Last Updated on March 14, 2021 by admin
पाठा क्या है ? (What is Patha in Hindi)
जगत में प्रकृति ने सबके प्रतिपालन की समुचित व्यवस्था कर रखी है। शिशु के जन्म से पहले उसके आहार का प्रबन्ध किया है। निःसन्देह उसके प्रतिपालन एवं परिपोषण के लिये प्रकृति प्रदत्त नारिस्तन्य दुग्ध सर्वोपरि, संजीवन, बलप्रद जीवननाधार आहार है। माता के विशुद्ध दुग्ध से शिशु का जितना सम्यक् पोषण होता है उतना किसी भी अन्य आहारे से नहीं। जो शिशु जितना अधिक समुचित मातृदुग्ध पान करेगा, वह उतना ही अधिक बुद्धिमान् निरोग एवं लावण्यमय होगा।
शिशु के जीवन आधार इस दुग्ध का शुद्ध होना आवश्यक है। शुद्ध दुग्ध से शिशु की धातुओं को पुष्ट बनाने का सामर्थ्य रखता है। इसकी अशुद्धि से बालक को कई दारूण व्याधियां ग्रस्त कर लेती हैं। जो दुग्ध जल में डालने से शीतल, निर्मल, पतला, शंख के समान आभासित होवे तथा जल के साथ एकीभाव हो जावे, जिसमें कोई फेन या तन्तु दिखाई न देवे। जो जल में न तो उत्प्लावित होता हो और न अवसादित होता हो वही दुग्ध शुद्ध अशुद्ध हो जाय तो उसे शुद्ध बनाने वाली औषधियों के सेवन से शुद्ध करना चाहिए। इन औषधियों में पाठा प्रमुख है।
महर्षि सुश्रुत ने आरग्वधादि, पिप्पल्यादि, ‘वृहत्यादि, पटोलादि, अम्बष्ठादि एवं मुस्तादि गणों में इसकी गणना की है।
भावप्रकाश निघन्टु के गुडूच्यादिवर्ग में इसका वर्णन मिलता है। प्राकृतिक वर्गीकरण के अनुसार यह गुडूचीकूल (मेनीस्पर्मेसी Menispermaceae) की वनौषधि है।
पाठा का विभिन्न भाषाओं में नाम (Name of Patha in Different Languages)
Patha in –
- संस्कृत (Sanskrit) – पाठा, अम्बष्ठा, वरतिक्ता
- हिन्दी (Hindi) – पाढ, पाढी
- गुजराती (Gujarati) – वेनीवेल
- मराठी (Marathi) – पाडवेल
- बंगाली (Bangali) – आकनादि
- तामिल (Tamil) – अप्पाट्टा
- तेलगु (Telugu) – पाडा
- कन्नड़ (kannada) – पाडवलि
- मलयालम (Malayalam) – कवल्लि,
- अंग्रेजी (English) – ब्लवेटलीफ- (Velvetleaf)
- लैटिन (Latin) – सिसेम्पेलस परेरा (Cissampelos Pereira)
पाठा की बेल कहां पाई या उगाई जाती है ? :
पाठा समस्त भारत तथा लंका के उष्ण एवं समशीतोष्ण-कटिबन्धीय प्रदेशों में इसकी पतली स्वयंजात लताएं होती है। ये खुली पथरीली जगहों में प्रायः छोटे वृक्षों तथा झाड़ियों में फैली हुई मिलती है।
पाठा की बेल कैसी होती है :
- पाठा की बेल – यह एक पतली आरोहीलता है जिसमें बहुवर्षीय मूल स्तम्य और पतली, लम्बी, झाड़ियों पर फैली हुई किंवा धरती पर फैली हुई तथा मृदु श्वेताभ रोमों से आवृंत शाखायें होती हैं।
- पाठा के पत्ते – पत्र एकान्तर, वताकार, या लट्वाकार, सूक्ष्मरोमाग्र, 1-4 इंच लम्बे होते हैं। पत्रवृन्त लगभग 1-3 इंच लम्बा होता है। मुख्य पत्रसिरायें 5-7 होती हैं।
