Last Updated on October 25, 2019 by admin
नाड़ी देखना सीखने की तरकीब : nadi vaidya in hindi
नाड़ी देखने का काम महा कठिन है। यह शिष्य को पास बिठा कर गुरु के बताने, रोगी की नाड़ी अपने सामने दिखाने, भूल हो तो उसको बताने अथवा अभ्यासी के हर किसी रोगी की नाड़ी देखने और पुस्तक से मिला कर अभ्यास बढ़ाने से आ सकती है। अभ्यास बड़ी चीज़ है। अभ्यास से, बिना गुरु और बिना किताब के भी, ज्ञान हो सकता है। मगर सैकड़ों-हज़ारों रोगियों की नाड़ी देखनी होगी और बुद्धि लड़ानी होगी। अगर गुरु मिल जायगा, तो बहुत ही जल्दी ज्ञान हो सकेगा और ज़रा भी तकलीफ़ न होगी। जहाँ तक हो सके नाड़ी-परीक्षा सीखने को गुरु तलाश करना चाहिये। मगर नाड़ी का पूरा ज्ञान रखने वाले वैद्य आज-कल भारत में कहीं-कहीं और बहुत थोड़े हैं। यों तो रोगी के दिल में विश्वास जमाने को सभी नाड़ी पकड़ लेते हैं।
स्त्री के बाएँ और पुरुष के दाहिने हाथ की नाड़ी देखी जाती है :
स्त्रियों के बाएँ हाथ की नाडी और पुरुषों के दाहिने हाथ की नाडी देखनी चाहिए। इसका कारण यह है, कि स्त्रियों की नाभि में कूर्म नाड़ी का मुख ऊपर और पुरुषों की नाड़ी का नीचे है। इसी से स्त्रियों के बाँए हाथ की और पुरुषों के दाहिने हाथ की नाड़ी द्वारा शरीर में दु:ख-सुख का ज्ञान होता है।
नोट-लेकिन आधुनिक मत से स्त्री या पुरुष-दोनों में ही दोनों हाथों की नाड़ी देखी जाती है। दोनों हाथों की नाड़ियों के लिए एक मिनट का समय पर्याप्त
नाड़ी देखने के नियम :
सोते हुए की, कसरत करके आए हुए की, तेल-मर्दन करा चुका हो उसकी, भूखे की, प्यासे की, आग के सामने से उठा हो उसकी, भोजन पर बैठ रहा हो उसकी, धूप में से आया हो, उसकी, अथवा किसी प्रकार की मेहनत कर चुका हो उसकी नाड़ी न देखनी चाहिए। यदि इन नियमों के विरुद्ध नाड़ी देखी जाती है, तो रोग का ठीक हाल मालूम नहीं होता।
तीन बार नाड़ी पर हाथ रख-रख कर छोड़ दे, यानी तीन बार नाड़ी देखनी चाहिए, तब रोग का पक्का निश्चय करना चाहिए।
नाड़ी से क्या-क्या मालूम होता है ? :
वात, पित्त, कफ, द्वन्दज या द्विदोष, त्रिदोष, सन्निपात और साध्य असाध्य ये सब नाड़ी से मालूम होते हैं।
कहाँ-कहाँ की नाड़ी देखी जाती है ? :
स्त्री के बाएँ और पुरुष के दाहिने हाथ की नाड़ी देखी जाती है, किन्तु जब रोगी मरणासन्न होता है, हाथ की नाड़ी हाथ नहीं आती या उससे साफ कुछ पता नहीं चलता, तब पैरों के टखने, नाक, कण्ठ तथा लिंगेन्द्रिय की नाड़ी देखी जाती है।
नाड़ी देखने का सही तरीका (रीति) :
वैद्य और रोगी को नाड़ी देखते और दिखाते समय किस तरह बैठना-उठना प्रभृति काम करने चाहिए, इस विषय में भी ‘योग-चिन्तामणि’ में लिखा है
