अत्यंत कष्टप्रद व्याधि जलोदर (पेट में पानी भर जाना)- Ascites ka Ayurvedic Ilaj in Hindi

Last Updated on September 10, 2020 by admin

पेट में आवश्यकता से अधिक पानी संगृहीत हो जाने के कारण उत्पन्न रोग ‘जलोदर’ महिला-पुरुषों के अलावा बच्चों को भी हो सकता है। आयुर्वेद में इस विकार की सम्प्राप्ति, निदान, लक्षणों एवं उपचार संबंधी शोध सैकड़ों वर्ष पूर्व ही कर लिए गए थे, जो वर्तमान में भी उतने ही प्रासंगिक हैं। आधुनिक चिकित्साशास्त्र ने भी इस दिशा में महत्वपूर्ण अनुसंधान कर, इस रोग के उन्मूलनार्थ महती भूमिका निभाई है। जलोदर का रोगी उठने-बैठने, चलने आदि में कष्ट होने के फलस्वरूप पर्याप्त शारीरिक श्रम करने में असमर्थ होता है। परिणामस्वरूप उसे कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अतः रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही योग्य चिकित्सक के मार्गदर्शन में पूरी गंभीरता के साथ उपचार कराना आवश्यक है।

आयुर्वेद मतानुसार क्या होता है जलोदर रोग (What is Ascites Disease in Hindi)

pet me pani bharna (Jalodar) rog kya hai –

आयुर्वेद के आचार्य महर्षि अग्निवेश के अनुसार प्रकृति विरुद्ध आहार सेवन करने से अग्नि मंद पड़ जाने और आहार के पूरी तरह नहीं पचने के कारण दोषों का संचय होने से प्राण, अग्नि और अपान वायु विकृत होकर उदर में विकृति उत्पन्न करते हैं। ऐसी स्थिति में त्वचा एवं मांस के मध्य दोष पहुंचकर कुक्षि की वृद्धि (शोथ) करके उदर रोगों की उत्पत्ति करते हैं। इस स्थिति में उदरावरण गुहा (Peritoneal Cavity) के जल संचय से जलोदर रोग का उद्भव होता है।

उदरावरणकला (Peritoneum) में लंबे समय तक सूजन रहे या उसकी रक्तवाहिनियों में रक्त का संचय अधिकाधिक होता जाए तो उनको ऑक्सीजन के यथावत् मात्रा में न मिलने अर्थात् (Anoxia) से इसकी दीवारों की प्राणशक्ति कम हो जाने से उनकी परिस्रवणशीलता (Permeability) बढ़ जाती है। यकृत के कोषाणुओं (Cells) के विकृत होने से रक्त के सीरम में अल्ब्युमिन की मात्रा घट जाती है, जिससे रक्त में अवयवों से जल भाग को खींच लेने की शक्ति भी घट जाती है। इसी कारण जलोदर में प्रोटीन की कमी को पूरा करने के लिए दूध देने का विधान आयुर्वेद में है।

सुश्रुत ने कहा है कि वायु से प्रेरित हुआ जल रक्त में से बाहर आकर कोष्ठ गुहा में भरने लगता है अर्थात् रक्तवाहिनियों की निर्बलता तथा रक्त के अंदर कमी होने से उसमें से जल भाग बाहर आता है। वात प्रधान होने पर भी अन्य उदर रोगों के समान जलोदर रोग भी त्रिदोषज होता है। प्रथम आयु में होने वाला क्षयज जलोदर, मध्यम आयु में होने वाला यकृद्रोगजनित जलोदर तथा बड़ी आयु में होने वाला कैंसरजनित जलोदर सभी त्रिदोष प्रकोप के कारण होते हैं, तथापि इनमें वायु और कफ की वृद्धि विशेष रहती है।