- पाठा के फूल – पुष्प-एकलिंगी, पीताभ श्वेत होते हैं। पुष्प संघन मंजरियां में प्रायः दलवत् कोणपुष्पकों के अक्ष से निकलते हैं। स्त्रीपुष्पमंजरी प्रायः 6 इंच व्यास के होते हैं।
- पाठा के फल – फल-मटर के समान, रक्तवर्ण या नारंगी रंग के होते हैं। बीज-बक्राकृति होते हैं।
पाठा का भौमिक काण्ड एवं मूल लम्बा, कोमल प्रायः शाखायुक्त, लगभग 1/2 इंच व्यास का बाहर की ओर हलका भूरा, भीतर की ओर पीताभ भूरा, लम्बाई में दरारों तथा अनुप्रस्थ दिशा में संकोचों से युक्त होता हे यह स्वाद में तिक्त होता है। इस बलता पर पुष्प जून-नवम्बर, में तथा फल इसके बाद में आते हैं।
पाठा के प्रकार :
लघुपाठा एवं राजपाठा (बड़ी पाठा) नाम से इसके दो भेद किये हैं। प्रस्तुत प्रसंग में लघुपाठा का वर्णन किया गया है। राज पाठा के कन्द एवं पत्र बड़े होने से इसे बड़ी पाठा कहा जाता है।
पाठा का उपयोगी भाग (Beneficial Part of Patha in Hindi)
- प्रयोज्य अंग – मूल, कांड (तना)
- संग्रह एवं संरक्षण – पाठा मूल का संग्रह शीतकाल में पुष्प-फल आ जाने के बाद छाया में सुखाकर, मुखबंद पात्रों में आद्र शीतल स्थान में रखकर करें।
- वीर्यकालावधि – एक वर्ष
पाठा के औषधीय गुण (Patha ke Gun in Hindi)
- रस – तिक्त
- गुण – लघु, तीक्ष्ण
- वीर्य – उष्ण
- विपाक – कटु।
- दोषकर्म – यह त्रिदोषशामक है, विशेषताएं कफ पित्त शामक
सेवन की मात्रा :
क्वाथ – 50-100 मिलि0,
चूर्ण – 1.3 ग्राम
रायासनिक संघठन :
- मूल में पेलोसिन या बेर्बेरीन नामक तत्व 5 प्रतिशत पाया जाता है।
- इसके अतिरिक्त सैपीनिन एवं क्षार पाये जाते हैं।
पाठा का औषधीय उपयोग (Medicinal Uses of Patha in Hindi)
आयुर्वेदिक मतानुसार पाठा के गुण और उपयोग –
- आयुर्वेदीय ग्रन्थों में इसका सर्वाधिक प्रयोग वर्णन चरक संहिता में देखने को मिलता है। यह पूर्व में कहा गया है कि यह स्तन्य शोधन श्रेष्ठ होन से विविध स्तन्यदोषों को दूर करती है। भगवान चरक ने चरक सहिंता में इसके अनेकों बाह्याभ्यन्तर प्रयोगों का वर्णन किया है।
- पाठा स्त्रियों के प्रदर में तथा पुरूषों के प्रमेह में भी उपयोगी है।
- सुश्रुत संहिता चिकित्सा स्थान के गूढगर्भ चिकित्सा अध्याय में भी पाठा के आभ्यन्तर प्रयोग का निर्देश है।
- ज्वरहर एवं दाह प्रशमन कार्मुकता इसकी प्रसिद्ध है। चरक सू०में ज्वर हर कषायों में इसकी गणना है। साथ में ही ग्राही होने से यह ज्वरातिसार में भी लाभप्रद है चरक सू० में ज्वरहर कषायों में इसकी गणना है।
- अतिसार ग्रहणी के प्रयोगों में पाठा लाभप्रद औषधि है । कुटजाष्टक क्वाथ एवं गंगाधर चूर्ण में भी पाठा को लिया गया है जो प्रसिद्ध ग्राही प्रयोग हैं।
- पाठा अतिसार, प्रवाहिका, ग्रहणी के अतिरिक्त दीपन पाचन, कृमिघ्न होने से पाचन संस्थान के अन्य रोगों में भी यह हितकारी है।