स्थिरचित्तः प्रसन्नात्मा मनसा च विशारदः।
स्पृशेदगुलीभिर्नाड़ी जानीयात् दक्षिणे करे॥
त्वक्तमूत्रपुरीषस्य सुखासीनस्य रोगिणः ।
अन्तर्जानुकरस्यापि सम्यक् नाड़ी परीक्षयेत्॥
अर्थ – वैद्य स्थिर-चित्त और प्रसन्न हो कर, तीन उँलियों से दाहिने हाथ की नाड़ी देखे।
जो रोगी मल-मूत्र त्याग कर चुका हो, सुख से बैठा हो, दोनों जानुओं के बीच जिसने अपना हाथ रखा हो, उसकी नाड़ी को वैद्य अच्छी तरह देखें।
एक और पुस्तक में लिखा है-वैद्य को चाहिये कि, आप मल-मूत्र आदि ज़रूरी कामों से फ़ारिग हो कर, चित्त को एकाग्र करके, सुख से अपने आसन पर बैठ कर रोगी की नाड़ी देखे। वैद्य यदि शौचादिक से निपटा हुआ न होगा, वैद्य का चित्त और कहीं होगा तथा रोगी पाखाने-पेशाब को रोके हुए बैठा होगा, अथवा भूखा-प्यासा, चल कर आया हुआ, मेहनत करके उठा होगा तो हज़ार नाड़ी देखने पर भी कुछ न मालूम होगा, क्योंकि नाड़ी योग का विषय है। यह चित्त की एकाग्रता (Concentration of mind) चाहती है और भूखे-प्यासे, थके हुए, आग के पास से उठ कर आये हुए रोगी की नाड़ी विकृत हो जाती है, यानी जो चाल होनी चाहिये उससे विपरीत हो जाती है।
जबकि वैद्य और रोगी ऊपर लिखे हुए नियमानुसार हों, तब वैद्य अपने बायें हाथ से रोगी का पहुँचा या कलाई दबा कर दाहिने हाथ की तीन उँगलियों से, अंगूठे की जड़ में वायु की नाड़ी को देखे, क्योंकि हाथ के अंगूठे के नीचे धमनी नाड़ी जीव की साक्षी देने वाली है। उसी धमनी की चेष्टा से विद्वान, मनुष्य के सुख-दु:ख को जान जाते हैं। किसी ने यह भी कहा है, दाहिने हाथ की तर्जनी, मध्यमा और अनामिका उङ्गलियों को पहुँचे पर रख कर बाएँ हाथ से रोगी के हाथ की कुहनी की नाड़ी को दबाना चाहिये। याद रखना चाहिये-पहुँचे में तर्जनी के नीचे वायु की नाड़ी, उससे दूसरी पित्त की और तीसरी कफ़ की नाड़ी है।
होनहार रोगों के जानने के लिये स्वस्थ मनुष्य की नाड़ी-परीक्षा करनी चाहिए। प्रथम पित्त की, बीच में कफ़ की और अन्त में बादी की नाड़ी चलती है। रावण-कृत पुस्तक में लिखा है।
आदौ वातहवहा नाड़ी मध्ये वहति पित्तला।
अंते श्लेष्मविकारेण नाडिकेति त्रिधा मता॥
अर्थ – आदि में वात की नाड़ी, बीच में पित्त की नाड़ी और अन्त में कफ़ की नाड़ी-ये तीन प्रकार की नाड़ी मानी गई हैं।
रोगी के वात अधिक हो, तो वैद्य की तर्जनी उँगली के नीचे नाड़ी फड़कती है, पित्त अधिक हो तो मध्यमा उँगली के नीचे, अगर कफ़ अधिक हो तो अनामिका के नीचे नाड़ी फड़कती है। अगर वात-पित्त का ज़ोर हो तो तर्जनी और मध्यमा के बीच में, वात-कफ़ का ज़ोर हो तो मध्यमा और अनामिका के बीच में नाड़ी फड़कती है। अगर सन्निपात हो तो तीनों उँगलियों के नीचे नाड़ी मालूम होती है।
