Last Updated on December 1, 2020 by admin
आयुर्वेद में स्वस्थ व्यक्ति की व्याख्या करते हुए जो मानक बताए हैं वे इस तरह हैं, जब व्यक्ति के तीन दोष, सप्त धातु, तीन मल योग्य प्रमाण में हैं तथा मन, इंद्रिय और आत्मा प्रसन्न है तब उसे स्वस्थ कहा जाएगा।
शरीर के तीन दोष वात, पित्त, कफ ये शरीर के सारे क्रियात्मक व्यवहार को चलाते हैं । सप्त धातु यानी रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र शरीर का निर्माण तथा धारण करते हैं। तीन मल जो शरीर के त्याज्य तत्त्वों का निष्कासन करते हैं और शरीर को निर्मल बनाए रखते हैं, वह है मल, मूत्र, स्वेद । स्वस्थ होने के लिए केवल दोष, धातु, मल इनका योग्य प्रमाण में होना जितना जरूरी है उतना ही मन और मन जिन इंद्रियों द्वारा कार्य करता है उनका स्वस्थ होना आवश्यक है।
संक्षेप में आयुर्वेद मानसिक तथा शारीरिक दोनों स्तर को, स्वस्थता को, व्यक्ति को स्वस्थता के लिए महत्त्व देता है। आयुर्वेद की यह स्वस्थ व्यक्ति की व्याख्या जागतिक आरोग्य संस्था के स्वस्थ की संकल्पना के साथ मेल खाती है।
स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य कायम रखना यह आयुर्वेद शास्त्र का प्रथम उद्देश्य है। इस उद्देश्य पूर्ति के लिए आयुर्वेद में उन्हें दिशा निर्देश दिए गए हैं। शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए आयुर्वेद ने तीन मुख्य स्तंभ बताए हैं वे हैं आहार, निद्रा, ब्रह्मचर्य।
आहार से ही शरीर की धारणा तथा पोषण होता है। आहार ही शरीर को कार्य करने के लिए बल देता है। पुराने जमाने में कहा जाता था कि भोजन करना मात्र पेट भरना नहीं है, इसे एक यज्ञकर्म के जैसे पवित्र कर्म मानना चाहिए।
आयुर्वेद के अनुसार भोजन के नियम
आयुर्वेद में आहार ग्रहण करने के लिए मुख्य आठ नियम बताए हैं।
1) प्रकृति (Natural Qualities) –
आहारीय द्रव्यों का अपना एक स्वभाव होता है। जैसे कुछ द्रव्य स्वभाव से पचने में हलके होते हैं तो कोई भारी होते हैं। जैसे मूंग की दाल, मूंग की खिचड़ी स्वभावतः हलकी है वही उडद की दाल और साबुदाना भारी है। दूधशीत और स्निग्ध है, चना दाल रूखी होती है जो वात को बढ़ाती है।
इसलिए आहार सेवन करते वक्त द्रव्य के गुण क्या है । यह ध्यान में रखकर उनका योग्य प्रमाण मे सेवन करना चाहिए। जो पदार्थ पचने में भारी हैं वे मात्रा में कम खाएँ। पाचन शक्ति का विचार करके ही भोजन करना चाहिए। जैसे बुखार ठीक होने के बाद जब तक अच्छी तरह से भूख नहीं लगती तब तक पचने में हलके द्रव्य का ही सेवन करें।
( और पढ़े – आयुर्वेद अनुसार तैयार किये हुए भोज्य पदार्थों के गुणधर्म )
2) आहार द्रव्यों पर प्रक्रिया (Method of Preparation) –