- गुल्म, प्लीहा, अग्निमांद्य, हृद्रोग, ग्रहणी दोष पाण्डु रोग में उपयोगी पाठादि गुटिका का सुश्रुत संहिता में भी वर्णन मिलता है।
- पाठा कुष्ठघ्न, रक्तशोधक, व्रणरोपण होने से यह कुष्ठ, उपदंश, भगन्दर आदि रोगों में भी यह हितकर हैं।
- शालक्यतंत्रोक्त रोगों में भी पाठा के उपयोग के वर्णन उपलब्ध होते हैं।
- महर्षि सुश्रुत ने अभिष्यन्द में अंजन वर्ति हेतु पाठा की उपादेयता प्रकट की है।
- मुख रोगों में भी लाभर्थ पाठा के प्रयोग प्रदर्शित किये गये हैं।
- शिरःशूल एवं दुष्ट पीनस में इसे स्वरस का चूर्ण का या सिद्ध तैल का नस्य हितकारी है।
- इसके अतिरिक्त पाठा बल्य होने से कटु पौष्टिक के रूप में मूत्रल होने से बस्तिशोथ – मूत्रकृच्छ्रहर रूप में और कफघ्न होने से प्रतिश्याय कास-श्वास आदि रोगों में भी हितकारी है।
- दुष्टव्रण, नाड़ी व्रण, कण्डू, कुष्ठ तथा सर्प दंश पर इसके पत्र या मूल का लेप किया जाता है।
वृहत्त्रयी, काश्यप संहिता एवं परवर्ती अन्य संग्रह ग्रन्थों में उपर्युक्त रोगों में पाठा के प्रचुर प्रयोग देखने को मिलते हैं। इन उद्धरणों से यह सिद्ध होता है कि उस समय में पाठा का प्रयोग बहुतायत से किया जाता था। संप्रति चिकित्सकों को भी चाहिए कि वे इसकी गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए इस बहुफलदायिनी लता को अधिकाधिक उपयोग में लाकर व्यथित जनता को लाभान्वित करें।
पाठा के फायदे (Benefits of Patha in Hindi)
1). सर दर्द (शिरःशूल) –
पाठा मूल के स्वरस या चूर्ण का नस्य लेने से शिरःशूल विशेषतः अर्धावभेदक मिटता है।
पाठा, पटोल पत्र, सोंठ, एरण्ड मूल, शिग्रुबीज, चक्रमर्दबीज और कूठ को मढे में पीसकर लेप करने से सभी प्रकार के शिरःशूल में लाभ होता है।
2). मूढ गर्भ –
पाठा मूल को पानी के साथ पीसकर कुछ गर्म कर नाभि, बस्ति और योनि पर लेप करने से सुखपूर्वक प्रसव होता है।
पाठा मूल एवं अपामार्गमूल को जल में पीसकर वर्तिका बनाकर योनि में प्रवेश कराने से शीघ्र ही प्रसव हो जाता है।
3). गर्भाशय भ्रंश –
प्रसव के समय असावधानीवश गर्भाशय विच्युति हो जाती हैं यदि रोग अधिक पुराना न हो तो पाठामूल क्वाथ से धोते रहना तथा शुभ्रा व माजू फल के सूक्ष्म चूर्ण को पतले वस्त्र में पोटली बनाकर धारण करने से लाभ होता है।
4). नाडी व्रण –
पाढ़ा पत्र कल्क का व्रण पर बन्धन करने से नाड़ी दुष्टव्रण ठीक होते हैं। इन व्रणों पर पाठा मूल के सूक्ष्म चूर्ण का अवधूलन कर जात्यादितैल आदि व्रण रोपण तैल का बन्धन करने से व्रणों का शोधन होकर वे शीघ्र भरने लगते हैं।
5). कुष्ठ –
- पाठा पत्र स्वरस का लेप करने से या मूल चूर्ण को तुवरक तेल में मिलाकर लेप करने से कुष्ठ में लाभ होता है।
- पाठा, दारूहल्दी, चित्रक, अतीस, कुटकी, इन्द्रजौ के चूर्ण को गोमूत्र या गरम पानी से एक माह तक सेवन करने से कुष्ठ रोगी को लाभ होता है। इससे अर्श, प्रमेह, शोथ, पाण्डु, अजीर्ण, आदि रोग भी मिटते हैं।
