Nagarmotha ke Fayde | नागरमोथा के फायदे ,गुण ,उपयोग और नुकसान

Last Updated on June 4, 2020 by admin

नागरमोथा क्या है ? : What is Nut Grass (Nagarmotha) in Hindi

जब सेनापति राजा दुष्यन्त को पुनः शिकार करने को उत्साहित करता है तो राजा कहता है कि हम लोग आश्रम के समीप रुके हुये हैं, हमें अभी शिकार नहीं करना चाहिये। आज तो “सूअरों के झुण्ड निर्भय होकर छोटे तालावों में नागरमोथा निकालें। और हमारा यह धनुष भी विश्राम करे। कविकुल गुरू कालिदास ने राजा के मुख से यह वाक्य कहलवाकर बतलाया है कि नागरमोथा के कन्द सूअरों को अति प्रिय हैं। छोटे तालाबों में सूअर इनकी जड़ें खोदकर कन्द खाते रहते हैं।
वाराह, क्रोडकशेरूक ये मुस्तक के नाम इसी तथ्य का संकेत करते हैं। इसी वराहप्रिय कन्द से मेरी भी यह प्रार्थना है –

हे वराह के कन्द रुचिर
तुम रुग्ण जनों के कष्ट हरो,
भोजन का पाचन सम्यक् कर
तुम तृषा अरुचि ज्वर दूर करो।
दीपन पाचन संग्राहक तुम
औषधियों में श्रेष्ठ सदा,
जन जन के जीवन पथ में
तुम नित्य स्वास्थ्य का रंग भरो।।

भगवान् चरक ने तृप्तिन, तृष्णा निग्रहण, लेखनीय, कण्डूघ्न, स्तन्यशोधन दशेमानि द्रव्यों में इसको लिया है। तथा महर्षि सुश्रुत ने मुस्तादि एवं वचादिगण में इसकी गणना की है। मुस्तादिगण श्लेष्महर, योनिदोष हर, स्तन्यशोधन एवं पाचन है तो वचादिगण स्तन्यशोधन,आमातिसार शमन एवं आम संसृष्ट दोषों का पाचन करने वाला है।

आधुनिक इसे मुस्तादि वर्ग (सायपरेसी) वर्ग में सम्मिलित करते हैं।
आचार्य भावमिश्र ने कर्पूरादि वर्ग में इसका वर्णन किया है।
संप्रति द्रव्यगुण के वरिष्ठ लेखक आचार्य श्री प्रियव्रत शर्मा ने पाचन द्रव्यों में इसकी प्रथम गणना कर इसका सागोपाङ्ग वर्णन प्रस्तुत किया है।

नागरमोथा का विभिन्न भाषाओं में नाम : Name of Nut Grass (Nagarmotha) in Different Languages

Nut Grass (Nagarmotha) in –

  • संस्कृत (Sanskrit) – मुस्तक, मुस्ता, घन, वारिद (बादल के पर्याय) नागरमुस्तक. वराहाख्य।
  • हिन्दी (Hindi) – मुस्तक, मोथा, नागरमोथा
  • गुजराती (Gujarati) – मोथे, नागरमोथे
  • मराठी (Marathi) – मोथ, नागरमोथ
  • बंगाली (Bangali) – मुथा
  • तामिल (Tamil) – मुथकाच
  • तेलगु (Telugu) – तुङ्गमुस्ते, तुंगदालाविम्
  • कन्नड़ (kannada) – तुंगेगके, कोन्नारि
  • अरबी (Arbi) – सोअद कूकी
  • फ़ारसी (Farsi) – मुश्के जमीं
  • अंग्रेजी (English) – नट ग्रास (Nut Grass)
  • लैटिन (Latin) – सायपरस स्करयोसिस (CyperusScariosus)

नागरमोथा का पौधा कहां पाया या उगाया जाता है ? : Where is Nagarmotha Plant Found or Grown?

नागरमोथा समस्त भारत में सदैव पाया जाता है परन्तु जलीय तथा आद्र प्रदेश में विशेष होता है।

आँद्रप्रदेश (अनूपदेश) में उत्पन्न नागरमोथा (मुस्तक) को प्रशस्त कहा गया है-“आनूपदेशो यज्जातं मुस्तकं तत् प्रशस्यते”। आनूप देश में उत्पन्न नागरमोथा उत्तम, मिश्रित (आनूप एवं जांगल) देश में उत्पन्न नागरमोथा मध्यम तथा जांगल देश में उत्पन्न हुआ नागरमोथा अधम कहा गया है।

वर्षाऋतु में यह विशेष होता है। मेघों के आगमन काल (वर्षा ऋतु) में इसके बढ़ने से ही इसे मेघ (मेघ पर्याय) नाम दिया गया है-“मुस्तं वारिदनाम स्यान् मेघागमनवर्धनात्” (प्रि० नि०)।

नागरमोथा का पौधा कैसा होता है ? :

  • नागरमोथा का पौधा – तृणजातीय बहुवर्षायु नागरमोथा के क्षुप एक से तीन फुट ऊँचे होते हैं। इसके काण्ड गोल चिकने एवं नलाकार होते हैं।
  • नागरमोथा के पत्ते – पत्र लम्बे पतले रेखाकार घास के समान होते हैं।
  • नागरमोथा का फूल – पुष्प क्षुप के अग्रभाग से निकली हुई दो-चार फुट ऊँची ऊपर की ओर दस-बीस शाखा-प्रशाखा युक्त तिकोनी डंडी पर कुछ श्वेताभ हरे रंग के छोटे छोटे पुष्प गुच्छों में आते हैं। इन पुष्पों के इधर उधर लम्बे लम्बे पत्ते भी होते हैं।
  • नागरमोथा का फल – फल लम्बे से होते हैं जिनमें गोल अण्डाकार छोटे छोटे बीज होते हैं।
  • नागरमोथा कि जड़ – मूल साधारण मोटे टेढ़े दबे हुए से काले रंग के कन्दाकार, मुख्य मूल के नीचे आधा इंच के घेरे में कसेरुक के समान सुरक्षित जड़ें होती हैं। इस पर पुष्प-फल जुलाई दिसम्बर में लगते हैं।

नागरमोथा के प्रकार :

निघन्टु ग्रन्थों में नागरमोथा (मुस्तक) के तीन प्रकार बताये हैं। राज निघन्टु एवं धन्वन्तरि निघन्टु में नागरमोथा के भद्रमुस्तक, नागरमुस्तक और जलमुस्तक (कैवर्तमुस्तक) यह तीन बताये गए है।

नागरमोथा का रासायनिक विश्लेषण : Nagarmotha Chemical Constituents

नागरमोथा के कन्द में एक सुगन्धित तैल होता है। अवशिष्ट अंश से एक स्थिर तैल भी प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त इसमें शर्करा, वसा, कार्बोहाइड्रेट, निर्यास (गोंद), क्षार और सूत्र होते हैं।

नागरमोथा के औषधीय गुण : Nagarmotha ke Gun in Hindi

  • रस – तिक्त, कटु, कषाय
  • गुण – लघु, रूक्ष
  • वीर्य – शीत
  • विपाक – कटु
  • दोषकर्म – यह तिक्त कटु कषाय होने से कफ का तथा शीत वीर्य होने से पित्त का शमन करता है अर्थात् यह कफपित्त शामक द्रव्य है।
  • गुण प्रकाशक संज्ञा – विषध्वंसी
  • प्रभाव – मुख्यतः पाचन संस्थान प्रभावक है।
  • वीर्यकालावधि – एक वर्ष।

नागरमोथा पौधे का उपयोगी भाग : Beneficial Part of Nagarmotha Plant in Hindi

कन्द (मूल)

सेवन की मात्रा :