आहार द्रव्य पर सेवन के पहले विविध पाक क्रिया करके उसके स्वाभाविक गुणों में परिवर्तन लाया जा सकता है। जैसे- मंद आँच पर दूंजने पर दालें या चावल पचने में हलके होते हैं। ऐसे पदार्थ मधुमेही के रूग्णों के लिए लाभदायक होते हैं। अग्नि संस्कार से पचने में भारी अन्नपदार्थ हलके होते हैं, दही मथने के बाद तैयार होनेवाला छाछ लघु और जठराग्नि बढ़ानेवाला होता है। जो गर्मी के दिनों में तृप्ति देता है तथा लाभदायक होता है। इसलिए आहार ग्रहण करने के पहले उस पर योग्य संस्कार करके अपेक्षित परिवर्तन करना जरूरी होता है।
3) संयोग (Combination) –
भिन्न स्वभाव के दो या अधिक आहारीय द्रव्यों के एकत्रित सेवन से होनेवाले संयोग का विचार आयुर्वेद में आहार सेवन करते वक्त किया है। जैसे, फ्रूट सॅलेड में दूध और फल भिन्न द्रव्य एकत्र आते हैं। सेहत के लिए ऐसे संयोग लंबे समय तक सेवन करने से हानिकारक हो सकते हैं। पनीर या दही के साथ किसी भी सब्जी का संयोग यह पचने के लिए भारी होता है।
( और पढ़े – आयुर्वेद के अनुसार आहार के गुणधर्म )
4) प्रमाण (Quantity) –
हर व्यक्ति की आहार का पाचन करने की क्षमता भिन्न होती है। उस क्षमता को ध्यान में रखते हुए कितने प्रमाण में आहार सेवन करे यह निश्चित करना चाहिए। एक समय में बहुत ज्यादा न खाते हुए थोड़े-थोड़े मात्रा में दिन मे 3-4 बार भोजन करने से अन्न का पाचन अच्छा होता है। जब भी भोजन करें तब ध्यान में रखें कि हमारे आहार ग्रहण क्षमता के 4 भाग करें। उसमें से 2 भाग घन आहार का सेवन करें, 1 भाग द्रव आहार का सेवन करें और 1 भाग खाली रखें ताकि अन्न का पाचन सुचारू रूप से हो सकें।
5) देश और स्थान (Habitat) –
हर प्रांत की अपनी एक खाद्य संस्कृति होती है। उस प्रांत का वातावरण उपलब्ध आहारीय द्रव्य तथा वहाँ बसनेवाले लोगों की शारीरिक, मानसिक जरूरतों के आधार पर वह निर्माण होता है। जैसे भारत के दाक्षिणात्य प्रांत में इडली, डोसा तो उत्तर में दूध, दही से भरपूर पंजाबी पदार्थों का समावेश होता है। वह विशिष्ट आहार पद्धति उस देश के लिए उचित होती है। परंतु वही आहार दूसरे प्रांत में रोज खाने से उसका पाचन क्रिया पर अनुचित परिणाम होगा।
इसी प्रकार जिस प्रदेश मे व्यक्ति का जन्म हुआ है, उस प्रांत अनुसार व्यक्ति के पाचनशक्ति का विकास होता है। जैसे पंजाबी लोग रोज पनीर पचाने की क्षमता रखते हैं परंतु वही महाराष्ट्रीयन लोगों के लिए अपचन का कारण बन सकता है। इसलिए देशानुरूप सात्मय आहार का सेवन तंदुरुस्त जीवन के लिए महत्वपूर्ण है।
6) काल (Time and Season) –
स्वस्थ व्यक्ति को ऋतुनुसार आहार ग्रहण करना चाहिए। जैसे ठंडी के दिनों में अर्थात हेमंत ऋतु में स्वभावत: पचनशक्ति उत्तम होती है। उस वक्त पचने में भारी पदार्थ अधिक मात्रा में सेवन किए जा सकते हैं। परंतु वही पदार्थ गर्मी के दिनों में पचनशक्ति कम होने के कारण घातक सिद्ध हो सकते हैं । इसलिए गर्मी के दिनों में पचने में हलका आहार लें और भारी पदार्थ खाने हों तो वह कम मात्रा में खाएँ । उसी प्रकार गर्मी के दिनों में घन आहार कम करते हुए तरल पदार्थ जैसे छाछ, रसीले फल आदि का सेवन करें।
Nice information 👌👌