6). सर्प दंश –
दंश स्थान पर चीरा लगाकर विष को निकाल पाठा मूल को पाठा पत्र स्वरस में पीसकर लेप करें।
7). मुखरोग –
पाठा, दारू हल्दी की छाल, कूठ, नागरमोथा, मजीठ, कुटकी, हल्दी, लोध्र और मालकांगो सबको समान भाग लेकर चूर्ण बना लें। इसे शहद में मिलाकर मसूढ़ों पर मलने से मसूड़ों में होने वाली पीड़ा खुजली पाक, पायरिया आदि का नाश होता है।
8). नेत्र रोग –
कफजन्य अभिष्यन्द में पाठा, नेत्रबाला, देवदारू, कूठ, शंख, त्रिकटु, मनःशिला, करंज, शिग्रु एवं चमेली के पुष्पों को सुखाकर बारीक अंजन बनाकर लगावें।
9). उपदंश –
हल्दी, अतीस, नागर मोथा, तुलसी, देवदारू, शिरबालिका शान्ति शाक से चूर्ण को पाठा पत्र के साथ पीसकर शिश्न पर लेप करने से उपदंश में आराम मिलता है। इससे पूर्व आरग्वधादि क्वाथ में तर करें।
10). स्तन्य दोष –
- पाठा, सारिवा, खस, रक्त चन्दन और मंजीठ के कल्क का लेप स्तनों पर करने से पित्तजन्य स्तन्य विकार दूर होते हैं।
- पाठा, नागरमोथा, चमेली के पत्र, नीमपत्र, कुटज, हल्दी के कल्क का लेप कफजन्य स्तन्यदोष को मिटाता है।
- पाठा, गिलोय, अगर, रास्ना और छोटी बड़ी कटेरी, मुलेठी चूर्ण को तिलकल्क में पीसकर लेप करना वातज स्तन्यदोष को मिटाता है।
- पाठा, अदरख, नेत्रबाला, मरोड़फली के कल्क का लेप भी हितकारी है।
- पाठा स्वरस में अदरख स्वरस मिलाकर पिलाने से दुग्ध शुद्ध होता है।
- पाठा मूल और इन्द्र जौ को जल में पीत पिलावें।
- पाठा, नागरमोथा, प्रियंगु, लोध्र, गिलोय और मूर्वा का चूर्ण भी सेवन करने से स्त्री का अशुद्ध दुग्ध शुद्ध होता है।
- पाठा, सारिवा, गिलोय, महुवा का फल और मुनक्का के क्वाथ में शर्करा मिलाकर पीने से भी दुग्ध शुद्ध होता है।
11). बालातिसार –
पाठामूल एवं एक-दो काली मिर्च को ठन्डे पानी में पीस छानकर पिलाने से बालकों का अतिसार मिटता है।
12). श्वेत प्रदर –
पाठा मूल एवं एक-दो कालीमिर्च को ठन्डे पानी में पीस छानकर पिलाने से बालकों का अतिसार मिटता है।
13). श्वेतप्रदर –
पाठा मूल स्वरस को दूध में मिलाकर पिलावें या पाठा मूल चूर्ण को मिश्री के साथ सेवन करावें। दोनों प्रयोग भी साथ साथ लिये जा सकते हैं।
14). कष्टार्तव –
पाठा मूल, सोंठ, कालीमिर्च, पिप्पली और पुनर्नवा के चूर्ण को जल के साथ सेवन करने से कष्टार्तव मिट कर मासिकस्राव शुद्ध होने लगता है। रजःस्राव के साथ रक्त की गांठें भी गिरती रहें तो भी यह प्रयोग लाभ करता है।
15). रक्तप्रदर –
- पाठा, बड़ी इलायची के बीज, नागकेशर का समभाग चूर्ण में शर्करा मिलाकर सेवन कर रक्तप्रदर में हितकारी है।
- पाठा, मोचरस, प्रियंगु और शर्करा चूर्ण भी रक्तप्रदर हर है।
- पाठा, राल (खाने की), माजूफल चूर्ण में शर्करा मिलाकर सेवन करना भी पूर्ववत लाभप्रद है।
