बहनों की रक्षा का त्यौहार रक्षाबंधन (पौराणिक कथा)

Last Updated on August 15, 2019 by admin

श्रावण शुक्ल पूर्णिमा अति विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण तिथि मानी जाती है, क्योंकि इसी दिन भाई-बहन के विरस्नेहिल बंधन का पर्व रक्षाबंधन मनाया जाता है। इस दिन बहन पावन प्रेम से सराबोर कच्चे धागे को अपने भाई की कलाई में बाँधती है और इसके बदले अपनी रक्षा एवं संरक्षण का वचन लेती है। इसे विजय पर्व भी कहा जाता है, वह इसलिए कि इस दिन इंद्र ने असुरों के अत्याचार से देवताओं को मुक्त किया था। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को ही उपाकर्म का प्रसिद्ध एवं पवित्र काल कहा गया है। इस दिन वेद-अध्ययन प्रारंभ किया जाता था। इस तिथि के पापों के निराकरण के प्रायश्चित रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प करके दशविध स्नान करने का भी विधान है।

रक्षाबंधन अर्थात ऐसा बंधन, जो जिसे बाँधा जाए, उसकी रक्षा करने का संकल्प किया जाए। उसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने से भी डिगना नहीं चाहिए। किसी भी रूप में रक्षा का प्रण लेना ही रक्षाबंधन है। इसलिए इस पर्व का विशेष महत्त्व है। इस पर्व के प्रादुर्भाव के संबंध में एक कथा प्रचलित है, जिसमें रक्षाबंधन का मर्म समाहित है। कथा स्वर्ग की है एवं अत्यंत प्रेरणाप्रद है। –

रक्षाबंधन की पौराणिक कथा :

मान्यता है कि देवासुर संग्राम छिड़ा हुआ था। असुर एवं देवता दोनों एकदूसरे पर विजय एवं आधिपत्य के लिए भीषण युद्ध में निरत थे। देवता अपने अस्तित्व एवं धर्म के लिए नीतिगत युद्ध कर रहे थे। असुर अपने अहंकार के लिए एवं देवताओं को स्वर्ग से खदेड कर अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए युद्ध कर रहे थे। एक ओर धर्म था और दूसरी ओर अधर्म की आग प्रत्यक्ष रूप से प्रज्वलित हो रही थी। धर्म और अधर्म का यह युद्ध लगातार एवं अनवरत रूप से बारह वर्ष तक चला। इस देवासुर संग्राम में असुरों का पलड़ा भारी था। उन्होंने अपने असीम साहस एवं शक्ति से देवताओं से स्वर्ग को छीन लिया था एवं देवताओं को स्वर्ग से बाहर भगा दिया था। देवताओं को हार एवं पराभव का सामना करना पड़ा था । पराजय सदैव ही पीड़ा, कष्ट एवं चिंता को बढ़ाती है। पराजित एवं पराभव व्यक्ति कभी भी सुखी एवं संतुष्ट नहीं रह सकता, वह सदा ही दुःख एवं अपनी हार की पीड़ा से छटपटाता रहता है। ठीक इसी तरह देवताओं के चेहरे की रेखाएँ म्लान, चिंतित एवं शोकपूर्ण नजर आ रहीं थीं। अपनी इस हार से एवं देवताओं की इस दयनीय स्थिति को देख देवराज इंद्र अत्यंत विचलित हो गए। वे अस्तित्व से जुड़ी इस समस्या के समाधान हेतु देवगुरु बृहस्पति के पास पहुंचे।

देवेंद्र अपनी सहधर्मिणी शचि को साथ लेकर देवगुरु के पास पधारे। दोनों ने अपने गुरु को भावपूर्ण हृदय से अभिवादन किया। देवगुरु इंद्र के मुखमंडल पर छाई विषाद रेखा से अपरिचित नहीं थे। देवगुरु ने कहा-
‘हे देवेंद्र ! वर्तमान में क्या समाचार है। देवता किस स्थिति में हैं।” देवेंद्र का अहंकार असुरों के आगे विदीर्ण हो रहा था। इस पीड़ा से वे छटपटा रहे थे। कहाँ तो वे देवताओं के राजा थे, जिनके एक संकेत से सष्टि में हलचल मच जाती थी और कहाँ वे पददलित-पथदलित एवं कातर भाव से नतमस्तक होकर अपने गुरु के सामने खड़े थे। वे बोले-
“समाचार अत्यंत पीड़ादायक एवं भीषण है गुरुदेव! इस समय न मैं सुरक्षित हूँ और न अन्य देव। सभी असुरक्षित एवं आतंकित हैं और ऊपर से असुरों का हम पर अत्याचार एवं अनाचार अनवरत जारी है।”