  • क्वाथ – 50 से 100 मिलि.
  • चूर्ण – 3 से 6 ग्राम
  • स्वरस – 10 से 20 मि०लि0

नागरमोथा का उपयोग : Uses of Nagarmotha in Hindi

  • नागरमोथा पाचनसंस्थान के लिए बहुत उपयोगी औषधि है। भगवान चरक ने इसे संग्राहक तथा दीपन-पाचन द्रव्यों में सर्वोत्तम कह कर इसकी प्रशस्ति गाई है ।
  • कुटजादि क्वाथ और समंगादि क्वाथ को आचार्यों ने सर्वातिसारनाशन कहा है, इनमें नागरमोथा (मुस्तक) का प्रयोग हुआ है।
  • इसी प्रकर कुटजाष्टकवटी एवं कञ्चटादिक्वाथ आदि योगों में भी नागरमोथा की योजना की गई है। कञ्चटादिक्वाथ में तो “गंगामपि वेगिनी रून्ध्यात्” तक कहा गया है। किरातादिक्वाथ (पित्तातिसार), कुटजादिक्वाथ (पित्तश्लेष्मातिसार), विल्वादिकल्क (कफातिसार), विडंगादिक्वाथ (शोथयुक्त अतिसार) आदि योगों के द्वारा भी नागरमोथा अपनी उपादेयता सिद्ध करता है।
  • कविराज श्री जयदेव जी ने उपमानानुप्रासयुक्त इन छन्दों में नागरमोथा की महत्ता का बखान किया है-
    जलदभिषिविषाम्भोधातकी विल्वविश्वैः शृतमतिसृतिवारि प्रोढदोष प्रहारि।
    चुलुकयति विकारं शोणभासातिसारं जलनिधिमिव सद्यः कुम्भयोनिर्मुनीन्द्रः।।
    जलद-मुस्तक, मिषि-शतपुष्पा, विष-अतिविषा, अम्भः-नेत्रबाला, विश्वम्-शुण्ठी। इन द्रव्यों का यह क्वाथ वहुत दोष युक्त अतिसार को विशेषतः रक्तातिसार को नष्ट करने वाला है।
  • सिद्धभैषज्यमञ्जूषा का ही एक योग और है –
    बिल्वाम्बुमुस्तमधुरास्थल पद्मपाकैः पक्वं जलं धवल शर्करया समेतम। आमारपूयकफविसमलाति सारं हन्यात्प्रभाकरविभेव तमः प्रसारम्।।
    अम्बु- नेत्रवाला, मधुरा- शतपुष्पा, स्पथलपद्मपाक- गुलाबगुलकन्द।
  • अतिसार में धान्यपञ्चकक्वाथ का पर्याप्त महत्व है। इसकी गुणवत्ता से कौन आयुर्वेद चिकित्सक अनभिज्ञ है। यह क्वाथ धान्यक ,शुण्ठी, नागरमोथा, सुगन्धबाला और विल्व इन चार द्रव्यों से बनता है। पित्त की वृद्धि में सोंठ को निकाल कर धान्य चतुष्क क्वाथ तैयार कर दिया जाता है।
  • सामान्य अतिसार में जब रोगी को प्यास अधिक लगती हो तो नागरमोथा को सुगन्धबाला या पित्तपापड़ा से साधित जल पीने के लिए दिया जाता है।
  • अतिसार में अत्यधिक तृष्णा तथा उदरशूल होने पर नागरमोथा को सोंठ एवं अतीस के साथ सिद्ध किया हुआ जल देना हितावह है।
  • तृष्णा के साथ छर्दि (उल्टी) भी यदि अतिसार के रोगी को हो रही हो तो प्रियंग्वादि चूर्ण (फूल प्रियंगु, सफेद सुरमा, मोथा) शहद और चावलों के पानी से देना लाभदायक कहा गया है।
  • ग्रहणीरोग में शुष्ठयादि क्वाथ, धान्य-कादिक्वाथ, नागरादिक्वाथ, पाठादि चूर्ण, भूनिम्बादि चूर्ण एवं नागरादि चूर्ण आदि संग्रह ग्रन्थों में वर्णित योग लाभप्रद कहे गये हैं। इन सभी योगों में नागरमोथा भी प्रमुख घटक द्रव्य है।
  • आमदोष एवं अग्निमांद्य युक्त ग्रहणी में नागरमोथा की योजना करना प्रशस्त है।
  • नागरमोथा के ग्राही, दीपन-पाचन और तृष्णानिग्रहण कर्म को सदा चिकित्सक को ध्यान में रखकर पाचन संस्थानगत विकृतियों में इसे उपयोग में लाना चाहिये।
  • अग्निमांद्य रोग में यदि मिचलाहट न हो किन्तु तृष्णा अधिक हो तो नागरमोथा से सिद्ध जल या षडंगपानीय देना हितकारक है।
  • नागरमोथा के अग्निमांद्योपयोगी होने से ही वृहदग्निमुख नामक प्रसिद्ध चूर्ण में इसे डाला जाता है।
  • “क्षुधावती गुटिका” में नागरमोथा के उपयोग के साथ स्थालीपाक के लिए इसके स्वरस को भी उपयोग में लाया जाता है। अम्लपित्त में यह वटी उपयोगी है। अरोचक, छर्दि (उल्टी) एवं शूलरोग में भी यह लाभप्रद है।
  • त्रिदोषज छर्दि (उल्टी) में प्रयुक्त “एलादिचूर्ण’ में नागरमोथा का उपयोग किया जाता है।
  • कफज शूल में प्रयुक्त “वचादि चूर्ण” और “मुस्तादिचूर्ण’ लाभप्रद है इनमें भी नागरमोथा है।
  • परिणामशूल में लाभदायक “नारिकेल खण्ड” तथा “खण्डामलकी’ नामक प्रसिद्ध प्रयोगों में भी नागरमोथा की योजना की गई है। इसका मुस्तकारिष्ट (भै० र0) अग्निमांद्यहर प्रमुख योग है।
  • आचार्य भावमिश्र ने अजीणाधिकार के अन्त में पृथक पृथक् द्रव्यों के अजीर्ण में पृथक्-पृथक चिकित्सा लिखी है। इस प्रकरण में नागरमोथा को भी कई द्रव्यों के पाचनार्थ उपयोगी कहा है।
  • खजूर और श्रृङ्गाटक (सिंघाड़ा) खाने के पश्चात यदि अजीर्ण होने की आशंका हो तो इन्हें पचाने के लिए सोंठ और क्वचित नागरमोथा भी उपयोगी है।
  • मधु को पचाने के लिए नागरमोथा को विशेष उपयोगी कहा गया है। इसके अतिरिक्त कसेरू, सितोपला, बिस(कमलदण्ड) तथा मधुफलों के पाचनार्थ मुस्तक प्रशस्त है।
  • अतिसार, ग्रहणी, तृष्णा, छर्दि, अरूचि, अग्निमांद्य, अजीर्ण आदि रोगों के साथ यह कृमिरोग में भी लाभप्रद है। कृमि में इसकी अधिक मात्रा देनी पड़ती है। कृमि तथा कृमिजन्य रोगों में प्रयुक्त मुस्तादिक्वाथ में विडंग और छोटी पीपली का चूर्ण डालकर उपयोग में लाया जाता है।
  • यह ज्वरघ्न एवं तृष्णा निग्रहण होने से ज्वर को शान्त करता है तथा तृष्णा आदि उपद्रवों को भी मिटाता है। कफज्वर, पित्तज्वर, विषम-ज्वर, सन्निपातज्वर आदि प्रायः सभी ज्वरों में यह उपयोगी सिद्ध हुआ है। संजीवनी वटी के अनुपान के रूप में उक्त क्वाथ अति लाभप्रद है।
  • संजीवनी साम्राज्यम् के टीकाकार वैद्य श्री मदनगोपाल शर्मा ने इस योग की कार्मुकता को स्पष्ट किया है वहाँ नागरमोथा के लिए कहा है कि यह तिक्तरस एवं आमपाचक होने से हितकर है। ऐसी इस उपयोगिता के कारण ही तो षड्मपानीय का यह एक अंग है।
