भोजन के बाद मुखवास के सेहतमंद फायदे – Mukhwas ke Fayde in Hindi

Last Updated on September 10, 2020 by admin

भारतीय परंपरा एक वैज्ञानिक परंपरा है। इस परंपरा में रोज की दिनचर्या, ऋतुचर्या, आहार-विहार इत्यादि शामिल है। आयुर्वेद को भारतीय परंपरा का प्राण कहा जाता है। भारतीय परंपरा मे कोई भी बात अकारण नहीं होती। चाहे वह भोजन पद्धति हो या पूजा पद्धति ।

मुखवास क्या है ? (What is Mukhwas in Hindi)

दरअसल मुखवास कई आयुर्वेदिक वनस्पतियों का मिश्रण रहता है, जो पाचन में बहुत मद्द करता है।

हमारी परंपरा में तांबुल को अनन्य साधारण महत्व है। तांबुल संस्कृत नाम है और इस पदार्थ के घटक भारत के अनेक राज्यों की परंपरानुसार बदलते है। दक्षिणभारत के राज्यों में तांबुलम में चुना, सुपारी, खोबरा, गुड़, इलायची इत्यादि का मिश्रण होता है। उत्तर भारत में तांबुल में चूना कत्था, सुपारी, लवंग, इलायची, कई जगह तंबाखू, गुलकंद, खोबरा, मधु इत्यादि का मिश्रण होता है। महाराष्ट्र में सौंफ, चूना, कत्था, सुपारी, जेष्ठमध, इलायची, लवंग, अजवायन इत्यादि घटक रहते है। गुजरात में इन सब घटकों के अलावा धनाडाल रहती है।

नागवली के पत्ते या पान भी अनेक प्रकार के है। कपूरी, मीठा, कलकत्ता, बनारसी, बंगला, मघई आदि नामों से यह पान विविध राज्यों में उपलब्ध है और इन सब पानों का उपयोग भोजनोपरांत या पूजा विधि में तांबूल तैयार करने के लिए किया जाता है।अनेक मंगल कार्यो में भी “पान सुपारी” की परंपरा आज भी कायम है। आइए, तांबुल के कुछ घटकों के बारे में जानते है।

मुखवास के घटक और उनके स्वास्थ्य लाभ (Mukhwas ke Fayde in Hindi)

1). नागवल्ली का पान : औषधीय गुण और फायदे –

इसे अंग्रेजी भाषा में बेटल लीफ (Betel leaf) कहा जाता है।

स्वरूप :- यह एक मूलारोही लता है, जिसका कांड अर्ध काष्टीय एवं पर्व पर से फुला हुआ पत्र सरल, अंडाकार, हृदयाकृति, पत्र अग्र लंबा, पत्र आधार पर सात प्रधान शिराएं तथा लंबा पत्रवृत्त होता है।

स्वाद :- तिक्त

रासायनिक संघटन :- इसके पत्तो में एक सुगंधित उड़नशील तेल पाया जाता है जो तीक्ष्ण होता है, इसमें चेवीकॉल, केडेनीन, चेवीबीटॉल, युजीनॉल एवं सेक्वीटर्पेन (Sequiterpene) के आयसोमेरीडस होते है। पत्रों में स्टार्च, शर्करा, टैनिन एवं डायस्टेज पाए जाते है।
कोमल पत्तों में तेल एव डायस्टेज अधिक मात्रा में होता है।

गुण :- पत्र का उपयोग पाचन, दीपन, वातघ्न, सुगंधित, शोथहर, व्रणरोपण, कृमिघ्न वीर्यवृद्धिकर, कामोदीपन, रुचिकर।

