Last Updated on July 22, 2019 by admin
उरूस्तम्भ रोग क्या है ? : Thigh Numbness in Hindi
उरु शब्द संस्कृत है। हिंदी में उरु का अर्थ ‘जाँघ’ है। स्तम्भ भी संस्कृत शब्द है। स्तम्भ का अर्थ है-रुकना, अचल होना, बेहरकत होना, ज्ञानहीन होना, सूना होना इत्यादि। इन दोनों शब्दों के अर्थ से साफ जान पड़ता है कि जिस रोग में मनुष्य की जाँघ अचल, निर्जीव, सुन्न और ज्ञानहीन हो जाती है, उसे ही ‘उरुस्तम्भ’ कहते हैं।
उरूस्तम्भ रोग के कारण :
शीतल, गरम, सूखे, भारी, पतले और चिकने पदार्थ खाने से, दिन में सोने, रात में जागने, बहुत मिहनत करने, चित्त के क्षोभ, भय और अजीर्ण से ‘उरुस्तम्भ’ रोग होता है, यानी जो नासमझ लोग ऊपर लिखे काम करते हैं, उन्हें उरुस्तम्भ या जाँघों के रह जाने का रोग होता है।
सम्प्राप्ति-
ऊपर लिखे हुए कारणों से कफ, मेद और वायु दूषित हो जाते हैं। फिर वे आम से मिल कर, पित्त को अपने अधीन करते और जाँघों में घुस जाते हैं। जाँघों में घुस कर, वे जाँघों की हड्डियों को गीले कफ से भर देते हैं; तब दोनों जाँघे ठण्डी, निर्जीव और स्तब्ध या अचल हो जाती हैं, इस तरह ‘उरुस्तम्भ’ रोग की उत्पत्ति होती है।
पूर्वरूप-
उरुस्तम्भ-रोग होने से पहले अत्यन्त नींद, अत्यन्त ध्यान, क्रियाहीनता, ज्वर, रोएँ खड़े होना, अरुचि, वमन और पिंडलियों तथा जाँघों में दर्द-ये उपद्रव होते हैं।
उरूस्तम्भ रोग के लक्षण :
उरुस्तम्भ-रोग में दोनों जाँचें अकड़ जाती हैं, सूनी और अत्यन्त भारी हो जाती हैं। उस समय, वे रोगी को दूसरे की-सी मालूम होती हैं। इस रोग में मूढ़ता, अंगों का टूटना, तन्द्रा, वमन, अरुचि, ज्वर, पाँवों की ग्लानि, पाँवों की मन्दता और जड़ता-ये लक्षण भी देखने में आते हैं। हिलने, चलने, बैठने में उसे बड़ी तकलीफ़ होती है। इस रोग को उरुस्तम्भ कहते हैं। कोई-कोई इसे ‘आढ्यवात’ भी कहते हैं। सुश्रुत ने इस रोग को महा व्याधियों में लिखा है।
उरुस्तम्भ के स्पष्ट रूप-
भावप्रकाश’ में लिखा है, पाँवों के सोने और उनके अचेतन एवं क्रियारहित होने से मनुष्य प्रायः समझता है कि मुझे ‘वात-रोग’ हुआ है।
‘वात-रोग’ समझ कर, वह वात-रोगों की तरह वात-नाशक तैल वगैरः की मालिश करता या कराता है; लेकिन इन उपायों से लाभ के बदले हानि होती है; यानी वातनाशक तैल वगैर लगाने से पीड़ा दूनी हो जाती है।
इस रोग में पैरों में दर्द होता है। वे पत्थर और लकड़ी की तरह जड़ या निर्जीव हो जाते हैं। पैरों के उठाने और धरने में घोर वेदना होती है। पैरों की पिंडलियों और जाँघों में ग्लानि होती है। चलने-फिरने की सामर्थ्य नहीं रहती। किसी कदर जलन के साथ जोर से पीड़ा होती है। पैरों को उठाने और फैलाने के समय विशेष पीड़ा होती है। शीतल पदार्थों का स्पर्श मालूम नहीं होता, यानी जाँघों पर बर्फ आदि रखने से ठण्डापन मालूम नहीं होता । रोगी बैठने और उन्हें दबाने या हिलाने-चलाने में असमर्थ हो जाता है। रोगी को पैर और जाँघ टूटे हुए-से मालूम होते हैं। उसके पाँव दूसरों के उठाने से उठते हैं।
