Last Updated on May 14, 2023 by admin
प्रजनन-संस्थान क्या है?
हर जीवधारी अपने वंश की वृद्धि करने तथा वंश को चलाने के लिए जनन-क्रिया द्वारा अपने जैसे दूसरा जीव पैदा करता है। इनका विकास कोशिकाओं के संवर्द्धन के फलस्वरूप होता है। इस प्रकार अपनी जाति की उत्पत्ति करने को ‘प्रजनन’ कहा जाता है। निर्जीवों में यह प्रजनन क्रिया नहीं होती। अलग-अलग जीवों में प्रजनन की व्यवस्था अलग-अलग होती है। एक कोशिकीय जीवों जैसे- अमीबा, बैक्टीरिया आदि में अलैंगिक जनन (asexual reproduction) होता है। बहुकोशिकीय जीव अर्थात मानव में प्रजनन लैंगिक जनन (sexual reproduction) होता है, अर्थात लैंगिक संसर्ग (संभोग) के द्वारा नया जीव (संतान) पैदा होता है तथा माता-पिता दोनों के आनुवांशिक गुण उसमें पहुंचते हैं। पुरुष एवं स्त्री के जनन-अंग रचना और कार्य में अलग-अलग होते हैं। दोनों में विशिष्ट जनन कोशिकाएं, पुरुष में शुक्राणु (spermatozoa) और स्त्री में डिम्ब (ovum) होती है, जिन्हें युग्मक (gamete) कहते हैं। संभोग के द्वारा, शुक्राणु का डिम्ब के साथ मिलन हो जाने पर एक सम्मिलित कोशिका बनती है जिसे युग्मनज या जाइगोट (zygote) कहते हैं। यह कोशिका स्त्री के गर्भाशय में विकसित होकर एक नए जीव (शिशु) का आकार ले लेती है।
पुरुष के प्रजनन संस्थान का कार्य शुक्राणुओं को पैदा करना तथा उन्हें स्त्री की योनि में संचारित करना है। स्त्री प्रजनन-तन्त्र का कार्य पुरुषों की अपेक्षा कुछ अधिक जटिल होता है। यह डिम्ब (ova) पैदा करने के अलावा, गर्भाधान (fertilization) के बाद विकासशील भ्रूण का पोषण एवं सुरक्षा करता है तथा शिशु का जन्म होने के बाद उसके स्तन्य पान (पोषण) के लिए स्तनों में दूध का उत्पादन करना होता है।
गर्भाशयिक नलियां या डिम्ब वाहिनियां (Uterine tubes or fallopian tubes)
डिम्ब पेशीय परत की क्रमाकुंचक गति और आतंरिक परत के रोमों (cilia) की गतियों के द्वारा नली से होता हुआ गर्भाशय में पहुंचता है। डिम्ब का निषेचन (fertilization) अक्सर डिम्ब वाहिनी के एम्पयूला में होता है। निषेचित हुआ डिम्ब (जाइगोट) डिम्बवाहिनी से होता हुआ गर्भाशय में पहुंच जाता है और उसकी भित्ति को बेधकर वहीं पर स्थापित (implanted) हो जाता है, इस प्रक्रिया में 4 से 7 दिन लगते हैं। डिम्ब का निषेचन न होने की दशा में यह डिम्बवाहिनी में ही समाप्त हो जाता है तथा मासिकस्राव के साथ बाहर निकल जाता है। कभी-कभी निषेचित डिम्ब डिम्बवाहिनी की भित्ति से चिपक जाता है। इस प्रकार के स्थापन (implantation) को अस्थानिक गर्भाधान (ectopic pregnancy) कहा जाता है। ऐसा गर्भाधान 8-10 सप्ताह में डिम्ब वाहिनी के फट जाने से रक्तस्राव के साथ बाहर निकल जाता है।
गर्भाशय (Uterus) संरचना और कार्य
गर्भाशय श्रोणिगुहा (pelvic cavity) में मलाशय (rectum) के आगे तथा मूत्राशय के पीछे स्थित एक खोखला और मोटी भित्ति वाला पेशीय अंग होता है। यह आकार में उल्टी नाशपाती (inverted pear) के समान होता है। यह 7.5 सेमीमीटर लम्बा, ऊपर की ओर सबसे अधिक 5 सेमीमीटर चौड़ा और 2.5 सेमीमीटर मोटा होता है और इसका वजन लगभग 30 ग्राम होता है। लेकिन गर्भ स्थापना की स्थिति में इसका आकार बढ़कर 6-7 गुना बड़ा हो जाता है और प्रसव होने के बाद धीरे-धीरे यह वापस अपने आकार में आ जाता है परंतु यह आकार में अप्रसवा स्त्री के गर्भाशय से कुछ बड़ा होता है।