  • षडङ्गपानीय पर थोड़ा विशेष विवेचन प्रस्तुत है –
    ज्वर में आमदोष सप्त धातुओं में स्थिर हो जाता है। इसके पाचन में प्रायः सात दिन लग जाते हैं इस अवधि में “ज्वरमध्येतु पचनम्” का ध्यान रखते हुये इस षडंगपानीय की योजना हितावह है। यह षडंगपानीय पित्तशामक, वातानुलोमक, कफहर, मल प्रर्वतक, स्रोतोविशोन, मुख वैशधकर तथा श्रेष्ठ आम पाचन है। दोषों के पाचन हेतु इसका प्रयोग हितकारक है। इसके उपयोग से रक्तस्थ जीवाणुओं का निष्कासन होता है। ज्वर जात पिपासा इससे शीघ्र शान्त होती है। इस षडंगपानीय में निम्नांकित छः द्रव्यों को उपयोग में लाया जाता है-
    नागरमोथा, पित्तपापड़ा, खस, सफेद चन्दन, नेत्रबाला और सौंठ। इन द्रव्यों को समान मात्रा में लेकर यवकुट कर लें। एक लीटर जल में से द्रव्य 20 ग्राम डालकर उबालें। जब आधा जल शेष रह जाय तब बारीक वस्त्र से छानकर ठंडा होने दें। यदि ज्वर तीव्र हो तो 5-10 मिनट के अन्तराल से दो-दो चम्मच यह पिलावें। यदि ज्वर मध्यस्तर का हो तो यह आधा-आधा घण्टे पर पिलावें तथा ज्वर यदि अल्प स्तर का हो तो एक-एक घन्टे से पिलावें।
    इन औषध द्रव्यों के अनुसार इस षडंगपानीय का स्वाद तिक्त होता है। रोगी की दशा के अनुरूप इस पानीय में शर्करा, ग्लुकोज, तुरंजबीन (यव सशर्कश्रा), अनार का रस, फालसे का रस तथा नीबू का रस मिलाया जा सकता है।
    राजवैद्य श्री वेणीमाधव अश्विनीकुमार शास्त्री ने सुधानिधि आयुर्वेदीय चिकित्सा अनुभवांक में लिखा है कि षडंगपानीय तैयार करते समय 20 ग्राम औषधिद्रव्यों के साथ जल में यदि 10 मुनक्का और 10 आलू बुखारा भी डाल दिये जायं तो यह पानीय रुचिकर तथा पोषक भी हो जाता है।
  • विद्वान् चिकित्सक ने इसके वक्तव्य में लिखा है कि “आयुर्वेदीय रोग विकृति विज्ञान अधिष्ठान के आधार पर ज्वर आमाशय समुत्थ है। आमाशय अग्नि स्थान है। अग्निस्थान में कार्यशील क्लेदककफ, पाचक पित्त, समानवायु दूषित होकर अग्निमांद्य उत्पन्न करते हैं। इससे आम उत्पन्न होता है। यह आम सारे शरीर में रसवह स्रोतों के माध्यम से प्रसारित होकर स्वेदवाही स्रोतों में अवरोध करता है। जिससे संतापवृद्धि होती है। षडंगपानीय उक्त सभी लक्षणों के लिए उत्तरदायी आमदोष का पाचन करता है।”
  • नागरमोथा मेध्य एवं नाड़ियों के लिए बल्य होने से मस्तिष्कदौर्बल्य एवं अपस्मारादि में गोदुग्धनुपान के साथ प्रयुक्त होता है। चरक संहिता की अपस्मार चिकित्सा में मुस्ताद्य वर्ति एवं कायस्थादिवर्ति का वर्णन मिलता है। ये बर्तिप्रयोग अपस्मार, उन्माद के रोगियों के लिए अंजन हेतु प्रयुक्त होती है। उक्त कायस्थादि वर्ति में भी नागरमोथा है।
  • नागरमोथा रक्तप्रसादन होने से रक्त विकारों में हितकारक है। इन विकारों में इसका बाह्य प्रयोग भी होता है।
  • चरकसंहिता चिकित्सास्थान अध्याय सात में जो मुस्तादि सिद्ध प्रायोगिक भक्ष्य कहा गया है, यह कुष्ठ, भगन्दर, कण्डू कोठ, श्वित्र, शोथ आदि को दूर करने वाला है।
  • वातरक्त चिकित्सा में मुस्तादि आस्थापन वस्ति के नित्य उपयोग के लिए कहा गया है “नित्यमास्थापयेच्चेनं मुस्तायेनतु वस्तिना।”-भे० सं० चि० 17
  • मुस्ता, नीम की छाल तथा परवल के पत्तों के क्वाथ में घृत मिलाकर सेवन करना सभी प्रकार के विसर्प में लाभप्रद है।
  • रक्त प्रसादन के साथ यह त्वग्दोषहर भी है अतः चर्मरोगों में सेवन किया जाता है तथा बाहरी उपयोग में भी लाया जाता है।
  • नागरमोथा में त्वचा का वर्ण निखारने का विशिष्ट गुण है। आजकल बाजारों में सुलभ होने वाली हर्बल क्रीम आदि में नागरमोथा भी प्रचुरता से मिलाया जाता है।
  • नागरमोथा कफघ्न होने से श्वास कास आदि श्वसनसंस्थानगत रोगों को भी दूर करता है।
  • सिद्ध भेषज मणिमाला में वर्णित चित्तचन्दिर फाण्ट (आसव) कास श्वास, क्षय की प्रसिद्ध औषधि है। इसमें नागरमोथा, मरिच, चव्य, चित्रक, पीपल, हरिद्रा आदि द्रव्य हैं। कफघ्न, ज्वरध्नं एवं बल्य होने से यह राजयक्ष्मा में हितकारक है।
  • इसी प्रकार प्रतिश्याय में भी नागरमोथा के योग लाभ पहुंचाते हैं।
  • यह मूत्रल होने से मूत्राघात प्रतिषेध में भी उपयोग में लाया जाता है
  • प्रजजन संस्थान के रोगों में गर्भाशय संकोचन के लिए, स्तन्यशोधन एवं स्तन्यजनन हेतु इसे उपयोग में लाया जाता है। दाादिक्वाथ और पुष्यानुगचूर्ण स्त्री रोगों की प्रसिद्ध औषधियां हैं इनमें नागरमोथा का उपयोग होता है।
  • सूतिका रोग में प्रशस्त ह्रीबेरादि क्वाथ, अमृतादिक्वाथ आदि में नागरमोथा का प्रयोग हुआ है। स्तन्य शोधक इस क्वाथ में भी अम्बुद (नागरमोथा) है ।
  • बालकों के ज्वर, अतिसार, कास और छर्दि में , उपयोगी वालचातुर्भद्रचूर्ण (नागरमोथा, पिप्पली, अतीस और काकड़ासिंगी) का नागरमोथा एक घटक है।
  • इसके अतिरिक्त बाल रोगोपयोगी विल्वादिक्षीर, नागरादिक्वाथ और प्रियंग्वादि कल्क आदि में भी नागरमोथा प्रयुक्त है।
  • कुमार कल्याण घृत में भी मोथा डाला जाता है। धन्वन्तरि निघन्टु में कैवर्तमुस्तक जो प्रायः जल में पाया जाता है, को विशेषतः मध्य कहा है। अतः बालकों की मेधा बढ़ाने के लिए उक्त घृत आदि योगों में इसी मुस्तक को उपयोग में लाना अधिक श्रेयस्कर है।