‘सुश्रुत’ में लिखा है-कफ और मेद से मिली हुई वायु जब जाँघों में पहुँचती है, तब अंग टूटते हैं-अँगड़ाइयाँ आती हैं, शरीर शिथिल हो जाता है, रोएँ खड़े हो जाते हैं, दर्द होता और ज्वर चढ़ता है। इन उपद्रवों के सिवा दोनों जाँघे नींद में सोई हुई-सी. अकड़ी हुई, चेतना-रहित, निर्जीव, भारी और नर्म हो जाती हैं। उनकी स्पर्श-ज्ञान-शक्ति नष्ट हो जाती है-वे सूनी हो जाती हैं, इसलिये रोगी को यह नहीं मालूम होता कि ये मेरी अपनी जाँघे हैं; अर्थात् वह अपनी जाँघों को पराई-सी समझने लगता है।
खुलासा यह है कि उरुस्तम्भ-रोग होने से, मनुष्य की जाँघे, स्तब्ध, शीतल, अचेतन, निर्जीव, भार से दबी हुई-सी हो जाती हैं। उनमें बड़ा दर्द होता है। रोगी को जाँघों का उठाना या चलना-फिरना कठिन हो जाता है। पैर अवसन्न हो जाते हैं और स्पर्श-शक्ति नहीं रहती। ‘उरुस्तम्भ’ के ये ही मुख्य लक्षण हैं। अत्यन्त चिन्ता, तन्द्रा और वमन आदि तो लवाजमे हैं।
अरिष्ठ लक्षण-
जिस उरुस्तम्भ-रोग में दाह, पीड़ा, सूई चुभोने का-सा दर्द हो और रोगी काँपता हो, वह उरुस्तम्भ रोगी को मार देता है। अगर दाह आदि उपद्रव न हों और रोग तत्काल का पैदा हुआ हो, तो आराम हो सकता है। ज्यों-ज्यों रोग पुराना होता है, त्यों-त्यों वह कष्टसाध्य होता है।
चिकित्सक के याद रखने योग्य बातें :
उरुस्तम्भ रोग में तेल वगैरः लगाना, खून निकालना, फ़स्द खोलना, वमन कराना, वस्तिकर्म कराना-गुदा में पिचकारी लगाना और जुलाब देना-ये सब काम हानिकारक हैं, क्योंकि इन सबसे यह रोग बढ़ता है।
उरुस्तम्भ में वही क्रिया करनी चाहिये, जिससे कफ शान्त हो और वायु कुपित न हो। इसमें सारी रूखी क्रियाएँ करनी चाहियें; तथापि पहले कफ-नाशक और फिर वात-नाशक उपाय करने चाहिए। अगर रूखी क्रिया करने से नींद का नाश हो जाय और पीड़ा-सहित वायु का कोप हो, तो स्नेहन और स्वेदन क्रिया करनी चाहिये। शरीर के बल और अग्नि की रक्षा करके, जिस उपाय से कफ सूख कर ‘उरुस्तम्भ’ नष्ट हो, वही चिकित्सा करनी चाहिये। क्षार और मूत्र मिले हुए पदार्थों से स्वेदन करना चाहिये और रूखे पदार्थ जाँघों पर मलने चाहिये।
