Last Updated on August 19, 2019 by admin
प्रेरक कथा प्रसंग – सन्त रैदास(रविदास) की साधना
‘सन्त काल’ उस समय को कहा जाता है जिन दिनों यवन काल के उत्पातों से जनता किंकर्तव्यविमूढ़ हो रही थी । आन्तरिक फूट,आदर्शों में विडम्बना का समावेश, संगठन का अभाव आदि कितने ही कारण ऐसे आ जुटे थे कि बहुसंख्यक जनता मुट्ठी भर विदेशी विधर्मियों द्वारा बुरी तरह पद-दलित की जा रही थी। उत्पीड़न और अपमान के इतने कडुए घूँट आये दिन पीने पड़ रहे थे कि चारों ओर अन्धकार के अतिरिक्त और कुछ दीख ही न पड़ता था । लोग हताश होकर पराजित जाति जैसी हीनता को स्वीकार करने लगे थे । लंगड़ा, लूला प्रतिरोध सफल न हो सका तो उसे ईश्वरीय कोप मान कर चुप बैठे रहने में ही लोग अपनी भलाई सोचने लगे । ऐसी परिस्थितियों में आशा की एक नवीन किरण के रूप में भारत में ‘सन्त मत’ पनपा।
नानक, गुरु गोविन्दसिंह, रामानन्द, कबीर, ज्ञानदेव, एकनाथ, तुकाराम, तुलसीदास, सूरदास, रामदास, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, रामतीर्थ, कबीर, दादू, रैदास, चैतन्य आदि अनेक सन्तमहात्मा उन्हीं परिस्थितियों में उत्पन्न हुए और उन्होंने धर्म और ईश्वर पर से डगमगाती हुई निराश जनता की आस्था को पुनः सजीव करने का सफल प्रयत्न किया । रैदास(रविदास) इसी माला की एक उज्ज्वल मणि थे ।
सन्त रैदास(रविदास) हरिजन कुल में उत्पन्न हुए । उनके पिता चमड़े का व्यापार करते थे । जूते भी बनाये जाते थे । रैदास बचपन से ही बड़े उदार थे । घर में सम्पन्नता थी । वे सोचते थे कि सम्पन्न लोगों को अपनी सम्पदा में दूसरे अभाव-ग्रस्तों को भी भागीदार बनाना चाहिए अन्यथा संग्रह किया हुआ अनावश्यक धन उनके लिए विपत्ति रूप ही सिद्ध होगा । वे प्रतिदिन एक जोड़ा जूता अपने हाथ से बनाकर असमर्थों को दान करते, जिससे वे कुश-कटकों और शीत-धूप से पैरों को बचाते हुए अपना कार्य करते रह सकें।
यह उदारता युवक रैदास के पिताजी को पसन्द न आई । दूसरे अन्य असंख्य लोगों की तरह वे अपने बेटे को ‘कमाऊ’ देखना चाहते थे । कमाऊ होना ही तो सब से बड़ा गुण माना जाता है । पिता ने उन्हें रोका, न माने तो बिना छप्पर का एक बाड़ा रहने के लिये देकर उन्हें और उनकी स्त्री को घर से निकाल दिया । पराई कमाई पर निर्भर रहने की अपेक्षा परिश्रमपूर्वक स्वावलम्बी जीवन रैदास(रविदास) को पसन्द आया
और वे पूरे परिश्रम तथा मनोयोगपूर्वक बढ़िया जूते बनाने लगे। इसी से अपना गुजारा करते और एक जोड़ी जूता नित्य दान भी करते ।