नागरमोथा के फायदे : Benefits of Nagarmotha in Hindi

1). वृश्चिक दंश
नागरमोथा घिसकर लगावें।

2). स्तनवृद्धि हेतु
स्तनों पर नागरमोथा का लेप करने से स्तनों के आकार में वृद्धि होती हैं एवं दूध भी वढ़ता है।

3). त्वग विकार
त्वचा पर काले धब्बे हो जाने पर नागरमोथा के ताजा कंदों को पीसकर लेप करना चाहिये।

4). सूजन (शोथ)
नागरमोथा, पेठे के बीज, देवदारू और इन्द्र जौ समभाग मिश्रित कर चूर्ण बना इस चूर्ण को पानी में पीसकर लेप करें।

5). पीलिया (कामला)
नागरमोथा के रस का नस्य देना हितकर है।

6). घाव (व्रण)
नागरमोथा की ताजा जड़ को घिसकर गोघृत मिलाकर लगाने से व्रण ठीक होते हैं।

7). खाज-खुजली (कण्डू)
खाज-खुजली में नागरमोथा को पीसकर लेप करना हितकारी है।

8). नेत्ररोग
(क) नेत्रव्रण में नागरमोथा घृत में भूनकर व पीसकर लगाना चाहिये।
(ख) नागरमोथा को बकरे के मूत्र में पीसकर वर्ती बनाकर आंखों में आंजने से रतौंधी और नेत्र की फूली नष्ट होती है।

9). अर्धावभेदक (आधाशीशी)
नागरमोथा के ताजा पत्तों को हाथों में मसलकर एक गोली बनाकर, रोगी को दीवार के सहारे बैठाकर, मस्तक के जिस ओर पीड़ा हो उस ओर की नासिका के ऊपर की भों में जो बड़ी सिरा है, उस पर उस गोली को रखकर, हाथ के अंगूठे से जोर से दबा दें। पश्चात् उसे दही-भात खिला कर दो घन्टे को लिए सुला दें। इस प्रकार दो दिनों तक करें। इससे आधाशीशी के रोगी को आराम मिलता है।

10). विसर्प
नागरमोथा के क्वाथ का पीड़ा स्थान पर लेप करना चाहिए।

11). अपस्मार
नागरमोथा के क्षुप की जड़ जो उत्तर दिशा की ओर गई हुई हो उसे पुष्यनक्षत्र में उखाड़कर जटामांसी के साथ पीसकर समान वर्ण वाली सवत्सा गौ के दूध में मिलाकर पिलाने से अपस्मार के रोगी को लाभ होता है।

12). उदरशूल (पेट दर्द)
नागरमोथा, वच, कुटकी, हरड़ और मूर्वामूल समान भाग लेकर इनका मिश्रित चूर्ण बनाकर गोमूत्र के साथ सेवन करने से आमरस का पाचन होकर शूल शान्त हो जाता है। चूर्ण मात्रा-एक दो ग्राम।

13). विष रोग
नागरमोथा की जड़ को पीसकर थोड़े घृत में मिला, चावलों के जल के साथ पीने से अतिदारूण कृत्रिम विष (गरविष) नष्ट होकर रोगी लाभ प्राप्त करता है।

14). सामान्य ज्वर (बुखार)

(क) नागरमोथा, गिलोय, चिरायता का क्वाथ वातज्वर को नष्ट करता है।
(ख) नागरमोथा, जवासे की जड़ सोंठ और गिलोय का क्वाथ भी वातज्वर में लाभप्रद है।
(ग) नागरमोथा, कुटकी और इन्द्र जौ का क्वाथ पित्तज्वर में हितकारी है। इस क्वाथ में मधु मिलाकर दें। यह पाचन के लिए प्रशस्त है।
(घ) नागरमोथा, पाठा, कुटकी, इन्द्र जौ और कटफल का क्वाथ शर्करा युक्त भी पित्तज्वर में लाभ करता है।
(ङ) नागरमोथा, त्रायमाण, मुलेठी, पिप्पलीमूल, चिरायता, महुआ, बहेड़ा का क्वाथ शीतल कर शर्करा मिलाकर सेवन करना हितकर है।
(च) नागरमोथा, द्राक्षा हरीतकी, पित्तपापड़ा और आमलतास का क्वाथ ये पित्त ज्वर में हितावह है। इससे प्रलाप, भ्रम, दाह, अतितृष्णा मुखशोष आदि लक्षण समाप्त होते हैं।
(छ) नागरमोथा, सोंठ, जवासे की जड़ और वासापत्र क्वाथ कफज्वर का शमन करता है।
(ज) नागरमोथा, इन्द्र जौ, त्रिफला तथा कुटकी का क्वाथ भी कफ ज्वरहर है।
(झ) नागरमोथा, गुडूची और चिरायता का क्वाथ कफज्वर में हितकारी है।
(ञ) नागरमोथा, खस, पित्तपापड़ा, नेत्रबाला, सोंठ और चन्दन का क्वाथ सामान्य ज्वर में तृष्णा वमन होने पर , देना चाहिए।
(ट) नागरमोथा, पित्तपापड़ा, गिलोय, सोंठ और वासा का क्वाथ वातपित्त ज्वर का शमन करता है।
(ठ) इसी प्रकार नागरमोथा, गिलोय, सोंठ, जावासा और चिरायता का क्वाथ भी उक्त ज्वर में हितकारी है।
(ड) नागरमोथा, जवासा, गिलोय. पित्तपापड़ा और सोंठ का स्वाथ वातकफ ज्वर शामक कहा गया है।
(ढ) नागरमोथा, चिरायता और सोंठ 10-10 ग्राम लेकर क्वाथ बनाकर पिलाने से आमापचन होता है और वातकफज्चर में लाभ पहुंचाता है।

15). विषम ज्वर

(क) नागरमोथा, आंवला, गिलोय, सोंठ 6-6 ग्राम और छोटी कटेरी 3 ग्राम इनको कूटकर आधा लीटर जल में पका अप्टमांश जल शेष रह जाने पर इसे छानकर उसमें मधु 6 ग्राम मिलाकर प्रातः काल पिलावें। इससे सब प्रकार के विषम ज्चर नष्ट होते हैं।
(ख) नागरमोथा, पटोल, पाठा और कुटकी का क्वाथ विषम ज्वरहर है।
(ग) नागरमोथा, निम्ब, पटोल, त्रिफला, कुटज और मुनक्का का कषाय अन्येशुष्क ज्वर में हितकारी है।
(घ) नागरमोथा, उशीर, सोंठ, चन्दन, धनियां और गिलोय का क्वाथ तृतीयक विषमज्वर में लाभप्रद है।
(ङ) नागरमोथा, पिप्पली, चन्दन, उशीर और सोंठ के क्वाथ में मधु और शर्करा मिलाकर पीने से तृतीयक विषमज्वर में लाभ होता है।
(च) नागरमोथा, कुटकी, पटोल, मुलेठी, हरीतकी का क्वाथ भी विषमज्वर में उपयोगी है।
(छ) नागरमोथा, आंवला और गिलोय का क्वाथ चातुर्थिक विषम ज्वर में लाभकारक है।
(ज) सामान्य विषम ज्वर में नागरमोथा, आंवला, सोंठ, गिलोय और कण्टकारी के क्वाथ में मधु एवं पिप्पलीचूर्ण मिलाकर रोगी को देने से लाभ होता है।

16). पुनरावर्तकज्वर

(क) नागरमोथा, मुलेठी, आंवला, सोंठ और लालचन्दन का क्वाथ बनाकर देना चाहिए।
(ख) नागरमोथा, कुटकी, गिलोय, पित्तपापड़ा और चिरायता का क्वाथ भी पुनरावर्तक ज्वर में लाभ पहुंचाता है।