खुलासा यों समझिये कि उरुस्तम्भ-रोग, कफ, आमवात और मेद की अधिकता से होता है; अतः उसमें कफ, आमवात और मेद-नाशक उपाय करने चाहियें; अथवा रूखे पदार्थ इस्तेमाल करने चाहिये। अगर रूखे उपायों से नींद आना बन्द हो जाय, तो समझना चाहिये कि वायु का कोप हुआ। उस दशा में, स्नेह और स्वेद यानी तेल वगैरः की मालिश कराके और पसीने दिला कर वायु को अनुकूल करना चाहिये। इस रोग में विद्वान वैद्य को आँखें बन्द करके एकमात्र रूखी क्रिया ही न करनी चाहिये। समय पर वात-नाशक क्रियाएँ भी करनी चाहियें। समय-समय पर, सहने योग्य मिहनत भी करानी चाहिये। रोगी को शीतल जल की नदी में तैराना चाहिये; निर्मल जल के थाह वाले सरोवर में डुबकी लगवानी चाहिये, पुष्ट और उन्नत स्तनों वाली प्रौढ़ा स्त्रियों का शक्ति-पूर्वक संशीलन कराना चाहिए एवं सुन्दर-सुन्दर स्थानों में उसे घुमाना चाहिये। इस तरह मिहनत और उपचार करने से, कफ और मेद के नष्ट होने पर स्नेह आदि का उपचार करना चाहिये; यानी वात-नाशक तैल वगैरः लगवाने चाहिये।
उरुस्तम्भ-रोग में रूखे पदार्थ, पसीने निकालना, लंघन, पुराने चावल, सामक, कोदों, ल्हिसौड़े, मूंग, मूली, बैंगन, बथुआ, मूली के पत्ते और बिना नमक का हितकारी साग-ये सब पथ्य हैं।
उरुस्तम्भ-रोग में भल्लातक आदि काढ़ा, अष्टकवर तैल, कुष्ठाद्य तैल और महासैंधवादि तैल प्रभृति श्रेष्ठ हैं। नदी के शीतल जल या तालाब के जल में तैरना और सूरज की धूप से तपी हुई गरम बालू में दौड़ना भी हितकारी है।
उरुस्तम्भ रोग का इलाज / नुस्खे :
(१) असगन्ध, आक की जड़ और नीम की जड़ को ‘गोमूत्र’ में पीस कर, जाँघों पर लेप करने से उरुस्तम्भ-रोग जाता रहता है।
(२) दन्ती, मूसाकानी, रास्ना और सरसों को ‘गोमूत्र’ में पीस कर जाँघों पर लेप करने से उरुस्तम्भ-रोग जाता रहता है।
(३) जयन्ती, रास्ना, सहँजने की छाल, बच, कुड़ा और नीम की छाल–इनको ‘गोमूत्र’ में पीस कर जाँघों पर लेप करने से उरुस्तम्भ-रोग आराम हो जाता है।
(४) सरसों को शहद में पीस कर और गरम करके जाँघों पर लेप करने से उरुस्तम्भ-रोग आराम हो जाता है।
(५) सरसों के चूर्ण को धतूरे के पत्तों के रस में पीस कर और गरम करके जाँघ पर लेप करने से उरुस्तम्भ-रोग आराम हो जाता है।
(६) काले धतूरे की जड़, पोस्ते के डोडे, लहसन, कालीमिर्च, काला जीरा, जयन्ती के पत्ते, सहँजने की छाल और सरसों-ये सब चीजें ‘गोमूत्र’ में पीस कर और गरम करके लेप करने से उरुस्तम्भ-रोग आराम हो जाता है।
(७) पीपरामूल, भिलावा और पीपरों का काढ़ा ‘शहद’ में मिला कर पीने से, अथवा इन तीनों को पानी के साथ सिल पर पीस कर और शहद मिला कर चाटने से उरुस्तम्भ-रोग आराम हो जाता है। परीक्षित है।
(८) त्रिफला, पीपर, मोथा, चव्य और कुटकी-इनका ३ माशे चूर्ण ६ माशे शहद में मिला कर चाटने से उरुस्तम्भ रोग आराम हो जाता है।
(९) हरड़, बहेड़ा, आमला और कुटकी-इनका ३ माशे चूर्ण ६ माशे ‘शहद’ मिला कर चाटने से उरुस्तम्भ-रोग नष्ट हो जाता है।
(१०) चीता, इन्द्रजौ, पाढ़, अतीस, कुटकी और हरड़-इनको बराबर-बराबर ले कर, पीस-छान कर चूर्ण बना लो। इसका नाम ‘षड्धरण योग’ है। इसमें से चार या छह माशे चूर्ण, सुहाते-सुहाते गरम जल के साथ खाने से उरुस्तम्भ और वात के समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। इसके खाने से भूख बढ़ती है और दो-तीन दस्त रोज होते हैं। परीक्षित है।