दोनों ओर की डिम्ब वाहिनियों के गर्भाशय में प्रवेश स्थल के ठीक नीचे गर्भाशय के राउण्ड लिगामेंट्स (round ligaments) रहते हैं जो गर्भाशय को मूत्राशय के ऊपर आगे की ओर झुकाए रहते हैं। गर्भाशय, श्रोणि की पार्श्वीय भित्ति से दो ब्रॉड लिगामेंट्स (broad ligaments) (पेरिटोनियम की दोहरी तह) द्वारा जुड़ा रहता है। ये लिगामेंट्स गर्भाशय से श्रोणि-गुहा (pelvic cavity) के तल एवं पार्श्वीय भित्तियों तक फैले रहते हैं। दो यूट्रोसैक्रल लिगामेंट्स (uterosacral ligaments) गर्भाशय ग्रीवा के ऊपरी भाग से सैक्रम तक फैले होते हैं। पश्चज लिगामेंट (posterior ligament) गर्भाशय को मलाशय से जोडकर रखता है तथा अग्रज लिगामेंट (anterior ligament) गर्भाशय को मूत्राशय से जोड़कर रखता है।
गर्भाशय के ऊपरी चौड़े भाग को बुध्न (fundus) कहते हैं। बुध्न (fundus) के नीचे दोनों ओर डिम्ब वाहिनियां आकर खुलती है। गर्भाशय का बुध्न (fundus) से नीचे की तरफ धीरे-धीरे संकीर्ण होता हुआ बीच का भाग काय (body) कहलाता है, जो नीचे संकीर्ण गर्भाशय ग्रीवा (cervix) में विलीन हो जाता है तथा योनि के मुख में खुलता है। काय और गर्भाशय ग्रीवा के बीच के संकीर्ण क्षेत्र को इस्थमस (isthmus) कहते हैं। गर्भाशय ग्रीवा के योनि में खुलने वाला मुख को गर्भाशय ग्रीवा अथवा गर्भाशय का बहिर्मुख (external os) कहते हैं जिसके द्वारा गर्भाशय ग्रीवा की गुहा (cervical cavity) और योनि की गुहा (vaginal cavity) एक-दूसरे से संबंधित रहती है। गर्भाशय ग्रीवा अंतर्मुख (internal os) द्वारा गर्भाशय काय से संबंधित रहती है। गर्भाशय ग्रीवा के अंतर्मुख एवं बहिर्मुख के बीच के भाग को गर्भाशय ग्रीवा नलिका (cervical canal) कहते हैं। जो स्त्री गर्भवती नहीं होती उसका गर्भाशय कुछ-कुछ सपाट होता है जिससे गर्भाशयिक गुहा (uterine cavity) सिर्फ एक ददार-सी महसूस होती है। सामान्यतः, गर्भाशय योनि के समकोण पर मूत्राशय के ऊपर आगे की ओर झुका रहता है।
गर्भाशय ऊतक की तीन परतों से बना होता है–
1. पेरिमीट्रियम (perimetrium)- यह गर्भाशय की सबसे बाहरी पेरीटोनियम की सीरमी परत होती है, जो गर्भाशय की अलग-अलग परतों पर अलग-अलग प्रकार से फैली रहती है। आगे की ओर यह बुध्न (fundus) तथा काय के कुछ भाग तक फैली होती है जहां से यह मूत्राशय की ऊपरी सतह के ऊपर को पलटकर वेसिकोयूटेराइन पाउच (vesicouterine pouch) बनाती है। पीछे की ओर यह बुध्न (fundus), काय तथा ग्रीवा तक फैली होती है और फिर मलाशय के ऊपर को पलटकर रेक्टोयूटेराइन पाउच (rectouterine pouch) बनाती है। पार्श्वों में यह केवल बुध्न (fundus) को ही ढकती है और दो ब्रॉड लिगामेंट्स बनाती है जो गर्भाशय को श्रोणि की पार्श्वीय भित्तियों से जोड़कर रखते हैं।