17). आन्त्रिक ज्वर

(क) नागरमोथा, पित्तपापड़ा, मुलेठी, मुनक्का सब को समभाग में लेकर क्वाथ बना अष्टमांश शेष रहने पर शीतल कर उसमें मधु मिलाकर रोगी को पिलावें। इसके प्रयोग से पित्त विकार, भ्रम, ज्वर, दाह, वमन युक्त आन्त्रिकज्वर में लाभ होता है।
(ख) नागरमोथा, लालचन्दन, खस, धनिया, सुगन्धवाला, पित्तपापड़ा और सोंठ का क्वाथ भी आन्त्रिक ज्वर में लाभप्रद कहा गया है।
(ग) नागरमोथा, गिलोय, मुलेठी, धनियां और मुनक्का के क्वाथ में मिश्री मिलाकर देना भी लाभदायक
(घ) नागरमोथा, कपुर काचरी, बनतुलसी, पित्तपापडा और सोंठ सभी 3-3 ग्राम लेकर सोलह गुने पानी में औटाकर चतुर्थांश शेष रखकर शीतल हो जाने पर शहद मिलाकर पिलाने से आन्त्रिकज्वर के रोगी को राहत मिलती
(ङ) नागरमोथा त्रिफला, नीमछाल, पटोलपत्र, कुटकी, देवदारू, हल्दी और कटेरी का क्वाथ, आन्त्रिक ज्वर एवं अन्य सन्निपात जन्य ज्वरों में लाभप्रद कहा गया

18). आन्त्र शोथ
नागरमोथा, सोंठ, मोचरस, सोनापाठा और धाय के फूल, इन पांचों द्रव्यों का चूर्ण बनाकर 3-3 ग्राम चूर्ण मट्ठा या जल के साथ सेवन करावें।

19). अतिसार

(क) नागरमोथा की जड़ को 10 ग्राम लेकर यवकूट कर लें, इसे आठ गुने दूध और दूध से तिगुने जल के साथ पकाकर केवल दूध बच जाय उस समय उतार कर छान लें और इसे रोगी को पिलावें। इससे वेदना-मरोड़ युक्त आमातिार में लाभ होता है।
(ख) नागरमोथा, वेलगिरी, नेत्रवाला और सौंफ के क्वाथ में थोड़ा गुलाब गुलकन्द डालकर सेवन करने से आमातिसार, कफातिसार, रक्तातिसार आदि नष्ट होते हैं।
(ग) नागरमोथा, धनियां, सुगन्ध वाला, बेलगिरी और सोंठ का क्वाथ अतिसार की सर्वोत्तम औषधि है।
(घ) नागरमोथा, अनारदाना, कुड़ा की छाल (कुटज), धाय के फूल, बेलगिरी, सुगन्ध बाला, पठानी लोध, लालचन्दन और पाठा के क्वाथ में मधु मिलाकर सेवन करने से सभी प्रकार के अतिसार विशेषकर आंव व रक्त वाला अतिसार जिसमें पीड़ा विशेष होती है नष्ट हो जाता
(ङ) नागरमोथा, बचा, नेत्रवाला, विल्व, शुण्ठी और धनियां का क्वाथ पित्तज अतिसार में लाभप्रद है।
(च) नागरमोथा, चिरायता, कुड़ा और रसौत के चूर्ण को शहद और चावलों के पानी के साथ सेवन करने से पीडायुक्त पित्तातिसार का शमन होता है।
(छ) नागरमोथा, अतीस, कुडा, हल्दी, शालपर्णी, पृश्निपर्णी का क्वाथ शहद और मिश्री मिलाकर देने से पित्तज अतिसार में लाभ होता है।
(ज) नागरमोथा, अतीस, वायबिडंग और देवदारू के क्वाथ में मरिच का चूर्ण मिलाकर देने से शोथयुक्त अतिसार का रोगी लाभ प्राप्त करता है।
(झ) नागरमोथा, सफेद सुरमा और फूलप्रियंगु को शहद और चावलों के पानी से देना अतिसार के रोगी अधिक प्यास एवं वमन को शान्त करता है।
(ञ) नागरमोथा और विल्व का कल्क कफातिसार को मिटाता है।
(ट) नागरमोथा को दूध में उबालकर पीने से रक्तातिसार का शमन होता है।
(ठ) नागरमोथा और अदरख को पीसकर मधु मिलाकर सेवन करने से आमातिसार में लाभ होता है।
(ङ) नागरमोथा, सोंफ और सोंठ का क्वाथ अतिसार निवारक कहा गया है।
(ढ) नागरमोथा का बारीक चूर्ण बनाकर मधु और शर्करा के साथ सेवन करने से भी अतिसार में लाभ होता

20). जलोदर
जलोदर में नागरमोथा के सेवन से मूत्रवृद्धि होकर रोग का शमन होने में सहायता मिलती है।

21). ग्रहणी

(क) नागरमोथा, विल्व, जायफल और इन्द्र जौ चारों को समान मात्रा में लेकर पीसकर रखें। दो से पांच ग्राम तक दिन में तीन चार बार देवें।।
(ख) नागरमोथा, त्रिकटु, इन्द्रजौ, चित्रक और कुटज का चूर्ण भी ग्रहणी में लाभदायक है।
(ग) नागरमोथा, त्रिफला और पंचकोल (पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्य, चित्रक और सोंठ) का क्वाथ ग्रहणी रोगहर है।
(घ) नागरमोथा, अतीस और सोंठ का क्वाथ ग्रहणी में आमपाचन हेतु दिया जाता है।
(ङ) नागरमोथा, अतीस, बेलगिरी व इन्द्रजौ बराबर ले महीन चूर्ण कर शहद से सेवन करना सर्वदोषज ग्रहणी को दूर करने वाला है। मात्रा-दो से चार ग्राम तक।

22). ज्वरातिसार

(क) नागरमोथा, गुडूची, शुण्ठी, बिल्व, चिरायता, नेत्रबाला, कुटज, अतीस और उशीर (खस) का क्वाथ सामान्य ज्वरातिसार को हरने वाला है।
(ख) नागरमोथा, पाठा, इन्द्रजौ, पित्तपापड़ा और गिलोय का क्वाथ ज्वरातिसार में देते हैं।
(ग) नागरमोथा, नेत्रबाला, अतीस, बेलगिरी, धनियां और सोंठ का क्वाथ पिच्छिलता, शुल सहित ज्वरातिसार
का नाश करने के साथ आम का पाचन करता है।

23). अजीर्ण
नागरमोथा एवं हरड़ चूर्ण में मधुरक्षार मिलाकर सेवन करें।

24). खाँसी (कास)

(क) नागरमोथा, काकड़ासिंगी, कचूर, छोटी पिप्पली, भारंगी, गुड़, यवासा और तैल का अवलेह बनाकर चाटने से वातज कास में लाभ होता है।

(ख) नागरमोथा, हरड़ और सोंठ के चूर्ण को गुड़ के साथ मिलाकर गोली बनाकर मुख में रख चूसने से खाँसी श्वास में लाभ होता है।
(ग) नागरमोथा, पिप्पली, मुनक्का और बड़ी कटेरी के सुपक्व फल समान भाग लेकर चूर्ण बना असमान भाग घृत मधु के साथ चाटने से क्षयजन्य कास में लाभ होता है।

25). अरोचक

(क) नागरमोथा, चव्य, दालचीनी, इलायची और धनियां को मुख में धारण करना अरूचि को मिटाता है।
(ख) नागरमोथा और आमला के चूर्ण का कवलधारण करना भी अरोचक का शमन करने वाला है।

26). उल्टी (छर्दि)

(क) नागरमोथा और काकड़ासिंगी का चूर्ण शहद में मिलाकर चाटने से कफजन्य छर्दि का शमन होता है।
(ख) नागरमोथा, सोंठ और विडंग का चूर्ण भी शहद के साथ कफज छर्दि का शमन करने वाला है।

27). मदात्यय

नागरमोथा का क्वाथ बनाकर पिलाने से अधिक मदिरापान के कारण अधिक प्यास मिटती है। मुस्तक, जवासा और पित्तपापड़ा का षडङ्ग परिभाषा के अनुसार पानीय बनाकर पिलाना भी लाभप्रद है।