जलोदर रोग की उत्पत्ति के विभिन्न कारण (What Causes Ascites in Hindi)

pet me pani bharne (Jalodar) ke karan kya hai –

  1. आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार जब कोई व्यक्ति पाचनक्रिया के क्षीण होने अर्थात् मंदाग्नि की स्थिति में अधिक शीतल व उष्ण, गुरु (देर से पचने वाला) आहार ग्रहण करता है तो वह जलोदर रोग से पीड़ित हो जाता है।
  2. आहार में अधिक घी,तेल, मक्खन से निर्मित वसायुक्त व्यंजनों का अधिक सेवन करने और उसकी पाचनक्रिया सम्पन्न नहीं होने पर जलोदर रोग की उत्पत्ति होती है।
  3. आयुर्वेदानुसार पंचकर्म के स्नेहपान, अनुवासन, वमन, विरेचन क्रिया या निरूहण बस्ति के बाद तुरंत शीतल जल का सेवन करने से उसके जलवाही स्रोतों को हानि पहुंचती है। ऐसे में जलवाही स्रोतों में अवरोध के कारण जलोदर रोग की विकृति होती है।
  4. दूषित व बासी, प्रकृति विरुद्ध खाद्य पदार्थों का सेवन, रात्रि में देर तक जागने पर नींद पूरी नहीं होना, मांस-मछली का अधिक सेवन आदि पाचनक्रिया को विकृत करके जलोदर रोग की उत्पत्ति करते हैं।
  5. शराब पीने वाले व्यक्ति जलोदर रोग से अधिक पीड़ित होते हैं। मादक द्रव्यों से मस्तिष्क व पाचन तंत्र को बहुत हानि पहुंचती है। मादक द्रव्यों (शराब) की अधिकता के कारण लिवर को सबसे अधिक क्षति पहुंचती है। इन द्रव्यों के विषैले, उत्तेजक तत्व लिवर में सूजन उत्पन्न करते हैं। इस कारण लिवर की शिराओं में रक्त एकत्र होने लगता है। लिवर की शिराओं से बूंद-बूंद टपककर (रिसकर) जलीय अंश उदर में एकत्र होने लगता है। अधिक मात्रा में जल अंश के एकत्र होने से जलोदर रोग उत्पन्न होता है।
  6. विभिन्न संक्रामक रोगों के कारण भी यकृत के भीतर स्रोत्रिक तंतुओं की अधिक वृद्धि होने पर जब आमाशय और आंतों आदि से प्रेषित रक्त लिवर में नहीं पहुंच पाता है, वह लौटने के मार्ग में अवरोध होने पर प्रतिहारिणी शिरा के समीप एकत्र होता है और फिर शिराओं की दीवारों से रिसकर जल अंश उदर में जलोदर रोग के रूप में विकृति करता है।
  7. आंतों की श्लैष्मिक कला में उत्पन्न रोग, प्लीहा वृद्धि, फुफ्फुस के कारण भी जलोदर रोग हो सकता है।
  8. आधुनिक चिकित्सक कैंसर के कारण भी जलोदर रोग की उत्पत्ति मानते हैं।
  9. मूत्र संस्थान में विकृति होने पर गुर्दो को बहुत हानि होती है। ऐसी स्थिति में शिराओं में रक्त भार कम हो जाता है और उनकी कार्यक्षमता क्षीण होने लगती है। इस कारण त्वचा की निचली सतह में जल एकत्र होने लगता है। इस तरह जलोदर रोग की उत्पत्ति होती है।
  10. प्रतिहारिणी शिरा में अवरोध होने से रक्त का दबाव बढ़ने लगता है तो अर्श रोग (बवासीर) के साथ जलोदर रोग की भी विकृति होने लगती है। क्षयरोग के कारण उदरावरण में शोथ होने पर रक्तवाहिनियों की दीवारों से जलीय अंश का क्षरण होने के कारण जलोदर की विकृति होती है।
  11. प्लीहोदर रोग में प्लीहा व यकृत की वृद्धि होने के कारण भी जलोदर रोग की उत्पत्ति होती है।
  12. हृदय रोगों के कारण जब हृदय रक्त को पूरी तरह अपनी ओर नहीं खींच पाता है, तो ऐसी स्थिति में शिराओं पर रक्तभार बढ़ने लगता है और जलीय अंश उदर कलाओं और पांवों में एकत्र होने के साथ शोथ (सूजन) व जलोदर की उत्पत्ति करता है।

