Last Updated on September 16, 2019 by admin
अक्सर काम काज की व्यस्तता में हम आहार-विहार के नियमों का पालन नहीं कर पाते और अनियमित आहार-विहार का परिणाम होता है बीमार पड़ना। बीमारी अपने आप और अकारण नहीं आती बल्कि हमारे ही किसी कर्म का परिणाम होती है फिर भले ही वह कर्म हमने अभी किया हो, पहले कभी किया हो या कि पूर्व जन्मों में किया हो। बिना कर्म किये कोई फल नहीं मिलता। लापरवाही और अनियमितता की हमारी यह आदत बीमार होने तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि बीमार होने के बाद भी बनी रहती है और नतीजा होता है एक बीमारी के बाद दूसरी बीमारी पैदा होना और इस तरह धीरे धीरे हमारा शरीर बीमारियों का घर बन जाता है । इस विषय में आयुर्वेद की सलाह पर अमल करने में ही भलाई है।
चिकित्सा तुरन्त करें :
प्राज्ञो रोगे समुत्पन्ने बाहो नाभ्यन्तरेण वा।
कर्मणा लभते शर्म शस्त्रोपक्रमणेन वा। – चरक संहिता सूत्र. 11-56
बुद्धिमान को चाहिए कि रोग के उत्पन्न होने पर तुरन्त बाहरी, भीतरी अथवा शस्त्र चिकित्सा जो भी उपयुक्त हो, द्वारा शीघ्र रोग मुक्त होने का प्रयास करे।
अज्ञानी न बनें :
बालस्तु खलु मोहाद्वा प्रमादाद्वानबुध्यते ।
उत्पद्यमानं प्रथमं रोगं शत्रुमिवाबुधः ।। – चरक संहिता सूत्र. 11-57
जिस प्रकार मूर्ख मनुष्य उत्पन्न हुए अपने शत्रु को पहले से जान नहीं पाता उसी प्रकार बाल बुद्धि (मूर्ख) मनुष्य भी अज्ञानता या आलस्यवश उत्पन्न हुए रोग को समझ नहीं पाता।
रोग बढ़ने न दें :
अणुहि प्रथमं भूत्वा रोगः पश्चाद्विवर्धते ।
स जात मूलो मुष्णाति बलमायुश्च दुर्मतेः ।। – चरक संहिता सूत्र. 11-58
मूर्खतावश न समझा गया रोग शुरू में तो अणु के समान ज़रा सा ही रहता है किन्तु फिर बढ़ने लगता है। रोग के बढ़ जाने पर इसकी जड़ मज़बूत हो कर रोग की तीव्रता उस मूर्ख रोगी के बल और आयु का नाश करने लगती है।
लापरवाही न करें :
न मूढो लभते संज्ञां तावद्यावन्न पीड्यते।
पीडीतस्तु मतिं पश्चात् कुरुते व्याधि निग्रहे ।। -चरक संहिता सूत्र. 11-59
मूर्ख मनुष्य तब तक रोग मुक्त होने की चेष्टा नहीं करता जब तक रोग से बहुत ज्यादा पीड़ित नहीं होता। जब रोग और कष्ट बहुत बढ़ जाता है तब मजबूरन रोग दूर करने के उपाय करता है।
पश्चाताप करता है :
अथ पुत्रांश्च दारांश्च ज्ञातीश्चाहूय भाषते ।
सर्वस्वेनापि मे कश्चिद् भिषगानीय तामिति ।।- चरक -संहिता सूत्र. 11-60
जब ऐसा व्यक्ति भयंकर रोग से ग्रस्त हो कर अधिक कष्ट पाता है तो अपने पुत्र, पत्नी व परिचितों से कहता है कि किसी भी मूल्य पर, मेरा सबकुछ ले कर भी यदि कोई वैद्य मुझे अच्छा कर दे तो उसे शीघ्र लाओ।
आयुर्वेद के महासागर से निकाल कर ये अनमोल उपदेश-रत्न प्रस्तुत किये गये हैं ताकि आप इन्हें ध्यान में रखें और शरीर तथा स्वास्थ्य की रक्षा करने और रोगी होने से बचने के लिए सदैव सतर्क और सचेष्ट बने रहें। आज चिकित्सा और दवाइयां इतनी महंगी हो गई हैं कि पग-पग पर पैसा खर्च करना पड़ता है। हमारी हर चन्द यह कोशिश होना चाहिए कि हम बीमार होने से बच कर रहें।
आयुर्वेद के इन उपदेशों पर अमल नहीं करता तो उसकी क्या दशा हो सकती है इस बारे में आयुर्वेद की ही यह चेतावनी पढ़िए
असाध्य स्थिति एवं अन्त :
तथा विधं च कः शक्तोदुर्बलं व्याधि पीड़ितम् ।
कृशं क्षीणेन्द्रियं दीनं परित्रातुं गत्तायुषम ।।
स त्रातारमना साद्य बालस्त्यजति जीवितम्।
गोधालांगलबद्धेवा कृष्यमाणा बलीयसा।। – चरक संहिता सूत्र. 11-61/62
||61 || भयंकर व्याधि से पीड़ित, दुर्बल, कृश, क्षीण इन्द्रिय और सर्वथा दीन-हीन हो कर लगभग समाप्त प्राय आयु की स्थिति में पहुंचे रोगी को कौन वैद्य बचा सकता है अर्थात् नहीं बचा सकता
||62 || जिस प्रकार पूंछ में रस्सी बंधी हुई गोह बलवान पुरुषों द्वारा खींची जाती है और अपना स्थान न छोड़ने के कारण मर जाती है इसी प्रकार असाध्य रोग से पीड़ित मूर्ख मनुष्य वैद्य से सुरक्षा न पाने से मर जाता है
सावधान हो जाएं। :
तस्मात् प्रागेव रोगेभ्यो रोगेषु तरुणेषु वा।
भेषजैः प्रतिकुर्वीत् य इच्छेत् सुखमात्मनः ।।- चरक संहिता सूत्र. 11-63
इसलिए रोग उत्पन्न होने के पूर्व या बढ़ने के पूर्व ही अपना भला चाहने वाले व्यक्ति को उचित उपाय और नियमित रूप से औषधि का प्रयोग एवं चिकित्सा कर रोग से अपनी रक्षा करना चाहिए।
आगे पढ़ने के लिए कुछ अन्य सुझाव :
• स्वस्थ जीवन के लिए प्रकृति प्रदत्त आठ चिकित्सक
• स्वस्थ और निरोगी जीवन के लिये आहार ज्ञान
• वेदों में स्वस्थ जीवन के सूत्र