28). कब्ज (विबन्ध)

(क) नागरमोथा 6 ग्राम, सौंफ 3 ग्राम, पिपरामूल 3 ग्राम, अमलतास की गूदी 10 ग्राम इनको जौकुट कर आधा लीटर जल में पका। अष्टमांश जल शेष रह जाने पर छानकर इसमें मिश्री मिलाकर पिलावें। इससे एक दस्त साफ आ जाता है।
(ख) नागरमोथा, हरड़, कुटकी, सनाय, पीपलामूल और अमलतास का गूदा ये सब 4-4 ग्राम लेकर आधा लीटर जल में पकावें। अष्टमांश जल शेष रह जाने पर उसमें मिश्री मिलाकर पिलाने से भी विबन्ध दूर होता है। इस क्वाथ को दो-तीन बार में भी पिया जा सकता है। विबन्ध जन्य शिरःशूल, अंगमर्द, वातिक प्रातेश्याय आदि का इस क्वाथ से शमन होता है।

29). प्रमेह

(क) मुस्तक, कायक, पठानी लोध्र, बड़ी हरड़े का छिलका लेकर क्वाथ बनाकर सेवन करने से कफजन्य प्रमेह दूर होता है।
(ख) नागरमोथा, देवदारू, दारूहल्दी और त्रिफला का क्वाथ भी प्रमेह में हितकारी है।
(ग) नागरमोथा, त्रिफला और देवदारू का क्वाथ सभी प्रकार के प्रमेहों में लाभ पहुंचाता है।

30). सूजन (शोथ) रोग

नागरमोथा, जीरा, पाढ, पंचकोल, हल्दी, छोटी कटेरी का समभाग चूर्ण बनाकर कवोष्ण जल से सेवन करने पर त्रिदोषज किंवा पुराना शोथ नष्ट होता है।

31). रक्तपित्त
(क) मुस्तक, सिहोरा एवं चिरायते के कल्क का दो बूंद रस लेकर उसमें दुगना घृत मिलाकर चाटने से रक्तपित्त में लाभ होता है।
(ख) नागरमोथा, इन्द्रजौ, मुलेठी व मैनफल के बीज समभाग का क्वाथ सिद्ध कर ठंडा हो जाने पर उसमें मधु और दूध मिलाकर पीने से वमन होकर विशेषतः अधोग रक्तपित्त शामित हो जाता है।
(ग) नागरमोथा, सिंघाड़ा, मुनक्का, धान की खील, खजूर और गेरू समान भाग लेकर चूर्ण करने योग्य द्रव्यों का चूर्ण कर शेष द्रव्यों को सिल पर पीस सबको एकत्र मिला शहद के साथ चाटने से एकदोषज, द्विदोषज एवं त्रिदोषज सभी प्रकार के रक्तपित्त का शमन होकर रोगी को आराम मिलता है।

32). गर्भाशय संकोचार्थ
सद्यः (इसी समय) प्रसूता स्त्री को नागरमोथा का चूर्ण या फाण्ट बनाकर देने से गर्भाशय संकुचित होकर दूषित रक्त बाहर निकल जाता है। इससे गर्भाशय की शुद्धि हो जाती है।

33). योषापस्मार (हिस्टीरिया)
नागरमोथा 6 ग्राम, तज 6 ग्राम, बालझड 6 ग्राम इनको कूट-पीसकर
छानकर मकोय के रस में मिलाकर पीवें एवं नाभि के नीचे लेप करें, इससे वेग शान्त होता है।

34). स्तन्य विकार

(क) नागरमोथा क्वाथ से दुग्ध शोधन होता है तथा दूध बढ़ता है।
(ख) नागरमोथा, कूठ, कुटकी, पाठा और अतीस के क्वाथ में शहद मिलाकर पिलावें। यह क्वाथ दिन में दो बार पन्द्रह दिनों तक पिलाने से माता का दूध शुद्ध होता है और बालक के अनेक विकार दूर होते हैं।

35). आमवात

(क) नागरमोथा, शतावरी, गिलोय, पिप्पली, हरड़, वच और सोंठ का क्वाथ आमवात में हितकर है।
(ख) नागरमोथा और सोंठ के क्वाथ में लहसुन का स्वरस मिलाकर पिलाना आमवात में हितकारक है।

36). वातरक्त
नागरमोथा, आमला और हल्दी के क्वाथ को ठण्डा कर शहद मिला सेवन करना वातरक्त को मिटाता है। इसमें आमला के स्थान पर मुनक्का मिलाकर भी सेवन किया जा सकता है। यह योग कफयुक्त वातरक्त में हितकारी है।

37). मस्तिष्क दौर्बल्य

(क) नागरमोथा कल्क को गोदुग्ध के साथ सेवन करना चाहिये। यह अपस्मार में भी लाभप्रद है।
(ख) नागरमोथा चूर्ण और सिता चूर्ण को दूध के साथ लेना भी उक्त रोगों में हितकारी है। पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों की सामान्य दुर्बलता में भी यह प्रयोग लाभ पहुंचाने वाला है।

38). मुख की दुर्गन्ध
नागरमोथा, मुलेठी, इलायची, कूठ, देवदारू और सुगन्धवाला का समभाग चूर्ण बनाकर मुख में धारण करने से मुख की दुर्गन्ध मिटती है।

39).बालरोग

(क) नागरमोथा, काकड़ासिंगी और अतीस को बारीक पीसकर उसमें चौगुना शहद मिलाकर चटाने से बालकों का ज्वर अतिसार मिटता है। मात्रा आयु के अनुसार निर्धारित करें। यह खाँसी (कास) एवं उल्टी (छर्दि) में भी लाभप्रद है।
(ख) नागरमोथा, पिप्पली, अतीस और काकड़ासिंगी के चूर्ण को शरबत बनफ्शा (अभाव में मधु) के साथ चटाने से बालकों का उत्फुल्लिका रोग (डब्बा रोग) मिटता है।
(ग) नागरमोथा, पित्तपापड़ा, खस, सुगन्ध बाला एवं पद्माक समभाग मिश्रित 20 ग्राम जौ कुट कर रात को 125 मिलि० जल में मिट्टी के पात्र में भिगो, प्रातः छानकर दो तीन-बार पिलाने से बालकों की दाह, ज्वर और छर्दि का शमन होता है।
(घ) नागरमोथा का चूर्ण बनाकर देने से पेट के कीड़े मर जाते हैं। चूर्ण की मात्रा अधिक देना हितावह है।

40). मूत्रकृच्छू
नागरमोथा के चूर्ण की दूध की लस्सी के साथ फंक्की लेने से मूत्रकृच्छ्र मिटता है।

41). रजः कृच्छ्रता
नागरमोथा के चूर्ण में गुड़ मिलाकर सेवन करने के पश्चात् तिल का क्वाथ पीने से स्त्रियों का मासिक धर्म साफ आने लगता है।

42). खून कि कमी (पाण्डु)
नागरमोथा चूर्ण एक ग्राम, लौह भस्म 250 मि0ग्रा0 दिन में तीन बार खैरसार और द्राक्षा के क्वाथ में मधु मिलाकर सेवन करते रहने से पाण्डु, कामला, हलीमक आदि रोग दूर होते हैं।

43). भस्मक रोग
नागरमोथा, विडंग, हरड़, बहेड़ा, आंवला और अपामार्ग का चूर्ण बनाकर तीन-चार ग्राम दिन में दो बार भैंस के दूध के साथ सेवन करने से तीक्ष्णाग्नि के कारण हुआ भस्मक रोग जिसमें बार-बार भूख लगती है मिट जाता है।

44). प्लीहोदर
नागरमोथा, विडंग, त्रिफला और पंचकोल का चूर्ण बनाकर रखें। इस चूर्ण के सेवन से प्लीहावृद्धि, पाण्डुरोग, ग्रहणी, अर्श, शोथ आदि रोगों का शमन होता है।