16). प्रमेह –
- पाठा, देवदारू और त्रिफला क्वाथ लाला मेह में हितकर कहा गया है।
- पाठा, त्रिफला एवं नागरमोथा का भी क्वाथ लाभदायक है।
- त्रिफला, अमलतास, पाठा, सप्तपर्ण, कुटज, नागरमोथा तथा नीम क्वाथ स्थूल प्रमेही के लिए अधिक लाभदायक कहा गया है।
17). मूत्रकृच्छ्र –
पाठा और अगर के क्वाथ को सेवन करने से मूत्र साफ आकर पेशाब में क्षार जाना रूक जाता है। पाठामूल का क्वाथ मूत्रकृच्छ्र मूत्राशय की जलन जीर्ण शोथ और पथरी आदि रोगों को दूर करने में भी श्रेष्ठ है।
18). कंठ रोग –
पाठा, नागरमोथा, देवदार अतीस, कुटकी और कुटज को समभाग ले पीसलें और गोमूत्र में क्वाथ बनाकर पीने से कंठ रोगों में लाभ होता है।
पाठा, रसांजन, मूर्वा, तेजबल का चूर्ण शहद में मिलाकर सेवन करना भी कंठ रोगों में हितकारी है।
19). जिह्वा रोग –
पाठा, कुटकी, पटोल, त्रिकटु और सैन्धव चूर्ण को मधु में मिलाकर जिह्वा पर लेप करना जिह्वा रोगों में हितकर कहा गया है।
20). सूजन (शोथ रोग) –
पाठा, जीरा, मोथा, पंचकोला, कटेहली, हल्दी, चिरायता और सोंठ का चूर्ण गरम पानी से लेने से त्रिदोषज शोथ का शमन होता है।
21). खांसी (कास) –
पाठा मूल के क्वाथ में मधु मिलाकर पीना कास निवारक है।
पाठा, सोंठ, कचूर, मूर्वा मूल, इन्द्रायण की जड़, नागरमोथा और पिप्पली समभाग लेकर पीसकर सूक्ष्म चूर्ण बना लें। एक-दो ग्राम चूर्ण गरम जल से सेवन करें। इस अनुपान जल में थोड़ी हींग और सेंधानमक भी मिला लें। इस प्रयोग से खांसी विशेषतया कफ जनित खांसी का शमन होता है।
22). बवासीर (अर्श) –
पाठा के साथ धमासा, बेलगिरी अजवाइन या सोंठ इन चारों में से जो रोगी के लिए अनुकूल हो उसे मिलाकर चूर्ण करें अथवा वायु और मधु के अनुलोमार्थ पाठा के साथ अजवायन, सोंठ, अनारदाना का रस, गुड़ और नमक को छाछ में मिलाकर पिलाते रहने से बवासीर दूर होता है। केवल पाठा मूल चूर्ण को छाछ के साथ सेवन करने से भी बवासीर में लाभ होते देखा गया है। इससे पाचन संस्थान की विकृति समाप्त होती है।
अर्श के रोगी को पाठा के पत्रों का शाक बनाकर भी पथ्य रूप में सेवन करना चाहिए। इससे वायु का अनुलोमन होकर लाभ होता है।
23). सुजाक –
पाठा मूल क्वाथ में यवक्षार एवं खुरासानी अजवाइन का चूर्ण बनाकर सेवन करना जीर्ण सुजाक के रोगी के लिए लाभदायक सिद्ध हुआ है। इससे मूत्रमार्ग में हुई असह्य जलन भी दूर होकर रोगी को शान्ति मिलती है।
24). अग्निमांद्य –
पाठा मूल के क्वाथ में पिप्पली का चूर्ण मिलाकर सेवन करने से अग्नि दीप्त होकर लाभ होता है।
25). उदरशूल –
पाठा मूल चूर्ण अजवाइन चूर्ण के साथ गर्म जल में अनुपान से सेवन करने से गैस के कारण हुआ पेट
का दर्द मिटता है।
26). अतिसार –
- पाठा, धायपुष्प, अतीस, कुटज और अनारदाना क्वाथ पीवें।
- पाठा, लोध्र, धातकी, नागरमोथा, सोंठ, अतीस क्वाथ हितकारी है। .