जलोदर रोग (पेट में पानी भर जाना) के लक्षण (What are the Symptoms of Ascites in Hindi)

pet mein pani bharne (Jalodar) ke lakshan kya hote hain –

  • जलोदर रोग में उदर में जल एकत्र होने से वह फूल जाता है अर्थात् उसका आकार बढ़ जाता है। जब जलोदर रोग की उत्पत्ति होती है, तो धीरे-धीरे जल एकत्र होने से उदर में वृद्धि होने लगती है। कुछ ही सप्ताह में उदर कुंभ (घड़े) की तरह दिखाई देने लगता है। ऐसे में उदर को थपथपाने पर जल की गड़गड़ की ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है। रोगी के चलने-फिरने पर जल के इधर-उधर होने की अनुभूति होती है।
  • वृक्क (गुर्दो) की विकृति के कारण उत्पन्न जलोदर रोग में अक्षिकूट (आंखों के नीचे) पर सुबह सोकर उठने पर शोथ (सूजन) की विकृति दिखाई देती है।
  • जलोदर के रोगी को अल्प मात्रा में मूत्र निष्कासित होता है।
  • शिरावरोधजन्य जलोदर रोग में पांवों में सूजन, अपचन, कब्ज और बवासीर के लक्षण दिखाई देते हैं।
  • कुछ रोगियों में पीलिया के भी लक्षण दिखाई देते हैं।
  • जलोदर रोग में रोगी की पलकों व शरीर के विभिन्न अंगों पर सूजन होने, अधिक कफ विकृति और पाचनक्रिया क्षीण होने के लक्षण प्राणघातक हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में अनुभवी चिकित्सक से ही चिकित्सा करानी चाहिए।
  • असाध्य लक्षणों में उदर कुंभ की तरह दिखाई देता है, भोजन के प्रति अनिच्छा, अतिसार की अधिकता भी हो सकती है।
  • जलोदर के कुछ रोगियों में ज्वर की विकृति देखी जाती है।
  • उदर में जल एकत्र होने, पेट फूल जाने पर रोगी को कुर्सी, सोफे पर बैठने में भी कठिनाई होने लगती है। सीढियों पर चढ़ना, स्कूटर पर यात्रा करना मुश्किल हो जाता है। रात्रि को बिस्तर पर सोने में भी बहुत परेशानी होती है। शरीर की त्वचा का रंग पीला-पीला दिखाई देता है, श्वास में अवरोध होता है और खांसी का प्रकोप होता है।

जलोदर का आयुर्वेदिक इलाज (Ascites Ayurvedic Treatment in Hindi)

Jalodar ka ayurvedic upchar –

जिस कारण से जलोदर हो, उसे दूर करना चाहिए । इस रोग में रोगी के शरीर से जल निष्कासन के लिए गुणकारी औषधियों से मूत्र के रूप में जल निष्कासित करने से जल का काफी अंश निकल जाता है। इसमें प्रथम गोमूत्र मिश्रित तीक्ष्ण नाना प्रकार के क्षारों से युक्त और जल के दोषों को दूर करने वाली औषधि देवें । जलोदर में रोगी की शक्ति की रक्षा करते हुए अर्थात् वायु वृद्धि न होने पाए, इस प्रकार उसकी विरेचन चिकित्सा की जाती है ओर मूत्र विरेचक औषधियां भी दी जाती हैं। इन दोनों तथा लंघन (उपवास) से कफ दोष का शोधन व शमन किया जाता है।

निम्नलिखित औषधियों का सेवन चिकित्सक के मार्गदर्शन में करें क्योंकि चिकित्सक रुग्ण की प्रकृति का परीक्षण कर औषधि का चयन करता है –