(११) जिस तरफ से नदी की धारा आती हो, उस तरफ को, नदी के जल में एक या दो मील चलने से उरुस्तम्भ-रोग नष्ट हो जाता है।
(१२) करंज, त्रिफला और सरसों-इनको गोमूत्र में पीस कर गाढ़ा-गाढ़ा लेप करने से उरुस्तम्भ-रोग आराम हो जाता है।
(१३) सर्प की बाँबी की मिट्टी, नीम के पत्ते और सरसों-इन तीनों को महीन पीस कर और शहद’ में मिला कर, आग पर निवाया करके, गाढ़ा-गाढ़ा लेप करने से उरुस्तम्भ-रोग आराम हो जाता है। परीक्षित है।
(१४) सुश्रुत ने गूगल की बड़ी तारीफ़ की है। उनका कहना है कि, सवेरे ही शुद्ध गूगल-‘त्रिफला, दारुहल्दी, परवल और कुशा को पानी में घोल कर पीने से अथवा ‘गो-मूत्र या गरम जल’ के साथ लगातार एक महीने तक पीने से गोला, प्रमेह, उदावर्त्त, उदर रोग, भगन्दर, कृमि, खाज, अरुचि, सफ़ेद कोढ़, अर्बुद या रसौली, गाँठे, नाड़ी-रोग, आढ्यवात या उरुस्तम्भ, सूजन, कोढ़, बिगड़े हुए घाव, कोठे की वायु, सन्धियों की वायु और हड़ियों की वायु-ये सब इस तरह नष्ट होते हैं, जिस तरह इन्द्र के वज्र से वृक्ष नष्ट होता है।
इसकी मात्रा १ से ३ माशे तक है।
नोट-गूगल शोध कर सेवन करना चाहिये।
(१५) वातरोग चिकित्सा में लिखा हुआ ‘योगराज गुगल’ सेवन करने से भी उरुस्तम्भ-रोग नष्ट हो जाता है। जब अकेले शुद्ध गुगल से उरुस्तम्भ नष्ट होने की बात ‘सुश्रुत’ में लिखी है, तब इस योगराज गूगल से नष्ट होने में क्या सन्देह है?
नोट-नया गूगल बृहण अर्थात् शरीर की धातु वगैर: को बढ़ाने वाला और पुराना अति कर्षण, यानी धातुओं को सुखाने वाला और मनुष्य को दुबला करने वाला होता है। यह तीक्ष्ण और गरम होने के कारण, कफ़ और वायु को शान्त करता है। सर होने से मल और पित्त का नाश करता है। सुगन्धित होने से कोठे की बदबू नष्ट करता है। सूक्ष्म होने से जठराग्नि को दीपन करता है। हमारी राय में उरुस्तम्भ-रोगी को पहले ‘पुराना गूगल’ ही सेवन कराना चाहिये; क्योंकि पहले कफ़ और मेद घटाने की जरूरत रहती है। सुश्रुत ने कहा है, जब बिना घी के मांस-रस और अलोने सागों के साथ पुराने शालि चावल एवं पुराना सामक अनाज आदि खिलाने से कफ़ और मेद क्षीण हो जायँ, तब स्नेह आदि कर्म कराये; यानी घी, तेल आदि पिलायें और उनकी मालिश करायें।
(१६) पीछे लिखे हुए ‘सैंधवादि तेल’ के मलने और ‘वातगज-केशरी अर्क’ के पीने से उरुस्तम्भ-रोग निश्चय ही नष्ट हो जाता है। जो वातरोग और उरुस्तम्भ रोग किसी भी दवा के लगाने और खाने से आराम नहीं होते, वे इन दोनों से आराम हो जाते हैं। दोनों दवाएँ हज़ारों बार की परीक्षित हैं।
(१७) उरुस्तम्भ-रोगी को, नदी-किनारे की सूरज की धूप से तपती हुई बालू में बड़े जोर से दौड़ाने से उरुस्तम्भ-रोग अवश्य आराम हो जाता है।
