Last Updated on October 4, 2020 by admin
ग्रीष्म ऋतु की उष्णता से जहां प्रकृति संतप्त होती है, सभी जीव तथा मनुष्य व्याकुल होते हैं, वहीं अनेक व्याधियां भी अपने अनुकूल मौसम व परिस्थिति पाकर भयानक रूप प्रकट करती हैं। उन्हीं में से एक व्याधि है-‘रक्तपित्त’। वैसे तो रक्तपित्त कभी भी हो सकता है, परंतु ग्रीष्म ऋतु की उष्णता से दूषित पित्त की उष्णता और भी बढ़ जाती है, जिससे शिराओं में रक्त का दबाव बढ़ जाता है और शिराओं के फटने से रक्तस्राव होने लगता है। आयुर्वेदानुसार ‘दुष्ट पित्त’ से दूषित रक्त का किसी भी मार्ग से बाहर निकलता रक्तपित्त कहलाता है। रक्तपित्त में पित्त रक्त को दूषित करता है। फिर रक्त में मिल जाता है और वह मिश्रित रक्त शरीर के विभिन्न मार्गों से बाहर निकलने लगता है। आधुनिक विज्ञान में इस रोग की तुलना Haemorrhagic and Coagulation Disorders से कर सकते हैं।
क्या है रक्तपित्त रोग ? (What is Raktapitta in Hindi)
दूषित पित्त के रक्त मिलने से एवं रक्त को दूषित करने से तथा पित्त के समान गंध व वर्ण हो जाने से इस रोग को रक्तपित्त कहते हैं। शरीर से किसी भी प्रकार के निकलने वाले रक्त को रक्तपित्त नहीं कहा जा सकता है। राजयक्ष्मा (T.B.), रक्तार्श (Bleeding Piles), रक्तातिसार (Diarrohea with Blood) आदि रोगों में पायी जाने वाली रक्त बाहर आने की प्रवृत्ति रक्तपित्त के अंतर्गत नहीं आती है क्योंकि यह रक्तज रोग नहीं है। वहां पर सामान्य रक्त का स्राव किसी स्थानीय कारण से होता है, जबकि रक्तपित्त रोग में रक्त में विकृति पायी जाती है।
रक्तपित्त रोग के कारण (Raktapitta Causes in Hindi)
रक्तपित्त रोग क्यों होता है ?
आयुर्वेद में रक्तपित्त के कारणों में आहार-विहार तथा मानसिक कारण बताए गए हैं। जैसे-
- तीक्ष्ण, उष्ण, क्षार, लवण, अम्ल, कटु पदार्थों का अत्यधिक सेवन ।
- जौ, उड़द, कुलत्थ, मूली, सरसों, लहसुन, शराब आदि का अधिक प्रयोग ।
- दूध के साथ लवण एवं क्षारयुक्त शाक खाना ।
- अत्यधिक खट्टे, चटपटे, मसालेदार भोजन का अधिक सेवन ।
- अलावा अत्यधिक धूप सेवन व व्यायाम ।
- अति मैथुन ।
- मानसिक कारण जैसे – शोक, चिन्ता आदि रक्तपित्त उत्पन्न करने में अहम भूमिका निभाते हैं।
उपरोक्त सभी कारणों से पित्त प्रकुपित होता है तथा रक्त भी अपने सामान्य प्रमाण से बढ़ जाता है। यह वृद्धिगत पित्त अपनी ऊष्मा के द्वारा शरीर की अन्य धातुओं से द्रवांश को रक्त में खींचता है, जिससे रक्त का प्रमाण और भी बढ़ जाता है। तब यह पित्त रक्तवह स्रोतस विशेषतः यकृत और प्लीहा में पहुंचता है और उनके मुखों को बंद कर रक्त को दूषित करता है। परिणामस्वरूप शिराओं में रक्त का दबाव बढ़ जाता है तथा शिराओं की भित्ति फटने से रक्तस्राव होने लगता है।
रक्तपित्त रोग के लक्षण (Raktapitta Symptoms in Hindi)
रक्तपित्त रोग के क्या लक्षण होते हैं ?