1). सर्वतोभद्र रस 125 मि.ग्रा. मात्रा में सुबह-शाम बेलगिरी के पत्तों का रस, मधु मिलाकर सेवन करने से जलोदर का प्रकोप कम होता है। गुर्दो का प्रदाह कम होता है।

2). स्वर्ण पर्पटी 125 मि.ग्रा. मात्रा में सुबह-शाम छाछ के साथ सेवन कराने से जलोदर रोग में ग्रहणी की विकृति का भी निवारण होता है।

3). ताम्र भस्म 60 ग्राम मात्रा में जलोदर रोगी को दिन में 2 बार मधु मिलाकर चटाकर सेवन कराने से लाभ होता है।

4). जलोदर से विकृत उदर पर विषगर्भ तैल से अभ्यंग करने से शोथ नष्ट होता है।

5). प्लीहोदरजन्य जलोदर रोग में रोहितक लौह 500 मि.ग्रा सुबह और शाम पुनर्नवासव व रोहितकारिष्ट 2-2 चम्मच के साथ सेवन कराने से भरपूर लाभ होता है।

6). वृक्क शोथ की विकृति से उत्पन्न जलोदर रोग में पुनर्नवा मण्डूर व चंद्रप्रभावटी और पुनर्नवा रस 10 मि. ली. मधु मिलाकर सेवन कराने से लाभ होता है।

7). यकृत विकृति से उत्पन्न जलोदर रोग में यकृदारि लौह 5 ग्राम, प्रवाल पंचामृत 5 ग्राम, ताम्रभस्म 5 ग्राम, आरोग्यवर्धिनी 5 ग्राम की 40 पुड़ियां बनाकर 1-1 मात्रा में पुनर्नवा के रस के साथ सुबह-शाम सेवन कराने पर रोग नष्ट होता है। इसके साथ रोगी को कुमारीकल्प 15 से 20 मि.ली. सम मात्रा में जल मिलाकर भोजन के बाद दोनों समय सेवन कराने से अत्यंत फायदा होता है।

8). नाराच घृत 5 से 10 ग्राम मात्रा में प्रतिदिन हलके गरम जल के साथ सेवन कराने से मलावरोध की विकृति नष्ट होती है व रोगी जलोदर रोग से मुक्त होता है।

9). पिप्पली 12 ग्राम, स्नुहीक्षीर 60 ग्राम मिलाकर, घोंटकर चने के बराबर गोली बनाएं। 1-1 गोली दूध के साथ सेवन करें।

10). अपामार्ग क्षार 250 मि. ग्रा., गोमूत्र 10 मि.ग्रा. के साथ लें।

11). वज्रक्षार सुंठी सिद्ध छाछ के साथ लें।

12). पलाशक्षार 250 मि.ग्रा., पिप्पली चूर्ण 1 ग्रा., सोंठ 1 ग्रा. वचा सिद्ध छाछ के साथ 2 बार लें।

13). सिरोसिस ऑफ लिवर (Cirrhosis of Liver) में आरोग्यवर्धिनी 5 ग्रा., प्रवाल पंचामृत (मौ.यु.) 1 ग्राम, स्वर्णमाक्षिक भस्म 5 ग्राम, हीरक भस्म 100 मि.ग्रा., पुनर्नवामंडूर 10 ग्राम, कामदूधा 5 ग्राम, गुडवेल सत्व 10 ग्राम, सुवर्ण सूतशेखर रस 1 ग्राम मिलाकर 60 पुड़ियां बनाएं व कुमारी आसव 2 चम्मच के साथ दिन में 3 बार लें।