नोट-हाथ की नाड़ियों का हाल जानने के लिए, अंतिम पृष्ठों पर विविध चित्रावली में हाथ की नाड़ियों को देखो और समझो।
नाड़ी की चाल :
☛ वात का कोप होने से नाड़ी, जोंक और सर्प की चाल से चलती है।
☛ पित्त का कोप होने से कुलिंग, कव्वा और मेढ़क की चाल से चलती है।
☛ कफ़ का कोप होने से नाड़ी हंस और कबूतर की चाल से चलती है।
☛ किसी ने लिखा है-वायु के कोप से नाडी की चाल टेढ़ी होती हैं, पित्त-कोप से नाड़ी तेज चलती है और कफ़ के कोप से नाड़ी मन्दी चलती है।
☛ किसी ने लिखा है-वायु का ज़ोर होने से टेढ़ी, पित्त का ज़ोर होने से चंचल और कफ़ का ज़ोर होने से स्थिर चाल से नाड़ी चलती है।
अच्छी तरह से समझ में आ जाने के लिये हमने एक ही बात तीन तरह से लिखी है। तीनों बातों का आशय प्राय: एक ही है।
दो दोषों की अधिकता में और चाल हो जाती है।
☛ वात और पित्त का जोर होने से नाड़ी कभी सर्प की-सी चाल से चलती है, कभी मेंढ़क की चाल से।
☛ वायु और कफ़ का जोर होने से नाड़ी कभी सर्प की-सी और कभी हंस की-सी चाल की होती है।
☛ इसी तरह पित्त और कफ का कोप होने से नाड़ी कभी मेंढ़क की तरह फुदक-फुदक कर चलती है और कभी हंस या मोर की तरह धीरे-धीरे कदम उठाती हुई चलती है।
त्रिदोष की नाड़ी :
तीनों दोषों की अधिकता या ज़ोर होने पर नाड़ी लवा, तीतर और बटेर कीसी चाल चलती है, अथवा यों समझिये कि वायु के कोप के कारण सर्प की-सी चाल से, पित्त-कोप से मेढ़क की-सी चाल से और कफ़ के कोप से हंस की-सी चाल से चलती है। अगर पहले नाड़ी के छूते ही नाड़ी की चाल सर्प की-सी, उसके बाद मेढ़क की-सी, उसके बाद हंस की-सी मालूम हो, तो रोग को साध्य समझना चाहिये। अगर इसके खिलाफ़ हो, यानी पहले सर्प की-सी चाल, उसके बाद हंस की-सी चाल और हंस की चाल के बाद मेढ़क की-सी चाल हो, तो रोग असाध्य समझना चाहिये।
कठफोड़ा पक्षी ठहर-ठहर कर बड़े ज़ोर से अपना मुँह काठ पर दे-दे मारता है उसी तरह सन्निपात की नाड़ी ठहर-ठहर कर ठोकर मारती हुई चलती है।
ज्वर के पहले नाड़ी की चाल :
ज्वर चढ़ने के पहले नाड़ी दो-तीन बार मेढ़क की-सी चाल से चलती है।
यदि वही चाल बराबर रहे, तो समझना चाहिये कि ‘दाह-ज्वर’ होगा।
सन्निपात-ज्वर होने के पहले नाड़ी, पहले तो बटेर की तरह, पीछे तीतर की तरह और अन्त में बत्तख की तरह चलती है।
ज्वर में नाड़ी की चाल :
ज्वर का वेग होने पर नाड़ी गरम और वेगवान होती है, यानी तेजी से चलती है। किन्तु इस बात को भी याद रखना चाहिये, कि मैथुन कर चुकने के बाद अथवा मैथुन की रात के सवेरे तक अत्यन्त भोजन कर लेने पर भी नाड़ी गरम ही रहती है, लेकिन इसमें ज्वर की-सी तेजी नहीं होती।