रक्तपित्त के प्रमुख लक्षण में –
- दूषित रक्त का किसी भी मार्ग से निकलना पाया जाता है।
- प्रारंभ में रोगी में अंगसाद (शिथिलता) ।
- शीतल पदार्थों की इच्छा ।
- गले में धुआं-सा व्याप्त होने की प्रतीति ।
- मुख से लोहा या मछली-सी गन्ध आना ।
- शरीर या हाथ-पैरों में जलन आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं ।
जिन्हें पूर्वरूप कहते हैं । साधारणतः बिना किसी अभिघात, बाह्य अथवा शरीरान्तर्गत कारण से उत्पन्न रक्तस्राव को रक्तपित्त कहते हैं।
रक्तपित्त रोग के प्रकार (Types of Raktapitta in Hindi)
रक्त बाहर निकलने वाले मार्ग के आधार पर यह तीन प्रकार का होता है।
- उर्ध्वग रक्तपित्त,
- अधोग रक्तपित्त,
- उभयग रक्तपित्त
उर्ध्वग रक्तपित्त – उध्वर्ग रक्तपित्त में मुख, नलिका (नाक), नेत्र (आंख) और कर्ण (कान) से रक्त की प्रवृत्ति होती है।
अधोग रक्तपित्त – अधोग रक्तपित्त में गुदामार्ग, मूत्रमार्ग और योनिमार्ग से रक्त की प्रवृत्ति होती है,
उभयग रक्तपित्त – उभयग रक्तपित्त में दोनों मार्गों से रक्त की प्रवृत्ति होती है। शरीर के किसी भी भाग से यहां तक कि रोमकूपों से भी रक्त प्रवृत्ति हो सकती है।
स्रावित रक्त के गुणों के आधार पर यह वातिक, पैत्तिक, कफज, सन्निपातज तथा द्वन्द्वज 5 प्रकार का होता है।
- वातिक रक्तपित्त में रक्ताभ लाल, फेनयुक्त द्रव तथा रूक्ष रक्त निकलता है।
- पैत्तिक रक्तपित्त में कृष्ण, काला, गोमूत्र गंध वाला, अंजन के सदृश रक्त निकलता है।
- कफज रक्तपित्त में कफयुक्त सांद्र पाण्डु (सफेदी लिए पीला), स्निग्ध, पिच्छिल रक्त निकलता है।
- द्वन्द्वज रक्तपित्त में दो दोषों के मिश्रित लक्षण तथा
- त्रिदोषण या सन्निपातज रक्तपित्त में तीनों दोषों से मिश्रित लक्षण मिलते हैं।
रक्तपित्त की पहचान करने के लिए आयुर्वेद संहिताओं में बताया गया है कि निर्गत रक्त को अन्न के साथ मिश्रित समझना चाहिए। इसी तरह रक्त को श्वेत वस्तु में लगाकर सूखने के पश्चात् उसे गरम पानी में धोने पर वह साफ न हो, तो उसे रक्तपित्त का अशुद्ध रक्त समझना चाहिए ।
रक्तपित्त रोग का आयुर्वेदिक उपचार (Raktapitta Ayurvedic Treatment in Hindi)
रक्तपित्त रोग का इलाज कैसे करें ?
☛ आयुर्वेदानुसार यदि रोगी बलवान है, तो स्तम्भन (रक्त को रोकने का प्रयास) नहीं करना चाहिए क्योंकि दुष्ट रक्त के स्तम्भन से अनेक उपद्रव उत्पन्न होते हैं। लेकिन रोगी दुर्बल हो तो स्तम्भन करना चाहिए। इस दृष्टि से सापेक्ष रोग निर्णय (Differential Diagnosis) अत्यंत आवश्यक है क्योंकि रक्तपित्त में आपात अवस्था (इमरजेन्सी) को छोड़कर प्रथम स्तम्भक औषधि न देकर, संशोधन अर्थात् प्रकुपित दोषों को बाहर निकाला जाता है, जबकि अत्यधिक रक्तस्राव में प्रारंभ में ही स्तंभन चिकित्सा की जाती है।
☛ संशोधन चिकित्सा सबल रोगी में हितकर तथा दुर्बल रोगी में निषिद्ध मानी गयी है। रक्तपित्त में ‘प्रतिमार्ग च हरणं’ चिकित्सा बनाई गई है। उर्ध्वग रक्तपित्त में विरेचन तथा अधोग रक्तपित्त में वमन अर्थात् विपरीत मार्ग द्वारा संशोधन करना चाहिए। रक्तपित्त प्रकृति मार्ग से ही संशोधन कराने से रक्तस्राव की प्रवृत्ति बढ़ सकती है, अतः प्रतिमार्ग से संशोधन करना चाहिए।
☛ उर्ध्वग रक्तपित्त में आरग्वध, आमलकी, त्रिवृत, हरीतकी से विरेचन तथा अधोग रक्तपित्त में मुस्तक, इन्द्रयव, मधुयष्टी, मदनफल से वमन कराना चाहिए।
☛ यदि रोगी दुर्बल हो, रक्तक्षय अधिक हो गया हो तो संशमन या औषधि चिकित्सा ही करनी चाहिए। इसमें वासा स्वरस, वासाक्वाथ, शमाघृत, पंचमूल घृत आदि का प्रयोग करना चाहिए।
स्वर्णगैरिक, लौध्र, शंखभस्म, नागकेशर, मोचरस, चंदन, खदिर, अर्जुन की छाल का प्रयोग करना चाहिए।
☛ गुदा में प्रवृत्त रक्तपित्त में शतावरी तथा अधोगत रक्तपित्त में मोचरस का प्रयोग करना चाहिए।
☛ नासागत रक्तपित्त (नाक में खून निकलना) में तुरंत स्तंभन न करें। जब दोष निकल जाए तब रक्तस्राव को रोकने के लिए द्राक्षारस, इक्षुप्त तथा दूर्वा स्वरस का प्रयोग करना चाहिए।
रक्तपित्त रोग की आयुर्वेदिक दवा (Raktapitta Ayurvedic Medicine in Hindi)
आयुर्वेदिक औषधियों में चन्द्रकला रस, बोल बद्ध रस, बोल पर्पटी, वासाघृत, वासावलेह, प्रवाल पंचामृतरस, प्रवाल पिष्टी, आमलकी रसायन, नागकेशर चूर्ण, कामदुधा रस, शतावरी घृत, चन्दनादि चूर्ण आदि लाभदायक हैं।
लेकिन उपरोक्त संशोधन एवं संशमन चिकित्सा योग्य आयुर्वेदिक चिकित्सक की देखरेख में ही होनी चाहिए।
(अस्वीकरण : दवा व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार सेवन करें)
दूध के साथ सुबह-शाम 1-1 चम्मच लिया जा सकता है ~ हरिओम
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