उपयोग :-

  • कफप्रधान रोगों (श्वासनिका सोथ, तामक श्वास) में स्वर यंत्र शोथ, बच्चों की खांसी, श्वासावरोध, श्वसनिका शोथ एवं प्रतिश्याय में होता है ।
  • यह बच्चों के डिप्थेरिया गांठ, शोथ व्रण, संतति नियमन के लिए और नेत्र रोग में उपयोगी है।
  • सर्पदंश में इसके मूल को पान में रख चबाकर खाने से वमन होकर विष उतर जाता है। यदि पहले पान से वमन न हो तो दो, तीन पान खाने चाहिए जिससे वमन होकर विष बाहर निकल जाता है।
  • जुकाम के कारण होनेवाली खांसी में इसकी फलियों के चूर्ण में मधु मिलाकर सेवन से लाभ होता है।
  • तमक श्वास, श्वसनी शोथ तथा कंठशोथ में इसके पत्तों के स्वरस का सेवन लाभकारी है।
  • बच्चों की खांसी, श्वासावरोध, सर्दी, जुकाम एवं श्वसनी शोथ में पान के पत्तों पर एरंड का तेल लगाकर गरम कर बच्चों की छाती पर बांधने से लाभ होता है।
  • डिपथेरिया बच्चों के गले का घातक रोग है। इस रोग में पान के चार पत्तों का रस थोड़े गुनगुने पानी में डालकर गरारे करने से लाभ होता है या पान के तेल की एक बूंद लगभग 100 मिली गुनगुने जल में मिलाने से लाभ होता है।
  • व्रण में पान के पत्तों को गरम कर व्रण पर बांधने से व्रण ठीक होकर वेदना कम होती है।
  • पान के पत्तों का रस प्रतिदूषक होता है। यह कार्बोलिक एसिड की अपेक्षा पांच गुना अधिक शक्तिशाली जंतुघ्न होता है।

नोट – मुखशुद्धि के लिए पान के पत्तों में कत्था, चूना लगाकर इसमें इलायची रखकर भोजन के पश्चात खाने से मुख की शुद्धि होती है। भोजन पचने में मदद होती है किन्तु पान का व्यसन होने पर स्वाद ग्रहण की शक्ति कम हो जाती है। मुंह में छाले पड़ जाते है।

( और पढ़े – पान के पत्ते के फायदे और नुकसान )

2). सुपारी : औषधीय गुण और फायदे –

अंग्रेजी में बेरल नट कहते है। प्रचलित नाम सुपारी

प्रयोज्य अंग :- मूल, पत्र और बीज

स्वरूप :- लंबा, पतला, पाम जैसा वृक्ष 40-60 फिट ऊंचा, पुष्प बडी काष्टीय मंजीरियो में होते है।

स्वाद :- कटु

रासायनिक संघटन :- इस के बीज में एकलाक्टो सीन्स बी एवं जी 1, अनेक अल्कलाईडस, एरेकॅडाईन, एदेकॉलईन, गुवासीन, एवं आयसोगुवासीन, फास्फोरस, लोहा एवं अन्य अनेक क्षार पाए जाते है।

गुण :- जीवाणुघ्न, गर्भरोधी, शीतल, ग्राही, कृमिघ्न उत्तेजक

उपयोगः-

  • अतिसार, मूत्रविकार, चेचक रोग, मैथूनी अंगों के छाले, विसूचिका, सूजाक, प्रवाहिका, तथा अस्थि भग्न में उपयोगी।
  • सुपारी को जलाकर इसके चूर्ण का प्रयोग दंत मंजन में किया जाता है।
  • कच्ची सुपारी को दूध में पीसकर सेवन से फीताकृमी नष्ट होते है।
  • आमवात में सुपारी के टुकड़ों को रातभर जल में भिगोकर रखे रहने के पश्चात प्रातः पीसकर इसमें पुरानी इमली का मोटा कल्क मिलाकर सेवन करना चाहिए तथा इसके ऊपर गुनगुना जल पीने से रेचन होकर आमवात में लाभ होता है।
  • शिर शूल (Migraine) में आधी सुपारी को जल में घिसकर इसका लेप करना चाहिए।
  • खाज खुजली में सुखी सुपारी की ऊपर की छाल (शुष्क आवरण) को जलाकर इसकी कालीराख को तिल के तेल में अच्छी तरह घोटकर रोगग्रस्त अंगो पर इसका लेपन करना चाहिए।
  • कंठमाला में चिकनी सुपारी, इमली की गुठली एवं गुग्गुल इन सबको गरम जल में घिसकर इसका लेप करना चाहिए।