2. मायोमीट्रियम (Myometrium)- यह गर्भाशय के बीच की पेशीय परत होती है जिससे गर्भाशय भित्ति का ज्यादातर भाग बना होता है। यह चिकनी पेशी तंतुओं की तीन परतों से बनी होती है। यह बाहर से अंदर की ओर लम्बवत, सभी दिशाओं और सर्पिल रूप में स्थित रहती हैं। इसमें रक्त वाहिनियां और तंत्रिकाएं होती है। इसमें लचीलापन भी होता है जिससे भ्रूण के विकास के दौरान गर्भाशय का आकार बढ़ता जाता है। यह परत स्त्री के चरमोत्कर्ष (संभोग क्रिया की चरम सीमा) (orgasm) के दौरान संकुचित भी होती है। मायोमीट्रियम परत की मोटाई लगभग 1 सेमीमीटर होती है लेकिन गर्भावस्था के दौरान इसकी मोटाई में बढ़ोतरी हो जाती है।
3. एण्डोमीट्रियम (Endometrium)- यह गर्भाशय की सबसे अंदर की विशिष्ट श्लेष्मिक कला से बनी परत होती है। इसमें कई सारी रक्त वाहिकाएं तथा श्लेष्मा का स्राव करने वाली ग्रंथियां होती है। एण्डोमीट्रियम दो परतों से मिलकर बनी होती है- स्ट्रैटम फंकसनेलिस (Stratum functionalis) और स्ट्रैटम बैसिलिस (Stratum basilis)। हर महीने, ईस्ट्रोजन नामक हॉर्मोन की क्रिया द्वारा, निषेचित डिम्ब के सम्भावित अंतःस्थापन (implantation) के लिए एण्डोमीट्रियम तैयार हो जाती है। प्रोजेस्ट्रेरॉन नामक हॉर्मोन सक्रिय ग्रंथियां विकसित करने में मदद करता है, जिससे एण्डोमीट्रियम परत में पर्याप्त पोषण उपलब्ध हो जाता है तथा वह निषेचित डिम्ब को ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाती है। यदि अंतःस्थापन नहीं हो पाता है, तो स्ट्रैटम फन्कसनेलिस परत झड़कर रक्त और ग्रंथिल स्रावों के साथ गर्भाशय ग्रीवा नली एवं योनि से होती हुई बाहर निकल जाती है। एण्डोमीट्रियम परत के इस प्रकार टूटने से आर्तव स्राव (menstrual flow) बनता है तथा यह प्रक्रिया मासिक धर्म या ऋतुस्राव (menstruation) कहलाती है। स्ट्रैटम बैसिलिस परत स्थायी होती है तथा मासिकस्राव (menstrual period) के 3 से 5 दिनों के बाद नई स्ट्रैटम फन्कसनैलिस परत दुबारा बन जाती है।
यदि डिम्ब का निषेचन और अंतःस्थापन हो जाता है तो गर्भाशय विकासशील भ्रूण को अपनी पेशीय भित्तियों के अंदर सुरक्षित रखकर पोषण प्रदान करता है। ईस्ट्रोजन नामक हॉर्मोन गर्भावस्था में लगातार रहने पर गर्भाशय भित्तियों की चिकनी पेशी को प्रसव क्रिया की तैयारी के लिए विकसित करता है।
योनि (Vagina) संरचना और कार्य
यह गर्भाशय से योनि प्रघाण तक फैली हुई लगभग 8 से 10 सेमीमीटर लम्बी नली होती है जो मूत्राशय एवं मूत्रमार्ग के पीछे तथा मलाशय एवं गुदामार्ग के सामने स्थित होती है। एक वयस्क स्त्री में योनि की पिछली भित्ति उसकी अगली भित्ति से ज्यादा लम्बी होती है और योनि गर्भाशय के साथ समकोण बनाती है। योनि वह स्थान है जहां संभोग क्रिया के दौरान लिंग से निकला वीर्य जमा होता है। इसी स्था पर प्रसव के दौरान शिशु के लिए प्रसवनली (birth canal) होती है, जिससे शिशु बाहर आता है।
योनि की भित्तियां मुख्यतः चिकनी पेशी एवं फाइब्रोइलास्टिक संयोजी ऊतक की बनी होती है जिससे इनमें फैलने का गुण बहुत अधिक होता है और इनमें रक्त वाहिनियों एवं तंत्रिकाओं की आपूर्ति होती है। सामान्य अवस्था में योनि की भित्तियां आपस में चिपकी रहती है संभोग क्रिया के दौरान लिंग के योनि में प्रविष्ट होने पर वे अलग-अलग हो जाती है। गर्भाशय ग्रीवा (cervix) के योनि में उभर आने से इसके आगे, पीछे तथा पार्श्वों में चार खाली स्थान बनते हैं जिन्हें फॉर्निसेस (fornices) कहा जाता है।
