एवं लेटरल रेक्टस पेशियां आंखों को दाएं-बाएं घुमाती हैं। तिर्यक पेशियों की मदद से आंखें ऊपर-नीचे और बाहर की ओर गति करती हैं। इसके साथ-साथ ये आंखों को गोल-गोल घुमाने में भी मदद करती है।
आंखों के अन्दर निम्न तीन चिकनी पेशियां रहती हैं। इन पेशियों को अन्तरस्थ पेशियां (intrinsic muscles) कहते हैं। सिलियरी पेशी (ciliary muscle) लेन्स के ससपेन्सरी लिगामेन्ट के तनाव (tension) को कम करती है तथा आंख को सही ढंग से समायोजित करने के लिए लेन्स को इसके आकार में बदलाव करने देती है। सरकुलर पेशी या स्फिक्टर प्यूपिला (circular muscle or sphincter pupilla) पुतली को चारों ओर वृत्ताकार दिशा में घेरे रहती है तथा पुतली को संकुचित करती है। रेडियल पेशी या डाइलेटर प्यूपिला (Radial muscle or Dilator pupilla), यह उपतारा (Iris) की बाह्य परिधि से शुरु होकर पुतली के किनारों पर रेडियल दिशा में स्थित रहती है तथा पुतली को फैलाती है।
पलकों की पेशियां (Muscles of the eye lids)
ऑर्बिकुलेरिस ऑक्यूलाइ (Orbicularis ocule) पेशी आंखों को बन्द करने के लिए पलकों को गिराती है तथा लीवेटर पल्पेब्री सुपीरिओरिस (Levator palpebrae superioris) पेशी आंखों को खोलने के लिए पलकों को ऊपर उठाती है। सुपीरियर टार्सल (Superior tarsal) पेशी, चिकनी पेशी होती है, जिसकी तन्त्रिका आपूर्ति सिम्पेथेटिक तन्त्रिका तन्त्र द्वारा होती है। यह पलक को ऊपर उठाने में सहायक होती है लेकिन इसके पक्षाघात ग्रस्त होने पर ऊपरी पलक नीचे को लटक (ptosis) जाती है।
दृष्टि तन्त्रिका एवं दृष्टि पथ (Optic nerve and visual pathway)
ऑप्टिक या दृष्टि तन्त्रिकाएं (द्वितीय/II कपालीय तन्त्रिका) प्रकाश संवेद की तन्त्रिकाएं होती हैं। इनके द्वारा देखने का कार्य होता है। ये तन्त्रिका तन्तु आंखों के दृष्टिपटल (retina) में पैदा होते है, जो मैक्यूला ल्यूटिया से लगभग 0.5 सेमीमीटर नाक की ओर अभिबिन्दु (converge) होकर (अर्थात एक बिन्दु पर मिलकर) तथा आपस में संयोजित होकर ऑप्टिक तन्त्रिका बनाते हैं। यह तन्त्रिका नेत्रगोलक के पिछले भाग से निकलती है और पिट्यूटरी ग्रन्थि के पास आकर दूसरी ओर की ऑप्टिक तन्त्रिका से मिल (fuse) जाती है। इस क्रॉसिंग स्थल को ‘ऑप्टिक चियाज्मा’ (Optic chiasma) कहते हैं। इस स्थान पर आकर दोनों आंखों की ऑप्टिक तन्त्रिका के नाक की ओर के (nasal side) आधे-आधे तन्तु एक-दूसरे को क्रॉस कर सीधे आगे की ओर बढ़ जाते हैं। शेष (लेटरल साइड के) प्रत्येक दृष्टिपटल (retina) के तन्त्रिका तन्तु, बिना एक-दूसरे को क्रॉस किए, दोनों तरफ (उसी ओर) अग्रसर होते हुए मध्य मस्तिष्क में पहुंच जाते हैं। ऑप्टिक चियाज्मा से होकर गुजरने के बाद तन्त्रिका तन्तुओं को ‘दृष्टिपथ’ (optic tracts) कहा जाता है। हर दृष्टिपथ में दूसरी ओर की आंख के दृष्टिपटल (retina) के नासा तन्तु (nasal fibres) और उसी ओर की आंख की दृष्टिपटल (retina) के लेटरल तन्तु शामिल होते हैं।