गृहस्थ रहते हुए भी मनुष्य महात्मा हो सकता है इसका अनुकरणीय उदाहरण रैदास ने प्रस्तुत किया और वे उसमें पूर्ण सफल भी रहे । गुजारे के लिए आठ घण्टा श्रम करने से काम चल सकता है । आठ घण्टा नित्य-कर्म और भोजन विश्राम के लिए पर्याप्त होते हैं । इसके अतिरिक्त आठ घण्टा समय लगभग सभी के पास शेष रहता है । प्रबुद्ध लोग उसका सदुपयोग करके अभीष्ट लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ते चले जाते हैं जबकि प्रमादी लोग इस मूल्यवान समय को बर्बाद करके मौत के दिन ही पूरे कर पाते हैं । रैदास प्रबुद्धों की श्रेणी में थे । उन्होंने बचे हुए समय को तप और साधना में लगाने का क्रम बनाया । उनके व्यक्तित्व से प्रभावित अगणित लोग उनके पास आते और उनकी शिक्षाएँ प्राप्त करके अपना पथ निर्धारित करते। उनके घर में सत्संग का क्रम चलता ही रहता । जूते बनाते हुए भी वे धर्म चर्चा करते रहते ।
“मन चंगा तो, कठौती में गंगा”कहावत किसने नहीं सुनी ? वस्तुत: आध्यात्मिकता के ठोस लाभ प्राप्त करने के इच्छुकों के लिये यह एक वाक्य ही सिद्धि दाता मंत्र है । इस मंत्र के मंत्र दृष्टा थे हरिजन संत रविदास- उन्हें कहीं-कहीं रैदास भी कहते हैं ।
बनारस की बात है एक दिन एक स्त्री गंगा स्नान करने गई । वहाँ उसके हाथ का एक कंगन पानी में खिसक गया। स्त्री बड़ी दुःखित हुई । संत रविदास, जो जन्म से चर्मकार थे, के विरोधियों को इस बात का पता चला तो वे इसी बात को लेकर संत से झगड़ा करने जा पहुंचे । प्रतिक्रियावादियों ने सन्त रविदास के पास जाकर कहा- चर्मकार होकर आप अपने आप को सच्चा भक्त और गंगा जी का सेवक कहते हैं तो आज अमावस्या के दिन भी गंगा स्नान करने क्यों नहीं गये ? सन्त रविदास बोले- “मन चंगा तो कठौती में गंगा” अरे भाई व्यक्ति का अन्त:करण शुद्ध और पवित्र हो तो गंगा अपने पास ही है । धार्मिक कर्मकाण्ड का मूल मन्तव्य अपनी भावनाओं को निर्मल और पवित्र बनाये रखना है यदि भावनायें शुद्ध हैं तो (अपने बगल में रखे कठोते के पानी की ओर संकेत करते हुये ) इस कठौतें में ही गंगा जी हैं।
विरोधियों की घात लग गई । बोले- तुम तो अपने आप को बहुत शुद्ध और पवित्र मानते हो, तुम्हारे लिये गंगा यहीं है तो इस बेचारी स्त्री का कंगन कठोते से ही निकाल कर दे दीजिये न? कहते हैं सन्त रविदास ने कठौते में हाथ डाला और उस स्त्री का कंगन उसी में से निकाल कर दे दिया ?
घटना कहाँ तक सच है इस विवाद में पड़ने की अपेक्षा सन्त रविदास के जीवन की यह घटना यह बताती है कि आध्यात्मिक सिद्धियों का मूलाधार पवित्र हुई आत्मा और निर्मल मन ही है यदि अन्त:करण अपवित्र और अशुद्ध है तो व्यक्ति ने भले ही जन्म किसी अतिशय सनाढ्य कुल में लिया हो पर वह उन विशेषताओं एवं महत्ताओं से वंचित ही बना रहेगा जो एक सच्चे अध्यात्मवादी में होनी चाहिये।