योनि की भित्ति दो परतों से मिलकर बनी होती है–
1. पेशीय परत (Muscular layer)- इस परत में चिकनी पेशी के लम्बवत् एवं गोलाकार तंतु तथा तंतुमय लचीले संयोजी ऊतक रहते हैं। इसी कारण से योनि में बहुत ज्यादा फैलने और सिकुड़ने का गुण पैदा होता है।
2. श्लेष्मिक परत (Mucous layer)- यह श्लेष्मिक कला की आतंरिक परत होती है जो पेशीय परत को आस्तरित करती है। इस परत में बहुत सी झुर्रियां (rugae) रहती है। यह परत स्तरित शल्की उपकला (stratified squamous epithelium) अर्थात् परिवर्तित त्वचा, (इसमें बाल नहीं होते) (nonkeratinizing), से आच्छादित (ढकी) रहती है। यौवनारम्भ के बाद यह परत मोटी हो जाती है और ग्लाइकोजन से परिपूरित रहती है। इसमें ग्रंथियां नहीं होती है। योनि को चिकना बनाये रखने के लिए श्लेष्मा स्राव गर्भाशय ग्रीवा में मौजूद ग्रंथियों से ही आता है। यह स्राव क्षारीय होता है लेकिन योनि में प्राकृत रूप से पाये जाने वाले बैक्टीरिया (डोडर्लिन बेसिलाइ) श्लेष्मिक परत में मौजूद ग्लाइकोजन को लैक्टिक एसिड में बदल देते हैं, जिससे योनि के स्राव की प्रतिक्रिया अम्लीय हो जाती है। इससे योनि में किसी भी तरह का संक्रमण होने की संभावना समाप्त हो जाती है।
योनि का अम्लीय वातावरण शुक्राणुओं के प्रतिकूल होता है लेकिन पुरुष की अनुषंगी लिंग ग्रंथियों से स्रावित होने वाले द्रव क्षारीय होते हैं, जो योनि की अम्लता को निष्क्रिय करने में मदद करते हैं। डिम्बोत्सर्जन समय के आस-पास गर्भाशय ग्रीवा की ग्रंथियां भी ज्यादा मात्रा में क्षारीय श्लेष्मा का स्राव करती है।
योनिच्छिद्र (Hymen)
यह श्लेष्मिक कला की पतली परत होती है जो योनि-छिद्र (vaginal orifice) के थोड़ा अंदर की ओर योनि को बंद करके रहती है। यह अक्सर अर्द्धचंद्राकार रूप में होती है जिसके बीच में एक छिद्र होता है जिससे होकर हर महीने मासिकस्राव या आर्तव बाहर निकलता है। कभी-कभी इसमें छोटे-छोटे कई छिद्र रहते हैं, तब इसे छिद्रिल योनिच्छद (fenestrated hymen) कहते हैं। कभी-कभी कोई छिद्र नहीं होता, तब इसे अछिद्री योनिच्छद (imperforate hymen) कहा जाता है। इस दशा में मासिकस्राव बाहर न निकलकर योनि में जमा होता रहता है, जिससे योनि फूल जाती है। इस अवस्था में सर्जरी द्वारा इसमें छिद्र बनाना पड़ता है। सामान्यतः योनिच्छद (हाइमंन) पहली बार संभोग क्रिया करने के दौरान फटती है लेकिन यह दूसरी शारीरिक क्रियाओं के द्वारा अथवा टैम्पून (tampon) का प्रयोग करने से भी फट सकती है।
भग (vagina)
भग योनि का प्रवेश द्वार है। यह त्वचा की कई परतों से बनी होती है, जो भीतरी अंगों को सुरक्षा प्रदान करती है। यह कई उपांगों को समाविष्ट किय हुए है जैसे भगशिशिनका, मूत्रमार्ग का छिद्र, योनि की झिल्ली (हाइमेन), लघु ग्रंथियां, वृहत भगोष्ठ, लघुभगोष्ठ इत्यादि।
वृहत् भगोष्ठ (Labia majora)
ये मॉन्स प्यूबिस के बिल्कुल नीचे त्वचा की दो मोटी लम्बवत् परत (folds) होती है, जो भग (vulva) के दोनों बाहरी किनारों को बनाती है। इनमें वसा, चिकनी पेशी, अवकाशी ऊतक (areolar tissue), त्वकवसीय ग्रंथियां (sebaceous glands), विशेष प्रकार की एपोक्राइन ग्रंथियां एवं संवेदी तंत्रिकाएं (sensory receptors) होती है। यौवनारम्भ के बाद, इनकी बाहरी सतह पर बाल उगते हैं। दोनों वृहत् भगोष्ठ सिम्फाइसिस प्यूबिस के सामने जिस स्थान पर एकसाथ मिलते हैं उसे अग्र संयोजिका (anterior commissure) कहते हैं तथा नीचे और पीछे की तरफ जाकर जिस स्थान पर आपस में मिलते हैं उसे पश्च संयोजिका (posterior commissure) कहते हैं।