हर दृष्टिपथ सेरीब्रम से होकर पीछे की ओर जाता है तथा थैलेमस के न्यूक्लियस के न्यूरॉन्स (इन्हें ‘लेटरल जेनिकुलेट बॉडी’ (lateral geniculate body) कहते हैं) के साथ तन्तुमिलन (synapses) करता है। यहां से, लेटरल जेनिकुलेट बॉडी के न्यूरॉन्स के अक्ष तन्तु (axons) प्रमस्तिष्कीय कॉर्टेक्स के ऑक्सिपटिल लोब में प्राथमिक दृष्टिपरक कॉर्टेक्स (primary visual cortex) में प्रक्षेपित होते हैं। यहां दृष्टि आवेगों की व्याख्या और विश्लेषण होता है।
दृष्टि की क्रिया विधि (Mechanism of vision/sight)
प्रकाश को दीप्तिमान ऊर्जा (radiant energy) का एक रूप माना जाता है। प्रकाश वायु के माध्यम से लगभग 3,00,000 किमीमीटर प्रति सेकण्ड की गति से तरंगों में गमन करता है।
सामान्यतः प्रकाश की किरणें समान्तर रेखा में चलती हैं, लेकिन जब ये एक घनत्व वाले माध्यम से भिन्न घनत्व वाले माध्यम में से होते हुए गुजरती हैं तो ये झुक (bend) जाती हैं। इस झुकाव को अपर्वतन (refraction) कहते हैं। बाह्य वायु द्वारा आंख में प्रवेश करने वाली प्रकाश किरणें अपवर्तित हो जाती हैं और अभिबिन्दुग (converse) होकर अर्थात एक बिन्दु पर मिलकर दृष्टिपटल (retina) के फोकस बिन्दु (focus point) पर केन्द्रित हो जाती है।
दृष्टिपटल (retina) पर पहुंचने से पहले प्रकाश की किरणें आंखों के पारदर्शी अपवर्तक माध्यमों (refracting media)- , एक्वीयस ह्यूमर, लेन्स एवं विट्रीयस ह्यूमर से होकर गुजरती हैं। इनमें लेन्स ही एक ऐसी रचना है, जिसमें प्रकाश की किरणों को अपवर्तन करने की क्षमता रहती है, जिससे वे अभिबिन्दुग (converse) होकर लेन्स के पीछे दृष्टिपटल (retina) पर प्रतिबिम्ब (image) बनाती हैं।
रचना की दृष्टि से आंखों (नेत्रगोलकों) की तुलना कैमरे से की जाती है। इसमें पलकें कैमरे के समान आंखों के लिए शटर का काम करती हैं। प्रकाश के प्रवेश के लिए खिड़की ‘’ के रूप में रहती हैं। उपतारा (Iris) भीतर प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा को नियंत्रण में करने का कार्य करता है। क्रिस्टेलाइन लेन्स से प्रकाश की किरणें फोकस होती हैं। अभिमध्य वाहिकामयी परत (middle vascular layer) कैमरे के प्रकाशरोधक बॉक्स का काम करती है तथा दृष्टिपटल (retina) कैमरे से समान प्रकाश के प्रति संवेदनशील (photosensitive) प्लेट का काम करती है।
कैमरे की प्लेट पर कैमरे के सामने रहने वाली वस्तु का उल्टा प्रतिबिम्ब बनता है। इसी प्रकार दृष्टिपटल (retina) पर आंखों से देखी जाने वाली वस्तुओं का उल्टा प्रतिबिम्ब बनता है। वस्तु से प्रकाश की किरणें निकलती हैं और एक्वीयस ह्यूमर, लेन्स एवं विट्रीयस ह्यूमर को पार करके दृष्टिपटल (retina) पर पड़ती हैं। लेन्स तथा प्रकाश की समान्तर किरणों को दृष्टिपटल (retina) पर केन्द्रीभूत करते हैं। कैमरे में लेन्स से फोकस-बिन्दु की दूरी निश्चित होती है और लेन्स को आगे-पीछे खिसका कर फोटोग्राफी प्लेट पर वस्तु का साफ प्रतिबिम्ब लिया जाता है। आंख में भी लेन्स तथा दृष्टिपटल (retina) की दूरी निश्चित होती है, इसलिए आंख में लेन्स से फोकस-बिन्दु की दूरी को सिलियरी पेशियों की संकुचन-क्रिया द्वारा बदलकर वस्तु के साफ प्रतिबिम्ब को दृष्टिपटल (retina) पर लिया जाता है।