नोट – सुपारी को हमेशा चबाने से कैंसर होने की संभावना है।

( और पढ़े – सुपारी खाने के फायदे और नुकसान )

3). कत्था (काथ / खदिर) : औषधीय गुण और फायदे –

अंग्रेजी में इसे ब्लैक कैटचू कहते है।

खैर प्रयोज्य अंग :- खदि सार, त्वक (छाल)

स्वरूप :- मध्यम कद का कंटकीय वृक्ष, पर्णवंत के नीचे एक जोड़ी कंटको की पत्ते संयुक्त, पुष्प श्वेत या हल्के पीले जो मंजारियों में होते है।

स्वाद :- कटु

रासायनिक संघटन :- इसके अंदर की काष्ठ (लकड़ी) में कैटेचिन एवं कैटेचुटैनिक अम्ल पाये जाते है। इस कैटेचुटैनिक अम्ल में 50 प्रतिशत टेनिन पदार्थ होते है।

उपयोग :-

  • चर्मरोग, दंत विकार (मसूड़ो की शिथिलता) शुष्ककास, मुखगत व्रण, पांडू रोग, कुष्ठ रोग, श्वसनी शोथ, कण्डुरोग, अतिसार और प्रमेह में लाभकारी है।
  • कुष्ठरोग – कत्थे से स्नानादि कराते है तथा खिलाते है।
  • कत्था संग्रहणी, अतिसार, तथा खट्टी डकार में लाभकारी है।
  • मसूडों के रक्तस्राव – कुल्ला करने से लाभ होता है।
  • खांसी – रात्रि के समय वात के कारण होनेवाली सूखी खांसी में दही के एक कप पानी में दो ग्राम खदिर सार डालकर प्रातः एवं सायं पिलाना चाहिए। खदिर (खैर) के अंतः छाल का चार भाग, बेहड़ा की छाल दो भाग, लौंग का एक भाग, इन सबका चूर्ण बनाकर दिन में तीन बार एक एक ग्राम मधु के साथ चाटने से शुष्क कास (खाँसी) में आराम मिलता है।
  • स्वर भेद में (कंठ दोष) में तिल के तिल में कत्था मिलाकर इसमें छोटा सा स्वच्छ कपड़ा भिगोकर मुंह में रखने से गला खुल जाता है।
  • चर्म रोग (श्वित्र, खाज, खुजली एवं कुष्ठ रोग) में खैर के पंचांग का क्वाथ (क्वाथ) बनाकर प्रतिदिन प्रातः दो दो चम्मच सेवन करना चाहिए। इसके पंचांग को जल में उबाल कर इस जल से स्नान करने से या रोग ग्रस्त भाग को इस जल से धोना चाहिए।
  • खदिर की छाल में समभाग आंवला मिलाकर अच्छी तरह उबालकर इसका सेवन प्रातः सायं इसमें एक चम्मच आंवले का चूर्ण मिलाकर करना चाहिए।
  • व्रण में खदिर को जल में उबालकर इस जल से व्रण को साफ करना चाहिए एवं इस जल में दो-दो ग्राम त्रिफला चूर्ण मिलाकर प्रातः सायं पिलाना चाहिए।
  • रक्तपित्त (मुख नालिका, गुदा, मूत्र मार्ग द्वारा रक्त स्त्राव होना) में खदिर (खैर) के पुष्पो का चूर्ण एक-एक चम्मच मधु में मिलाकर प्रातः सायं सेवन करना चाहिए।
  • अतिसार में छाछ में पाँच ग्राम कत्थाचुर्ण घोलकर पिलाने से इसमें बहुत लाभ होता है। यह एक प्रभावी उपचार है।
  • भगंदर में खदिर की छाल तथा त्रिफला का काढा बनाकर इसमें भैस का घी तथा विडंग का चूर्ण मिलाकर पिलाना चाहिए।
  • वात रक्त में खदिर के मूल का चूर्ण इसका समभाग आंवले का रस समभाग मिलाकर इसमें घी तथा मधु मिलाकर प्रातःसायं पिलाना चाहिए।

( और पढ़े – कत्था के औषधीय गुण और नुकसान )