लघु भगोष्ठ (Labia minora)
ये दोनों वृहत् भगोष्ठों के बीच में दोनों ओर त्वचा की गुलाबी रंग की दो छोटी-छोटी परतें होती है। वृहत् भगोष्ठों के साथ ये योनि और मूत्रमार्गीय छिद्रों को घेरकर रहती है। इनमें त्वकवसीय ग्रंथियां और रक्त वाहिकाएं होती है लेकिन बाल नहीं होते। इनमें बहुत से तंत्रिका अंत (nerve endings) भी रहते हैं जो स्पर्श के प्रति संवेदनशील होते हैं। इनमें ऊपर सामने की ओर दोनों भगोष्ठ लघु और वृहत् मिलकर एक टोपीनुमा रचना बनाते है, जिसे भगशिश्निका (Clitoris) की अग्रत्वचा (Foreskin or prepuce) कहते हैं। यह भगशिश्निका (Clitoris) की रक्षा करती है।
भगशिश्निका (Clitoris)
यह भग के ऊपरी सिरे पर, मॉन्स प्यूबिस के नीचे (जहां लघु भगोष्ठ मिलते हैं) एक छोटा उच्छायी (erectile) अंग है। स्त्रियों में यह कामोत्तेजना (sexual stimulation) का प्रमुख केंद्र माना जाता है। पुरुष के लिंग के समान ही इसमें भी बहुत-सी तंत्रिका अंत और दो कॉर्पोरा कैवरनोसा होती है जो कामोत्तेजना के दौरान रक्त से भर उठती है। इसके फलस्वरूप भगशिश्निका (Clitoris) तन जाता है।
योनि प्रघाण (Vestibule of the vagina)
यह लघु भगोष्ठ (लेबिया माइनोरा) के बीच का त्रिकोणाकार क्षेत्र होता है। इसके अग्र सिरे पर भगशिश्निका (Clitoris) स्थित रहता है। इसके पीछे फॉरशेट (Fourchelte) होता है जो योनि छिद्र के पीछे लेबिया माइनोरा के जुड़ने का स्थान होता है। इस क्षेत्र के तल में बार्थोलिन की ग्रंथियों (Bartholin’s glands) या वृहत् प्रघाण ग्रंथियों (greater vestibular glands) की वाहिकाओं के तथा मूत्रमार्ग एवं योनिमार्ग के छिद्र खुलते हैं। योनि प्रघाण के अग्रभाग में, मूत्र एवं योनिमार्गो के छिद्रों के बीच, छोटी-छोटी लघु प्रघाण ग्रंथियों (lesser vestibular glands or skene’s glands) की वाहिकाएं (ducts) खुलती है। काम उत्तेजना के दौरान, लघु और वृहत् प्रघाण ग्रंथियां एक क्षारीय श्लेष्मिक स्राव स्रावित करती है जो संभोग क्रिया के दौरान लिंग के आसानी से प्रविष्ट होने के लिए योनि को चिकना बनाता है तथा योनि की प्राकृत अम्लता को नष्ट करता है।
बार्थोलिन की ग्रंथियां (Bartholin’s glands)
ये वृहत भगोष्ठों के आधार पर योनि छिद्र के निकट लाल रंग की एक एक ग्रंथि होती है। ये योनि के छिद्र के पीछे योनि प्रघाण में खुलती है। कामात्तेजना के समय इसमें से पीले रंग का स्राव निकलता है जो योनि और उसके आसपास के स्थान को चिकना बनायें रखता है।
मूलाधार (Perineum)
वृहत् भगोष्ठों की पश्च संयोजिका (posterior commissure) तथा गुदा के बीच के स्थान को मूलाधार (perineum) कहा जाता है। यह स्थान आकार में डायमंड (हीरा) जैसा होता है। इसके अगले त्रिकोणीय भाग को यूरोजेनाइटल क्षेत्र (urogenital region) तथा पिछले त्रिकोणीय भाग को एनल क्षेत्र (anal region) कहा जाता है। मूलाधार पुरुषों में भी पाया जाता है।