देवगुरु ने कहा-
“हे देवेंद्र! आप भली भाँति परिचित हैं कि इस सृष्टि में शक्ति एवं सामर्थ्य का सदा से प्रभाव रहा है। सामर्थ्यवान एवं शक्तिमान कभी पराजित नहीं होता है। पराजित तो वह होता है, जो अपार बल के आगे दुर्बल एवं कमजोर पड़ जाता है। असुर सदा अपनी शक्ति एवं ऊर्जा के लिए कठिन से कठिनतम तपस्या करने में नहीं हिचकिचाते और वे पराजित होने के बाद फिर से अपनी समस्त शक्ति एवं ऊर्जा को बटोरकर शक्तिमान बन जाते हैं, परंतु आप देवता क्या करते हैं ? जीत जाने पर रासरंग में डूब जाते हैं, चरम भोग में निमग्न हो जाते हैं और इसमें अपनी ऊर्जा एवं शक्ति का हास कर देते हैं, परिणामस्वरूप घात लगाए बैठे असुरों के हाथों पराजित हो जाते हैं। असुरों को हराने के लिए आपको अपने आत्मविश्वास को जगाना पड़ेगा। इस संदर्भ में देवी इंद्राणी ही कोई युक्ति सुझा सकती हैं। आप उनके कहे विधान का पालन करके इस महासंग्राम को अपने पक्ष में कर सकते हैं।”

इंद्राणी ने श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन विधानपूर्वक रक्षासूत्र तैयार कर उसे विशिष्ट मंत्रों से अभिमंत्रित किया और फिर उसे देवेंद्र को प्रदान करते हुए कहा “हे देव ! इसे आप देवगुरु बृहस्पति के पास ले जाएँ
और उनसे अपनी कलाई में बँधवा लें। इससे आप अवश्य विजयी होंगे। इस बार यह रक्षासूत्र आपकी रक्षा ही नहीं करेगा, बल्कि असुरों पर विजय भी दिलाएगा।”

इंद्र उसे अपने प्रिय गुरु के पास ले गए। बृहस्पति जी ने इंद्र का रक्षाविधान और स्वास्तवाचनपूर्वक रक्षाबंधन किया। इस रक्षाबंधन के प्रभाव से इंद्र ने असुरों को युद्ध में परास्त किया और उनके गिरफ्त से स्वर्गलोक को मुक्त कराया तथा पराजित एवं पराभव देवताओं के लिए स्वर्ग का द्वार खोल दिया। तब से यह पर्व रक्षाबंधन के रूप में मनाया जाने लगा।

रक्षाबंधन के दिन शिष्य गुरु के पास जाकर रक्षाबंधन कराता है और अपनी रक्षा का आशीर्वाद लेकर आता है। बहन भाई को राखी बाँधती है और भाई बहन को हर संभव रक्षा करने का वचन देता है। भाई राखी की लाज रखने के लिए अपने जीवन को होमने में भी संकोच नहीं करता, परंतु वर्तमान समय में रक्षाबंधन केवल प्रतीक बनकर रह गया है। हर साल श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को बहनें अपने भाइयों की कलाई पर राखी का कच्चा धागा बाँधती हैं और भाई उन्हें रक्षा का वचन देते हैं, परंतु इस वचन का निर्वाह कितना हो पाता है यह तो प्रचलित समाज में बहनों की दुर्दशा को देखकर ही लग जाता है।
नारी की छेड़खानी, हिंसा, हत्या, बलात्कार आदि घटनाएँ रक्षाबंधन के पर्व पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। क्या हम उस देश में रहते हैं जहाँ भाई-बहन के अटूट प्रेम के प्रतीक के रूप में रक्षाबंधन का पर्व इतने उत्साह एवं उमंग के साथ मनाया जाता है? क्या हम वही भाई हैं, जो हमारी कलाई पर राखी बँधते समय बहन की समस्त रक्षा का दायित्व निर्वाह करने का संकल्प करते हैं, परंतु किसी अन्य की बहन के साथ जघन्यकृत्य करने में जरा सी भी शरम और संकोच नहीं करते?

ऐसे न जाने कितने यक्षप्रश्न खड़े हो जाते हैं, परंतु किसी भी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिल पाता है। क्या हम इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि हमारा हृदय धड़कना बंद कर चुका है ? क्या हम इतने क्रूर एवं पाषाणवत् हो चुके हैं कि किसी अबलानारी की करुण चीत्कार हमें सुनाई नही देती है ? लगता है रक्षाबंधन एक चिह्न-पूजा के रूप में रह गया है। यह एक खूबसूरत व्यवसाय बन गया है कि इस दिन ढेरों राखियों, मिठाइयों एवं अन्य उपहारों की खूब बिक्री हो एवं मोटा मुनाफा मिल जाए।

परंपराओं के निर्बाध प्रवाह में रक्षाबंधन भी एक पर्व है, परंतु इस पर्व का सत्य एवं मर्म मरणासन्न है, समाप्तप्राय है, परंतु इसे जिंदा एवं जीवित रखना होगा; क्योंकि इस समाज को इस पर्व की अत्यंत आवश्यकता है।

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