संत रविदास का जन्म वाराणसी में सं. १४५६ विक्रमी में चमार वंश में हुआ उनके पिता का नाम रघुजी और माता का नाम विनिया था। हिन्दु जाति का अंग होने पर भी जिस तरह अन्य अनेक हरिजन जातियों को सवर्णों के आगे दबकर रहना पड़ता है इस परिवार का जीवन भी कुछ ऐसा ही था । बनारस जो कि ब्राह्मण वाद का गढ़ माना जाता है जहाँ “जन्मना जायतो ब्राह्मणाः” की प्रान्त धारणा आज भी सवर्णों के प्रमाद और मिथ्या गर्व का कारण बनी हुई है । इस पूर्वाग्रह ने जहाँ प्रमाद में पड़े सवर्णों को आध्यात्मिकता के महत्त्वपूर्ण लाभों से वंचित रख दिया वहाँ जातीय संगठन को छिन्नभिन्न कर दिया । हजारों हरिजन ईसाई बन गये, हजारों बौद्ध तथा मुसलमान, हिन्दू-हरिजनों की उपेक्षा न हुई होती तो आज पाकिस्तान नहीं होता । दुर्भाग्यवश तब यह बात किसी की समझ में नहीं आई थी, आज भी लोग नहीं समझ रहे- ऐसे समय में संत रविदास का जन्म एक प्रकार से परमात्मा की ओर से स्थापित उदाहरण था कि “जाति पाँति पूछे नहीं कोय, हरि को भजे सो हरि का होय” अर्थात् भगवान को हर कोई प्राप्त कर सकता है वहाँ छूत-अछूत का कोई भेद नहीं, यह मात्र मानवीय संकीर्णता है।
रविदास का मन बाल्यावस्था से ही आध्यात्मिकता की ओर मुड़ता जा रहा था । माता-पिता ने उनकी शादी करनी चाही, पहले तो रविदास ने इन्कार किया और अपना जीवन सेवा साधना में बिताने का निश्चय किया पर माता-पिता इतने ऊँचे आदर्शों की बात नहीं समझते थे, समझते भी थे तो उन्हें एक बात मालूम थी, कि अपने अनेक ऋषि-मुनि भी गृहस्थ थे और गृहस्थ में रह कर ही उन्होंने अनेक सिद्धियाँ सामर्थ्य प्राप्त की थीं । सो उन्होंने कहा- तुम्हें भी सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुये भगवान् को प्राप्त करना चाहिये । रविदास विचारशील थे उन्होंने इस तर्क को मान लिया । माता-पिता ने एक समृद्ध परिवार की कन्या लोणा के साथ उनका विवाह कर दिया ।विवाह सामान्यतः आत्मोन्नति का बाधक माना जाता है पर संत रविदास ने अपने आप को प्रस्तुत करके यह दिखा दिया कि बाधक तो मनुष्य की कामनायें और वासनायें हैं । यदि मनुष्य अपनी तृष्णाओं और महत्त्वाकांक्षाओं को नियंत्रण में नहीं रख सकता तो जो आसक्ति, मोह और मिथ्याचार वह अपने कुटुम्ब के साथ कर सकता है वही वह समाज के अन्य व्यक्तियों में आरोपित कर सकता है । क्योंकि शरीरयापन के लिये उसे अन्ततः मनुष्य समाज पर ही तो निर्भर रहना पड़ेगा।
सन्त रविदास १२० वर्ष जिये । जीवन के आखिरी प्रहर तक धर्मपत्नी लोणा उनके साथ रहीं पर उन्होंने अपने जीवन को इस तरह संयमित, सुव्यवस्थित बनाया कि पारिवारिक जीवन में भी सुख-शान्ति का अभाव नहीं होने पाया और आत्मोन्नति में भी कोई बाधा नहीं पड़ी । वे कहा करते थे, असली वस्तु तो मनो-निग्रह है यदि मन को आत्मा का गुलाम बना लिया जाये तो घर-बाहर सर्वत्र वैराग्य ही वैराग्य है यदि उसे इन्द्रियों का दास बना रहने दिया जाय तो चाहे कोई उच्च भौतिक और आत्मिक सम्पदायें ही लेकर क्यों न जन्मा हो उसका पतन ही सुनिश्चित है ।