4). अजवायन : औषधीय गुण और फायदे –

प्रचलित नाम :- अजवाइन, अंग्रेजी नाम बिझापस वीड, अजोवा सीड

प्रयोज्य अंग :- पत्र तथा फल

स्वरूप :- एक वर्षीय सुंगधित 1-3 फुट ऊंचा गुल्म (गुल्म), पत्र पक्षवत तरीके से कटे हुए, पुष्प सफेद जो छत्र में गुथे हुए होते है।

स्वाद :- तीक्ष्ण-कटु

रासानियक संघटन :- इसमें उड़नशील तेल (अजवायन का तेल थायमोल (Thiamol), स्टी आरोप्टिन (अजवायन का सत्व- अजवायन का फुल) ,साईमोन, टपैन आदि तत्व पाए जाते है।

गुण :- पाचन, दीपन, उद्वेष्ठन, निरोधी, उत्तेजक, बल्य, कृमिघ्न, रूचिकर, हृद्य।

उपयोग :-

  • अतिसार, कुपचन, उदरशूल, आध्मान, विसूचिका, आमवात, हृदयरोग, प्लीहावृद्धि, शुक्रनाशक, शूल नाशक ।
  • सरसों एवं मिर्च का तीखापन, चिरायता का कड़वा पन तथा हींग का उद्वेष्ठन निरोधी तीनों गुण एक साथ इसमें पाए जाते है।
  • पुरानी खांसी में इसके फल के चूर्ण के सेवन से जब कफ कम होता है तो कफ पीला होकर निकलता है।
  • श्वासरोग में अजवायन का चूर्ण सैंधव लवण के साथ सेवन से लाभ होता है।
  • उदरशूल आध्मान में अजवायन, सैंधानमक, हिंग, कालानमक तथा आंवले का चूर्ण, सब मिलाकर इस में एकमात्र मधु के साथ सेवन से लाभ होता है।

( और पढ़े – अजवाइन के चमत्कारी औषधीय लाभ और उपयोग )

5). सौंफ : औषधीय गुण और फायदे –

इसे मिश्रेया / मधुरिका भी कहते है। अंग्रेजी में फेनेल फ्रुट कहते है।

प्रचलित नाम :- सौंफ,

प्रयोज्य अंग :- मूल,पत्र एवं फल ।

स्वरूप :- एक वर्षायु-लम्बा क्षुप, पत्रे पक्षवज संयुक्त पुष्प पीतवर्णी संयुक्त छत्र में होते है।

स्वाद :- मधुर, सुगंधित

रासानियक संघटन :- इसके फल स एवं पौधे में एस्कोराबिक एसिड,नियासीन, रिबोफ्लेवीन, अल्फा बीटा एवं गामा टीकोफेरॉल, अल्फा एवं बीटा ट्रोकोट्रायनॉल, ट्रोगोनैलीन, एथीनॉल, एनीस, अल्डीहाईड, कोम्फीन, एस्ट्रागॉल, फेन्चान, अल्फा फौन्चि, फिनीक्युलीन, सेबॅनीन, एबसिसीक अम्ल, एनीसिक अम्ल, कैफिक अम्ल, क्लोर जैनिक अम्ल, सायनारिन एवं वैनिलीन तत्व पाए जाते है।

गुण :- शीतल, सुगंधित, दीपन, चरपरा, वातनुलोमक पाचन, शोथहर।

उपयोग :-

  • ज्वर, मूत्रदाह, तृषा, प्रवाहिका, अतिसार, विसूचिका, प्लीहावृद्धि में उपयोगी।
  • कृमिघ्न, वेदनास्थापक मेधाबल्य, आम्लपित्तहर इसके अतिरिक्त यह आध्मान, खांसी, श्वासरोग, वृक्क रोग में लाभकारी हैं।
  • बार बार खांसी में सौफ तथा मिश्री चूर्ण मुंह में रखने से खांसी में लाभ होता है।
  • मुख के विकारों में सौंफ के दाने मुख में रखकर उसे चबाने से निकलने वाला रस लाभदायक।
  • अतिसार में सौंफ का क्वाथ या सौंफ एवं सुंठ को धीमे सेंक कर इसका चूर्ण बनाकर सेवन से अतिसार में लाभ होता है।
  • पित्त्तज्वर में सौंफ तथा मिश्री के क्वाथ से लाभ होता है।
  • गर्भाशय के रोगों में लाभकारी तथा गर्भाशयप्रद औषधि है।
  • माताओं को दुग्ध प्रमाण बढ़ाने में उपयोगी।
  • बच्चों के उदराध्मान एवं शूल में अति लाभकारी।

