सप्तधातु क्या है ? इनका शरीर में कार्य और महत्व

Last Updated on August 19, 2021 by admin

सप्तधातु क्या है ? (Saptadhatu in Ayurveda Hindi)

धातु शब्द का वास्तविक अर्थ सहायता देना या पोषण करना है । इसका अर्थ लोहा, ताँबा आदि धातु भी है । परन्तु यहाँ प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुआ है । आयुर्वेद में प्रयुक्त धातुएँ शरीर की वृद्धि में सहयोग देती हैं । ये शरीर की बनावट में सहयोग देती हैं तथा उसे पौष्टिकता प्रदान करती हैं ।
धातुएँ त्रिदोषों की क्रिया के परिणामस्वरूप बनने वाले पदार्थ हैं। धातुएँ सात प्रकार की होती हैं –

  1. रस,
  2. रक्त,
  3. मांस,
  4. मेदा,
  5. अस्थि,
  6. मज्जा, तथा
  7. शुक्र ।

धातुएँ अस्थायी भी हो सकती हैं और स्थायी भी । अस्थायी से अर्थ उनके इस गुण से है कि उनका सदैव नवीकरण होता रहता है । पुराना नष्ट कर दिया जाता है और नये का निर्माण किया जाता है।

सप्‍त धातुओं का कार्य और इनका महत्व :

1. रस धातु –

यह पौष्टिक तत्त्व का सार होती है । वह सब जो हम खाते हैं, पीते हैं, चाटते हैं, सूंघते हैं या वायु द्वारा निगलते हैं, जैसा कि चरक ने कहा है, (सूत्र स्थान XXVIII, 3) वह दो उत्पादों में बदल जाता है । भोजन का सार तत्त्व जो हमारे पाचन-संस्थान द्वारा सोख लिया जाता है, रस कहलाता है । बेकार पदार्थ जो मल कहलाता है, वह पसीना, मूत्र, विष्ठा, कान, आंख, नथुने, मुंह, जननेन्द्रिय, नाखून आदि से गंदगी के रूप में निकलता है । रस धातु बनकर वायु या वात की सहायता से श्रोतों में बहता है । रस दूसरी धातुओं को भी पौष्टिकता प्रदान करता

2. रक्त धातु –

रक्त और उसके बहाव को रक्त धातु कहते हैं । यह अन्य धातुओं को भी पौष्टिक तत्त्व प्रदान करता है । यह रस धातु और पित्त के सम्मिश्रण से बनता है । यह शरीर को रंग और चमक प्रदान करता है । आयुर्वेदिक साहित्य में बताया गया है कि हृदय द्वारा रक्त विशेष रक्त-वाहिनियों के माध्यम से शरीर के सभी अंगों को रक्त धातु पहुंचाता है।

3. मांस धातु –

यह धातु मांसपेशियों का निर्माण करती है । यह रक्त तथा रस धातुओं से बनती है । मांस धातु शरीर का ढांचा तैयार करती है तथा मेद धातु को सहयोग प्रदान करती है।

4. मेद धातु –

वसा अथवा चर्बीदार ऊतक शरीर के लिए एक प्रकार की गद्दी प्रदान करती है तथा मांस धातु व अस्थि धातु (हड्डिया) की रक्षा करती है। शरीर में इसकी मात्रा कम हो जाने पर कमजोरी आती है तथा अधिक होने पर मुटापा आ जाता है।

5. अस्थि धातु –

यह अन्य धातुओं की तुलना में स्थायी होती है । इसका नवीकरण नहीं होता । यह शरीर का ढांचा तैयार करती है तथा मांस व मेद धातुओं को सहयोग देती है।

6. मज्जा धातु –

अस्थि-सार जो अस्थि धातु से उत्पन्न होता है, शरीर को चिकनाई देता है तथा शुक्र धातु को पुष्ट करता है ।

7. शुक्र धातु –

यह सफेद रंग की चिपचिपी और तरल होती है । बचपन में यह अज्ञात रहती है और बुढ़ापे में स्वयं सूख जाती है । परन्तु युवावस्था में यह पूर्ण विकसित होती है । इसके मुख्य कार्य काम-सुख प्रदान करना, रति-भाव उत्पन्न करना तथा गर्भाधान करना है ।

सप्‍त धातुओं की सहयोगी छ: उपधातुएं :

आयुर्वेद में सप्तधातु के बाद छ: उपधातुओं या सहयोगी धातुओं का वर्णन है । जो क्रमशः इस प्रकार हैं –

  1. स्तन्यम (स्तनों का दूध),
  2. रज (मासिक धर्म में निकलने वाला रक्त),
  3. शिराएँ (रक्त-वाहिनियाँ एवं नाड़िया),
  4. स्नायु (नाड़ी ऊतक),
  5. वसा (चर्बी), तथा
  6. षड्त्वक (त्वचा की छ: परत) ।

आयुर्वेद में मानव-शरीर के शारीरिक तथा मानसिक पक्षों का अध्ययन बड़े वैज्ञानिक ढंग से किया गया है । परन्तु मानव-शरीर के बारे में आयुर्वेद की दृष्टि आधुनिक तकनीकी दृष्टि से भिन्न है । आधुनिक जीव वैज्ञानिक और चिकित्सा वैज्ञानिक प्रणालियों की लक्षणात्मक विधि के ठीक विपरीत आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली में शरीर का सब कुछ परस्पर आधारित और संबंधित रूप में देखा और समझा जाता है ।

सप्त धातुओं का सार : ओजस

ओज धातुओं का सार है । चरक के वर्णन अनुसार ओज व्यक्ति की जीवन शक्ति है । जैसे मधुमक्खियाँ फूलों और फलों से रस चूसकर शहद इकट्ठा करती हैं उसी प्रकार व्यक्ति के अंग अपनी गतिविधियों से ओज का निर्माण करते हैं ।

कठोर व्यायाम, व्रत, चिन्ता, रूखा, अल्प और सीमित आहार, हवा और सूरज, भय, दुख, अस्वादिष्ट पेय, जागरण, अधिक कफ, रक्त, वीर्य तथा अन्य प्रकार का अत्यधिक विसर्जन, बुढ़ापा तथा चोट ओज की कमी के कारण होते हैं ।

ओज शरीर को क्षीण होने, नष्ट होने तथा रोगग्रस्त होने से बचाता है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति की भाषा में ओज को Vitality & immunity कहा जा सकता है।

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