वात-ज्वर में नाड़ी की चाल :
साधारणतया, वात-ज्वर में नाड़ी की चाल वैसी ही होती है, जैसी कि वात की अधिकता में होती है, जिसके लक्षण ऊपर लिख आये हैं। हाँ, गरमी में जब वायु संचित होती है, भोजन पचने के समय, दोपहर या आधी रात को यदि वातज्वर होता है, तो नाड़ी धीमी-धीमी चलती है। वर्षा-काल में जब वायु का कोप होता है, भोजन पचने के बाद और पिछली रात जब वायु का समय होता है, तो वात-ज्वर में नाड़ी जल्दी-जल्दी चलती है।
पित्त-ज्वर में नाड़ी की चाल :
पित्त-ज्वर में नाड़ी मेढ़क की तरह उछल-उछल कर चलती है और बड़ी तेजी से चलती है। किन्तु शरद ऋतु, भोजन पचने के समय, दोपहर और आधी रात को (ये पित्त के समय हैं) नाड़ी इतनी तेजी से चलती है, कि बयान नहीं कर सकते। ऐसा मालूम होता है, मानो नाड़ी मांस को चीर कर बाहर निकल आएगी।
कफ-ज्वर में नाड़ी की चाल :
कफ़-ज्वर में नाड़ी पहले लिखी हुई हंस की-सी चाल से चलती है। कफ़ का समय होने पर यानी वसन्त, प्रात:काल, सन्ध्या के बाद तथा भोजन करते-करते, कफ़ की नाड़ी उसी तरह हंस की-सी चाल से चलती है और छूने से ऐसी मालूम होती है, जैसी पानी में भीगी हुई रस्सी ठण्डी जान पड़ती है।
वात-कफ-ज्वर में नाड़ी की चाल :
वात-कफ़-ज्वर में नाड़ी मन्दी-मन्दी चलती है और किसी क़दर गरम रहती है। अगर इस ज्वर में कफ़ का अंश कम और वायु का ज्यादा रहता है तो नाड़ी रूखी और बराबर तेज चलती रहती है।
वात-पित्त-ज्वर में नाड़ी की चाल :
वात-पित्त-ज्वर में नाड़ी चंचल, स्थूल और कठिन रहती है और झूम-झूम कर चलती-सी जान पड़ती है।
पित-कफ-ज्वर में नाड़ी की चाल :
पित्त-कफ-ज्वर में नाड़ी नर्म चलती है। कभी अधिक ठण्डी, कभी कम ठण्डी और पतली रहती है।
त्रिदोष ज्वर में नाड़ी की चाल :
त्रिदोष की अधिकता में नाड़ी की जैसी चाल होती है, सन्निपात-ज्वर में भी वैसी ही चाल रहती है। त्रिदोष के बुखार को सन्निपात-ज्वर कहते हैं। इस ज्वर में मनुष्य बहुत जल्दी मरता है। कोई बिरला ही भाग्यशाली बचता है।
त्रिदोष के ज्वर में अगर तीसरे पहर के समय नाड़ी की वात की टेढ़ी चाल, इसके पीछे पित्त की चंचल चाल, इसके पीछे कफ़ की स्थिर चाल दीखे, तो रोग को साध्य समझो। यदि इसके विरुद्ध दीखे, तो रोग असाध्य समझो।
अगर नाड़ी की चाल कभी सूक्ष्म और कभी-बे मालूम, कभी इधर, कभी उधर घूमती जान पड़े-अथवा अँगूठे के नीचे कभी नाड़ी चलती जान पड़े और कभी चलती ही न जान पड़े, गायब हो जाय, तो आप रोग को असाध्य समझ लो। किन्तु याद रखो, बोझा उठाने, डरने और रंज करने या बेहोश होने पर भी नाड़ी की चाल ऐसी ही हो जाती है। मगर उस अवस्था में रोग को असाध्य मत समझना। सबसे अधिक इस बात का ध्यान रखो कि, जब तक नाड़ी अँगूठे की जड़ से गायब न हो जाय, तब तक किसी रोग को असाध्य मत समझो।