14). जलोदरारि रस (पिप्पली, मरिच, ताम्र भस्म, हल्दी, दंत बीज की सम मात्रा मिलाएं) 2 रत्ती की मात्रा प्रातःकाल दी जाती है। इस प्रकार सप्ताह में एक दिन प्रातः विरेचन औषधि दी जाती है। विरेचन हो जाने पर उस दिन तथा शेष दिन पिप्पली के साथ दूध दिया जाता है अथवा विरेचनार्थ कोई चूर्ण जैसे त्रिवृत् चूर्ण या हरीतकी चूर्ण 1 चम्मच सप्ताह में एक दिन प्रातः शर्बत के साथ व गर्म जल से देकर विरेचन कराए जाते हैं। इसमें मृदु विरेचन के अंतर्गत आरोग्यवर्धिनी वटी एक-एक सुबह-शाम हलके गरम पानी के साथ व अत्यंत तीव्र विरेचन के लिए इच्छा भेदी रस 125 मि. ग्रा. दें।
(माप – 1 रत्ती = 0.1215 ग्राम)

विरेचन चिकित्सा के अतिरिक्त गोमूत्र का सेवन भी कराया जाता है। पुनर्नवाष्टक क्वाथ (पुनर्नवा, दारू हल्दी, कुटकी, पटोल, हरड़, नीम, सोंठ, गिलोय) में गोमूत्र 20 से 30 ग्राम मिलाकर उसे प्रातःकाल पिलाया जाता है या 1 किलो हरीतकी को डेढ़ किलो गोमूत्र में मंद-मंद अग्नि पर सुखाकर उनसे बनाए चूर्ण को 6 ग्राम की मात्रा में देकर विरेचन कराया जाता है। इसी प्रकार गोमूत्र से पक्व या भावित किए मंडूर का 2-4 रत्ती की मात्रा में प्रतिदिन प्रयोग कराया जाता है।

रोगी में मूत्र-प्रवर्तनार्थ पुनर्नवामूल तथा कासनी को बराबर मिला 20 से 30 ग्राम की मात्रा में लेकर उसका क्वाथ, शोरा 1 ग्राम, यवक्षार 1 ग्राम मिलाकर प्रतिदिन दिया जाता है।

इस प्रकार रोगी की विरेचन व मूत्रल चिकित्सा 1 से 2 महीने तक जारी रखी जाती है। आहारार्थ दिनभर में पिप्पली के साथ डेढ़ से 2 किलो तक दूध दिया जाता है। जल तथा लवण नहीं दिए जाते। इस प्रकार 6 मास तक दूध, चावल, जौ मिश्रित गेहूं पर ही रहने से इस रोग में स्थायी लाभ हो सकता है।

जलोदर का घरेलू चिकित्सा (Ascites Home Remedies in Hindi)

jalodar rog ka gharelu upchar –

1). पुनर्नवा – पुनर्नवा के पंचांग को जल के छींटे मारकर सिल पर पीसकर पेट पर लेप करने से जलोदर रोग का निवारण होता है।

2). मूली – मूली के ताजे पत्तों का रस निकालकर 50 ग्राम मात्रा में प्रतिदिन सुबह-शाम पिलाने से जलोदर रोग का प्रकोप नष्ट होता है।

3). अपामार्ग – अपामार्ग 25 ग्राम मात्रा में लेकर, थोड़ा-सा कूटकर जल में उबालकर काढ़ा बनाएं। इस काढ़े को छानकर कुटकी का 3 ग्राम चूर्ण मिलाकर सेवन कराने से यह रोग नष्ट होता है।

4). पिप्पली – पिप्पली को कूटकर, खरल में आक के दूध के साथ घोंटकर बारीक चूर्ण बनाकर रखें । 3 ग्राम चूर्ण दूध के सेवन कराने से लाभ होता है। पिप्पली चूर्ण की मात्रा दिन – प्रतिदिन बढ़ा सकते हैं।

5). मट्ठा – जलोदर के रोगी जवाखार, त्रिकटु और सेंधा नमक का मट्ठा नित्य पिएं।

6). गिलोय – दशमूल, देवदारू, सोंठ, गिलोय, पुनर्नवा और बड़ी हरड़ का काढ़ा पीने से जलोदर की सूजन कम होती है।

7). करेला – करेले के पत्तों का रस 6-6 ग्राम मात्रा में प्रतिदिन सेवन कराने से मूत्र निष्कासन की मात्रा बढ़ जाती है और जलोदर नष्ट हो जाता है।