रविदास का जीवन संघर्षों से प्रारम्भ हुआ और संघर्षों में ही बीता उससे वे न तो निराश हुये न सत्य पर से निष्ठा डिगाई । “हरिजन को भगवान की भक्ति का अधिकार नहीं है।”- इस भ्रान्त धारणा वाले सवर्णों ने उन्हें प्रारम्भ से ही यातना देना प्रारम्भ किया ।
सवर्णों के इस अनुचित दबाव का लाभ उस समय मुसलमानों को मिलता था । वे बहकाकर अछूतों को मुसलमान बना लेते थे । संत रविदास एक ओर अपने लोगों को समझाते और कहते तुम सब हिन्दू जाति
के अभिन्न अंग हो तुम्हें दलित जीवन जीने की अपेक्षा मानवीय अधिकारों के लिये संघर्ष करना चाहिये- दूसरी ओर वे कुलीनों से टक्कर लेते और कहते वर्ण-विभाजन का सम्बन्ध परमार्थ से नहीं, मात्र सामाजिक व्यवस्था से है । उनकी इस सच्चाई में अटूट निष्ठा का ही फल था, कि रामानन्द जैसे महान् सवर्ण सन्त एक दिन स्वयं ही उनकी कुटिया में पधारे शिष्य गुरुओं की खोज किया करते हैं पर वहाँ गुरु स्वयं ही सत्पात्र शिष्य को खोजता हुआ उसके घर पहुँचा । उन्हें दीक्षा देकर न केवल उन्हें वरन् उनके आदर्शों की प्रामाणिकता को खरा सिद्ध कर दिया ।
सन्त रविदास गुरु प्रदत्त मंत्र और उपदेश के सहारे आत्म-विकास करने लगे। उनके जीवन में अनेक चमत्कारी घटनाओं के प्रसंग सुने जाते हैं । सन्त रविदास कथाओं के माध्यम से लोगों को धर्मोपदेश दिया करते थे । उनकी सीधी-सच्ची मधुर वाणी में अमृतोपम उपदेश सुनने के लिये हजारों लोग एकत्रित होते, उसमें से अधिकांश सवर्ण होते । एक दिन एक सेठ जी भी उपस्थित हुये । कथा के अन्त में प्रसाद वितरण हुआ । भगवान् के प्रसाद को ठुकराना पाप है इस भय से सेठजी ने प्रसाद हाथ में तो ले लिया पर संत रविदास हरिजन थे उनके हाथ के प्रसाद से उन्हें घृणा हो आई बाहर आकर उन्होंने प्रसाद एक ओर फेंक दिया उधर एक कोढ़ी बैठा था, प्रसाद उसके शरीर पर गिरा और वह कोढ़ी कुछ ही समय में चंगा हो गया जब कि अपनी ही घृणा और आत्महीनता के शिकार सेठ जी स्वयं ही उस कठिन रोग से ग्रस्त हो गये, अन्त में उन्हें पुन: संत की शरण में जाना पड़ा। मन की बात जानने वाले रविदास ने सेठ जी से कहा वह जल तो मुल्तान गया । अर्थात् अब वह प्रसाद मिलना कठिन है पर पीछे दया वश उन्होंने सेठ जी को भी अच्छा कर दिया ।
इसी प्रकार उनके आह्वान पर एक भगवान् की मूर्ति स्वयं ही उनके सम्मुख प्रकट हुई – यों यह चमत्कार आज के वैज्ञानिक युग में कोई महत्त्व नहीं रखते पर भावनाओं की शुद्धता और आत्मा के प्रताप से परिचित व्यक्ति ऐसे तथ्यों को नकारते भी नहीं- अध्यात्म एक सर्वसमर्थ सत्ता है उस शक्ति के लिये संसार का कोई भी चमत्कार असंभव नहीं । विशाल ब्रह्माण्ड में अगणित ग्रह-नक्षत्र अपनी-अपनी मर्यादा में चल रहे हैं । यह सब आध्यात्मिकता का ही तो चमत्कार है । फिर सन्त रविदास ने इतना कर दिखाया हो तो उसमें क्या आश्चर्य?