45). क्षय
नागरमोथा, पीपल, द्राक्षा और छोटी कटेरी का फल इन सबको बराबर लेकर चूर्ण बनाकर घी
और शहद के साथ मिलाकर सेवन करना क्षय के लिए लाभप्रद है।

46). सर्दी-जुकाम (प्रतिश्याय)
नागरमोथा, वचा, पिप्पली, पिप्पलीमूल और काली मरिच का क्वाथ बनाकर सेवन करना प्रतिश्याय में हितावह है।

47). पूयमेह (सुजाक)
नागरमोथा और चन्दन का क्वाथ बनाकर उसमें मिश्री मिलाकर ठण्डा कर सुजाक के रोगी को कुछ दिन पीना चाहिए, इससे लाभ होगा।

48). मन्यास्तम्भ
नागरमोथा, एरण्ड की जड़ की छाल, रास्ना और दशमूल के द्रव्यों का क्याथ बनाकर मन्यास्तम्भ में पिलाना चाहिये।

49). विसर्प
नागरमोथा, परवल के पत्ते और नीम की छाल तीनों बरावर लेकर क्वाथ बनाकर उसमें घी मिलाकर सेवन करना सभी प्रकार के विसर्परोग में लाभदायक है।

50). कुष्ठ
नागरमोथा, त्रिफला, मंजीठ और नीम की छाल का क्वाथ सभी प्रकार के कुष्ठरोगों में हितकारी

51) मेदोरोग

नागरमोथा, विडंग, पिप्पली, चित्रक और त्रिफला के क्वाथ में मधु मिलाकर सेवन करें।

नागरमोथा से निर्मित विविध कल्प :

मुस्तकादि क्वाथ –

  1. नागरमोथा, धनियां, देवदारू, भारंगी, सोंठ, हरड़, कायफल, रोसा, वच, पित्त पापड़ा इन दस औषधियों का दशांग क्वाथ बनाकर उसमें शहद मिलाकर पीने से हिचकी, अरुचि, खांसी, तन्द्रा, वात कफ ज्वर, गलग्रह, श्वास, हृदयशूल, पार्श्वशूल, उदरशूल आदि रोग नष्ट होते –त्रिशती
  2. नागरमोथा, एरण्ड की जड़, हरड़, अरलू, देवदारू, गिलोय, रास्ना, शतावरी, कचूर, कुटकी, अडूसा, सोंठ, लघु पंचमूल, वृहत पंचमूल इनका क्वाथ गरदन तोड़ बुखार (मन्यास्तम्भ) और सन्धिग्रह की पीड़ा को दूर करता है। -त्रिशती
  3. नागरमोथा, शतावरी, ब्राह्मी, बहेड़ा, खरेंटी, नीम की छाल, जटामांसी, हरड़, मुनक्का, अमलतास, परवल के पत्ते, कुटकी, चिरायता, आंवला और दशमूल सभी द्रव्य समान लेकर क्वाथ बनाकर पीने से अत्यन्त बलवान् वायु की व्याधि के समूह तथा बढ़े हुये रुग्दाह नामक सन्निपात । का शमन होता है।-त्रिशती
  4. नागरमोथा, छोटी कटेरी, गिलोय, सोंठ और आंवला इन पांच द्रव्यों के क्वाथ में पिप्पली चूर्ण 1 ग्राम और मधु 6 ग्राम मिलाकर पान करने से विषमचर नष्ट होता है। मात्रा 50 मिलि। -शा० सं०
  5. नागरमोथा, गुरूची, मुलहठी, लालचन्दन, खस, सोंठ, जामुन की छाल, देवीपुष्प (जयापुष्प), कदम्ब की छाल, अर्जुन की छाल और पीपर इन द्रव्यों का क्वाथ बनाकर ठन्डा होने पर उसमें शहद मिलाकर लेने से भयंकर दाह से युक्त वेग वाला प्रदररोग नष्ट होता है। -क्वा० म० मा०
  6. नागरमोथा, पित्तपापड़ा, खस, देवदारू, सोंठ, आंवला, हरड़, बहेड़ा ,यवासा, नील का दाना, काबिला, निशोथ, चिरायता, पाठा, वरियरा, कुटकी, मुलहठी और पीपलामूल का क्वाथ सन्निपात ज्वर, पित्त प्रधान त्रिदोष ज्वर, मन्यास्तम्भ, उरःक्षत, पार्श्वशूल, शिरः शूल आदि को दूर करता है। यह मुस्तादिक्वाथ अष्टादशांग क्वाथ के नाम से भी जाना जाता है। -क्वा० म० मा०
  7. नागरमोथा, दशमूल, सुगन्धबाला, लालचन्दन, अमलतास की गूदी, अडूसा, पित्तपापड़ा समभाग लेकर क्वाथ बनाकर पीने से त्रिदोष ज्वर शान्त होता है। यह क्वाथ मल शोधक भी है। -भै० र०
  8. नागरमोथा, मूसाकानी, पलास बीज, विडंग, अनार वृक्ष की छाल, दोनों अजवायन, त्रिफला, देवदार, खैरसार, सहिजन के बीज, नीम की अन्तरछाल और इन्द्र जौ सब समभाग लेकर क्वाथ बनाकर पीने से सब प्रकार के आन्त्रकृमि नष्ट होते हैं। -भै० र०
  9. नागरमोथा, सौंफ, अतीष, नेत्रबाला, धाय के फूल, विल्ब और सोंठ इनका यह क्वाथ अतिसार को नष्ट करता है, दोषों की विकृति को दूर करता है। यह क्वाथ रक्तातिसार इस प्रकर मिटा देता है जिस प्रकार अगस्त्य ऋषि ने समुद्र का पान करके उसके जल को मिला दिया था। -सि0 भै० मञ्जूषा
  10. नागरमोथा, त्रिफला, हल्दी, देवदारू, मूर्वामूल, इन्द्रायणमूल, लोध को समान भाग लेकर जौकुट कर 20 ग्राम लेकर 320 मिलि0 जल में पाक कर 70 मिलि0 शेष रखकर पीना चाहिए। यह क्वाथ सब प्रकार के प्रमेह मूत्राघात एवं मूत्रकृच्छ्र में हितकारी है। -हा0 संहिता

मुस्तादि वटी –

  1. नागरमोथा 80 ग्राम तथा पिप्पली, कपूर व हींग 40-40 ग्राम इनके मिश्रित चूर्ण को कपूर के जल से घोटकर 125 या 250 मि0ग्रा0 की गोलियां बनालें। इसके प्रयोग से अतिसार, अजीर्ण, विसूचिका, अरुचि, अग्निमांद्य, संग्रहणी एवं सभी प्रकार के कास (खाँसी) नष्ट होते -भै० र०
  2. नागरमोथा, एलुवा, मुलेठी, कुठ, धनियां एवं छोटी इलायची समभाग ले महीन चूर्ण कर पानी के साथ पीसकर गोलियां बना लें। इस गोली को मुख में रखने से मुख की स्वाभाविक दुर्गन्ध भी नष्ट हो जाती है फिर मद्य, लहसुन आदि की गन्ध की तो बात ही क्या है। -गनि०
  3. नागरमोथा, हरड़, त्रिकटु तथा बायबिडंग का चूर्ण एक एक भाग और नीम पत्र दो भाग सबको गोमूत्र में पीसकर गोलियां बनाकर छाया में सुखाकर रख लें। एक-एक गोली मुख में रखकर रात्रि में शयन करें। इससे हिलते हुए दांत दृढ हो जाते हैं। हिलते हुए दांतों के लिए इससे उत्तम कोई और्षध नहीं है।-बं. से. सं.