8). गोमूत्र – पुनर्नवा की जड़ 20 ग्राम मात्रा में गोमूत्र 50 ml के साथ पीसकर सुबह-शाम सेवन कराने से मूत्र का अधिक निष्कासन होने से शीघ्र लाभ होता है।

9). छोटी हरड़ – छोटी हरड़ तवे पर भूनकर, कूटकर चूर्ण बनाकर रखें। हरड़ के चूर्ण में सेंधा नमक पीसकर मिलाएं। 3-3 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम गोमूत्र के साथ सेवन करने से जलोदर शीघ्र नष्ट होता है।

10). बथुआ – आधा कप बथुए के साग का रस तथा थोड़ा नमक मिलाकर पिलाएं । बेल के ताजे पत्तों का रस 10 ग्राम, छोटी पीपल का चूर्ण 2 ग्राम तथा काला नमक 2 ग्राम तीनों को मिलाकर सुबह-शाम देना चाहिए।

11). कुटकी – कुटकी 30 ग्राम लेकर 2 लीटर पानी में आंच पर पकाएं। जब पानी 250 ml रह जाए, आग से उतार लें। 60 ml की मात्रा के हिसाब से यह काढ़ा दिन में 4 बार रोगी को दें। इस प्रकार प्रतिदिन तैयार करके 14 दिन पिलाएं। तमाम पानी मूत्र और मल द्वारा निकल जाता है, सूजन कम हो जाती है तथा रोगी स्वस्थ और हलका महसूस करता है।

12). दूध – प्रतिदिन 5 पिप्पली को दूध में देर तक उबालकर सेवन करने से जलोदर रोग नष्ट होने लगता है। प्रतिदिन 1 से 2 पिप्पली क्रमशः बढ़ाकर सेवन करने से उदर से जल निष्कासित हो जाता है। बार-बार उदर में जल एकत्र होने की विकृति से छुटकारा मिल जाता है। यह चिकित्सा विशेष गुणकारी है।

13). बकरी की मींगनियों के क्षार को गोमूत्र में घोलकर छानकर अग्नि से पकाएं। जब यह गाढ़ा होने लगे तब इसमें पिप्पली, पिप्पलीमूल, सोंठ, पांचों नमक, दंती, द्रवंती (मोगलई एरंड), त्रिफला, स्वर्णक्षीरी, मेढ़ासिंगी, सर्जिक्षार, वच, सातला, यवक्षार इनमें प्रत्येक का 16-16 ग्राम मिलाकर बेर के समान गोलियां बना लें। इन गोलियों को कांजी (छाछ) में घोलकर शोथ (सूजन) में और बढ़े हुए जलोदर में पिएं।

जलोदर रोग की शस्त्रकर्म चिकित्सा :

आयुर्वेद में जलोदर रोग में शस्त्रकर्म करने का वर्णन है, जिसके द्वारा पानी को बाहर निकाला जाता है। आधुनिक चिकित्सानुसार इसे ही टैपिंग (Tapping) कहते हैं। आयुर्वेद के अष्टांग हृदय ग्रंथ में वर्णित है कि जलोदर के रोगी का पानी निकालने के बाद वह 6 मास तक केवल दूध पर ही रहे। 3 मास तक दूध में बनी दूध मिश्रित अन्न पिए तथा शेष 3 मास केवल दूध से ही पुरातन सावां या कोदो धान्य को स्नेह और नमक न मिलाकर अथवा अत्यल्प मिलाकर खाए अथवा अनार के रस के साथ पुराने सावां आदि का सेवन करें। इस प्रकार करने पर प्रायः एक साल में रोगी जलोदर से मुक्त हो जाता है। कभी अधिक समय भी लगता है, स्नेह और नमक सर्वथा न दें तो उत्तम है।