जघन शैल (Mons pubis)
यह सिम्फाइसिस प्यूबिस के ऊपर स्थित त्वचा से ढकी वसीय ऊतक की गद्दी होती है। यौवनारम्भ (puberty) होते ही इस स्थान पर बाल (pubic hair) उगना शुरु हो जाते हैं।
स्तन-ग्रंथि (Mammary glands)
स्तन की बनावट- स्त्री और पुरुषों में स्तन स्वैट ग्रन्थि द्वारा उत्पन्न होते हैं। स्त्रियों में स्तन आयु बढ़ने के साथ-साथ बड़ा आकार ले लेते हैं और बच्चों के दूध पीने के काम में आते हैं। लेकिन पुरुषों में स्तन कोई आकार नहीं लेते हैं। जबकि निप्पल और एरिओला दोनों में ही समान रूप में होते हैं।
बच्चे के जन्म के समय में बच्चे के स्तन पहले या दूसरे दिन से हल्के उभरे हुए देखे जा सकते हैं। यदि इन उभरे हुए स्तनों को दबाया जाए तो इनमें से 1-2 बूंदे दूध की भी निकलती है। यह दूध मां के इस्ट्रोजन हार्मोन्स के प्रभाव के कारण होता है, जिसे आमतौर पर जादूगरनी का दूध कहकर पुकारा जाता है।
लड़कियों की अण्डेदानी में से जब ईस्ट्रोजन हार्मोन्स निकलने लग जाता है तब उसी हार्मोन्स के प्रभाव के कारण लड़कियों के स्तन बढ़ने लगते हैं। इन स्तनों का आकार धीरे-धीरे बढ़ता है परन्तु जब लड़कियों को पहली बार माहवारी होती है तो स्तनों को आकार बढ़कर अपने पूरे आकार में आ जाता है क्योंकि मासिक स्राव के समय काफी अधिक मात्रा में हार्मोन्स रक्त में आने लगता है। स्त्रियों के शरीर में प्रोजोस्ट्रोन हार्मोन्स दूध का निर्माण करता है।
वैसे दूध बनाने का प्रमुख कार्य प्रोलेक्टीन का है जो पिट्यूटी ग्रन्थि से प्रसव के बाद निकलता है।
स्तनों के अन्दर कुछ फाइबर्स कोशिकाओं के कारण स्तन छोटे-छोटे हिस्सों में बंटा रहता है जिसमें दूध बनाने वाली ग्रन्थियां होती हैं। यह ग्रन्थियां आपस में मिलकर एक नलिका बनाती है जो निप्पल में जाकर खुलती है तथा जहां से दूध रिसता है। यह नलिका निप्पल के पास आकर कुछ चौड़ी हो जाती है जहां दूध भी इकट्ठा हो सकता है। स्तनों में मांसपेशियां नहीं होती। केवल एक तरह का लिंगामेंट इसे बांधे रहता है, जिसको कूपरलिगामेंट कहते हैं। इसलिए अधिक वजन के कारण या अच्छा सहारा न मिलने के कारण स्तन नीचे की ओर लटक जाते हैं।
स्तन-ग्रंथि- ये स्त्रियों के वक्ष-स्थल में स्थित दो परिवर्धित स्वेद ग्रंथियां है, जो दूध का निर्माण एवं स्राव करती है। ये ग्रंथि स्त्री प्रजनन-संस्थान की सहायक ग्रंथियां है। ये ग्रंथियां पुरुषों में भी होती है लेकिन अविकसित रूप (rudimentary form) में। स्त्रियों में ये यौवनारम्भ पर ईस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन नामक हॉर्मोंस के प्रभाव से आकार में बढ़ जाती है तथा गर्भावस्था के दौरान इनका आकार और ज्यादा बड़ा हो जाता है।
स्तन ग्रंथियां ग्रंथिल ऊतक, तंतु ऊतक तथा वसीय ऊतक से बनी होती है। इनमें से वसीय ऊतक की मात्रा बदलने वाली होती है जिससे अलग-अलग स्त्रियों में स्तन का आकार एकसमान नहीं होता है। हर स्तन ग्रंथि में ग्रंथिल ऊतक के 15 से 20 खण्ड (lobes) होते हैं और हर खण्ड में कई खण्डक (lobules) होते हैं। हर खण्डक वायुकोष्ठों (alveoli) के गुच्छों से बना होता है तथा छोटी-छोटी वाहिनियों में खुलता है। इन सब वाहिनियों के आपस में मिलने से बड़ी उत्सर्गी वाहिनियां बनती है जिन्हें दुग्धवाहिनियां (lactiferous ducts) कहा जाता है। सभी दुग्धवाहिनियां निप्पल (nipple) की परत पर खुलने से पहले फैल जाती है और फिर सिकुड़ जाती है। इनके इन विस्फारणों (lactiferous sinuses) में दूध जमा रहता है।