अन्तर्गत-ज्वर में नाड़ी की चाल :
शरीर के भीतर ज्वर होने से रोगी का शरीर छूने में शीतल मालूम होता है, किन्तु नाड़ी अत्यन्त गरम मालूम होती है।
मिश्रित अवस्था व रोगों में नाड़ी की चाल :
✦ कामातुरता, क्रोध, भारी चिन्ता और भय में नाड़ी क्षीण चलती है।
✦ मन्दाग्नि वाले और धातु क्षीण वाले की नाडी मन्दी चलती है।
✦ रक्तकोप में नाड़ी कुछ गरम और भारी-सी चलती है।
✦ आम के रोग में नाड़ी भारी होती है ।
✦ जिनकी अग्नि दीप्त होती है, उनकी नाड़ी हल्की और ठीक चाल पर जल्दी-जल्दी चलती है।
✦ सुखी आदमी की नाड़ी स्थिर चाल से और बलवान होती है।
✦ भूखे आदमी की नाड़ी चपल और अघाये की स्थिर होती है।
✦ दो दोषों का कोप होने पर नाड़ी कभी मन्दी और कभी तेजी से चलती है। ऐसे मौके पर नाड़ी-वेग का बारीक़ी से विचार करके कुपित हुए दोनों दोषों का पता लगाना चाहिए।
✦ अँगूठे के ऊपर की नाड़ी यदि समान चाल से चले, तो समझ लो कि नाड़ी में कोई दोष नहीं है।
✦ ज्वर चढ़ने के समय नाड़ी गरम और तेज चलती है।
✦ भय, क्रोध, चिन्ता और घबराहट में भी गरम और तेज चलती है।
✦ कफ और प्रदर-रोग में नाडी स्थिर रहती है।
✦ अजीर्ण रोग में नाड़ी कठिन और भारी हो जाती है।
✦ भूख लगने पर नाड़ी प्रसन्न, हल्की और जल्दी चलने वाली होती है।
✦ प्रमेह, बवासीर, मल-वृद्धि और अजीर्ण में नाड़ी जल्दी-जल्दी चलती है।
✦ गर्भवती होने पर नाड़ी भारी और बादी को लिए हुए होती है।
✦ वात-ज्वर में नाड़ी टेढ़ी और चपलतापूर्वक चलती है और छूने से शीतल मालूम होती है, किन्तु पित्त-ज्वर में सीधी, लम्बी और जल्दी-जल्दी दौड़ती चलती है।
✦ अगर नाड़ी देखने के समय पहले मन्दी मालूम हो, पीछे क्रमश: प्रचण्ड वेग से चलने लगे, तो समझ लो कि जाड़े का बुखार या कम्प-ज्वर होगा। ऐसी नाड़ी से इकतरा, तिजारी या चौथैया ज्वर आता है।
✦ भूत-प्रेत की बाधा या इकतरा में नाड़ी का चलना मालूम नहीं होता।
✦ सोते हुए आदमी की नाड़ी जोर से भड़कती है।
✦ रक्त-पित्त रोग में नाड़ी मन्दी, कठिन और सीधी चलती है।
✦ कफ़ खाँसी में नाड़ी स्थिर और मन्दी चलती है, किन्तु श्वास-रोग में नाड़ी की चाल तेज हो जाती है।
✦ राजयक्ष्मा रोग में नाड़ी की चाल हाथी की चाल के समान हो जाती है।
✦ नशे वाले की नाड़ी कठिनता के साथ सूक्ष्म गति से चलती है और चारों ओर से भारी मालूम होती है।
✦ बवासीर में नाडी स्थिर और मन्दी तथा कभी टेढी और कभी सीधी चलती है।