ऑप्टिक तन्त्रिका द्वारा प्रतिबिम्ब (image) की विस्तृत सूचना प्रमस्तिष्कीय कॉर्टेक्स के ऑक्सिपिटल लोब में पहुंचती है। यहां यह चेतना में विकसित होती है। इस प्रकार ऑप्टिक तन्त्रिकाओं द्वारा संवेदनाएं (sensations) मस्तिष्क के दृष्टि क्षेत्र (visual area) में पहुंचती हैं। इससे मस्तिष्क को देखने की अनुभूति होती है। दृष्टिपटल (retina) के उल्टे प्रतिबिम्ब को सीधा दिखाना मस्तिष्क का ही काम होता है।
समायोजन (Accommodation)
आंखों में प्रवेश करने वाली सभी समान्तर (parallel) प्रकाश किरणों को दृष्टिपटल (retina) पर केन्द्रित होने के लिए अपवर्तित होने की आवश्यकता होती है। 6 मीटर (20 फीट) से अधिक दूर की वस्तुओं को देखने के लिए उनसे आने वाली प्रकाश किरणों को अधिक अपवर्तन की जरूरत नहीं होती है परन्तु जैसे-जैसे वस्तु पास आती जाती है तो उसे देखने के लिए उससे आने वाली प्रकाश किरणों को अधिक अपवर्तित होने की जरूरत होती है।
दूर की वस्तु से निकली प्रकाश की समान्तर किरणें लेन्स के वर्टिकल एक्सिस पर समकोण पड़ती हैं। आंखें इस प्रकार एडजस्ट (संतुलित) होती हैं कि ये किरणें लेन्स के द्वारा झुका दी जाती हैं, जिससे वे साफ प्रतिबिम्ब बनाने के लिए दृष्टिपटल (retina) पर फोकस हो जाती हैं। पास (6 मीटर से कम दूरी की) की वस्तु से निकली प्रकाश की किरणें अपबिन्दुक (divergent) होती हैं तथा लेन्स पर तिरछे होकर पड़ती हैं, जो सामान्यतः दृष्टिपटल (retina) के पीछे फोकस होती हैं। ये किरणें दृष्टिपटल (retina) पर ठीक से फोकस हो सकें इसके लिए लेन्स को मोटा और गोल (thicker, rounds up) होना चाहिए। यह क्रिया सिलियरी पेशियों के द्वारा पूरी होती है। इसके साथ ही प्रतिबिम्ब साफ प्राप्त करने के लिए आंखों में प्रवेश करने वाली किरणों की संख्याओं में, उपतारा (Iris) के संकुचन से, कमी होती हैं। इस प्रकार लेन्स के आकार में बदलाव से तथा उपतारा (Iris) के संकुचन से पुतली (pupil) के छोटे होने की क्रिया को ‘समायोजन’ (accomodation) कहते हैं। यह क्रिया पास की वस्तु देखते समय हमेशा होती है। विभिन्न दूरियों के अनुसार लेन्स की मोटाई या उत्तलता (convexcity) में अनुरूप बदलाव होने वाली शक्ति को ही अनुकूलन अथवा समायोजन (accomodation) कहते हैं। आंख के लेन्स की फोकस दूरी की इन स्वयं एडजस्टिंग क्रियाओं को आंख की ‘समायोजन क्षमता’ कहते हैं। जिनमें किसी तरह का रोग न हो ऐसी आंखों द्वारा 25 सेमीमीटर से दूर रखी वस्तुओं को ही साफ रूप से देखा जा सकता है। इस दूरी को ‘स्पष्ट दृष्टि’ की ‘न्यूनतम दूरी’ कहा जाता है। जिस अधिकतम दूरी के स्थान तक आंखें वस्तुओं को साफ रूप में देख सकती है, उसे आंखों का ‘दूर बिन्दु’ (far point) कहा जाता है। जब कोई वस्तु आंखों के बिल्कुल पास रहती है, तो उसका दोनों आंखों के दृष्टिपटल (retina) पर साफ फोकस प्राप्त करने के लिए आंखें स्वयं थोड़ा अंदर की ओर घूमती हैं। आंखों की इसी क्रिया को ‘अनुकूलन’ कहा जाता है।