(१८) रास्ना, सारिवा, हरड़, कालीमिर्च, सोया-सौंफ, हल्दी, बायबिडंग, कचूर, असगन्ध, जवासा, गिलोय, अजमोद, वनतुलसी, अतीस, विधारा, कटेरी, कटाई, सोंठ, कुटकी, अजवायन, कटसरैया, चव्य, अरण्ड की जड़, दारुहल्दी और साल-इन २५ दवाओं को कुल दो या तीन तोले ले कर, डेढ़ पाव पानी में काढ़ा बना लो। जब छटाँक या डेढ़ छटाँक पानी रह जाय, मल-छान कर रोगी को पिला दो। इसका नाम ‘रास्नादि क्वाथ’ है। इसके सेवन करने से उरुस्तम्भ, आमवात, कफ के रोग, वात के रोग और दण्डकाक्षेप-रोग तत्काल नष्ट हो जाते हैं।
(१९) शहद या गुड़ के साथ ‘वर्द्धमान पीपल’ सेवन करने से उरुस्तम्भ-रोग नष्ट हो जाता है।
(२०) गो-मूत्र के साथ अथवा दशमूल के रस के साथ शिलाजीत’, गूगल, छोटी पीपर और सोंठ पीने से उरुस्तम्भ-रोग की पीड़ा नष्ट हो जाती है।
(२१) अगर उरुस्तम्भ-रोग में कफ की अधिकता हो, तो सौरेश्वर घृत अथवा वैश्वानर चूर्ण अथवा शुण्ठी घृत और सैंधवाद्य तैल अथवा अमृता गूगल देना हितकारी
(२२) अकेली आक की जड़ गोमूत्र में पीस कर लेप करने से उरुस्तम्भ नष्ट हो जाता है। परीक्षित है।
(२३) असगन्ध और देवदारु को ‘गोमूत्र’ में पीस कर लेप करने से उरुस्तम्भ जाता रहता है। परीक्षित है।
(२४) क्षार मिले हुए गोमूत्र का तरड़ा उरुस्तम्भ पर देने से लाभ होता है। परीक्षित है।
(२५) निर्गुण्डी के पत्तों का काढ़ा, ‘पीपरों का चूर्ण’ डाल कर पीने से उरुस्तम्भ रोग आराम हो जाता है। परीक्षित है।
नोट-याद रखो, कफ-नाशक दवाएँ उरुस्तम्भ का नाश करती हैं।
(२६) शुद्ध गूगल और हरड़ खा कर, ऊपर से गोमूत्र पीने से उरुस्तम्भ आराम हो जाता है। परीक्षित है। ‘वैद्यजीवन’ में लिखा है
पुनर्नवानागरदारुपथ्या भल्लातकच्छिन्नरुहाकषायः।
दशांधिमिश्रः परिपेय उरुस्तम्भेऽथवा मूत्रपुरप्रयोगः॥
नोट-पुनर्नवा, साँठी, सोंठ, देवदारु, हरड़, भिलावे, गिलोय और दशमूल का काढ़ा पीने से अथवा शुद्ध गूगल खा कर गोमूत्र पीने से उरुस्तम्भ-रोग नष्ट हो जाता है। इस ‘पुनर्नवादि योग’ की भावप्रकाश में और ‘चक्रदत्त’ आदि अनेक ग्रन्थों में प्रशंसा लिखी है। ‘गूगल’ सेवन करने की राय सुश्रुत ने भी जोर से दी है।
(२७) त्रिकुटा, चीते की छाल, नागरमोथा, त्रिफला और बायबिडंग एक-एक तोला और इन सब के बराबर ५ तोले ‘शुद्ध गूगल’ ले लो। सबको कूट-पीस और मिला कर रख लो। इसमें से १ से ६ माशे तक चूर्ण नित्य खाने से कफ, मेद और आमवात से पैदा हुआ उरुस्तम्भ आदि सभी रोग नष्ट हो जाते हैं।
नोट-उरुस्तम्भ-रोग में, कफ, आमवात और मेद-ये तीनों ज्यादा रहते हैं; अत: इनको नष्ट करने वाले उपचारों से ही यह रोग आराम होता है।
उरूस्तम्भ रोग की आयुर्वेदिक दवा :
० कुष्ठाद्य तैल ०