✦ अतिसार-रोग में नाड़ी ऐसी मन्दी हो जाती है, जैसे ठण्ड के मौसम में जोंक हो जाती है।
✦ मूत्राघात में नाड़ी बारम्बार टूटती हुई फड़कती है।
✦ पाण्डु या पीलिया में नाड़ी चंचल और तीक्ष्ण हो जाती है। कभी जान पड़ती है और कभी नहीं जान पड़ती।
✦ कोढ़ में नाड़ी कठिन चलती है। उसकी चाल भी एक नहीं रहती। कभी चलती है कभी नहीं।
असाध्य रोगों में नाड़ी की चाल :
☛ रोग असाध्य होने पर कभी नाड़ी मन्द, कभी तेज और कभी चलते-चलते खण्डित हो कर यानी टूट कर चलने लगती है। अर्थात् कभी सूक्ष्म, कभी स्थूलइस तरह घड़ी-घड़ी में चाल बदल कर चलने लगती है।
☛ असाध्य नाड़ी चमड़े के ऊपर से दीखने लगती है। नाड़ी की चाल अत्यन्त चंचल हो जाती है, और कुछ दबी-सी रहती है। हाथ में आती है और बिछल जाती है और अत्यन्त चंचल हो जाती है।
☛ जो नाड़ी ठहर-ठहर कर चलती है, यानी चलती है, ठहर जाती है, और फिर चलती है, वह प्राण-नाशक होती है। अति शीतल और अत्यन्त क्षीण नाड़ी भी प्राण-नाश करती है।
☛ जिस रोगी की नाड़ी बहुत ही सूक्ष्म और बहुत ही शीतल होगी, वह किसी तरह न जिएगा।
☛ जिस रोगी की नाड़ी कभी कैसी और कभी कैसी चलती है और त्रिदोषयुक्त होती है, वह शीघ्र ही मर जाता है।
☛ जो नाड़ी रुक-रुक कर चलती है, वह प्राणनाश करती है।
☛ इसी तरह जो एकदम से तेज हो जाती है अथवा एकदम से शीतल हो जाती है, वह निश्चय ही प्राणनाश करती है।
☛ रोगी प्रलाप करता हो, आनतान बकता हो, प्रलाप के शेष में नाड़ी शीघ्र गति से चलती हो, दोपहर को या सन्ध्या समय आग के समान ज्वर हो जाय, तो वह रोगी दिन भर जिएगा; दूसरे दिन अवश्य ही मर जाता है।
☛ जिसकी नाड़ी स्थिर हो और मुख में बिजली की-सी दमक दीखे, वह एक दिन जीता है, दूसरे दिन मर जाता है।
☛ सन्निपात में जिसकी नाड़ी मन्दी-मन्दी, टेढ़ी-मेढ़ी, घबराहट लिए, काँपती हुई चाल से रुक-रुक कर चले, कभी नाड़ी का फड़कना मालूम ही न हो; नष्ट हो जाए या जो अपने असल मुकाम से हट जाये, देखने वाले की उङ्गलियों को न मालूम पड़े और फिर ज़रा देर में ठिकाने पर आ जाए, या मालूम पड़ने लगे-ऐसे
लक्षण वाली नाड़ी सन्निपात-रोगी को मार डालती है।
☛ कलाई के अगले भाग में नाड़ी तेजी से चले, कभी शीतल हो जाए, -चिपचिपा पसीना आए, ऐसी नाड़ी सात दिन में रोगी को मार देती है।
☛ शरीर शीतल हो, मुँह से साँस चले, नाड़ी अत्यन्त गरम हो, और तेजी से चले, तो रोगी पन्द्रह दिन में मरे।
☛ जब नाड़ी रुक-रुक चलने लगे, अथवा एकदम से ऐसी हतवेग हो जाय कि उसका फड़कना मालूम ही न पड़े, तो रोगी को एक दिन में मरा समझो।