जलोदर रोग की प्राकृतिक चिकित्सा (Naturopathy Treatment for Ascites in Hindi)

jalodar rog ki prakritik chikitsa –

  • रोग को ऐसे पदार्थों का सेवन अधिक करना चाहिये जिनसे पेशाब अधिक मात्रा में न हो तथा वह साफ हो।
  • पाचनक्रिया को ठीक करने के लिए रोगी को प्राकृतिक चिकित्सा से अपना उपचार करना चाहिये, तभी इस रोग से छुटकारा हो सकता है।
  • प्यास लगने पर मरीज को पानी के स्थान पर ताजा मट्ठा, गाय के दूध या फलों का रस देना चाहिए।
  • रोगी में अगर कमजोरी के लक्षण न दिखाई देते हो तो उसे एक दिन का उपवास रखना चाहिए।
  • पेट में सूजन के स्थान पर प्रतिदिन 1 से 2 बार मिट्टी की गीली पट्टी रखना चाहिए।
  • सोने से पहले प्रतिदिन रोगी कुछ दिनों तक कुनकुने जल से एनिमा लेकर पेट को साफ करे । इस क्रिया को प्रातः काल उठने के बाद भी संपन्न किया जा सकता है।
  • यदि मरीज का हृदय कमजोर है तो, रोगी के हृदय के पास कम से कम एक दिन में 3 बार बीस से पच्चीस मिनट तक कपड़े की ठंडी पट्टी रखनी चाहिए। पट्टी के हटाये जाने पर उस स्थान को अच्छे से मलना चाहिए।
  • जलोदर के मरीज को नित्य प्रातः काल सूर्य के प्रकाश में बैठकर कम से कम आधे घंटे के लिए पेट की सिंकाई करना चाहिये । नारंगी रंग का शीशा मरीज को इस प्रकार रखना चाहिए कि इस शीसे से गुजरने वाला नीले रंग का प्रकाश रोगी के सीधा पेट पर पड़े।
  • नारंगी रंग की बोतल के सूर्यतप्त जल को जलोदर रोगी 20 से 25 ml की मात्रा में नित्य चार से छह बार सेवन करें, इस्से रोग में लाभ मिलता है।

अतः जलोदर रोग कष्टसाध्य है। जलोदर के मूल कारणों के शमनार्थ आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति सक्षम है। जिससे रोगी का कष्ट शनैः शनैः कम होता है। व्याधि से उपशय के लिए आधुनिक चिकित्सा के साथ उपरोक्त 2 चिकित्सा पद्धतियां (आयुर्वेदिक और घरेलू उपचार) चिकित्सक के मार्गदर्शन में लेने से आशातीत लाभ मिलता है।

जलोदर रोग में खान-पान और सावधानियाँ (Diet for Ascites Patients in Hindi)

jalodar rog kya kare kya na kare –

  • जलोदर के रोगी को आहार के साथ जल कम से कम मात्रा में सेवन करना चाहिए।
  • इस रोग में दूध का सेवन अधिक करना चाहिए।
  • रोगी को मांस, मछली, घी, तेल के खाद्य पदार्थ सेवन नहीं करने चाहिए।
  • शराब से अधिक हानि पहुंचती है।
  • अग्नि को प्रदीप्त करने वाले व कफनाशक आहार से रोगी की चिकित्सा करें।
  • यकृद्रोग जनित जलोदर में रक्त में प्रोटीन (Hypoproteinaemia) कम होता है तथा अवयवों में लवण (Sodium Chloride) का संचय अधिक होता है। अतः प्रोटीन-प्रधान तथा लवण-रहित भोजन 20 ml की मात्रा में प्रयोग करना चाहिए।
  • बिना चिकनाई का दूध सवा किलो, मट्ठा 2 पाव, सब्जी 60 gm, तथा फल उसे प्रतिदिन देना चाहिए।
  • जलोदर के रोगी के लिए अतिशय अम्ल (खट्टे), उष्ण (गर्म), लवणादि आहार वर्जित हैं।

(अस्वीकरण : दवा ,उपाय व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार उपयोग करें)

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