कड़वा कूट, लोबान, सुगन्धबाला, सरल धूप, देवदारु, नागकेशर, वनतुलसी और असगन्ध-इनके कल्क से पकाया हुआ सरसों का तेल, शहद के साथ यथा मात्रानुसार पीने से उरुस्तम्भ-रोग नष्ट हो जाता है।
बनाने की विधि-ऊपर लिखी हुई हरेक दवा आध-आध पाव लेकर, पानी के साथ सिल पर पीस लो। फिर चार सेर सरसों का तेल और सोलह सेर पानी तथा ऊपर की लुगदी मिला कर कड़ाही में औटाओ। जब पानी जल कर तेल मात्र रह जाय, उतार कर छान लो और बोतलों में रख दो। इस तेल की एक-एक मात्रा शहद में मिला कर पीने से उरुस्तम्भ-रोग नष्ट हो जाता है।
० अष्टकवर तैल ०
पीपरामूल ८ तोले और सोंठ ८ तोले ले कर, सिल पर पीस कर लुगदी बना लो। फिर मलाईदार खट्टे दही की छाछ ६४ तोले, दही ६४ तोले और सरसों का तेल ६४ तोले-इन सबको कड़ाही में डाल कर पकाओ। जब तेल-मात्र रह जाय, उतार कर छान लो। इस तेल की मालिश करने से उरुस्तम्भ और गृध्रसी-रोग आराम हो जाते हैं।
उरुस्तम्भ रोग में पथ्यापथ्य :
उरुस्तम्भ में क्या खाना चाहिये / पथ्य –
• दिन में पुराने बासमती चावल का भात, मसूर, मूंग, चने की दाल, कुल्थी, परवल, गूलर, करेला, बैंगन, अदरख, लहसन वगैरः की तरकारी,बर्दाश्त हो तो थोड़ा घी और माठा।
• रात को रोटी या पूरी तथा ऊपर लिखी सब तरकारियाँ, सूजी-घी-चीनी का हलवा, मिठाई, जलपान के लिए खजूर, किशमिश, छुहारा आदि कफ-नाशक और वात-विरोधी पदार्थ दो।
• गरम पानी औटा कर और हाँड़ी में शीतल करके दो। स्नान न करना ही अच्छा है। बहुत ही ज़रूरत हो, तो गरम जल से नहाओ।
• अगर वायु कोप ज्यादा हो, तो नदी में तैरना और धारा की ओर तैर कर चलना तथा ऐसे आहार-विहार, जो कफ-नाशक हों, परन्तु वात को कुपित करने वाले न हों, उरुस्तम्भ में हितकारी हैं।
• सब तरह के बफारे, कोदों, लाल चावल, जौ, कुल्थी, सहँजना, करेला, परवल, लहसन, चौपतिया मकोय, बेंत की कोंपल, नीम के पत्ते, बथुआ, बैंगन, अमलताश के पत्तों का साग, गरम जल, तिल के पदार्थ, अरिष्ट, शहद, कड़वे-चरपरे-कषैले रस, क्षार, गो-मूत्र, ताक़त भर कसरत, कुश्ती, बैठक, साफ़ जल के तालाब में तैरना-ये सब मुफीद या पथ्य हैं।
उरुस्तम्भ क्या नहीं खाना चाहिये / अपथ्य –
• भारी, शीतल, पतले, चिकने, स्वभाव-विरुद्ध, अपने को माफ़िक न आने वाले पदार्थ नुक़सानमन्द होते हैं।
• जुलाब, स्नेहन, वमन, फ़स्द, वस्तिकर्म-ये सब हितकारी नहीं हैं।
• ज्यादा देर से पचने वाले, कफ बढ़ाने वाले, मछली, उड़द, गुड़, दही, पिट्टी के पदार्थ, बहुत खाना और मल-मूत्र के वेग रोगना, दिन में सोना, रात में जागना और ओस में सोना या फिरना उरुस्तम्भ में अपथ्य हैं।
नोट :- ऊपर बताये गए उपाय और नुस्खे आपकी जानकारी के लिए है। कोई भी उपाय और दवा प्रयोग करने से पहले आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह जरुर ले और उपचार का तरीका विस्तार में जाने।