☛ अगर नाड़ी कभी मन्दी और कभी जोर से चले, तो उसे दो दोषों वाली समझो। अगर दो दोषों वाली नाड़ी भी अपने स्थान से भ्रष्ट हो जाए, यानी कभी कहीं और कभी कहीं जा चले, तो समझ लो कि रोगी मर जाएगा।
☛ यदि किसी की नाड़ी तेज चल कर फिर धीमी हो जाये तथा शरीर में शोथ न हो, तो उस रोगी की मृत्यु सातवें दिन समझना।
☛ जिसकी नाड़ी अंगूठे की जड़ से या अपने स्थान से आधे जौ भर हट जाए उसकी मृत्यु तीन दिन में होगी।
☛ सन्निपात-ज्वर में जिसका शरीर बहुत गरम हो, पर नाड़ी अत्यन्त शीतल हो, उसकी मृत्यु तीन दिन बाद समझना।
☛ अगर नाड़ी की चाल भौरे की तरह हो, यानी दो-तीन बार बहुत तेज चल कर फिर थोड़ी देर को गायब हो जाय, फिर उसी तरह तेज चलने लगे-यदि बारबार ऐसा जान पड़े तो कह दो कि रोगी एक दिन में मरेगा।
☛ किसी रोगी के हृदय में जलन हो और उसकी नाड़ी अपने स्थान-अँगूठे के मूल से-खिसक कर थोड़ी-थोड़ी देर में चलती हो, तो जब तक हृदय में जलन है, तभी तक जीवन है। जलन की शान्ति होते-होते ही रोगी मर जाएगा।
मरे हुए के चिह्न :
नसों और नाड़ियों का फड़कना बन्द हो जाए, इन्द्रियों का हिलना-डुलना, देखना-भालना, सुनना प्रभृति बन्द हो जाएँ, सारा बदन शीतल हो जाय, सब रोग शान्त हो जाएँ, चिन्ता और मानसिक विकारों के रास्ते सूने हो जाएँ, होश बिल्कुल न हो, चन्द्र और सूर्य में भेद न मालूम पड़े, स्वर अपने गुणों से रहित हो जाएँदोनों नथनों से हवा का आना-जाना बन्द हो जाए-ऐसी हालत होने से समझो कि मृत्यु हो चुकी।
डाक्टरों की नाड़ी-परीक्षा :
डॉक्टर लोगों को भी नाड़ी का विशेष ज्ञान नहीं होता। ये लोग नाड़ी को छूते तो हैं, मगर वह ढोंग मात्र है। एक सैकेण्ड में खाली हाथ से नाड़ी छू देने से कोई बात मालूम नहीं हो सकती। डॉक्टर लोग नाड़ी को ‘पल्स’ (Pulse) कहते हैं। अगर डाक्टर नाड़ी को देखें, तो खाली सर्दी-गर्मी की अधिकता अथवा सर्दी-गर्मी की कमी (शरीर का तापमान) मालूम कर सकते हैं। नाड़ी का अच्छा ज्ञान प्राप्त करने से हृदय की स्वस्थता या अस्वस्थता का पता लगता है। सर्दी-गर्मी तथा अनेकों अन्य बीमारियों का प्रभाव हृदय पर होता है और हृदय की गति नाड़ी से प्रकट होती है। डाक्टर लोग घड़ी सामने रख कर नाड़ी पर हाथ रख कर नाड़ी के फड़कने को गिनते हैं। उनके यहाँ एक हिसाब है। यह हिसाब वैद्यों को भी जानना चाहिये, क्योंकि यह सहज काम है और इसमें भूल नहीं हो सकती; उम्र के कमज़्यादा होने के साथ एक मिनट पर इसका हिसाब है।सामान्यतया नाड़ी देखते समय इन बातों को देखा जाता है –
⚫ दर या गति (Rate) – एक मिनट में होने वाला स्पन्दन या फड़कन।
⚫ लय (Rhythm) – क्रमबद्ध है या क्रमहीन यानी नियमित है या अनियमित।