हर स्तन ग्रंथि के बीच में एक उभार होता है जिसे निप्पल (nipple) कहते हैं। यह त्वचा तथा उच्छायी ऊतक (erectile tissue) का बना होता है एवं गहरे रंग का होता है। इसके चारों ओर एक वर्णकयुक्त (pigmented) क्षेत्र होता है, जिसे ‘चूचुक (निप्पल) मण्डल’ (areola) कहते हैं। गर्भावस्था के दौरान यह क्षेत्र बढ़कर और ज्यादा गहरे रंग का हो जाता है। इसके बाद यह गहरा रंग स्थायी हो जाता है। निप्पल के आधार पर तथा चूचुक (निप्पल) मण्डल की सतह पर कई त्वग्वसीय ग्रंथियां पायी जाती है, जिन्हें मॉन्टगोमेरी ग्रंथियां (Montgomery’s glands) कहा जाता है। इनमें से गर्भावस्था के दौरान निप्पलों को चिकना बनाये रखने के लिए एक वसीय पदार्थ का स्राव होता रहता है। निप्पलों में दुग्ध वाहिनियों के 15 से 20 छिद्र होते हैं जिनसे दूध बाहर निकलता है।
निप्पलों में घने संयोजी ऊतक एवं चिकनी पेशी तंतु, अनेको रक्त वाहिकाएं तथा संवेदी तंत्रिका अंत शामिल रहते हैं। संवेदी तंत्रिकाओं के रहने से निप्पल कामोत्तेजना उत्तेजित करने का भी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र होता है।
मासिकधर्म (Menstruation)
हर स्त्री के प्रजनन काल में 26 से 28 दिनों के अंतराल पर गर्भाशय से श्लेष्मा तथा अन्य पदार्थों से मिश्रित रक्त का स्राव होता है, जिसे ऋतुस्राव, रजोधर्म, आर्तव या मासिक धर्म (menstruation, menses) कहते हैं। यह स्राव 3 से 5 दिनों तक होता रहता है। यह स्राव अक्सर 12 से 16 वर्ष की आयु से शुरू होकर रजोनिवृत्ति अर्थात 45 से 50 वर्ष की आयु तक हर महीने तक होता रहता है। लड़कियों में पहली बार मासिकस्राव होने की दशा को रजोदर्शन (menarche) कहा जाता है तथा इसके अपने आप बंद होने को रजोनिवृत्ति (menopause) कहा जाता है। दो मासिकस्रावों के बीच के काल को एक मासिकस्राव या मासिक चक्र (menstrual cycle) कहा जाता है, जिसकी अवधि सामान्यतः 28 दिन की होती है।
मासिकचक्र (Menstrual cycle)
मासिकस्राव के शुरु होने के पहले दिन से दूसरे मासिकस्राव के शुरु होने के पहले दिन तक का समय एक मासिक चक्र कहलाता है जिसकी अवधि अक्सर 28 दिन की होती है। हर मासिक चक्र में अग्र पिट्यूटरी ग्रंथि (anterior pituitary gland) के जनन ग्रंथि पोषक हॉर्मोंस (gonadotrophic hormones) की सांद्रता में बदलाव होने से उद्दीप्त डिम्ब ग्रंथियों एवं गर्भाशय की भित्तियों में कुछ श्रंखलाबद्ध बदलाव होते हैं।
मासिक चक्र में चार प्रावस्थाएं होती हैं-