( और पढ़े – सौंफ के 61 लाजवाब फायदे )

6). लवंग/लौंग : औषधीय गुण और फायदे –

इसे देवकुसूम भी कहते है। अंग्रेजी में क्लोव्ह (Clove) कहते है।

प्रचलित नाम :- लौंग

प्रयोज्य अंग :- पुष्प दंड सहित पुष्प की शुल्क कलीका

स्वरूप :- एक विशाल गुल्म या मध्यम कद का वृक्ष जो 9-12 मीटर ऊंचा होता है। पत्ते चमकीले, चिकने हरे अभिमूख पत्र, अखंड लहरदार, चिकने होते है। पुष्प छोटे तथा श्वेत हल्के बैगनी रंग के होते है।

स्वाद :- तिक्त, कटु

रासायनिक संघटन :- पुष्प कलीका में बीटा कैरियान फायलीन, युजिनॉल, एंसीटेट मिथाईलसेलिसिलेट, एनएमिल कार्बिनाल, बैन्झील अल्कोहोल, फरप्युटॉल, फरप्युली अल्कोहोल, वैनिलीन, युजिनीटिन, आईसो युजिनिटोल, युजिनोन, गॅलेक्टोस, ग्लुकोज फ्रुक्टोज, रहमनोस, सुक्रोज, जायलोस, गॅलेटैनिक अम्ल, तथा अंल्यिोनेलिक अम्ल ।

गुण :- दीपन, पाचन, रूचिकर, वातघ्न उत्तेजक तथा सुंगधित

उपयोग :-

  • कास, जुकाम, उदरशूल, यक्ष्मा (टी.बी), तृषा, रूचिकर, पाचक, उत्तजको में वृद्धि करता है।
  • कृमिघ्न, विबंध को ठीक करता है।
  • श्वास रोग में रक्तशोधक तथा मूत्रल, आध्मान में लाभकारी ।
  • लौंग का तेल मिश्री पर डालकर सेवन करने से उदरशूल और आध्मान में लाभ होता है।

( और पढ़े – लौंग खाने के फायदे और नुकसान )

7). इलायची : औषधीय गुण और फायदे –

छोटी इलायची अंग्रेजी नाम टेलट्टारिया कार्डमोमन

प्रयोजक अंग :- सुखे फल तथा बीज

स्वरूप :- चिरस्थायी, बहुवर्षीय, क्षुपमूल कांड, नीचे से मोटा, भौमिक कांड से हरे रंग के कांड निकलते है। जिन पर एकांतरित पत्ते होते है। पत्ते एक दो फुट लंबे जिसकी निचली सतह रोमश होती है। पुष्प नील लोहिताभ एवं छोटे-छोटे होते है। फल हल्के पीले या हरिताभ पीले रंग के होते है।

स्वाद :- कटु रासायानिक

रासायनिक संघटन :- इसके बीज में स्टार्च, उड़नशील तेल जिसमें सिनियॉल, टर्पोनियॉल, टर्पेनिन, लिमोलिन, सेबीनीन, जोफोर्मिक आम्ल तथा एसीटिक अम्ल के रूप में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें नाइट्रोजीन्स गोंद भी पाया जाता है।

गुण :- अतिसुगंधित, उत्तेजक, वातानुलोमक, दीपन, शूलहर, दाह प्रशमन, मूत्रल।

उपयोग :- कास, श्वासरोग, अर्श, यक्ष्मा, मूत्रकृच्छ, कुपचन, अतिसार, आध्मान, उदरशूल, दीपन, वमन, कन्डू, मूत्र अश्मरी, कंठ के दोष में लाभकारी होता है।

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