इस प्रकार धर्म प्रचार से एक ओर जहाँ उनकी ख्याति बढ़ रही थी दूसरी ओर उनके विरोधी भी बढ़ते जाते थे ।ईर्ष्या की डाकिन ने मानवीय प्रगति में कितनी बाधा पहुंचाई है, सत्पुरुषों और निर्दोषों को कितना सताया है, अकारण कितने ही लोगों को दूसरों की उन्नति देख कर जल-भुन कर खाक होने के लिए विवश किया है, इसे देखते हुए यही प्रतीत होता है कि इस की सर्पिणी से बढ़कर और कोई व्यापक बुराई शायद ही मनुष्य का अहित करने में समर्थ हो सकी हो । उच्च वर्ण कहलाने वाले लोगों को रैदास(रविदास) की प्रतिष्ठा असह्य लगती, वे उनसे मन ही मन कुढ़ते, निन्दा, व्यंय और उपहास करते तथा तरहतरह के लांछन लगाने में पीछे न रहते ।
रैदास(रविदास) इस पर हँस भर देते और कहते हाथी अपने रास्ते चला जाता है उसे किसी के धूलि फेंकने या चिढ़ाने से विचलित होने की जरूरत नहीं होती । धैर्य, साहस और सच्चाई जिसके साथ है उसका सारा संसार विरोधी होकर भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता । उन्होंने अपना धर्म-प्रचार जारी रखा।
उन दिनों उच्च वर्ण के लोग भी आतंक से डर कर और प्रलोभन में खिंचकर धड़ाधड़ विधर्मी बन रहे थे, फिर छोटे वर्ण वालों के लिए तो उस ओर लुढ़कने लगना और भी सरल था । छोटी कहलाने वाली जातियाँ और भी तेजी में विधर्मी बनने लगी थीं । शासन का प्रलोभन और उच्च वर्ण वालों का तिरस्कार यह दुहरा दबाव उनके मन को डांवाडोल करने लगा था । इन परिस्थितियों में सन्त रैदास(रविदास) ने हिन्दू धर्म की महत्ता, आस्तिकता एवं ईश्वर विश्वास की आस्था को बढ़ाने के लिए कार्य आरम्भ किया और असंख्यों हरिजन उस प्रेरणा से प्रभावित होकर विचलित होने से बच गये । उन्होंने अपनी वाणियों में अपने आदर्शों का भली-भाँति प्रतिपादन किया है- अपना धर्म छोड़ कर विधर्मी बनने के लिए लोगों को उन्होंने कहा
हरि-सा हीरा छोडि के, करै आन की आस ।
ते नर नरक जायगे, सत भाषै रैदास ॥
विधर्मियों की पराधीनता के लिए भर्त्सना करते हुए उन्होंने भारतीय-समाज को ललकारा और कहा
पराधीन का दीन क्या, पराधीन वेदीन ।
पराधीन पर दास को, सब ही समझें हीन ॥
सन्त रैदास सच्चे ईश्वर भक्त् थे । वे पूजा किये बिना जल तक ग्रहण न करते थे। आपने अपने ही स्थान पर भगवान का मन्दिर बनाया जिसमें निरन्तर भजन, कीर्तन और उपदेश होते रहते थे।
उन्होंने अपने गुरभाई कबीर, धन्ना, पीपा आदि के साथ मिलकर सारे भारत का भ्रमण किया और निराशाग्रस्त जनता को आशा का सन्देश पहुँचाया । ईश्वर पर विश्वास और धैर्य रख कर आशाजनक भविष्य के लिए कमर कस कर काम करने का मार्ग बताया । उनके अनेकों शिष्य हुए जिनमें प्रसिद्ध भक्तनारी मीराबाई भी एक थीं । ईश्वर भक्ति के माध्यम से सन्त काल के महात्माओं ने संगठन, आशा और उत्साह की जो धारा प्रवाहित की वह उन परिस्थितियों में सर्वथा उपयुक्त ही थी । खुले प्रतिरोध का कोई कार्यक्रम तो उन दिनों चल नहीं सकता था । सन्त मत के माध्यम से सिख गुरुओं ने कितना बड़ा काम किया यह सर्वविदित है । सीधा संघर्ष न सही संघर्ष की भूमिका में सभी सन्तों का बड़ा महत्त्वपूर्ण योग रहा है । सन्त रैदास ने हरिजन कुल में जन्म लेकर पिछड़े लोगों में धैर्य और स्थिरता की जो भावना उत्पन्न की उससे हिन्दू-धर्म की कितनी भारी सेवा सम्भव हुई आज उसका मूल्यांकन कर सकना भी हमारे लिए कठिन है ।
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