1. प्रफली प्रावस्था (proliferative phase)- मासिकस्राव के पांचवें दिन एण्डोमीट्रियम बिल्कुल ठीक हो जाती है। छठें दिन से लेकर चौदहवें दिन तक एण्डोमीट्रियम में होने वाले सभी बदलाव प्रफली प्रावस्था के अंतर्गत होते हैं। इस प्रावस्था में पिट्यूटरी ग्रंथि का अग्रखण्ड पुटक (फॉलिकल) उत्तेजित हॉर्मोंस (Follicle stimulating hormone-FSH) का स्राव करता है जिससे डिम्ब ग्रंथि पुटक (फॉलिकल) (ovarian follicle) परिपक्व होकर ईस्ट्रोजन नामक हॉर्मोन स्रावित करने लगता है। ईस्ट्रोजन हॉर्मोन के प्रभाव से एण्डोमीट्रियम धीरे-धीरे अधिक मोटी और वाहिकामय हो जाती है। जब रक्त में ईस्ट्रोजन हॉर्मोन की मात्रा उच्च स्तर पर पहुंचती है तब FSH का और अधिक स्राव होना रुक जाता है लेकिन अग्र पिट्टूटरी ग्रंथि ल्यूटीनाइजिंग हार्मोन (LH) का स्राव शुरु कर देती है। चौदहवें दिन डिम्बोत्सर्जन होने के साथ ही यह प्रावस्था समाप्त हो जाती है।
2. स्रावी प्रावस्था (Secretory phase)- डिम्बोत्सर्जन (पुटक (फॉलिकल) के फटना और डिम्ब का मुक्त होना) होने के बाद डिम्ब ग्रंथि पुटक को आस्तरित करने वाली कोशिकाएं ल्यूटीनाइजिंग हॉर्मोन (LH) के प्रभाव से कॉर्पस ल्यूटीयम में बदल जाती है जिससे प्रोजेस्टेरॉन नामक हॉर्मोन पैदा होता है। प्रोजेस्टेरॉन हॉर्मोन के प्रभाव से एण्डोमीट्रियम का विकास पूरा होता है और वह ग्लाइकोजन एवं अन्य एन्जाइम्स का स्राव करती है जिससे निषेचित डिम्ब का पोषण होता है। यदि डिम्ब निषेचित नहीं होता है तो मासिकस्राव शुरु होने से पहले की प्रागार्तव प्रावस्था (premenstrual phase) शुरु हो जाती है।
3. प्रागार्तव प्रावस्था (premenstrual phase)- मासिकस्राव शुरु होने से लगभग 2 दिन पहले की अवस्था को प्रागार्तव प्रावस्था कहते हैं। इस प्रावस्था में ईस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्टेरोन नामक दोनों हॉर्मोन्स का स्राव होना रुक जाता है और इनके अभाव में कॉपर्स ल्यूटीयम नष्ट होने लगता है तथा एण्डोमीट्रियम सिकुड़ने लगती है।
4. मासिकस्रावी या आर्तव प्रावस्था (Menstrual phase)- 28वें दिन के बाद मासिकस्रावी प्रावस्था शुरु हो जाती है जो मासिकस्राव होने के पहले दिन से पांचवें दिन तक की होती है। इसमें प्रोजेस्टेरॉन नामक हॉमोन के स्तर में कमी होने से ऑक्सीटोसिन नामक हॉर्मोन सक्रिय हो जाता है, जिससे गर्भाशय में संकुचन पैदा होकर उसमें जमा रक्त बाहर निकलता रहता है। रक्त के साथ एण्डोमीट्रियम टूट-टूटकर निकलती है। प्रोजेस्टेरोन हॉमोन का कम स्तर अग्र पिट्यूटरी ग्रंथि को अधिक FSH का स्राव करने के लिए भी उत्तेजित करता है और यही चक्र दुबारा शुरु हो जाता है।
गर्भाशयिक नलियां या डिम्ब वाहिनियां (Uterine tubes or fallopian tubes)
डिम्ब पेशीय परत की क्रमाकुंचक गति और आतंरिक परत के रोमों (cilia) की गतियों के द्वारा नली से होता हुआ गर्भाशय में पहुंचता है। डिम्ब का निषेचन (fertilization) अक्सर डिम्ब वाहिनी के एम्पयूला में होता है। निषेचित हुआ डिम्ब (जाइगोट) डिम्बवाहिनी से होता हुआ गर्भाशय में पहुंच जाता है और उसकी भित्ति को बेधकर वहीं पर स्थापित (implanted) हो जाता है, इस प्रक्रिया में 4 से 7 दिन लगते हैं। डिम्ब का निषेचन न होने की दशा में यह डिम्बवाहिनी में ही समाप्त हो जाता है तथा मासिकस्राव के साथ बाहर निकल जाता है। कभी-कभी निषेचित डिम्ब डिम्बवाहिनी की भित्ति से चिपक जाता है। इस प्रकार के स्थापन (implantation) को अस्थानिक गर्भाधान (ectopic pregnancy) कहा जाता है। ऐसा गर्भाधान 8-10 सप्ताह में डिम्ब वाहिनी के फट जाने से रक्तस्राव के साथ बाहर निकल जाता है।