- पाठा, नागरमोथा, विल्वगिरि, सोंठ, हरीत की क्वाथ कफातिसार में उपयोगी है।
- पाठा, इन्द्रजौ, चिरायता, मोथा, पित्तपापड़ा, गिलोय और सोंठ का यह पाठा सप्तक क्वाथ पैत्तिक अतिसार में हितकारी है।
- पाठा, मंजीठ, अतीस, नागरमोथा, बेलगिरी, यवासा, बालछड़ और सोंठ का क्वाथ सामनिराम ज्वर युक्त अतिसार को मिटाता है।
27). प्लीहा वृद्धि –
पाठा मूल और पुनर्नवा मूल का चूर्ण बनाकर चावलों के धोवन (मांड) के साथ या शहद के साथ सेवन करें।
28). ज्वर –
- पाठा, खस और नेत्रवाला इनका क्वाथ सेवन करने से ज्वर का दोष पाचन होकर अरूचि, तृष्णा, अपचन अरूचि आदि लक्षणों सहित ज्वर निवृत्त होता है।
- पाठा मूल के क्वाथ में कालीमिर्च का चूर्ण मिलाकर देवें।
- पाठा मूल के साथ लहसुन पीस दूध में औटाकर पीने से शीत ज्वर में लाभ होता है।
पाठा से निर्मित आयुर्वेदिक दवा (कल्प) :
क्वाथ –
पाठा, सोंठ, जवासा, बेल, अजवाइन, अनार का छिलका, इन्द्र जौ, अतीस, नागरमोथा, मजीठ और सोनापाठा के क्वाथ मे त्रिफला और धाय के फूल का चूर्ण मिलाकर सेवन करने से शूल के साथ अतिसार, आमातिसार, रक्ततिसार और कफातिसार नष्ट होते हैं। यह क्वाथ उत्तम दीपन-पाचन है।
चूर्ण –
पाठा, अतीस, इन्द्रजौ, कूड़ा की छाल, नागरमोथा, कुटकी, धाय के फूल, रसोंत और बेल की गिरी इन सब द्रव्यों का बरीक चूर्ण बना लें। यह चूर्ण 3-4 ग्राम की मात्रा में लेकर शहद मिलाकर सेवन करें। इसके ऊपर चावलों का पानी पीवें। इसके सेवन से ग्रहणी, प्रवाहिका, रक्तातिसार गुदा की पीड़ा और बवासीर आदि रोग नष्ट होते हैं। -वै0 जी0
घृत –
पाठा, वच, सेंधा नमक, सहजने की छाल, हरड़ सोंठ व पिप्पली समभाग मिश्रित एक किलो जौकुट कर 8 लीटर जल में पकावें। शेष 2 लीटर जल रहने पर छान लें। कल्कार्थ उक्त सब द्रव्य मिलित 40 ग्राम लेकर जल के साथ पीस लें। फिर आधा किलो गाय का मक्खन, उक्त क्वाथ व कल्क एकत्र मिला पकावें। घृतमात्र शेष रहने पर छान लें। इसे बालकों को सेवन कराने से उनकी बुद्धि स्मरणशक्ति रूप और बल की वृद्धि होती है। -ग०नि०
गुटिका –
पाठा 60 ग्राम, बहेड़ा, गिलोय, आंवला 40-40. ग्राम, धनियां, ब्राह्मी, कटेरी, सोंफ 30-30 ग्राम, धमाशा, विदारीकंद, सतावर, सरफोंका, चित्रक, देवदार, इलायची, दालचीनी, जायफल, नागकेशर 20-20 ग्राम सबका महीन चूर्ण कर चीनी की चासनी मिलाकर 4-4 ग्राम की गोलियां बनालें। एक-दो गोली हृदयरोगों में जयन्ती स्वरस के साथ, उदर दाह में सोंफ के हिम के साथ, मेदो रोग (मोटापा) और कण्डू रोग (खुजली) में वासा क्वाथ के साथ तथा श्वास में वृ0 पंचमूल क्वाथ या शहद के साथ सेवन करना हितकारी है।
पाठा के दुष्प्रभाव (Patha ke Nuksan in Hindi)
पाठा के उपयोग व सेवन से पहले अपने चिकित्सक से परामर्श करें ।
पाठा के अती मात्रा में सेवन से पेट में मरोड व दस्त लगने जैसी समस्या हो सकती है ।