मुस्तादि चूर्ण –

  1. नागरमोथा, सोंठ, मरिच, पीपल, हरड़, बहेड़ा, आमला, मंजीठ, दारूहरिद्रा, दशमूल, सप्त पर्ण, नीम की छाल, इन्द्रायण, चित्रक, मूर्वा सब बराबर भाग के चूर्ण को नौ भाग सत्तुओं के साथ घृत, मधु मिलाकर योजना किया गया यह सिद्ध प्रायोगिक भक्ष्य कुष्ठ नाशक है। यह पाण्डुरोग, शोथ, श्वित्र, ग्रहणीदोष, अर्श, ब्रघ्न, भगन्दर, पिडिका (पिंपल/मुंहासे), कण्डू (खुजली) तथा कोठ को भी नष्ट कर देता है। -चरकसंहिता
  2. नागरमोथा, छोटी पीपल, अतीस और काकड़ासिंगी चारों द्रव्य समान भाग लेकर उनका कपड़छन चूर्ण करके शीशी में भर लें। यह बालकों के ज्वर, अतिसार, खांसी और वमन में लाभदायक है। यह बाल चातुर्भद्र चूर्ण के नाम से जाना जाता है। 250 मि0ग्रा0 से एक ग्राम तक इसे मधु के साथ दें। -च० द०

मुस्तकारिष्ट –

नागरमोथा दस किलो जौकुट कर 52 लीटर जल में पकावें। इसमें 12 लीटर शेष रहने पर छानकर संधान पात्र में भर उसमें 15 किलो गुड़, 780 ग्राम धाय पुष्प तथा अजवायन, सोंठ, कालीमिर्च, लौंग, मेथी, चित्रक मूल व काला जीरा 70-70 ग्राम चूर्ण कर मिला एक मास तक सुरक्षित रखें। फिर छानकर शीशियों में भर लें। दस से चालीस मिलि0 की मात्रा में सेवन करने से अजीर्ण, अग्निमांद्य, हैजा और संग्रहणी दूर होती है। -भै० र०

मुस्तादिपाक –

नागरमोथा 320 ग्राम, नया धनिया, त्रिफला, भांगरा, लौंग, छोटी इलायची, तेजपात, नागकेशर, छार छरीला, त्रिकटु, दोनों जीरा, अजवायन, कायएल, सुगन्धबाला, धाय के फूल, कूठ, जावित्री, जायफल, दालचीनी, सोंफ, अजमोद, पान, हाऊबेर, बच, कपूर, जटामांसी, इन्द्र जौ और बंसलोचन 10-10 ग्राम लेकर सबका महीन चूर्ण कर सबसे दुगनी खांड की चाशनी में मिला पाक जमा दें या मोदक बनालें।
यह 5-10 ग्राम की मात्रा में लेने से अग्नि प्रदीप्त होती है। सरक्त ग्रहणी अतिसार, ज्वर, पाण्डु, हलीमक, कृमि, रक्तपित्त, अर्श आदि रोगों का नाश होता है। -वृ०पा0सं0

मुस्तादि आश्च्योतन (DROP) :

मुस्ता, हरद्रिा, मधुयष्टि, प्रियंगु, सर्षप, रोध्र, उत्पल और सारिवा आदि द्रव्यों का चूर्ण करके अन्तरिक्षोदक (वर्षाजल) अथवा इसके अभाव में उन्हीं गुणों से युक्त पानी (परिस्रुत जल) में शीत कषाय बनाकर उसका आंखों पर अश्च्योतन या सेक करना क्लिन्न वर्त्म रोग में लाभप्रद है।

मुस्तादि तैल –

  1. नागरमोथा, मुलैठी, सम्भालू, कत्था, खस, देवदारू, मंजीठ, तथा बायविडंग इन औषधियों का कल्क एक किलोग्राम, तिल तैल चार लिटर और जल 16 लिटर लेकर तैल पाक विधि से मंद अग्नि पर तैल सिद्ध करें। यह तैल दांतों में लगाने से कृमि नष्ट होते हैं।-च० द०
  2. नागरमोथा 60 ग्राम, पाठा 60 ग्राम, छार छरीला (शैलेय) 120 ग्राम, बालछड़ 120 गाम, लौंग 12 ग्राम, बड़ी इलायची 12 ग्राम, कपूर काचरी 36 ग्राम, कपूर 12 ग्राम, रत्नजोत 12 ग्राम इन सबको महीन कूटकर दो लिटर सरसों के तेल में डालकर उस तैल को 6 दिनों तक धूप में रखें फिर सातवें दिन थोड़ा सा उसको अग्नि पर जोश देकर छानकर बोतल में भर लें। यह बदन पर लगाने से सुगन्धी करेगा। -गुणों की पिटारी

संहिता मुस्ताद्य वर्ति –

नागरमोथा, दारूहल्दी, आंवला,हरड़, बहेड़ा, बड़ी इलायची, हींग, नीलदूर्वा, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, उड़द और जौ प्रत्येक समभाग में लेकर बकरे, भेड़ और सौम्य बैल के मूत्र में पीसकर बत्ती बनावें और इस बत्ती को हवा में सुखाकर रखलें। इस बत्ती को आंख में अंजन करने से अपस्मार, उन्माद के रोगी को होश आता है। घिसकर कुष्ठ पर लगाने से कुष्ठ रोग में लाभ होता है। अपस्मार, उन्माद और विषम ज्वर के आक्रमण के समय इसका नस्य लेने से भी दौरे के आने का भय नहीं रहता है।

नागरमोथा के अनुभूत प्रयोग -चरक संहिता :

कृमिहर प्रयोग-

नागरमोथा, राई, अजवाइन, भुना हुआ जीरा, काली मिर्च, बायबिडंग प्रत्येक 20-20 ग्राम, सेंधानमक 25 ग्राम सबका चूर्ण बना सुबह-शाम 4-4 ग्राम की फंकी छाछ के साथ लेने से पेट के कृमि नष्ट होते हैं। -महात्मा अचलराम (सुगम चिकित्सा)

दन्तरोगहर प्रयोग-

श्री ओमप्रकाश एडवोकेट ने मुझे बताया कि हमारे मजिस्ट्रेट महोदय की पूरी बत्तीसी दर्द करती है, सभी दांत हिलते हैं। वे अत्यन्त परेशान हैं। आप कृपया कोई ऐसी दवा बनाकर दें कि वे इस परेशानी से मुक्त हो जायें। मैंने भद्रमुस्तादि वटी (नागरमोथा, हरड़, त्रिकटु, विडंग, नीमपत्र के सूक्ष्मचूर्ण का गोमूत्र में मर्दन कर बनाई गई) बनाकर उनको दी और कहा कि एक-एक गोली रात में सोते समय मुख में धारण करावें। निरन्तर एक मास तक प्रयोग करते रहें। इससे दांत सुदृढ़ हो जायेंगे। पन्द्रह दिनों बाद ही उन्होंने बतलाया कि मजिस्ट्रेट साहब ने आपको बहुत बहुत धन्यवाद कहा है। मैं आनन्दानुभूति करता हुआ आयुर्वेद की इस महान देन से बहुत गौरवान्वित हुआ। -वैद्य पं० श्री मोतीलाल शर्मा

नागरमोथा के दुष्प्रभाव : Nagarmotha ke Nuksan in Hindi

  1. नागरमोथा लेने से पहले अपने चिकित्सक से परामर्श करें ।
  2. नागरमोथा की अधिक मात्रा सेवन करने से रक्त विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
  3. अधिक मात्रा सेवन करने से यह कंठ तथा फेफड़ों के लिए भी हानिकारक होता है अतः इसकी समुचित मात्रा का ही सेवन करना चाहिये।

दोषों को दूर करने के लिए : शर्करा, सौंफ या अनीसू देना , इसकी अधिक मात्रा के सेवन से उत्पन्न हानि का निवारण करता है।

(दवा व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार सेवन करें)

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