⚫ स्वरूप (Character) – सामान्य से असामान्य हो जाने पर स्वरूप या स्वभाव बदलता है।
⚫ आयतन (Volume) – अँगुली पर रक्त के परिमाण का आभास या परिमाण मिलना।
⚫ धमनी भित्ति यानी नाड़ी की दीवारों की दशा (Condition of the Vessel Wall) – रक्त भरने पर धमनी नरम है या कड़ी,आसानी से मिलती है या कठिनाई से। उपरोक्त सभी बातों का पता लगाने के लिए कम-से-कम एक मिनट तक नाड़ी गिननी चाहिए। यों कुछ लोग केवल आधा मिनट तक भी नाड़ी गिनते हैं और प्रति मिनट की दर निकाल लेते हैं।
कलाई की नाड़ी या बहि:प्रकोष्ठिक (Radial Pulse) के अलावा कनपटी या शंखास्थि पर (Temporal Pulse) तथा पैरों की एड़ी पर भी (Dorsalis Pedis Pulse) नाड़ी देखी जा सकती है क्योंकि इन जगहों पर धमनी अस्थि के ऊपर त्वचा के पास रहती है। इनके अतिरिक्त अन्य स्थानों पर देखी जाने वाली नाड़ी इस प्रकार है :-
प्रगण्ड नाड़ी (Brhchial Pulse), ग्रीवा धमनी (Carotid Pulse), ऊरु धमनी (Femoral Pulse), जानु पृष्ठ धमनी (Poplitial Pulse), पश्च अन्तर्जन्घा धमनी (Posterior Tibial Pulse)
अवस्था भेद से नाड़ी की गति :
स्वस्थ मनुष्य की नाड़ी १ मिनट में ६० से ७५ बार और किसी-किसी स्वस्थ की नाड़ी १ मिनट में ५० बार चलती है तथा किसी स्वस्थ की नाड़ी १ मिनट में ९० बार चलती है।
✸ पेट के भीतर के बच्चे की नाडी – १ मिनट में १६० बार
✸ ज़मीन पर गिरे बालक की नाड़ी – १ मिनट में १४० से १३० बार
✸ एक साल की उम्र तक – १ मिनट में १३० से ११५ बार
✸ दो साल की उम्र तक – १ मिनट में ११५ से १०० बार
✸ तीन साल की उम्र तक – १ मिनट में १०० से ९९ बार
✸ सात साल की उम्र तक – १ मिनट में ९५ से ९०.बार
✸ सात से चौदह वर्ष तक – १ मिनट में ८५ से ८० बार
✸ चौदह से तीस वर्ष तक – १ मिनट में ८० बार
✸ तीस से पचास वर्ष तक – १ मिनट में ७५ बार
✸ पचास से अस्सी वर्ष तक – १ मिनट में ६० बार
☛ ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती जाती है, नाड़ी का फड़कना कम हो जाता है। हाल के जन्मे बालक की नाड़ी १४० से १३० बार तक फड़कती है।
☛ जवान और अधेड़ की नाड़ी केवल ८० बार और अस्सी वर्ष के बूढ़े की ६० बार फड़कती है। किसी-किसी ने बूढ़े की नाड़ी १ मिनट में ६५ से ५० बार तक भी लिखा है।
☛ किसी मनुष्य की नाड़ी उम्र के हिसाब से जितनी कम फड़के, उतनी ही सर्दी समझो और ज्यादा फड़के, उतनी ही गर्मी समझो। सर्दी होने से नाड़ी कम बार फड़कती है, गर्मी होने से ज्यादा बार फड़कती है। जैसे-एक जवान की नाड़ी हमने देखी। वह एक मिनट में ८० बार फड़कनी चाहिए। यदि वह ७० बार फड़की, तो समझ लो कि १० अंश सर्दी बढ़ी हुई है और ९० बार फड़की तो, १० अंश गर्मी बढ़ी हुई समझो।